विनायक दामोदर सावरकर की किताब ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ का भी अपना इतिहास है। यह पहली किताब है जिसमें 1857 की क्रांति को उन्होंने स्वाधीनता का पहला संग्राम कहा। नहीं तो उसको सिपाही विद्रोह ही कहा जाता था। यह पहली ऐसी किताब थी जिसको भारत में छपने से पहले प्रतिबंधित कर दिया गया। सावरकर ने 1907 में जब यह देखा कि 1857 की क्रांति की अर्धशती को ठीक से नहीं मनाया जा रहा है तो उन्होंने इस किताब के लिए शोध और इसको लिखना शुरू किया। यह मूल रूप से मराठी में लिखी गई लेकिन पहली बार अंग्रेज़ी अनुवाद में छपी। इस किताब से लाला हरदयाल और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों का भावनात्मक रिश्ता रहा। सब इसको चोरी छिपे छापते रहे, पढ़ते रहे लेकिन पहली बार इसका वैध रूप से प्रकाशन हुआ 1947 में। आइये आज वीर सावरकर जयंती पर पढ़ते हैं ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ पुस्तक पर प्रसिद्ध इतिहासकार देवेंद्र स्वरूप का यह लेख, जो प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक के संस्करण की भूमिका के रूप में छपी है। वहाँ से साभार आपके लिये- मॉडरेटर
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वीर सावरकर रचित ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ मात्र इतिहास की पुस्तक नहीं, यह तो स्वयं में इतिहास है। संभवतः, यह विश्व की पहली पुस्तक है, जिसे प्रकाशन के पूर्व ही प्रतिबंधित होने का गौरव प्राप्त हुआ। इस पुस्तक के प्रकाशन की संभावना मात्र से सर्वशक्तिमान ब्रिटिश साम्राज्य-बीसवीं शती के प्रथम दशक में जहां कभी सूर्यास्त नहीं होता था- इतना थर्रा गया था कि पुस्तक का नाम, उसके प्रकाशक व मुद्रक के नाम-पते का ज्ञान न होने पर भी उसने इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया। इस पुस्तक को ही यह गौरव प्राप्त है कि सन् 1901 में इसके प्रथम गुप्त संस्करण के प्रकाशन से 1947 में उसके प्रथम प्रकाशन तक के अड़तीस वर्ष लम्बे कालखंड में उसके कितने ही गुप्त संस्करण अनेक भाषाओं में छपकर देश-विदेश में वितरीत होते रहे। उस पुस्तक को छिपाकर भारत में लाना एक साहसपूर्ण क्रांति-कर्म बन गया। वह देशभक्त क्रांतिकारियों की ‘गीता’ बन गई। उसकी अलभ्य प्रति को कहीं से खोज पाना सौभाग्य माना जाता था। उसकी एक-एक प्रति गुप्त रूप से एक हाथ से दूसरे हाथ होती हुई अनेक अंतःकरणों में क्रांति की ज्वाला सुलगा जाती थी।
इतिहास की इस क्रांतिकारी पुस्तक का इतिहास आरंभ होता है सन 1906 से, जब क्रांति-मंत्र में दीक्षित युवा विनायक दामोदर सावरकर वकालत पढ़ने के नाम पर शत्रु के घर इंग्लैंड में ही मातृभूमि का स्वातंत्र्य समर लड़ने पहुंच जाते हैं। प्रखर राष्ट्रभक्त एवं संस्कृत के महाविद्वान पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा स्थापित ‘इंडिया हाउस’ को अपनी क्रांति-साधना का केंन्द्र बना लेते हैं। मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए व्याकुल युवकों का संगठन खड़ा कर लेते हैं। सन् 1907 में 1857 की क्रांति की “पचासवीं वर्षगांठ पड़ी। इस प्रसंग पर भारत में अपने दमन व शोषण के काले इतिहास पर लज्जा और पश्चाताप का प्रकटीकरण करने के बजाए ब्रिटिश समाचार-पत्रों व बौद्धिकों ने अपने राष्ट्रीय शौर्य की गर्वोक्ति और भारतीय नेताओं की निंदा का दुश्प्रयास करके लंदन में मौजूद भारतीय देशभक्तों को उद्वेलित कर दिया। यह एक प्रकार से बर्रे के छत्ते में ढेला मारने के समान था।
सन् 1857 की पचासवीं वर्षगांठ को ब्रिटेन ने विजय दिवस के रूप में मनाया। ब्रिटिश समाचार-पत्रों ने विशेषांक निकाले, जिनमें ब्रिटिश शौर्य का बखान और भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों की भर्त्सना की गई। 6 मई को लंदन के प्रमुख दैनिक ‘डेली टेलीग्राफ’ ने मोटे अक्षरों में शीर्षक छापा- ‘पचास वर्ष पूर्व इसी सप्ताह शौर्य प्रदर्शन से हमारा साम्राज्य बचा था’। जले पर नमक छिड़कने के लिए लंदन में एक नाटक खेला गया, जिसमें रानी लक्ष्मीबाई एवं नाना साहेब जैसे श्रेष्ठ नेताओं को हत्यारा व उपद्रवी बताया गया। सावरकर के नेतृत्व में भारतीय देशभक्तों ने इस अपमान का उत्तर देने के लिए 10 मई को सन् 1857 की पचासवीं वर्षगांठ बड़ी धूमधाम से मनाई। भारतीय युवकों ने 1857 की स्मृति में अपनी छाती पर चमकदार बिल्ले लगाए। उन्होंने उपवास रखा, सभाएं कीं, जिनमें स्वतंत्र होने तक लड़ाई जारी रखने की प्रतिज्ञा ली गई। भारतीय देशभक्ति के इस सार्वजनिक प्रदर्शन से शासकीय अहंकार में डूबे अंग्रेज तिलमिला उठे। कई जगह भारतीय युवकों से झड़प की नौबत आ गई। हरनाम सिंह एवं आर. एम. खान जैसे युवकों को छाती पर से बिल्ला न हटाने की जिद के कारण वि़द्यालय से निष्कासन झेलना पड़ा। अंगे्रजों को अपने ही घर में भारतीय राष्ट्रवाद के उग्र रूप का साक्षात्कार हुआ।
किंतु इस प्रकरण ने सावरकर को अंदर से झकझोर डाला। उनके मन में प्रश्नों का झंझावत खड़ा हो गया। सन् 1857 का यथार्थ क्या है? क्या वह मात्र एक आकस्मिक सिपाही विद्रोह था? क्या उसके नेता अपने तुच्छ स्वार्थों की रक्षा के लिए अलग-अलग इस विद्रोह में कूछ पड़े थे? या वह किसी बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एक सुनिश्चित प्रयास था? यदि हां, तो “इस योजना में किसका मस्तिष्क कार्य कर रहा था? योजना का स्वरूप क्या था? क्या सन् 1857 एक बीता हुआ बंद अध्याय है या भविष्य के लिए प्रेरणादायी जीवंत यात्रा? भारत की भावी पीढ़ियों के लिए 1857 का संदेश क्या है? आदि-आदि। सावरकर ने इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए शोध करने का निश्चय किया। ब्रिटिश दस्तावेजों के आगार इंडिया आॅफिस लाइब्रेरी में प्रवेश पा लिया। लगभग डेढ़ वर्ष तक वे इंडिया आॅफिस लाइब्रेरी और ब्रिटिश म्यूजियम लाइब्रेरी में सन् 1857 संबंधी दस्तावेजों एवं ब्रिटिष लेखन के महासमुद्र में डुबकियां लगाते रहे। जातीय अहंकार और विद्वेष-जनित पूर्वग्रही ब्रिटिश लेखन में छिपे सत्य को उन्होंने खोज निकाला। 1857 के वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार करने में वे सफल हुए। उन्होंने 1857 को एक मामूली सिपाही विद्रोह के गड्ढे से उठाकर भारतीय स्वातंत्र्य समर के उच्च सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दिया। अपनी इस शोध-साधना को उन्होंने मराठी भाषा में निबंधित किया।
इस बीच लंदन में 10 मई, 1908 को 1857 की क्रांति की वर्षगांठ का आयोजन किया गया। इस अवसर के लिए सावरकर ने मराठी में ऐ शहीदो शीर्षक से अंगे्रजी में चार पृष्ठ लंबे पैंफ्लेट की रचना की, जिसका इंडिया हाउस में आयोजित कार्यक्रम में तथा यूरोप व भारत में बड़े पैमाने पर वितरण किया गया। इंडिया आॅफिस लायब्रेरी और ब्रिटिश म्यूजियम लाइब्रेरी में लगातार एक वर्ष तक बैठने के कारण यह तो छिपा नहीं था कि सावरकर 1857 का अध्ययन कर रहे हैं; परंतु उनका अध्ययन किस दिशा में जा रहा है, इसका कुछ आभास इस पैंफ्लेट की काव्यमयी ओजस्वी भाषा 1857 के शहीदों के माध्यम से भावी क्रांति का आह्वान थी। सावरकर ने लिखा-‘‘10 मई, 1857 को शुरू हुआ युद्ध 10 मई, 1908 को समाप्त नहीं हुआ है, वह तब तक नहीं रूकेगा जब तक उस लक्ष्य को पूरा “करनेवाली कोई अगली 10 मई नहीं आएगी। ओ महान् शहीदों! अपने पूत्रों के इस पवित्र संघर्ष में अपनी प्रेरणादायी उपस्थिति से हमारी मदद करो। हमारे प्राणों में भी जादू का वह मंत्र फूंक दो जिसने तुमको एकता के सूत्र में गूंद दिया था।’’ इस पैंफ्लेट के द्वारा सावरकर ने 1857 को एक मामूली सिपाही विद्रोह की छवि से बाहर निकालकर एक सुनियोजित स्वातंत्र्य युद्ध के आसन पर प्रतिष्ठित कर दिया। 1910 में सावरकर की गिरफ्तारी के बाद उनपर राजद्रोह का मुकदमा चला और उन्हें पचास वर्ष लंबे कारावास की सजा देने वाले निर्णय में ‘ऐ शहीदों’ पैंफ्लेट की उपर्युक्त पंक्तियां ही उद्धृत की गई थीं।
10 मई, 1908 को लंदन के इंडिया हाउस में 1857 की क्रांति का वर्षगांठ समारोह अनूठा था। इंग्लैंड और यूरोप के सैकड़ों भारतीय देशभक्त उसमें एकत्र हुए। माथे पर चंदन लगाकर 1857 के शहीदों का पुण्य स्मरण करते हुए मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए सुखों को ठोकर मारकर सर्वस्वार्पण का संकल्प लिया गया। 1857 की क्रांति की संदेशवाहक चपाती का प्रतीक-स्वरूप वितरण हुआ। क्रांति की आग प्रज्वलित करने वाले उक्त पैंफ्लेट का वितरण और वाचन हुआ। इस अनूठे कार्यक्रम का समाचार-पत्रों पर छा गया। सभी पत्रों ने उस पैंफ्लेट को राजद्रोह और क्रांति की चिनगारी सुलगानेवाला बताया।
ब्रिटिश गुप्तचर विभाग बड़ी तत्परता से सावरकर की पुस्तक की पांडुलिपि की खोज में लग गया। ब्रिटिश सरकार की आंखों में धूल झोंककर इस पांडुलिपि की अनेक “देशों में यात्रा, प्रकाशन और प्रकाशन पूर्व प्रतिबंध की रोमांचकारी कहानी हमें 10 जनवरी, 1947 को बंबई से प्रकाशित प्रथम अधिकृत संस्करण में मराठी साप्ताहिक ‘अग्रणी’ के संपादक श्री जी.एम.जोशी की कलम से तथा दिल्ली स्थित राष्ट्रीय अभिलेखागार में सुरक्षित फाइलों में मिलती है। जी.एम.जोशी लिखते हैं कि ‘‘सावरकर ने अपनी पहली रचना ‘मेजिनी का चरित्र’ की तरह ही इस पांडुलिपि को भी प्रकाशन हेतु अपने बड़े भाई बाबाराव सावरकर के पास नासिक भेज दिया। ब्रिटिश गुप्तचर एजेंसियां उस पांडुलिपि की खोज में लगी हुई थी। सावरकर ने पेरिस से प्रकाशित अपने उद्देश्यों को स्पष्ट किया। उन्होंने लिखा कि वे इस पुस्तक के द्वारा देशवासियों के मन में मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए द्वितीय निर्णायक युद्ध का संकल्प जगाना चाहते हैं। वे उस इतिहास के माध्यम व दिशा-निर्देश भी करना चाहते हैं। पूरे भारत में स्वतंत्रता समर के लिए संगठन के कार्यक्रम व दिशा-निर्देश भी करना चाहते हैं। पूरे भारत में स्वतंत्रता की अलख जगाने का इससे अधिक प्रभावी व सफल माध्यम क्या हो सकता है कि उनके समाने उस क्रांतियुद्ध, जो निकट भूत में घटा था और जिसकी याद अभी ताजा है, का शुद्ध इतिहास प्रस्तुत कर दिया जाए। स्वाभाविक ही, ऐसा ज्वलनशील इतिहास ग्रंथ ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के लिए भारी डर का कारण बन गया था।
उन्हें कहीं से भनक लगी कि मूल ग्रंथ मराठी भाषा में लिखा गया है और भारत में कहीं उसे छापा जा रहा है। बंबई प्रांत की पुलिस ने महाराष्ट्र के सभी प्रमुख छापेखानों पर एक साथ छापा मारा; किंतु सौभाग्य से जिस छापेखाने में वह छप रहा था उसके मालिक, जो स्वयं भी अभिनव भारत पार्टी से जुड़ा था, को अपने किसी पुलिसवाले मित्र से आसन्न छापे की जानकारी मिल गई। अतः छापा पड़ने के पहले ही पांडुलिपि को वहां से हटा दिया गया और उसे लंदन न भेजकर सुरक्षित पेरिस पहुंचा दिया गया। वहां के भारतीय क्रांतिकारियों ने यह सोचकर कि जर्मनी में संस्कृत ग्रंथों की मुद्रण परंपरा होने के कारण वहां देवनागरी लिपि के मराठी ग्रंथ को “छपवाना संभव होगा, पांडुलिपि को जर्मनी भेज दिया। किंतु निराशा हाथ लगी और मराठी पांडुलिपि वापस आ गई। अब क्रांतिकारी टोली ने निर्णय किया कि ग्रंथ का जल्दी-से-जल्दी अंग्रेज़ी भाषा में अनुवाद किया जाए, अतः उसके कई अध्यायों को अलग-अलग व्यक्तियों को अनुवाद के लिए बांट दिया गया। सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी वी.वी.एस.अय्यर के मार्गदर्शन में इंग्लैंड में आई.सी.एस और लाॅ की परीक्षा की तैयारी में लगे हुए कुछ मेधावी देशभक्त मराठी छात्रों ने शीघ्रातिशीघ्र मराठी ग्रंथ का अंग्रेज़ी रूपांतर तैयार कर दिया। अब पुनः समस्या खड़ी हुई कि अंग्रेज़ी ग्रंथ का मुद्रण कहां से हो? ब्रिटिश गुप्तचर विभाग की सक्रियता के कारण इंग्लैंड के किसी छापेखाने में छपवाना निरापद नहीं था। पेरिस उन दिनों भारतीय क्रांतिकारियों का गढ़ था; किंतु उस समय तक जर्मनी के विरुद्ध फ्रांस और ब्रिटेन का गठबंधन हो चुका था। अतः फ्रांस सरकार का गुप्तचर विभाग भी उन दिनों ब्रिटिश सरकार के दबाव में भारतीय क्रांतिकारियों के पीछे पड़ा हुआ था। जी.एम. जोशी का कहना है कि ‘‘क्रातिकारियों ने किसी प्रकार हाॅलैंड के एक छापेखाने को यह ग्रंथ छापने के लिए तैयार कर लिया और ब्रिटिश गुप्तचर विभाग को अंधेरे में रखने के लिए प्रचारित कर दिया कि पुस्तक पेरिस में छप रही है।’’ जी.एम. जोशी के अनुसार, ‘‘हाॅलैंड में छपने के बाद पुस्तक का पूरा संस्करण क्रांतिकारियों के फ्रांस स्थित ठिकानों पर सुरक्षित पहुंच गया, जहां से उसके वितरण की व्यवस्था की गई।’”
“अब हम दिल्ली के राष्ट्रीय अभिलेखागार में सुरक्षित फाइलों पर पहुंच जाते हैं। इन फाइलों के अनुसार, न्यू स्काॅटलैंड यार्ड ने 6 नवंबर, 1908 को पुस्तक के छपने की रिपोर्ट ब्रिटिश सरकार को दी, जो तुरंत भारत सरकार को भेजी गई 14 दिसंबर, 1908 के तत्कालीन ब्रिटिश वायसराय लाॅर्ड मिंटों ने आदेश दिया कि पुस्तक के भारत प्रवेश को हमें रोकना होगा। गुप्तचर विभाग के निदेशक ने 18 दिसंबर को लिखा कि निस्संदेह यह पुस्तक बहुत आपत्तिजनक होगी और इसे समुद्र कस्टम्स ऐक्ट की धारा 19 के अंतर्गत प्रतिबंधित करना ठीक होगा और उस पर लेखक के नाम की सही जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है। यह जानकारी तभी मिल सकती है, जब एच.ए. स्टुअर्ट नामक अधिकारी ने टिप्पणी लिखी कि अच्छा यह होगा कि हम पोस्ट आॅफिस ऐक्ट के अंतर्गत नोटिस जारी करें। निदेशक, गुप्तचर विभाग सर एडवर्ड हेनरी को इंग्लैंड का गुप्तचर विभाग पुस्तक का सही नाम पता लगाने में असफल रहा। अंतत 11 जनवरी में छपी है।’”
“इसे कहते हैं अंधेरे में तीर चलाना। भारतीय पोस्ट आॅफिस के महानिदेशक ने सवाल उठाया कि यदि वह पुस्तक माराठी भाशा में है तो बंबई, मध्य प्रांत” “ व राजपुताना सर्किल के डाकखानों में ही उसे रोका जा सकेगा; क्योंकि अन्य प्रांतों में मराठीभाषी कर्मचारी उपलब्ध नहीं हैं। 2 जनवरी 1909 को एक नया सवाल खड़ा हो गया कि अगर वह मराठी पुस्तक जर्मनी से छपकर भारत आ रही है तो उसे समुद्री डाक में ही रोकना होगा; पर काफी सोच-विचार के बाद पोस्ट आॅफिस ऐक्ट के अंतर्गत ही पुस्तक पर “प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया गया; क्यांेकि समुद्र कस्टम्स ऐक्ट के अंतर्गत लिये गए किसी भी निर्णय को इंग्लैंड व यूरोप में भी प्रचारित करना पड़ता, जिससे वहां के भारतीय क्रांतिकारी सतर्क हो जाते हैं।
20 जुलाई, 1909 को घबराई हुई बंबई सरकार ने भारत सरकार को तार भेजा कि इस पुस्तक के वितरण को रोकना अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है और वह पुस्तक किसी भी क्षण भारी मात्रा में भारत पहुंच सकती है। अतः हम भारत सरकार से विनम्रतापूर्वक भीख मांगते हैं कि बिना एक क्षण की देरी लगाए समुद्र कस्टम्स ऐक्ट की धारा 19 के अंतर्गत पुस्तक के भारत प्रवेष पर प्रतिबंध का आदेष जारी करें। जहां तक पुस्तक के परिचय का संबंध है, अभी तक प्राप्त जानकारी के अनुसार उसे भारतीय विद्रोह पर विनायक दामोदर सावरकर ने लिखा है। पुस्तक को पूरी तरह घेरने की दृष्टि से उसका परिचय यथासंभव व्यापक कर दिया जाए। आदेश जारी होते ही उसे इंग्लैंड प्रेषित कर दिया जाए। 21 जुलाई, 1990 को भारत सरकार के अधिकारी एच.ए.स्टुअर्ट ने टिप्पणी लिखी कि पुस्तक मराठी में होने के कारण बंबई सरकार बहुत घबराई हुई है। अतः प्रचार की परवाह न करके भी समुद्र कस्टम्स ऐक्ट के अंतर्गत प्रतिबंध का आदेष जारी करना उचित रहेगा। “किंतु मेरी जानकारी है कि उस पुस्तक के अंगे्रजी और मराठी दोनों भाषाओं में संस्करण छप चुके हैं। अंगे्रजी संस्करण को लंदन में ए. बोन्नेर ने छापा है। पोस्ट आॅफिस ऐक्ट के अंतर्गत 11 जनवरी का आदेष केवल मराठी संस्करण पर लागू होता है, अतः आदेश की भाषा में संशोधन करना होगा। संशोधित आदेश में भाषा रखी जाए, ‘भारतीय विद्रोह पर विनायक दामोदर सावरकर द्वारा मराठी में लिखित पुस्तक या पैंफ्लेट और उसका अंगे्रजी अनुवाद या रूपांतर।’
साथ ही स्टुअर्ट ने यह भी लिखा कि ‘‘बंबई सरकार का यह कथन कि घोषण-पत्र को तुरंत इंग्लैंड सूचित किया जाए, पुनर्विचार चाहता है। मेरे विचार से इंग्लैंड सूचना न भेजी जाए, क्योंकि पुस्तक की अधिक-से-अधिक प्रतियों को जब्त करने के लिए आवश्यक है कि इंग्लैंड में ही उसका जहाज से लदान रोका जाए। वहां नोटिस भेजने का परिणाम होगा कि सावरकर के मित्रगण को इसकी जानकारी हो जाएगी और वे प्रतिबंध के आदेश के उल्लंघन के नए-नए रास्ते खोज लेंगे।
उसी दिन 21 जुलाई को क्रिमिनल इंटेलिजेंस के उप-निदेशक ए.बी. बर्नार्ड ने लिखित सूचना दी कि हमारी जानकारी के अनुसार सावरकर की पुस्तक का अभी तक केवल अंगे्रजी संस्करण ही छप पाया है और उसका शीर्षक’ 1857 की क्रांति का इतिहास’ या ‘1857 का इतिहास’ रखा गया है। पुस्तक का प्रकाशन कार्य 24 जून तक पूर्ण हो जाना था। अतः अगली डाक से उसके भारत पहुंचने की पूरी संभावना है। इसका अर्थ है कि उसकी प्रतियां पहले ही रवाना की जा चुकी हैं और इस समय रास्ते में होंगी। अतः आदेश को तार द्वारा इंग्लैंड भेजने से भी पुस्तकों का जहाज पर लदान रोका नहीं जा सकेगा। 22 जुलाई को भारत सरकार के एक अधिकारी एम.एम.एस. गुब्बाय ने आपत्ति उठाई कि पुस्तक के विवरण की भाषा समुद्री कस्टम्स ऐक्ट की धारा 19 के लिए पर्याप्त नहीं है। इस कानूनी आपत्ति ने भारत सरकार के सामने नया संकट खड़ा कर दिया। क्या वे कानूनी आवश्यकता को पूरी करने के लिए पुस्तक को अपनी आंखों से देखने तक प्रतीक्षा करते रहें? इसका अर्थ होगा भारत में पुस्तक का प्रवेश, जिसे रोकने के लिए वे छह महीने से यह व्यायाम कर रहे हैं। बंबई सरकार अगले ही क्षण आदेश जारी होने के लिए छटपटा रही थी। दिन भर की माथा-पच्ची के बाद सरकार ने 22 जुलाई, 1909 को थोड़े संशोधन के बाद पुस्तक का विवरण देने के लिए निम्नलिखित शब्दावली को अपनाया-
‘‘भारतीय विद्रोह के बारे में वी.डी. सावरकर द्वारा मराठी में लिखित पुस्तक या पैंफ्लेट, जिसके जर्मनी में छपने की रिपोर्ट मिली है और उसका अंगे्रजी अनुवाद।’ 23 जुलाई, 1909 की इस शब्दावली के साथ समुद्री कस्टम्स ऐक्ट की धारा 19 के अंतर्गत पुस्तक पर प्रतिबंध का आदेश अंततः जारी कर दिया गया।
राष्ट्रीय अभिलेखागार में सुरक्षित सरकारी फाइलों से उपलब्ध वायसराय स्तर तक की इन उच्च-स्तरीय टिप्पणियों से स्पष्ट होता है कि 6 नवंबर, 1908 से 23 जुलाई, 1909 तक पूरे नौ महीने ब्रिटिश गुप्तचर विभाग एवं भारत सरकार जी-तोड़ कोशिश करके भी पुस्तक की भाषा, शीर्षक, मुद्रण स्थान एवं उस प्रकाशित लेखक के नाम के बारे में सही जानकारी नहीं पा सके और अंधेरे में ही तीर चलाते रहे। प्रकाशन के पूर्व ही किसी पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने की ब्रिटिश सरकार की इस हताश कार्यवाही ने उसे बहुत हास्यास्पद स्थिति में ला दिया। अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य की अलंबरदार होने का ढिंढोरा विश्व भर में पीटनेवाली अपनी सरकार की वकालत करने में ब्रिटिश समाचार-पत्र एवं बुद्धिजीवी स्वयं को असमर्थ पाने लगे। इस पर सावरकर ने सर्वाधिक प्रतिष्ठित दैनिक ‘द लंदन टाइम्स’ में संपादक के नाम पत्र लिखकर ब्रिटिश सरकार पर तीखा व्यंग्य तीर चला दिया। सावरकर ने “लिखा-‘‘ब्रिटिश अधिकारियों ने स्वीकार किया है कि वे निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि वह पुस्तक अभी छपी है कि नहीं। यदि ऐसा है तो सरकार ने यह कैसे जान लिया कि वह पुस्तक भयावह राजद्रोहात्मक है? क्यों वे उसके छपने या प्रकाशन के पूर्व ही उसे प्रतिबंधित करने के लिए दौड़ पड़े? या तो सरकार के पास पांडुलिपि के प्रति है या नहीं है। यदि उनके पास पांडुलिपि की प्रति है तो वे मुझ पर राजद्रोह का मुकदमा क्यों नहीं चलाते, क्योंकि उनके सामने यही एकमात्र वैधानिक रास्ता खुला रह जाता है। और यदि उनके पास पांडुलिपि की प्रति है ही नहीं तो वे जिस पुस्तक के बारे में अपुष्ट अफवाहों या उड़ती बातों के अलावा कुछ नहीं जानते, उसे राजद्रोहात्मक कहकर प्रतिबंधित कैसे कर सकते हैं?’’ ‘द लंदन टाइम्स’ ने सावरकर के उपर्युक्त पत्र को न केवल पूरा छापा बल्कि उसके साथ अपनी टिप्पणी भी जोड़ी कि यदि सरकार ने ऐसा कठोर और असामान्य पग उठाया आवश्यक समझा तो इससे सिद्ध होता है कि दाल में कुछ काला है।
यदि भारत सरकार के किसी अधिकारी एच.ए. स्टअर्ट को 21 जुलाई को ही पता चल चुका था कि पुस्तक का अंगे्रजी रूपांतर लंदन के ए. बोन्नेर प्रकाशन गृह ने मुद्रित किया है तो उस पर छापा क्यों नहीं मारा गया? क्यों 23 जुलाई, 1909 को प्रतिबंध लगानेवाली विज्ञप्ति में पुस्तक का परिचय गोलमोल भाषा में देना पड़ा? इसका निर्णय करना अभी भी कठिन हो रहा है कि उस पुस्तक का प्रथम गुप्त संस्करण हाॅलैंड में छपा या इंग्लैंड में। जैसा हम ऊपर लिख चुके हैं कि सन् 1947 में प्रकाशित प्रथम अधिकृत संस्करण में श्री.जी.एम.जोशी द्वारा 11 जनवरी, 1947 की तिथि में लिखित प्राक्कथन के अनुसार वह संस्करण हाॅलैंड में छपा था, किंतु उसी संस्करण के प्रारंभ में छिपाने और ब्रिटिश सरकार को गुमराह करने के लिए जान-बूझकर इंग्लैंड में छापा गया? सत्य चाहे जो हो, ब्रिटिश सरकार की भरसक कोशिशों के बावजूद पुस्तक का अंगे्रजी “संस्करण छप ही गया। उसका शीर्षक था-‘एक भारतीय राष्ट्रवाद’।
अब शुरू हुआ पुस्तक का वितरण अभियान। इस अभियान की कहानी पुस्तक के प्रकाशन अभियान से भी अधिक रोमांचकारी है। पुस्तक की प्रतियों को चोरी-छिपे भारत पहुंचाने के लिए उन्हें ‘पिकनिक पेपर्स’, ‘स्कॉट की रचनाएं’, ‘डाॅन क्विग्जोट’ जैसी लोकप्रिय निरापद पुस्तकों के नकली आवरणों के भीतर छिपा दिया जाता था। उन दिनों उस पुस्तक की एक प्रति को भी सुरक्षित भारत पहुंचा देने को सर्वशक्तिमान ब्रिटिश सरकार को चुनौति देने का साहस भरा क्रांतिकारी कार्य माना जाने लगा था। इसके लिए नए-नए तरीके खोजे गए। अपने सामान की पेटी में नकली तली के नीचे छिपाकर पुस्तक लाना एक तरीका था। इस तरीके को अपनानेवालों में सिकंदर हयात खान और आसफ अली जैसे प्रसिद्व लोगों के नाम भी आते हैं।
पुस्तक की भाषा तो ओजस्वी थी ही, उसमें प्रस्तुत तथ्यों को चुनौती दे पाना ब्रिटिश इतिहासकारों के लिए संभव नहीं हो रहा था। ‘टाइम्स’ संवाददाता वेलेंटाइन चिरोल ने सन् 1910 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘इंडियन अनरेस्ट’ में लिखा कि ‘‘यह भारतीय विद्रोह का अद्भुत इतिहास है, जिसमें गहन शोध और तथ्यों की भयंकर विकृति का मिश्रण है। इसमें एक महान् साहित्यिक प्रतिभा ने राक्षसी घृणा को परोसा है।’”
“ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रकाशन-पूर्व प्रतिबंध की असामान्य घोषणा ने पुस्तक को एकदम लोकप्रिय बना दिया। प्रत्येक देशभक्त युवा अंतःकरण उसे पढ़ने के लिए छटपटाने लगा। उस दुर्लभ पुस्तक की एक-एक प्रति उस जमाने में 300 रूपए में गुप्त रूप से बिकने लगी। उसे पढ़ना और पढ़वाना क्रांति-धर्म बन गया। एक प्रति गुप्त रूप से अनेक हाथों में क्रम से घूमती रहती। आतुर युवक पूरी-पूरी रात लालटेन की रोशनी में बंद कमरे में छिपकर पुस्तक का पारायण करते और स्वयं को क्रांति-मंत्र में दीक्षित मानने लगते। स्वाभाविक ही इस बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए जगह-जगह उसके अनधिकृत संस्करण गुप्त रूप से छपने लगे। एक हाथ से दूसरे हाथ तक पुस्तक का प्रसारण यदि जोखिम भरा था तो उसका गुप्त रूप से मुद्रण तो बहुत ही जोखिम भरा रहा होगा। ऐसे कितने संस्करण किस-किस भाषा में कहां-कहां छपे, इसकी पूरी जानकारी आना अभी शेष है। कुछ ही संस्करणें की जानकारी अभी तक उपलब्ध हो पाई है।”
“पुस्तक के अध्ययन की भूख केवल भारत तक ही सीमित नहीं थी, यूरोप, जापान और अमेरिका में भी उसकी चाह पैदा हुई। उसका फ्रेंच अनुवाद सन् 1910 में ही प्रकाशित हो गया। एम.पी.टी. आचार्य और मैडम कामा ने वह फ्रेंच अनुवाद तैयार किया। एक फ़्रांसीसी क्रांतिकारी व पत्रकार ई. पिरियोन ने उसका प्राक्कथन लिखा। उसकी भाषा व शैली से अभिभूत होकर उन्होंने लिखा कि यह एक महाकाव्य है, दैवी मंत्रोच्चार है, देशभक्ति का दिशाबोध है। यह पुस्तक हिंदू-मुस्लिम एकता का संदेश देती है, क्योंकि महमूद गजनवी के बाद 1857 में ही हिंदुओं और मुसलमानों ने मिलकर समान शत्रु के विरुद्ध युद्ध लड़ा। यह सही अर्थों में राष्ट्रीय क्रांति थी। इसने सिद्ध कर दिया कि यूरोप के महान् राष्ट्रों के समान भारत भी राष्ट्रीय चेतना प्रकट कर सकता है।’’
“यद्यपि पुस्तक पर लेखक का नाम ‘एक भारतीय राष्ट्रभक्त’ छपा था; किंतु श्री पिरियोन द्वारा लिखित इस प्राक्कथन को फ्रेंच पत्रिका ‘ले कोरियर’ ने अपने 25 जुलाई, 1910 के अंक में छाप दिया। ब्रिटिश कोप से घबराकर फ्रांस की सरकार ने पत्रिका के उस अंक को ही प्रतिबंधित कर दिया।”
“10 मई, 1910 को 1857 की वर्षगांठ के अवसर पर एक चित्रमय पोस्टकार्ड जारी किया गया, जिसमें 1857 के क्रांति संदेश के साथ रानी लक्ष्मीबाई का चित्र छापा गया। चित्र के नीचे सूचना छापी गई-‘1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर’ पुस्तक को पाने के लिए मैडम बी.आर. कामा को पेरिस के पते पर पत्र लिखें या न्यूयाॅर्क की एफ.एच. पब्लिकेशन कमेटी का पत्र लिखें।
अंगे्रज बुद्विजीवियों, राजनीतिज्ञों में भी इस पुस्तक को पढ़ने की उत्कंठा जाग्रत हुई। वे कैसे भी पुस्तक की प्रति प्राप्त करके अपने मित्रों को एक अलभ्य उपहार के नाते भेंट करते। ऐसे ही अंगे्रज मित्र सर चार्ल्स क्लीवलैंड से खिलाफत आंदोलन के प्रसिद्व नेता मुहम्मद अली को यह पुस्तक पढ़ने को मिली थी।
सन् 1910 में भारतीय क्रांतिकारियों पर ब्रिटिश दमन-चक्र घूमा। वीर सावरकर लंदन में गिरफ्तार करके भारत लाए गए और उन्हें दो आजन्म कारावास दंड देकर काला पानी (अंडमान) भेज दिया गया। भारत में भी बड़ी संख्या में क्रांतिकारियों की धर-पकड़ हुई। बड़ी संख्या में उन्हें अंडमान टापू भेज दिया गया। इस आघात से थोड़ा संभलते ही मैडम कामा, लाला हरदयाल एवं वीरेन्द्र नाथ चट्टोपाध्याय आदि क्रांतिकारियों ने ‘1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर’ का अंग्रेजी में दूसरा संस्करण प्रकाशित किया। पहला संस्करण तो निःशुल्क वितरित किया गया था। किंतु इस संस्करण का मूल्य रखा गया, ताकि क्रांतिकारी दल को थोड़ा-बहुत आर्थिक सहारा मिल सके।
“इस बीच लाला हरदयाल फरवरी 1911 में अमेरिका के पश्चिमी तट पर सनफ्रांसिस्को पहुंच गए। वहां बड़ी संख्या में पंजाबी सिक्ख व गैर-केशधारी बसे हुए थे। लाला हरदयाल ने सन् 1913 में गदर पार्टी की स्थापना की। नवंबर 1913 में उन्होंने उर्दू में ‘गदर’ नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया और जनवरी 1914 से गुरूमुखी लिपि में पंजाबी संस्करण शुरू किया। हरदयाल के मन पर सावरकर की रचना की गहरी छाप बैठी हुई थी। वे उसे दूसरे स्वातंत्र्य समर का पथ-प्रदर्शक मानते थे। इसलिए उन्होंने ‘गदर’ पत्रिका के उर्दू एवं पंजाबी संस्करणों में उस पुस्तक के अंशों को धारावाहिक छापना आरंभ कर दिया। सार्वजनिक सभाओं में भी उनका वाचन किया जाता। इस प्रकार इस पुस्तक के उर्दू व पंजाबी अनुवाद भी तैयार हो गए। सावरकर ने जो आशा की थी सन् 1857 का इतिहास लिखने के पीछे उनका मुख्य उद्देश्य देशभक्तों को द्वितीय स्वातंत्र्य समर की प्रेरणा व संगठन योजना प्रदान करना है, उसे उन्होंने प्रथम विश्वयुद्व के समय भारतीय सेनाओं में विद्रोह का मंत्र फूंका। ‘कोमागाटामारू’ नामक जहाज से क्रांतिकारियों के “जत्थे शस्त्रास्त्रों के साथ भारत की ओर रवाना हुए। हांगकांग, सिंगापुर और बर्मा में स्थित ब्रिटिश सेनाओं में बगावत हुई। यह सब सावरकर द्वारा रचित ‘1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर’ पुस्तक का ही चमत्कार था।
इसके बाद इस ग्रंथ का एक संस्करण भारत में भगत सिंह के क्रांतिकारी दल ने प्रकाशित किया। सन् 1912 में शहीद भगत सिंह द्वारा इस पुस्तक के प्रकाशन की कहानी उनके एक अनन्य सहयोगी एवं प्रसिद्व समाजवादी नेता राजाराम शास्त्री के शब्दों में ही कहना ठीक रहेगा। ‘अमर शहीदों के संस्मरण’ नामक अपनी रचना में राजाराम शास्त्री लिखते हैं “‘वीर सावरकर द्वार लिखित’ 1857 का स्वातंत्र्य समर’ पुस्तक ने भगत सिंह को बहुत अधिक प्रभावित किया था। यह पुस्तक भारत सरकार द्वारा जब्त कर ली गई थी। मैंने इस पुस्तक की बहुत प्रशंसा सुनी थी और इसे पढ़ने का बहुत ही इच्छुक था। पता नहीं कहां से भगत सिंह को यह पुस्तक प्राप्त हो गई थी। वह एक दिन इसे मेरे पास ले आए। जिससे ली होगी उसे जल्द वापस करनी होगी, इसलिए वह मुझे बहुत कहने पर देने को तैयार नहीं हो रहे थे। पर जब मैंने जल्द-से-जल्द पढ़कर उसे अवश्य लौटा देने का पक्का वायदा किया, तब उन्होंने वह मुझे केवल 3 घंटे के लिए पढ़ने को दी। उसको मैं कभी नहीं भूल सकता। मैंने एक वक्त खाना नहीं खाया और रात-दिन उसे पढ़ता ही रहा। पुस्तक ने मुझे बहुत ज्यादा प्रभावित किया। भगत सिंह के अपने पर मैंने पुस्तक की बहुत प्रशंसा की। कुछ समय बाद भगत सिंह ने एक दिन मुझसे कहा कि ‘यदि तुम कुछ परिश्रम करो और मदद करने के लिए तैयार हो जाओ तो गुप्त रूप से इस पुस्तक को प्रकाशित करने का उपाय सोचा जाए।’ मैं पूर्ण रूप से सहायता करने को तैयार हो गया।
“भगत सिंह ने किसी प्रेस में प्रबंध कर दिया। वह प्रतिदिन रात के समय कुछ मैटर मुझे प्रूफ देखने को दे जाते थे; मैं रात में उसे देखकर प्रूफ ठीक करके रख छोड़ता था। दूसरे दिन भगत सिंह उस ले जाते थे। कुछ दिनों तक बराबर यह सिलसिला चलता रहा। इस पुस्तक को दो खंडों में प्रकाशित किया गया। प्रत्येक खंड की कीमत आठ आना रखी गई, फिर गुप्त रूप से इसे बेचने का प्रबंध हुआ। मुझे याद है कि मैंने इस पुस्तक को सर्वप्रथम राजर्षि श्री पुरूषोत्तमदास टंडन के हाथ बेचा था। इसके प्रकाशन से टंडन जी बहुत प्रसन्न हुए थे। इसके बेचने में सुखदेव ने बहुत अधिक परिश्रम किया था; (पृ. 89-90)।
“सन् 1929-30 में भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों की गिरफ्तारी के समय उनमें से अधिकांश के पास इस पुस्तक की प्रतियां पुलिस को प्राप्त हुई। सन् 1942 में जर्मनी में फ्रेंड्स आॅफ इंडिया सोसाइटी ने भी इस पुस्तक का एक संस्करण प्रकाशित किया।”
“आजाद हिंद फौज के निर्माण में ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ पुस्तक की भारी भूमिका रही। आजाद हिंद फौज के मूल संस्थापक रासबिहारी बोस क्रांतिकारी बोस क्रांतिपथ पर सावरकर को अपना गुरू मानते थे। जापान में शरण लेने के बाद भी वे द्वितीय विश्व युद्ध तक सावरकर से लगातार पत्राचार करते रहे। वे जापान में हिंदू महासभा के अध्यक्ष भी बने। उन्होंने ही सुभाषचन्द्र बोस को आजाद हिंद फौज का नेतृत्व करने के लिए जर्मनी से जापान आने का निमंत्रण दिया था। सुभाष बाबू भी सावरकर के प्रति श्रद्धाभाव रखते थे और स्वतंत्रता-प्राप्ति की उनकी रणनीति से सहमत थे। द्वितीय विश्व युद्ध द्वारा उत्पन्न “स्थिति का लाभ उठाने के लिए जनवरी 1941 में ब्रिटिश सरकार की आंखों में धूल झोंककर भारत के विदेश पलायन के छह महीने पूर्व 22 जून, 1940 को उन्होंने बंबई में सावरकर के निवास-स्थान पर उनसे गुप्त मंत्रणा की थी। अतः यह कहा जा सकता है कि आजाद हिंद फौज के गठन और ब्रिटिश विरोधी रणनीति की प्रेरणा रासबिहारी बोस व सुभाषचंद्र बोस को सावरकर द्वारा लिखित ‘1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर’ पुस्तक से ही प्राप्त हुए थे। उसी को आदर्श रूप में सामने रखकर नेताजी ने रानी झांसी रेजिमेंट का गठन किया था। आजाद हिंद फौज के सेनाधिकारियों ने स्वीकार किया कि इस पुस्तक का एक संस्करण विशेष रूप से छपवाकर सैनिकों को पढ़ने के लिए दिया जाता था। अंगे्रजी के अतिरिक्त एक तमिल संस्करण का प्रकाशन भी हुआ था। इस ग्रंथ का पाठन बार-बार किया जाता था। तमिल संस्करण का संपादन आजाद हिंद फौज के एक प्रचार अधिकारी जयमणि सुब्रह्यण्यम ने किया था। उन्होंने स्वयं ही बताया कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस के आशीर्वाद से ही वह संस्करण तैयार हुआ था।
सावरकर द्वारा लिखित इतिहास की इस महान रचना ने सन् 1914 के गदर आंदोलन से 1943-44 की आजाद हिंद फौज तक कम-से-कम दो पीढ़ियों को स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी। बंबई की ‘फ्री हिंदुस्तान’ साप्ताहिक पत्रिका ने मई 1946 में ‘सावरकर विशेषांक’ प्रकाशित किया, जिसमें के.एफ.नरीमन ने अपने लेख में स्वीकार किया कि ‘आजाद हिंद फौज की कल्पना और विशेषकर रानी रेजीमेंट के नामरण की मूल प्रेरणा सन् 1857 की महान क्रांति पर वीर सावरकर की जब्तशुदा रचना में ही दिखाई देती है।’ ‘यदि सावरकर ने 1857 और 1943 के बीच हस्तक्षेप न किया होता तो मुझे विश्वास है कि आजाद हिंद फौज के ताजा प्रयासों को भी एक मामूली विद्रोह कह दिया गया होता। किंतु धन्यवाद है सावरकर की पुस्तक को कि ‘गदर’ शब्द का अर्थ ही बदल गया। यहां तक कि अब लाॅर्ड वावेल भी नेताजी सुभाषचंद्र बोस के प्रयास को मामूली गदर कहने का साहस नहीं कर सकता। इस परिवर्तन का पूरा श्रेय सावरकर और केवल सावरकर को ही जाता है।
द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद स्वतंत्रता की दस्तक सुनाई देने लगी थी। जनमानस में बहुत परिवर्तन आ गया था। महाराष्ट्र में सावरकर की सभी रचनाओं, विशेषकर ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ पर से प्रतिबंध हटाने की मांग ने एक जन-आंदोलन का रूप धारण कर लिया। एक सावरकर-भक्त एम.एस.गोखले ने गुप्त रूप से इस पुस्तक को छापकर घोषणा कर दी कि यदि पुस्तक पर से प्रतिबंध न हटाया गया तो वे सार्वजनिक रूप से पुस्तक की ब्रिकी करके प्रतिबंध के कानून का उल्लघंन करेंगे। इस विषय पर प्रबल जन-भावनाओं को पहचानकर बंबई प्रांत की कांग्रेस सरकार ने मई 1946 में इस पुस्तक सहित सावरकर की सभी रचनाओं पर ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाए गए प्रतिबंध के अड़तीस वर्ष पुराने आदेश को रद्द कर दिया। तब कहीं जाकर जनवरी 1947 में महान् ऐतिहासिक ग्रंथ का प्रथम कानूनी संस्करण प्रकाशित हो पाया।
10 जनवरी, 1947 का जी.एम.जोशी ने जब इस पुस्तक के प्रथम अधिकृत कानूनी संस्करण की भूमिका में इस पुस्तक का रोमांचकारी इतिहास लिखा तब तक पुस्तक की मूल मराठी पांडुलिपि उपलब्ध नहीं हुई थी और यह मान लिया गया था कि सावरकर द्वारा 1901 में लिखित सिक्ख इतिहास की पांडुलिपि के समान यह भी सदा के लिए खो गई है। जी.एम.जोशी लिखते हैं कि ‘‘सावरकर की गिरफ्तारी के बाद मूल मराठी पुस्तक की पांडुलिपि को मैडम कामा के पास पेरिस भेज दिया गया थां उन्होंने ब्रिटिश गुप्तचर विभाग के एजेंटों के हाथ में पड़ने से बचाने के लिए उस पांडुलिपि को बैंक आॅफ फ्रांस में अपने लाॅकर में सुरक्षित छिपा दिया। फ्रांस पर जर्मनी के आक्रमण के कारण फ्रांस का शासन-तंत्र बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो गया। मैडम कामा की भी मृत्यु हो गई। फलतः बहुत खोजबीन के बाद भी उस पांडुलिपि कोई पता नहीं लग पाया। इस प्रकार मराठी साहित्य का एक महान् पुष्प खो गया और उसकी प्राप्ति की सभी आशाएं समाप्त हो गई।
किंतु वीर सावरकर के जीवनीकार धनंजय कीर के अनुसार, ‘‘भारत की स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद वह पांडुलिपि सावरकर के पास बड़े नाटकीय ढंग से वापस लौट आई।’’ उनके अनुसार, ‘‘अभिनव भारत’ के एक सदस्य गोवा निवासी जे.डी.एस. कोरिन्हो फ्रांस स्थित पुर्तगाली दूतावास की सहायता से उन उथल-पुथल के दिनों में उस पांडुलिपि को लेकर पहले पुर्तगाल और वहां से अमेरिका पहुंच गए। वे वाशिंगटन के एक काॅलेज में शिक्षक हो गए। तमाम कठिनाइयों और संकटों से जूझकर भी उन्होंने अड़तीस साल तक इस बहुमूल्य पांडुलिपि को सुरक्षित संजोकर रखा और भारत के स्वाधीन होने पर डॉ डी.वाई. गोहकर नामक एक सज्जन के माध्यम से उसे सावरकर के पास वापस भेज दिया।’’
हरींद्र श्रीवास्तव अपनी पुस्तक ‘फाइव स्टोर्मी ईयर्स: सावरकर इन लंदन’ में इस कहानी में इतनी जानकारी और जोड़ते हैं कि ‘‘डॉ. गोहकर उस समय अमेरिका में पढ़ रहे थे और अब “फाइव स्टोर्मी ईयर्स: सावरकर इन लंदन’ में इस कहानी में इतनी जानकारी और जोड़ते हैं कि ‘‘डाॅ. गोहकर उस समय अमेरिका में पढ़ रहे थे और अब महाराष्ट्र राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष हैं।’’ हरींद्र के अनुसार, ‘‘पांडुलिपि सावरकर को मई 1949 में प्राप्त हुई; पर उसमें वे दे अध्याय नहीं थे, जिन्हें ब्रिटिश गुप्तचर तंत्र ने पुस्तक पर प्रतिबंध लगने से पूर्व चोरी कर लिया था।’’२१ उनका कहना है कि वीर सावरकर के भतीजे बालाराव सावरकर ने आवश्यक संशोधन करके मराठी ग्रंथ को भी प्रकाशित कर दिया है।
“जनवरी 1947 के अंग्रेज़ी संस्करण में पुस्तक की यात्रा कथा को जी.एम.जोशी ने बालाराव के साथ मिलकर लिखा है। उस संस्करण के प्रकाशन की अनुमति स्वयं वीर सावरकर ने फोनिक्स प्रकाशन गृह को दी थी। तब ही जी. एम. जोशी एवं बाल सावरकर द्वारा संयुक्त रूप से लिखी गई पुस्तक-गाथा को वीर सावरकर ने देख लिया होगा। यहां कुछ प्रश्न खड़े होते है कि यदि मूल पांडुलिपि मैडम कामा के बैंक लाॅकर में सुरक्षित थी तो वह कोरिन्हो के पास कब, कैसे पहुंची? यदि कीर के अनुसार, मई 1917 के पूर्व अड़तीस वर्ष वह कोरिन्हो के पास रही तो इसका अर्थ है कि सन् 1911 के लगभग ही वह उन्हें मिल गई होगी। मैडम कामा सन् 1935 में भारत आई और 1916 में अपनी मृत्यु तक एक वर्ष तक यहां रहीं। उन दिनों वीर सावरकर जेल के बाहर रत्नागिरी जिले में स्थानबद्ध जीवन व्यतीत कर रहे थे। क्या उन दिनों मैडम कामा और उनका कभी कोई संपर्क नहीं हुआ? क्या मैडम कामा ने उन्हें पांडुलिपि कोरिन्हो को देने की बात नहीं बताई? जी.एम. जोशी के वर्णन से लगता है कि जानवरी 1947 तक बहुत “खोजबीन के बाद भी उन पांडुलिपि का पता नहीं लग पाया था और उसे खोया हुआ मान लिया गया था। इसका अर्थ होता है कि एस समय तक वीर सावरकर को भी उस पांडुलिपि को कोई अता-पता नहीं था। क्या यह संभव है? दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रश्न खड़ा होता है कि यदि मई 1949 में वापस मिली पांडुलिपि में दो अध्याय नहीं थे, क्योंकि वे ब्रिटिश गुप्तचरों द्वारा चोरी कर लिये गए थे, तो यह चोरी कब हुई होगी? प्रतिबंध का आदेश 23 जुलाई, 1909 को जारी हुआ। अंग्रेज़ी अनुवाद उसके पूर्व प्रकाशित हो चुका था। अंगे्रजी अनुवाद मराठी मूल के आधार पर ही हुआ होगा। क्या हम यह मान लें कि मराठी पांडुलिपि के दो अध्यायों की चोरी अंगे्रजी अनुवाद पूरा हो जाने के बाद हुई? अंतिम प्रश्न यह उठता है कि बालाराव सावरकर ने मराठी पुस्तक को प्रकाशित करने के लिए उन दो अध्यायों को कैसे पूरा किया? क्या उन्होंने प्रकाशित अंगे्रजी अनुवाद का मराठी रूपांतर करके पुस्तक को पूरा किया? क्या उन्होंने प्रकाशित अंगे्रजी अनुवाद का मराठी रूपांतर करके पुस्तक को पूरा किया? वीर सावरकर 25 फरवरी, “1966 तक जीवित थे। 1947 में 1857 के स्वातंत्र्य समर का शताब्दी वर्ष भी उनके सामने मनाया गया। क्या उन्होंने मराठी ग्रंथ की पांडुलिपि के इतिहास पर कहीं कोई प्रकाश डाला? ये सभी प्रश्न पुस्तक के इतिहास को रहस्यपूर्ण बना देते हैं।
1957 में 1857 की क्रांति की शताब्दी के अवसर पर पुनः यह असमंजस खड़ा हुआ कि उस घटना को क्या कहें-गदर, क्रांति या स्वातंत्र्य समर? वरिष्ठ इतिहासकार आर.सी.मजूमदार ने उसे ‘सिपाही विद्रोह’ कहा तो उन्हीं के शिष्य डाॅ, एस.बी.चौधरी ने उसे ‘जन विद्रोह’ का शीर्षक दिया। भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी ने उसे ‘1587 का विद्रोह’ कहा। भारत सरकार ने विवाद से बचने के लिए इतिहासकार एस.एन. सेन द्वारा “लिखित पुस्तक में केवल ‘1857’ जैसा नपुंसक शीर्षक अपनाया। पर, दो वर्ष बाद ही सन् 1959 में मास्को से सोवियत संघ ने अमेरिका के एक दैनिक पत्र ‘न्यूयाॅर्क डेली ट्रिब्यून’ में कार्ल मार्क्स एवं फ्रेडरिक एंगिल्स द्वारा 1857 की क्रांति पर लेखों का एक संकलन प्रकाशित किया और इस संकलन के लिए उन्होंने ‘प्रथम भारतीय स्वातंत्र्य समर 1857-59’ जैसा शीर्षक ही अपनाया। इधर सन् 1857 की घटना के स्वरूप को लेकर आर.सी. मजूमदार और उनके शिष्य एस.बी.चौधरी में जबरदस्त बौद्धिक बहस छिड़ गई, जिसका समापन करने के लिए एस.बी.चौधरी ने सन् 1965 में ‘थ्योरीज आॅन इंडियन म्युटिनी’ नामक पुस्तक प्रकाशित की। इस पुस्तक में उन्होंने सन् 1857 से अब तक इस घटना के स्वरूप के बारे में जितने मत प्रतिपादित हुए थे और नामकरण किए गए थे, उन सभी की समीक्षा की। अंत में उन्होंने सावरकर द्वारा प्रस्तुत चित्रण और नामकरण को ही तथ्यों की कसौटी पर सही ठहराया।
“यह सावरकर की ऐतिहासिक दृष्टि की भारी विजय थी। सन् 1909 में प्रकाशित प्रथम गुप्त संस्करण की भूमिका में सावरकर ने लिखा था कि यद्यपि उन्हें इंडिया आॅफिस लाइब्रेरी व नेशनल म्यूजियम लाइब्रेरी में केवल ब्रिटिश सरकार के दस्तावेजों एवं ब्रिटिश लेखकों की पुस्तकों पर ही अवलंबित रहना पड़ा, किंतु उस पूर्वग्रह-युक्त विशाल सामग्री में भी उन्हें ‘सिपाही विद्रोह’ के परदे के भीतर एक सुनियोजित स्वातंत्र्य समर के स्पष्ट दर्शन तथ्यों में से कैसा नया चित्र उभर आता है, इतिहास-लेखन के क्षेत्र में उसका यह अत्युत्तम उदाहरण है। इसीलिए सावरकर की पुस्तक दो-दो स्वातंत्र्य समरों (1814 व 1943) का प्रेरणा-स्त्रोत बन गई।