जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

गुंजन उपाध्याय पाठक कविता-कहानी लिखती रहती हैं, विभिन्न वेब पोर्टल पर उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रही हैं, जानकीपुल पर उनकी कविताओं के प्रकाशन का यह प्रथम अवसर है – अनुरंजनी

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1. आवारा

उसकी नसों में फड़कती जुगनुओं
कि आत्महत्या का पता
आज अलसुबह
फर्श की चीखती सिसकी से लगा

रात न जाने
किस लम्हें में
इतने दिनों की स्थगित आत्महत्या पर
झिड़क दिया था
पूस की चांदनी ने

बिस्तर पर खींची रौशनी नहीं थी
खरोंची गई ख्वाहिशें थीं
कौन संभालेगा?
कि विभित्सता को बहुत पहले से जानती थी
इसीलिए छांह-छांह चलती मृत्यु की परिकल्पना में उम्र जिया

अब जाकर
वह जोड़ तोड़कर
बना पा रही है लापता या
उनींदी आंखों की झेंप में
खो गए आवारा इच्छाओं की लड़ी को

अंततः खाली रह जाने का अभिशाप
छतों पर उकड़ू होकर
उसे देखता रहता है

2. अप्रैल

टुकड़ों-टुकड़ों में बिखरी पड़ी है कामनाएं
होंठ का बुदबुदाना
आँखें नहीं देख सकती
और आँखों की चाहतों पर लगी
होंठों की चुप्पियां डसती हैं

उमर की गर्तों से
हैरानियों भरी पाजेब सिसकती है

यह बेतुके ताल मेल की धुन है
जिसमें बैरन पछुआ
जोंक की तरह हमारी खालों से चिपकी रहती है
अप्रैल, हॉल्टर,
थायराइड वाली मशीन की लय पर नचाती हुई थकती है

तुम संवेदनाओं की दुहाई देते हुए
मुझे किसी जोकर की याद दिलाते हो।

3. अजोड़

इतनी अनैतिक है
ख्वाहिशें कि दीवारों से कहने में भी
ग्लानि के भार से
सांसे मद्धम हो जाती हैं

डोलते पर्दों पर नशे से उन्मक्त परछाइयों की
अनगिन रूप लुक छुप जाते हैं
यह साथ है कि गंध है या फिर
चाय की प्यालियों का रूप
सिगरेट के गुलाबी कश
या फिर शराब की दो घूंट
बहकी बहकी आवाजों की रूबाइयों का कतरा
जो रूह में पैठ बनाता जाता हो गहरा और गहरा
तुमने पहना हो जिस रंग का कुर्ता
उसकी छांह से
हुआ हो मेरा रंग और सुनहरा
और तभी कोई मेरा लम्हा

तुम्हारे सीने के रेशों में उलझ कर रह गया हो
जिसका कोई दिन नहीं कोई मौसम नहीं
बस कुछ इक्का दुक्का तारीखों की
छटपटाहट पर
बरसता है इक बूंद प्रेम
और बदगुमानियां
भड़क उठती हो छन्न से

अपनी बेबसी और उम्मीद के चित पट पर
चीखता हुआ दिसंबर
एक सर्द रात और
तुम्हारे साथ के बावजूद बैचैन रहा
जबकि मेरा पागलपन और तुम्हारी शोखी
दोनों अकेला अजोड़ है

4. मेरे अनंत

दिन थोड़े बेजार
और रातें थोड़ी शर्मिंदा हैं
शहर में सियार का न बोलना अखरता है
कुत्ते भी इन सर्दियों में
कभी कभी ही भौंकते हैं
अब सब जगह एक मुर्दा घर सी
स्वीकारोक्ति है

ऐसे में
बार बार
मुहब्बत को तानों बानों में कसती
कुछ और कुछ और कुछ
और ज़्यादा की उम्मीद
उसके गले को महंगाई और चालाकियों की उंगलियों से डसती है

उत्तरायण का सूरज बासी है
गुड़ की मिठास में फंफूद उग आए हैं
हम कुछ और बेशर्म, बेहया और बेगैरत होते जा रहे हैं
जलती हुई आँखों का ख़्वाब सुर्ख कोयले सा दहकता है
हम थोड़े ज्यादा सतर्क
थोड़े ज्यादा चौकन्ने हैं
मुहब्बत अपनी गंध समेटे सहमी सी है
विस्तृत आकाश कोहनियों से टकरा कर गुजरता है

मेरे अनंत
यह कैसा अलभ्य साध्य है कि
बेचैनियों के नीले दाग
होंठो पर गहराने लगे हैं जबकि
इस बार बड़ी आग्रह और मुलायमियत लिए
बसंत को मेरे छतों पर खिलना था

5. शरत की अधूरी प्रेमिकाएं

उनींदी सी सांझ ढले
बिस्तर पर फैलाई बांहों को जब समेटा
उसमें एक तुम का सिरा समाया हुआ था

तुम जो
बेखटके खोल देते हो
मन के द्वार
और झिझकते हुए से हाथों को
अधिकार का अधिनियम जताते हुए थाम लेते हो
अजनबी शहर की गलियों में भटकते हुए
चढ़ती रुकती सांसों के बीच
बस एक तुम्हारा साथ मुझे
जोड़ रहा था उस बरसते से सावन से

गंगा से हुगली तक में एक हलचल थी
और डूबता उतराता हुआ एक मैं
अब तुम हो चुका था
प्रेम की उत्कट लालसा
अभिव्यक्तियों की सीमा से परे थी
जुबान चुप थी आँखें बोलती जाती थीं
ऊंगलियों की छुअन से
न जाने कितने हर्फ़ जिंदा होकर मचलने लगे थे
गर्भ की गहराइयों में
जीने की (ताल लय का संवेद) धड़कन बढ़ती जाती थी

हम सांसों की गहराइयों में उतरते हुए
एक दूसरे की गंध से उन्मत
परत दर परत
एक दूसरे को खोलते हुए
आश्चर्यमिश्रित खुशी से चीख उठे थे
बाहर बारिशों का शोर
इस बात की मुनादी कर रहा था कि
शरत की न जाने कितनी अधूरी प्रेमिकाओं की कामनाओं को
जिंदा होकर
दीवारों पर चस्पाँ देखा गया था

6. किस्सा

कौतूहल की लंगड़ी टांग
और पंखे से झूलती उसकी गरदन को देखते हुए
पोस्टमार्टम रिपोर्ट का कहना था कि
अतिशय उम्मीदों की बगावत के बाद
अपनी मानसिक स्थिति से
तारतम्य खो देने के साथ
ज़िद की भुरभुरी देह से आती
दुर्गंध साबित करती है

मुआवजे के तौर पर मिले प्रेम को
बरकरार रखने की कोशिशों ने
ख्वाबों को अपंग बना दिया था
और यह एक प्रकरण भर है

उसके हिस्से का वक्त कब का खत्म हो चुका था
इसका एक अलग ही किस्सा दर्ज़ है

7. रक्तबीज

लपलपाती जिह्वा से पीती हूँ खून
रक्तबीज की सी ख्वाहिशों का

बल बल कर गिरता हुआ खून
देता है गवाही अपनी चपलता को कायम रखते हुए

ख्वाहिशें पुनः पुनः उग आती हैं

हम प्रेत छाया
बार बार आगे बढ़ते हुए
घिसटती है पीछे की ओर

अपने ही होने को दुत्कारती हुईं
और दंग हो जाती है बेहयाई हमें देखते हुए

 

परिचय :

गुंजन उपाध्याय पाठक
पटना (बिहार)
पीएचडी (इलेक्ट्रॉनिक्स) मगध विश्वविद्यालय

सदानीरा, समकालीन जनमत, इंद्रधनुष , दोआबा ,हिन्दवी, पोएम्स इण्डिया, अनहद कोलकाता, कृति बहुमत आदि में भी कविताओं का प्रकाशन , हिन्दवी बेला में कहानी 
का प्रकाशन 

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