शिरीष खरे के कहानी संग्रह ‘नदी सिंदूरी’ की कहानियाँ जैसे इस बात की याद दिलाती हैं कि हम नदी सभ्यता के लोग हैं। नर्मदा की सहायक नदी ‘सिंदूरी’ के किनारे बसे एक गाँव के जीवन की धड़कन इन कहानियों में सुनाई देती है। निश्चित रूप से शिरीष समकालीन लेखकों में सबसे अलग लिखते हैं। आइये राजपाल एंड संज से प्रकाशित इस संग्रह की विस्तृत समीक्षा पढ़ते हैं। लिखा है युवा लेखक वेद प्रकाश सिंह ने-
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दो दशकों से अधिक वंचित समुदाय के पक्ष में लेखन, देश के चौदह राज्यों की महत्त्वपूर्ण यात्राएँ करने वाले और ग्रामीण भारत पर सर्वश्रेष्ठ रिपोर्टिंग के लिए 2013 में ‘भारतीय प्रेस परिषद सम्मान’ से सम्मानित तथा वर्ष 2019, 2013 और 2020 में ‘संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष’ तथा ‘लाडली मीडिया अवार्ड’ सहित सात राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित शिरीष खरे पत्रकारिता के क्षेत्र में एक जाना पहचाना नाम है। ‘एक देश बारह दुनिया’ जैसी महत्त्वपूर्ण पुस्तक के लेखक शिरीष खरे की दूसरी अत्यंत महत्त्वपूर्ण पुस्तक है ‘नदी सिंदूरी’। जैसा कि इसके नाम से ही विदित है कि इसकी कथावस्तु मध्य-प्रदेश के मदनपुर गाँव में रहने वाले लोगों की जीवनरेखा के रुप में विद्यमान ‘सिंदूरी नदी’ के इर्द-गिर्द घूमती है।
सुप्रसिद्ध कथाकार और ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ जैसी प्रसिद्ध पुस्तक के रचनाकार रणेन्द्र किताब के विषय में लिखते हैं, “नर्मदा की सहायक ‘नदी सिंदूरी’ के किनारे के गाँव ‘मदनपुर’ के पात्रों की मानवीयता और विद्रूपता, जड़ता और गतिशीलता रचनाकार के सहज-स्वभाविक कहन के साथ स्वत: कथाओं में ढलती चली गई है। मदनपुर सन् 1842 और 1857 के गोंड राजा ढेलन शाह के विद्रोह के कारण इतिहास के पन्नों में दर्ज है। लेकिन, ‘नदी सिंदूरी’ की कहानी अब दर्ज हुई है। ‘नदी सिंदूरी’ से गुजरते हुए महादेवी वर्मा की ‘स्मृति की रेखाएँ’ और आचार्य शिवपूजन सहाय की ‘देहाती दुनिया’ की बहुत याद आई।”
यह कहानी-संग्रह कुल तेरह मानीखेज कहानियों को अपने में समेटे हुए मदनपुर गाँव की कथावस्तु को बहुत ही सहज ढंग से प्रस्तुत करने में सफल हुआ है। कहानी-संग्रह की भूमिका में शिरीष खरे लिखते हैं, “भारत के गाँव का दायरा बहुत व्यापक और विविधता लिए हुए है। सारे गाँव एकसमान होते हुए भी एक-दूसरे से एकदम भिन्न हैं। इसलिए शायद जब मैं भी साहित्य में ग्रामीण पृष्ठभूमि से जुड़ा हुआ कुछ पढ़ता तो लगता कि मेरे गाँव का पूरा इलाका छूटा हुआ है। जब कभी मौका मिलेगा तो अपने इलाके को साहित्य में जरूर दर्ज करना चाहूँगा। इसी सोच से ये तेरह कहानियाँ लिखी गई हैं। इन सभी में नदी सिंदूरी सीधे या परोक्ष रूप से शामिल है। यह कहानियाँ वर्ष 1993-94 से शुरू होती हैं, जब गाँव में महज एक-दो मकानों में ही हिन्दी समाचार-पत्र आते थे और वह भी दोपहर बारह बजे तक भोपाल से आने वाली प्राइवेट खटारा बस से। लेकिन, इन कहानियों को लिखा मैंने 2022 में यानी व्हाट्सएप, टि्वटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया के दौर में। इन पच्चीस- तीस वर्षों के अंतराल में पलट कर यह देखने की कोशिश की गई कि तब का गाँव कैसा हुआ करता था। ज्यादातर कहानियों में आखिर तक अनिश्चितता है, बल्कि कई बार तो इसका अंत भी अचानक ही हो जाता है। पहली से लेकर आखिरी कहानी तक सबका ज्यों-का-त्यों जोड़ते हुए अधूरा छोड़ दिया गया है। वही, कहानियों के पात्र अपने आप में इतने सीधे और सधे हैं कि उनके बारे में स्पष्ट करने के लिए भाषाई आडंबर और दर्शन की आवश्यकता नहीं पड़ती है। हर एक कहानी किसी के व्यक्तित्व जीवन और ग्रामीण समुदाय के साथ उसके संबंधों के बारे में इस प्रकार से कहती हुई बढ़ती है कि चरित्र प्रधान हो जाता है और यह चिंता पीछे छूट जाती है कि कहानी का प्रारूप क्या बन रहा है।”
इन तेरह कहानियों को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि जैसे हम फिर से अपने पुराने ग्रामीण परिवेश में विचरण करने के लिए विवश हो रहे हैं। ग्रामीण परिवेश में बाग-बगीचे, खेत-खलिहान, बचपन के तमाम सारे बड़े मैदानों में होने वाले खेल-तमाशे, गाँव में लगने वाले विभिन्न प्रकार के मेले इत्यादि तमाम सारी चीजों को हम एक व्यवस्थित रूप से इस कहानी-संग्रह में ढूंढ़ सकते हैं।
पहली कहानी ‘हम अवधेश का शुक्रिया अदा करते हैं’ में मुख्य पात्र अवधेश, जो कि रामलीला कंपनी में ढोल बजाने का काम करता है, के माध्यम से लेखक ने बहुत ही बेहतरीन ढंग से उन तमाम पुरानी बातों को फिर से जीवंत कर दिया है कि किस प्रकार से ग्रामीण क्षेत्रों में पहले के समय में रामलीला हुआ करती थी और तमाम लोग अपने-अपने घरों से बोरियाँ तथा बैठने के अन्य संसाधनों को लेकर बड़ी ही उत्सुकता से रामलीला देखने के लिए एकत्रित हुआ करते थे। आज यह संस्कृति काफी हद तक बहुत ही सीमित स्तर पर सिमट कर एकाकार हो गई है।
दूसरी कहानी ‘कल्लो तुम बिक गई’ में लेखक ने मनुष्यों का जानवरों के प्रति असीम लगाव और प्रेम दिखाया है। जिसमें लेखक बताता है कि किस प्रकार कल्लो नाम की गाय जो लेखक के घर में उनके पिता ने बहुत समय से पाल कर रखी थी एक समय ऐसी परिस्थिति आने पर उसको बेचने पर मजबूर होना पड़ता है। इस बात को सुनकर लेखक का मन बहुत भारी हो जाता है और यहाँ तक कि उसे कुछ भी खाने-पीने की चीजें भी अच्छी नहीं लगती हैं। वह बार-बार इस चीज को लेकर प्रयास करता है कि किसी भी तरह करके कल्लो को घर में ही रखा जाए। उसे किसी को बेचा न जाए। इस कहानी में लेखक ने मनुष्य और जानवरों के बीच एक अभिन्न संबंध को दर्शाने का बखूबी प्रयास किया है। लेकिन, आज इस विद्रूपता भरे समय में मनुष्य और जानवरों के बीच यह संबंध काफी हद तक खत्म होता जा रहा है। मनुष्य अपनी भौतिक सुख सुविधाओं को पूरा करने के लिए जानवरों को भी मारकर समाप्त करता जा रहा है। उसका उद्देश्य यही है कि सर्वत्र उसका ही वर्चस्व स्थापित हो और कोई अन्य प्राणी उस वर्चस्व में सेंध न लगा सके।
एक अन्य कहानी ‘धन्ना तो बा की राधा संगे गोल हो गओ’ में लेखक ने यह दिखाया है कि गाँव में बिलथारी वाले साहूजी के यहाँ किस प्रकार चोरी का प्रपंच फैलाया जाता है, मगर असली चोरी ननिया जिज्जी नामक बूढ़ी औरत के घर में हो जाती है और इसका सारा दोषारोपण धन्ना नाम के एक चोर पर आता है, जो इस प्रकार के क्रियाकलापों में शामिल होते हुए भी बाबा की पदवी तक पहुँच जाता है। धीरे-धीरे गाँव के तमाम लोग उसकी बाबागिरी पर मुग्ध हो जाते हैं और उसे ही सर्वेसर्वा मानने लगते हैं। यहाँ तक कि इलाके में विधायक से लेकर पूर्व और भावी विधायक, कई महाजन उस धन्ना महाराज बने व्यक्ति के भक्त बन जाते हैं। लेकिन, धन्ना अपनों के बीच आदिवासी जीवनशैली के रूप में रहता है। उसे किसी प्रकार के प्रवचन देना, वेद, पुराण इत्यादि की कोई भी जानकारी नहीं थी, उसके बावजूद उसका क्षेत्र में ऐसा प्रभाव बढ़ जाता है कि लोग उसकी भक्ति करने लगते है। इस कहानी के माध्यम से लेखक ने बताया है कि कोई भी कितना भी बड़ा हो लेकिन आज भी कहीं-न-कहीं वह इस प्रकार के आडंबरों में विश्वास करने के लिए मजबूर ही होता है।
कहानी ‘सात खून माफ है’ एक बहुत ही अहम कहानी कही जा सकती है। इसमें ‘सत्या पंडितजी’ नामक एक पात्र जो जाति से तो पंडित है, मगर उसकी विचारधारा ब्राह्मणवाद के प्रतिकूल है। वे दलितों और अन्य निचली जातियों के साथ भी सहृदयता और समानता के भाव से ही पेश आते हैं। इस कारण को जानकर गाँव के तमाम अन्य लोग पंडितजी के इस स्वभाव से घबराते हैं। “हमें सात खून माफ हैं” उनका तकियाकलाम है जिसकी वजह से लोगों को कई बार लगता है कि कहीं किसी दिन पंडितजी उनके सगे-संबंधी की हत्या न करवा दें। कहानी में एक घटना इस प्रकार सामने आती है जिसमें गाँव में एक भंडारे का आयोजन होता है और इसमें प्रसाद बाँटने का जिम्मा सत्या पंडितजी को सौंप दिया जाता है। लेकिन, यहाँ पर यह दिखाई पड़ता है कि पंडितजी ने तो पूरे का पूरा प्रसाद चंद बच्चों में ही बाँट दिया। जब इस बारे में भजन मंडली की मुखिया नर्स मैडम ने पंडितजी से पूछा कि उन्होंने प्रसाद को प्रसाद की तरह क्यों नहीं बाँटा, बल्कि प्रसाद को बच्चों में भोजन की तरह क्यों बाँट दिया तो पंडितजी ने खीं-खीं-खीं करते हुए जवाब दिया, “मोड़ा-मोड़ियों को मना मत करो, खान दे, जेई तो भगवान हैं, खूब खान दे, उन्ने खाओ, जा समझो अपनो पेट भर गओ! अपनी आत्मा तृप्त!”
इस कहानी में लेखक शिरीष खरे ने यह दिखलाया है की ऊंच-नीच, जात-पात और विभिन्न प्रकार के समाज में फैलाए गए आडंबर केवल एक विशेष वर्ग को लाभ पहुंचाने के ढकोसला मात्र हैं। सभी समुदायों को एक साथ लेकर चलना ही मनुष्यता की निशानी है। जिसका जीता जागता उदाहरण इस कहानी में ‘सत्या पंडितजी’ दिखाई पड़ते हैं।
‘दूध फैक्ट्री से लाओ न” में यह बात उजागर होती है कि किस प्रकार से ग्रामीण परिवेश से शहरी परिवेश में गए हुए एक बच्चे में व्यापक परिवर्तन दिखाई पड़ता है। राहुल नाम का यह लड़का जो गाँव में अपने बोलने, चलने-फिरने, हिन्दी में कहानियों को सुनाने के लिए एक मुख्य केंद्र बिंदु था, वह गाँव के बच्चों से खूब बतियाता तथा मिलता-जुलता था, लेकिन अचानक से शहर में चले जाने के कारण उसके स्वभाव में काफी बदलाव आ जाता है। लेखक इस बात की चर्चा करते हुए उदाहरण के रूप में जब राहुल से पूछता है कि तुम्हें मदनपुर गाँव की नदी सिंदूरी तो अच्छी लगती है मगर खराब क्या लगता है तो राहुल कहता है, “खराब गाय, बैल, बकरियों को घर के पास ही बंधे देखकर लगता है।”
आगे वह कहता है “कहीं भी बाँधो इन्हें पर घर के पास बाँधने से मक्खी, मच्छर भिनभिनाते रहते हैं।” इस प्रकार इस कहानी में लेखक ने यह बताने का प्रयास किया है कि किस प्रकार वर्तमान शहरी व्यवस्था, ग्रामीण संस्कृति और समुदाय की भावना को लगातार क्षीण करती जा रही है। शहरी क्षेत्रों में तमाम यातायात के साधन लगातार प्रदूषण को बढ़ावा दे रहे हैं जिसके कारण इसका असर ग्रामीण क्षेत्रों पर भी पड़ रहा है और परिणामस्वरूप ग्रामीणजन भी दूभर जीवन जीने को अभिशप्त हैं।
‘खूंटा की लुगाई भी बह गई’ ‘नदी सिंदूरी’ किताब से एक कहानी है जिसमें लेखक ने हर साल बरसात के दौरान नदी में आने वाले उफान को केंद्रीय विषय-वस्तु बनाते हुए मदनपुर गाँव के एक प्रशिक्षणरत गोताखोर ‘खूंटा’ की कहानी कही है।
लेखक बताता है, “सिंदूरी नदी में जब पूर (उफान) आता तो पूरा गाँव नजारा देखने के लिए सिंदूरी नदी के घाट पर जमा हो जाता। वजह यह कि पहले और दूसरे पूर में घाट के आसपास के वृक्ष, मकान के काम आने वाली लकड़ी, जलाऊ लकड़ी या कभी-कभार तो खेत में रखे हल और बर्तन तक भी बहते हुए आते। ऐसे में गोताखोर खासे सक्रिय हो जाते और इन चीजों को पकड़ने के लिए आपस में उनकी प्रतिस्पर्धा हो जाया करती।”
इन्हीं में खूंटा एक भोला-भाला इंसान था। ज्यादा नहीं समझता था। मजाक को भी बहुत ही गंभीरता से ले लेता था। किसी ने खूंटा का मजा लेने के चक्कर में बोल दिया “खूंटा भैया तुमाय तो आज भाग खुल गए, बा देख नदिया तेरे लाने चाँदी को हल बहाए ला रही है, तुमाय हाथ लग गऔ तो दिन-मजूरी के कामों से मुक्ति मिल जैहै।” खूंटा ने न आव देखा, ना ताव और उस चाँदी के हल के चक्कर में सिंदूरी के तेज बहाव में कूद पड़ा, जबकि सच्चाई यह थी कि उस पल चाँदी का हल पूर में था ही नहीं। और देखते ही देखते खूंटा बहुत दूर नदी में बह गया।
इस बात का पता लगते ही खूंटा की लुगाई ‘पीपरपानी वाली’ का बहुत बुरा हाल हो गया। उसकी हालत यह हो गई कि न कुछ खाती, न पीती, बस अकेले में ही बड़बड़ाती रहती। घंटो-घंटो भर सिंदूरी नदी के तट पर बैठी रहती और अपने अकेलेपन को कोसती रहती। फिर एक दिन होता यह है कि ‘पीपरपानी वाली’ भी नदी की ही तेज धारा में बहकर कहीं बहुत दूर बह गई और उसके बाद फिर गाँव में कभी वापस न लौटी। प्रेम जैसे उदात्त विषय को लेखक ने इस कहानी में बहुत ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है।
‘नदी सिंदूरी’ के उपसंहार पर आगे बढ़ते हैं तो हम पाते हैं कि लेखक ने जीवन के बहुत ही सुंदर पक्ष प्रेम को लेकर ‘वे दो पत्थर’ शीर्षक से संस्मरण प्रस्तुत किया है। इसमें लेखक ने ग्यारहवीं और बारहवीं की पढ़ाई के दौरान अपने हृदय में उमड़े हुए प्रेमभाव को बहुत ही सहजता के साथ प्रस्तुत किया है। एक ओर बारहवीं में अच्छे नंबर पाने का दबाव और दूसरी ओर प्रेम-प्रसंग का एक खुशहाल पक्ष दोनों के बीच लेखक कैसे सामंजस्य बैठाए, को भी सहज ढंग से प्रस्तुत किया है। अंत में ‘आभार’ में ‘नदी सिंदूरी’ की कहानी लिखने में जिन लोगों ने लेखक की मदद की, उन्हें भी लेखक ने भावपूर्ण तरीके से याद किया है।
इस कहानी-संग्रह को पढ़ने के पश्चात हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि किस प्रकार नब्बे के दशक का एक गाँव अपनी विरासत, सभ्यता, संस्कृति, रहन-सहन और परिवेश में शहरी सभ्यता से बहुत दूर-दूर तक कोई ताल्लुकात नहीं रखता। गाँव की जीवंत संस्कृति, ग्रामीण क्षेत्रों के विभिन्न सांस्कृतिक आयोजन और गाँव का सुंदर व प्रदूषण-रहित वातावरण शहरी सभ्यता के लोगों के लिए एक मसाल के तौर पर लगातार प्रज्ज्वलित है। जहाँ शहरी सभ्यता में प्रदूषण, संकुचित होने की भावना और आपसी सामंजस्य का न होना यह तमाम खामियाँ उपस्थित हैं वहीं दूसरी ओर ग्रामीण इलाकों में सहयोग की भावना, संगठन में एकजुटता और किसी भी विषम परिस्थिति में सभी लोगों के साथ उदार जनभावना के साथ खड़े रहना एक तासीर की तरह सामने है। ये चीजें काफी हद तक ग्रामीण संस्कृति को शहरी संस्कृति से भिन्न बनाती हैं।
इस कहानी-संग्रह को पढ़ते हुए कहीं भी आपको किसी भी प्रकार का उबाऊपन और बोझिलता जैसा कुछ भी महसूस नहीं होगा। इस संग्रह की सभी तेरह कहानियाँ जो मदनपुर गाँव के समुदाय पर आधारित अलग-अलग विषयों को लेकर लिखी गई हैं, पाठकों के बीच एक अलग ही रोमांच और जिजीविषा को पैदा करने में सफल होती दिखाई पड़ती हैं। ग्रामीण सभ्यता और संस्कृति के पात्रों को शिरीष खरे ने अपने इस कहानी-संग्रह में प्रेमचंद और रेणु के पश्चात पुनः एक खूबसूरत ढंग से प्रस्तुत करने में सफलता प्राप्त की है। इस कहानी-संग्रह की भाषा-शैली पर अगर बात करें तो हम पाते हैं कि इसमें मुख्यतः मध्य-प्रदेश के मदनपुर गाँव की गंवई भाषा का बहुतायत में प्रयोग मिलता है। कुल मिलाकर, इस संग्रह की सभी कहानियाँ अपने आप में बेजोड़ हैं।
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संपर्क :
वेद प्रकाश सिंह
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित
हिन्दी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग
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