इधर हर वर्ष अमृता प्रीतम की जन्म-तिथि पर या उनकी मृत्यु-तिथि पर उनके प्रेम-कहानी का ज़िक्र चलने लगता है। लेकिन क्या यह ज़रूरी है कि उनके प्रेम-जीवन पर बात करने के लिए अगस्त या अक्टूबर का इंतज़ार किया जाए! यह फ़रवरी का महीना है, जिसे लोग प्रेम का महीना भी मानते हैं, और इसी महीने में अनामिका झा ने उमा त्रिलोक की किताब ‘अमृता इमरोज़’ के बहाने प्रेम पर लिखा है, सबको प्रेम के महीने की मुबारकबाद के साथ, इस कामना के साथ कि सबके जीवन में प्रेम बना रहे, यह लिखा प्रस्तुत है- अनुरंजनी
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प्रेम में एक-दूसरे के ‘स्व’ को बचाने की सीख – ‘अमृता इमरोज़’
2006 में प्रकाशित उमा त्रिलोक की किताब ‘अमृता इमरोज़’ लेखिका अमृता और चित्रकार इमरोज़ की प्रेम कहानी का छोटा सा दस्तावेज़ है जिसमें उन्होंने उनके रिश्ते की कुछ झलकियाँ पेश की हैं। यह किताब उन्होंने अमृता प्रीतम की मृत्यु के उपरांत दोनों के रिश्ते को समर्पित करते हुए लिखा था। अमृता और इमरोज़ की प्रेम कहानी को पढ़ कर लगता है कि उनके पास एक दूसरे के लिए इतना प्यार था कि उनसे उधार लेकर दुनिया के हर इंसान में भी अगर थोड़ा– थोड़ा प्यार बाँट दिया जाए तो भी कोई इंसान प्यार से अछूता नहीं रह जाएगा और इसके बाद भी अमृता–इमरोज़ के पास प्रेम का अथाह सागर बचा रहेगा। और फिर प्रेम भी कैसा– जिसमें न कोई शर्त है न किसी प्रकार का अहं भाव, न किसी तरह की बनावट और न ही हिसाब-किताब। उनके प्रेम में दिल है, दिमाग़ है, साहस है, ताक़त है, निःस्वार्थता है, निश्छलता है। उनका प्रेम ऐसा है जो बंधनमुक्त करता है, जिसमें आज़ादी है, उनके अपने अस्तित्व की पहचान है। उनका प्रेम एक–दूसरे में लीन होने की कोशिश नहीं बल्कि एक दूसरे के अस्तित्व को बनाए रखने की प्रक्रिया है। अमृता–इमरोज़ की सी दूसरी प्रेम–कहानी मिलनी मुश्किल है। प्रेम का रूप ऐसा होना चाहिए, ऐसा पढ़ने–सुनने को मिलता है (वह भी कुछ ही जगहों पर या लोगों से), पर प्रेम के इन कठिन मूल्यों का इतनी सहजता से जीवन में पालन करना ऐसा पहली बार किसी की प्रेम कहानी में मिला।
इमरोज़ ने लेखिका को बताया था कि न उन्होंने और न ही अमृता ने कभी खुले शब्दों में प्यार का इज़हार किया। पर उनके रिश्ते में हमें न ढूँढने पर भी, बिना किसी मेहनत के, प्यार मिल ही जाता है। उनकी एक दूसरे पर निर्भरता, एक दूसरे के लिए हमेशा उपस्थित होना, ज़िंदगी का हर काम एक साथ करना– एक दूसरे के प्रति उनके प्यार को ही दर्शाता है। इमरोज़ की निगाह में प्यार का अर्थ है बिना किसी शर्त के हमेशा अपने प्रिय को प्यार करना, और इमरोज़ अमृता से ऐसा ही प्यार करते थे। यह बात तो जगज़ाहिर है कि अमृता साहिर से बेहद प्यार करती थीं। अमृता कहा करती थीं कि इमरोज़ उनसे वैसा ही प्यार करते हैं जैसा उन्होंने साहिर से किया। इमरोज़ भी इस बात से वाकिफ़ थे कि अमृता साहिर को कितना चाहती थीं। बतौर इमरोज़ “हमारी जान-पहचान के शुरुआती वर्षों में मैं उसे स्कूटर पर बैठा कर ले जाया करता था। एक दिन स्कूटर की पिछली सीट पर बैठी हुई उसने साहिर का नाम अपनी उंगली से मेरी पीठ पर लिख दिया, मुझे तभी पता चल गया कि वह साहिर को कितना प्यार करती है!” इमरोज़ के मन में अमृता को लेकर न किसी से स्पर्धा थी न ही ईर्ष्या। इमरोज़ यह जानते थे कि वे अमृता को कितना चाहते हैं और उन्हें अपने इस प्यार पर बेहद भरोसा था। जब लेखिका उनसे यह सवाल करती हैं कि “अमृता इतने साल तक साहिर की याद में डूबी रहीं, आपको कभी बुरा नहीं लगा?” तो इसपर उनका एकदम सपाट जवाब था– “नहीं। मैंने इस सच को मान लिया था। किसी अहं भाव के बिना, किसी तर्क-वितर्क के बिना, किसी बनावट के बिना, किसी हिसाब-किताब के बिना। जब कोई प्यार करता है, तो कोई मुश्किल नहीं आती। जब कोई सहज भाव से जीता है, तो क्या मुश्किल?” उन्होंने कितनी सहजता से ऐसे जीने को सहज भाव से जीना कह दिया। उनके लिए जो यह सहजता थी क्या सचमुच यह इतना सहज है? उनके लिए जो करना और कहना इतना सहज था बाकियों के लिए यह करना तो दूर, कहना या सोचना भी मुश्किल होगा। ऐसा कुछ करने के लिए बहुत सुलझे दिमाग़ की ज़रूरत है।
लोग “प्यार में एक हो जाना” को अक्सर रूमानी समझते हैं। पर क्या ऐसा सच में है? क्या दो लोगों का एक हो जाना ही प्यार में होना है? नहीं, दो लोगों का एक हो जाना ही प्यार में होने का पर्याय नहीं। यदि हम प्यार में एक होने का दावा कर रहे हैं इसका अर्थ यह हुआ कि हमारी वैयक्तिकता एक हो चुकी है। प्यार दो अलग-अलग व्यक्ति यानी दो अलग-अलग वैयक्तिकताओं के बीच बना एक रिश्ता है जो तभी सच्चा होगा जब इस रिश्ते में अंत तक दो अलग-अलग वैयक्तिकताएं ज़िंदा रहें। क्योंकि दो अलग-अलग व्यक्तियों की वैयक्तिकता कभी एक नहीं हो सकती। बतौर अमृता “एक प्रेमी के दूसरे में लीन होने की बात मैं नहीं मानती। कोई किसी में लीन नहीं होता। दोनों ही अलग-अलग इंसान हैं। एक दूसरे से अलग रह कर ही वे एक दूसरे को पहचान सकेंगे। अगर लीन ही हो गए, तो फिर प्यार किसे करोगे?” मेरा भी यही मानना है कि प्रेम में कभी भी एक दूसरे के अस्तित्व/ वैयक्तिकता का एक दूसरे में विलीनीकरण नहीं होना चाहिए। कहने–सुनने में यह बातें जितनी सहज लगती हैं उतनी हैं नहीं। प्रेम के इन मूल्यों में मानने वाले लोग भी ऐसे कितने होंगे जो निजी जीवन में इन मूल्यों का पालन करते होंगे? पर अपने रिश्ते में प्रेम के इन मूल्यों को इन्होंने जीवित रखा। लेखिका कहती हैं “दोनों अपने-अपने साथ ही वक़्त गुज़ारना पसंद करते थे। अलग-अलग, अकेले, अपने साथ। अमृता अपने लेखन में, इमरोज़ अपनी पेंटिंग में। दोनों के कमरों के दरवाज़े खुले रहते थे, ताकि एक-दूसरे की ख़ुशबू आती रहे। लेकिन एक-दूसरे के काम में किसी की कोई दख़लंदाज़ी नहीं। अगर अमृता लिख रही होतीं, तो इमरोज़ उनकी एकांतता का ख़याल रखते और घर के कामों को भी संभाल लेते थे। और कभी-कभी चुपके से उनकी मेज़ पर चाय का प्याला भी रख आते थे।” इससे यह पता चलता है कि दोनों अपने–अपने तथा एक दूसरे के काम का, समय का, एकांत का कितना सम्मान करते थे। इमरोज़ की यह सुलझी हुई मानसिकता के कारण ही अमृता ख़ुद को उनके साथ बंधनमुक्त और आज़ाद महसूस करती थीं। इसलिए अमृता इमरोज़ को अपना ‘15 अगस्त’ कहती थीं।
अमृता और इमरोज़ 40 साल तक (अमृता की मृत्यु हो जाने तक) एक दूसरे के साथ रहे। वे बिना शादी के, एक छत के नीचे, अलग–अलग कमरों में रहते थे। किसी स्त्री –पुरुष के लिए सामाजिक स्वीकृति के बिना एक ही छत के नीचे रहना आज भी बहुत मुश्किल है, ख़ास कर स्त्रियों के लिए। ऐसे समाज में जहाँ सामान्यतः न स्त्री के चुनाव को महत्त्व दिया जाता है, न ही स्त्री को चुनाव करने का अधिकार दिया जाता है, वहाँ एक स्त्री के लिए समाज द्वारा स्थापित नियमों के विरुद्ध जा कर अपनी मर्ज़ी की राह चुनना– आज भी बहुत मुश्किल है। अमृता ने अपने लिए कई साल पहले ऐसा जीवन चुना था और अपने सामर्थ्य पर जिया भी। एक लेखक के रूप में उनका जीवन सार्वजनिक होने के कारण उन्हें समाज के आक्रोश का सामना करना पड़ा था। इसके बावजूद उन्होंने दूसरों के नज़रिए से जीवन जीने की कोशिश नहीं की। अक्सर जब भी अमृता और इमरोज़ से कोई उनके रिश्ते के बारे में पूछता तो वे अपने रिश्ते को दोस्ती का नाम देते थे। पर मर्द और औरत के बीच दोस्ती भी हो सकती है यह समाज मानने से ही इनकार करता आया है। फ़िर भी उन्हें कभी शादी करने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। अमृता और इमरोज़ दोनों का ही मानना था कि उन्हें सामाजिक स्वीकृति की ज़रूरत नहीं। इमरोज़ का कहना था कि सामाजिक स्वीकृति की ज़रूरत उन्हें होती है जिन्हें ख़ुद पर भरोसा नहीं होता। हम तब ही समाज से फैसले की उम्मीद करते हैं जब हमें ख़ुद पर यकीन न हो। और हम अपने निर्णय की ज़िम्मेदारी नहीं उठाना चाहते बल्कि ख़ुद को इस ज़िम्मेदारी से आज़ाद रखना चाहते हैं। इमरोज़ ने अपनी इस बात से न केवल प्यार में भरोसे के महत्त्व को समझाया है बल्कि इसके साथ स्वावलंबी जीवन जीने को भी महत्त्वपूर्ण बताया है।
यह किताब हमें अमृता और इमरोज़ की साझी ज़िंदगी में झाँकने का मौका देती है। साथ ही यह भी मौका देती है कि हम उनकी निजी ज़िंदगी से भी सीख ले सकें। प्रेम के अलावा और भी बहुत कुछ है जो हम उनके निजी जीवन से सीख सकते हैं। जैसे अपने काम के प्रति निष्ठा। अमृता लेखक थीं और इमरोज़ चित्रकार, दोनों ही अपने क्षेत्र में बेहतरीन थे। उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन को अपने काम के बीच कभी नहीं आने दिया तथा वे अपने काम को पूरा समय भी देते थे। इसके अलावा घर के कामों को लेकर जो सामान्यतः एक ‘जेंडर्ड’ बँटवारा हमें देखने को मिलता है वैसा इनके साथ नहीं था। उनके लिए घर का काम महज़ स्त्री का काम नहीं था। दोनों घर का सारा काम साथ ही संभालते थे। इनके जीवन से हमें जीवन के प्रति सुलझी हुई मानसिकता रखने की प्रेरणा मिलती है। जैसे, ख़ुद के जीवन के फ़ैसले ख़ुद लेना ज़रूरी है तथा उनकी ज़िम्मेदारी भी और इस प्रक्रिया में यदि हमसे ग़लती हो जाए तो बजाए उस ग़लती को सही ठहराने की कोशिश करने के, उस ग़लती को सुधारने की कोशिश की जानी चाहिए। किसी भी स्त्री के लिए अमृता का जीवन एक मिसाल है। अमृता एक बेबाक और निडर महिला थीं जिन्होंने अपना जीवन अपने शर्तों पर, अपने सामर्थ्य पर जिया और कभी अपनी गरिमा से समझौता नहीं किया। स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता के लिए शिक्षा को एक मात्र ज़रिया समझती थीं अमृता। उनका मानना था कि औरतों को अपने पैरों पर खड़े होना और अपनी पहचान बनाने के लिए शिक्षित होना बहुत ज़रूरी है। तथा अपनी बुनियादी हक़ की लड़ाई औरतों को ख़ुद ही लड़नी होगी। स्त्री के माँ हो जाने पर समाज हमेशा यह कोशिश करता है कि ‘माँ’ में वह व्यक्ति/ स्त्री बची न रह जाए। उसके जीवन के सारे फ़ैसले एक माँ के रूप में लिए जाएँ न कि एक व्यक्ति के रूप में। अमृता ने अपने पति से अलग होने का जो निर्णय लिया उसके लिए बहुत साहस की ज़रूरत है। जीवन के प्रति सुलझी हुई मानसिकता रखना, साहस के साथ अपने शर्तों पर जीवन को जीना, अपने शर्तों पर जीवन जीने के लिए समर्थ बनाना– इनके जीवन से हम यह सब सीख सकते हैं। अमृता से जहाँ ज़िन्दगी को भरपूर जीने का तरीका सीख सकते हैं वहीं इमरोज़ से ज़िंदगी को ‘आज’ में जीने का सलीका सीख सकते हैं। जीवन को खुल कर जीने के लिए मृत्यु के यथार्थ को स्वीकार करना भी ज़रूरी है। जीवन के प्रति सुलझी हुई मानसिकता का विकास मृत्यु को स्वीकार किए बिना नहीं किया जा सकता। अमृता की मृत्यु की ख़बर सुन कर जब लेखिका इमरोज़ से श्मशान में मिलीं तो उन्होंने, इस यक़ीन में कि अमृता के जाने के बाद इमरोज़ उदास हो जाएँगे, इमरोज़ से कहा, “उदास नहीं होना”। इसपर इमरोज़ ने जवाब दिया “उदास क्यों होऊं? जो मैं नहीं कर पाया, उसे कुदरत ने कर दिया। मैं उसे दर्द से निजात नहीं दिला सका, उसने दिला दिया। एक आज़ाद रूह जिस्म के पिंजरे से निकल कर फिर से आज़ाद हो गई”। इमरोज़ कहते थे कि अमृता ने सिर्फ जिस्म छोड़ा है साथ नहीं। ऐसा प्यार भी कोई कर सकता है जो प्यार में न केवल दिल से काम ले बल्कि अपनी समझ से भी। इमरोज़ जैसा प्यार कर पाना आसान नहीं। अमृता ठीक ही कहती थीं “मुश्किल है इमरोज़ होना, रोज़–रोज़ क्या एक रोज़ होना”।
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अभी तक दूसरा इमरोज़ नही हुआ न अमृता …
इस संसार को बहुत से इमरीज़ और अमृता चाहिये ।
बेहतरीन लिखा …💐💐💐