जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

ज्ञानी कुमार गया कॉलेज, गया से हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रहे हैं।जानकीपुल पर उनकी कविताओं के प्रकाशन का यह पहला अवसर है। आज उनकी कविताओं से हमारा परिचय करा रही हैं युवा लेखिका ट्विंकल रक्षिताअनुरंजनी

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उम्मीद, उम्मीद,उम्मीद… जब चारों तरफ से हम निराशाजनक ख़बरें सुन-सुन कर थक रहे हैं, और ऐसा लगने लगा है कि क्या कुछ बढ़िया है जो बचेगा? क्या सपने बचेंगे? साथ बचेगा? विश्वास बचेगा? पेड़ बचेंगे? गौरैया बचेगी? पानी बचेगा?बोलने की आज़ादी बचेगी? वैसे शब्द बचेंगे जो सीधे सवालों से प्रयुक्त होते हों? और जब हम यह सब सोचते हुए केवल निराश हो रहे थे या फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर एक हज़ार पैबंद लगी झूठी बौद्धिकता का चादर ओढ़े अपनी विद्वता सिद्ध कर रहे थे तब कोई एकांत में बैठकर अपने आप से जद्दोजहद कर रहा था उन सारी खूबसूरत चीजों को बचाने के लिए जिनके होने से मानवीयता है, विश्वास है, प्रेम है और सबसे बढ़कर वो यह समझ रहा था कि शब्द कितने मूल्यवान हैं, उसने एक-एक शब्द बड़े सलीके से खर्च किए, वो जानता है अपने शब्दों की ऊर्जा को बचाना और ऐसा वही कर सकते हैं जिन्होंने उसे बड़ी मेहनत से कमाया हो! वैसे भी मेहनत से कमाई हुई कोई भी चीज़ को अनावश्यक खर्च करने की इच्छा नहीं होती। लेकिन जिन्होंने केवल पैसे कमाए हों वे भी अपना ईमान गिरवी रखकर और फिर उनसे शब्द खरीदा हो, वे यह बात नहीं समझ सकते।

ये सारी बातें हैं युवा कवि ज्ञानी कुमार और उनकी कविताओं के संदर्भ में…कविता मन के भीतर फूटती एक ध्वनि है जो शब्दों के माध्यम से व्यक्त होती है। कवि के पास है उसकी आदिम इच्छाएं, उन इच्छाओं को पाने की तड़प, ढेर सारी भावनाएं, जो पानी के बुलबुले की तरह भीतर ही भीतर उठती हैं और एक नहीं कई रूपों में आकार लेती हैं। एक युद्ध जो बाहर से अधिक भीतर चलता है। प्रेम जो शब्दों से शुरू होकर शब्दों के टूटने तक खत्म होता है।उसकी इकाई है शब्द।शब्द मानसिक युद्ध में भी साथ देते हैं प्रेम में भी।उम्र की हद बंदियों में कैद होते हैं शब्द।इस शब्द की भंगिमाओं की अभिव्यक्ति को कवि ज्ञानी ने बारीक ढंग से पकड़ा है। उसके पास मासूम संवेदनाओं का रोमांच है जो यथार्थ के शुरुआती थपेड़ों से टकराकर कुछ कठोर सत्य को उद्घाटित करने की बार-बार कोशिश करते है और सफल होते हैं – ट्विंकल रक्षिता

1. शब्द और युद्ध

एक स्वर उठा,
धीमा, शांत,
पर उसे सुना नहीं गया।

फिर उठा एक और स्वर,
पहले से ऊँचा,
थोड़ा तीखा,
पर वह भी बह गया
अनसुनी हवाओं में।

फिर उठे कई स्वर,
एक-दूसरे को काटते,
टकराते, गूंजते,
बढ़ते गए पहाड़ों से टकराती प्रतिध्वनियों की तरह।
अब कोई स्वर नहीं था,
बस शोर था,
जो खुद को ही निगलता जा रहा था।

यही तो होता है हर बहस में—
पहले विचार टकराते हैं,
फिर आवाज़ें,
फिर चीखें,
और फिर…
बस सन्नाटा।

कोई नहीं जानता कि पहला स्वर
किसका था,
क्या कहना चाहता था,
किसे सुनाना चाहता था।

बस इतना याद रहता है कि
अंत में कुछ टूटा था,
कुछ बिखरा था,
कोई हारा था,
कोई मिटा था।

युद्ध ऐसे ही शुरू होते हैं,
मन में भी,
मंच पर भी,
मैदानों में भी।

हर प्रतिकार को चाहिए एक और प्रतिकार,
हर विरोध को चाहिए एक और तीखी बात,
हर चोट को चाहिए एक और वार,

और फिर,
अंत में कुछ नहीं बचता—
सिवाय राख के,
सिवाय खामोशी के।

मन का युद्ध भी तो ऐसा ही है,
शुरुआत में बस एक हल्की सी टीस,
फिर एक बेचैनी,
फिर सवालों की लड़ाई,
फिर असहनीय घुटन,
और फिर…
शरीर का मौन।

क्या कभी कोई सुनेगा उस पहले स्वर को?
जो शांत था,
जो हल्का था,
जो बस समझा जाना चाहता था?

2. शब्द और प्रेम

शब्द ही तो थे,
जब तुमने पहली बार मेरा नाम लिया,
नर्म, हल्के, जैसे ओस की बूँदें पत्तों पर गिरती हैं।
शब्दों ने ही हमें पास लाया,
पहचान दी, अपनापन दिया,
हर एहसास को लफ्ज़ों में पिरोया।

फिर एक दिन, वही शब्द बदल गए।
मीठी बातें तर्कों में उलझने लगीं,
शिकायतें सवालों में बदल गईं,
हँसी के बीच भी तल्ख़ी घुलने लगी।

कैसा यह जादू है शब्दों का?
जो कभी प्रेम का सेतु बनते हैं,
तो कभी खाई गहरी कर जाते हैं।
जो कभी मरहम बनकर दर्द मिटाते हैं,
तो कभी घाव गहरा कर देते हैं।

शब्दों की कोई शक्ल नहीं,
पर वे पहचान बना देते हैं।
कभी मुलायम होकर प्रेम रचते हैं,
तो कभी कठोर होकर नफ़रत बोते हैं।

और फिर,
एक दिन एहसास होता है—
कब प्रेम कटुता में बदला,
कब कटुता क्रोध बनी,
और कब क्रोध ने हमें ऐसा मौन दे दिया,
जो कहने को कुछ बचने ही नहीं देता।

3. शब्द और उम्र

शब्द ही तो हैं, जो बदलते हैं,
नवजात की किलकारी से लेकर,
बूढ़े की कांपती आवाज़ तक।

एक माँ की फुसफुसाहट में प्रेम है,
पिता की डांट में छिपी चिंता,
बच्चे की तोतली बोली में मासूमियत,
और किशोर की बातें—अधूरी, मगर तीखी।

युवा के शब्द होते हैं तेज़ धार,
जोश, जुनून और बग़ावत से भरे,
तो वहीं अधेड़ की भाषा समझौतों में ढली,
कभी शांत, कभी उलझी।

और फिर वृद्धावस्था…
जहाँ शब्द कहानी बन जाते हैं,
यादों के धागे से बुने हुए,
हर बात में एक गुज़रा हुआ कल।

शब्द ही तो हैं जो हमें रचते हैं,
हर पड़ाव में नया रूप लेते हैं,
और जब हम मौन होते हैं,
तब भी कहीं, किसी दिल में गूंजते रहते हैं।

4. शब्द और पहचान

शब्द गढ़ते हैं साँचे,
कभी नरम, कभी सख़्त,
ढालते हैं देह, मन, और सपने,
बाँधते हैं उड़ानों के पंख।

शब्द तय करते हैं सीमाएँ,
कौन बाहर जाएगा, कौन भीतर रहेगा,

किसे हँसना है धीरे,
किसे चलना है रुककर।

शब्दों से ही बनती हैं दीवारें,
जो घर को घर कहती हैं,
पर उन्हीं दीवारों में कैद
हो जाती हैं इच्छाएँ, आवाज़ें, अस्तित्व।

शब्द ही तय करते हैं कर्तव्य,
कौन सुरक्षित रहेगा, कौन संरक्षित,
कौन बनेगा रक्षक,
और कौन रहेगा प्रतीक्षा में।

पर शब्द क्या अंतिम हैं?
क्या इन्हीं में बँधी रहेगी दुनिया?
या कोई नया शब्द गढ़ेगा
एक खुला आकाश,
जहाँ साँचे नहीं होंगे,
सिर्फ एक पहचान होगी—मनुष्य की।

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संपर्क– 7488332787, gyanikumar1002@gmail.com

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