पालतू पशुओं का चलन अब आम हो चुका है। इस संदर्भ में मुख्यतः अकेलेपन का सवाल उठता रहा है। इससे संबंधित आज प्रवीण ‘बनजारा की कहानी ‘दो एकांत’ प्रस्तुत है- अनुरंजनी
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दो एकांत
डेढ़ दो बरस पहले कुछ विचित्र ही हुआ।
सुबह दफ्तर जाने के लिए संजना अपार्टमेंट की लिफ्ट से नीचे जा रही थी तो मिसेज़ शर्मा मिलीं। उन्होंने गोद में अपना पोता उठा रखा था जो लगभग एक साल का था। वह संजना को देख कर मुस्करा दिया। उसकी मुस्कुराहट संजना को इतना छू गई कि उसने हाथ बढ़ा कर उसे अपनी गोद में ले लिया। नीचे पहुंचने तक उसने दो एक बार उस बालक को प्रेम से अपने सीने से लगाया और एक बार उसकी पप्पी ली।
नीचे उतर आने पर भी उस शिशु को उसकी दादी को दे देने का मन नहीं कर रहा था उसका।
‘आण्टी, बहुत प्यारा बच्चा है। क्या नाम है इसका?’
‘हम इसे डब्बू बुलाते हैं। अभी नामकरण नहीं हुआ है इसका। ‘
‘डब्बू बहुत सुंदर नाम है। बिल्कुल इसकी तरह प्यारा।’ यह कह कर उसने एक बार फिर उसकी पप्पी ली। ‘आण्टी, अभी तो मैं जल्दी में हूँ। शाम को मिलती हूँ, तब मैं डब्बू से अच्छे से मिलूंगी।’
उसने बालक को उसकी दादी को दिया और हाथ हिला कर ‘बाय’ कह अपनी गाड़ी की तरफ तेजी से चल दी।
गाड़ी चलाते हुए उस बच्चे की छवि उसकी आंखों के सामने घूमती रही। वह उसके नरम गाल, घुंघराले बाल, मासूम आंखें और निश्छल मुस्कान याद कर बार-बार मुस्करा देती थी। दफ्तर पहुंचने तक उसका चेहरा एक विचित्र तेज से दमकने लगा था। यह बात उसने जानी जब दर्पण में अपना चेहरा देखा। इतनी सुंदर तो वह बरसों पहले कभी लगती थी। अब तो अनवरत चलने वाले दफ्तर के काम काज, समस्याएं, टाईमलाइन, डेड लाइन, टार्गेट, मीटिंगों के लिए तैयारी, घड़ी-घड़ी आने वाली फोन कॉल इत्यादि से जूझते हुए संजना को अपने चेहरे पर चिंता की रेखाएं ही दिखती थीं।
परंतु यह दिन अलग ही था। आज तो वह काम करते करते भी मुस्करा रही थी। उस दिन शाम को समय से उसने काम निबटाया, जो बचा था कल के लिए छोड़ कर वह दफ्तर से निकल दी। अक्सर उसे आठ या नौ बज जाते थे दफ्तर से निकलते हुए, आज वह छः बजे ही निकल पड़ी।
घर आकर संजना ने अपना सामान रखा और नीचे के माले पर पहुंच मिसेज़ शर्मा के दरवाजे की घंटी बजा दी। मिसेज़ शर्मा ने दरवाजा खोला और उसे अंदर ले गईं। उन्हें अचरज हो रहा था कि सदा ही व्यस्त रहने वाली यह कामकाजी महिला उनके यहां कैसे पधारी। फिर उन्हें सुबह की बातचीत याद आई। वह जा कर डब्बू को ले आईं और उसकी गोद में दे दिया।
कुछ देर संजना डब्बू के साथ खेलती रही। यद्यपि वह अभी बात को समझता नहीं था, परंतु प्रेम की भाषा तो समझता ही था। वह प्रसन्नता से उसके साथ खेलता रहा। डब्बू के साथ जी भर खेल कर वह वापस फ्लैट में आई और अपने लिए कॉफी बनाई। टीवी चलाया और देखने बैठ गई। विवेक दफ्तर के कार्य से परदेस गया था।
आज संजना खुश थी। डब्बू उसे अपने आस-पास ही खेलता हुआ अनुभव हो रहा था। अकेलापन उसे छू भी नहीं गया आज।
***
कुछ दिन तक संजना स्वयं पर झेंपती रही। लिफ्ट में चढ़ते उतरते सोचती कि मिसेज़ शर्मा न ही मिलें तो अच्छा होगा। वे भी क्या सोचती होंगी उसके इस भावनात्मक अतिरेक के विषय में!
झेंपना संजना के स्वभाव में नहीं था। परंतु यह कुछ अलग था। कुछ ऐसी भावनाएं आ रही थीं जो उसकी चीन्ही नहीं थीं। उसे भान भी नहीं था कि ऐसी भावनाएं होती भी हैं। होती भी होंगी तो बहुत ही घरेलू किस्म की महिलाओं को होती होंगी। उसे तो नहीं होतीं। वह अलग थी। वह एक आम महिला नहीं थी।
कहना तो यह चाहिए कि उसने कभी स्वयं को एक महिला के रूप में जाना ही नहीं। वह एक व्यक्तित्व है, जो संसार में किसी भी व्यक्ति के साथ, चाहे वह पुरुष हो अथवा महिला, कंधे से कंधा मिला कर समाज के किसी भी कार्य में भागीदारी कर सकती है। उसे ‘वैसी’ भावनाएं नहीं आतीं। कोई भी अशक्त करने वाली भावना उसे नहीं आती, आ ही नहीं सकती, उसने स्वयं को ऐसे ही प्रशिक्षित किया है।
कुछ दिन ऐसे ही बीते। वह नकारती रही।
परंतु, हृदय के एक कोने में एक प्रकार की व्याकुलता और रिक्तता अनुभव करती रही। कुछ दिन ऐसे ही बीत गए। वे अपरिचित भावनाएं आ-आ कर उसके हृदय पर दस्तक देती रहीं। अपनी बहुत व्यस्त दिनचर्या में भी कभी-कभी वह पाती कि वह काम छोड़ शून्य में ताक रही है। कभी कल्पना करने लगती कि वह एक छोटे बच्चे के साथ खेल रही है, उससे लाड़-दुलार कर रही है, उसे स्तन पान करवा रही है, उसे सुलाने को लोरी सुना रही है।
ये विचार एक लंबे समय तक आते ही रहे और प्रयास करने पर भी उनसे पीछा छुड़वाने में वह सफल न हो सकी। संजना अपने प्रति इतनी सत्यनिष्ठ अवश्य थी कि उसने स्वीकारा किया कि कुछ तो असामान्य है जिसका उसे कोई हल निकालना होगा। भावनाओं की इन गुंजलकों से निस्तार पाने के लिए उसे रास्ता निकालना होगा तभी वह स्वयं के साथ न्याय कर पाएगी, अन्यथा यही भावनाएं कहीं उसके भीतर बैठ गईं तो भविष्य में उसके अंदर कोई गांठ उत्पन्न कर सकती हैं।
हे ईश्वर, जीवन के हर मोड़ पर कोई न कोई लोचा! जीवन एक सीधी दिशा में क्यों नहीं चल सकता?
उसने विवेक से बात की।
‘ऐसा क्यों हो रहा है?’
‘कुछ हो रहा है यह तो मैं देख पा रहा था। परंतु हो क्या रहा है?’
‘मुझे लगता है, मुझे कोई चाहिए जिसे मैं वात्सल्य दे सकूँ!’
विवेक हौले से मुस्करा दिया, ‘ऐसा क्या?‘
‘मुझे भी अभी अनुभव हुआ…कि ऐसा भी कुछ होता है।‘
‘उस बच्चे से मिलने के बाद?’
‘हाँ, शायद।’
‘तुम…बच्चा चाहती हो?’
‘वह तो नहीं। जीवन एक योजना के अनुरूप चल रहा है। जीवन का ध्येय नहीं बदलना है। भावनाओं में बह कर जीवन के बड़े उद्देश्य नहीं बदले जा सकते। ऐसा ही जीवन तो हमें पसंद है। भावनाओं का क्या है। वे तो आती-जाती रहती हैं। उन्हें सही से प्रबंधित करना है बस। इतने स्मार्ट तो हम हैं ही, कर सकते हैं।’
***
बहुत सोच विचार कर यह निर्णय लिया गया कि अच्छी नस्ल का एक पालतू कुत्ता लिया जाए। इससे संजना का दिल भी बहल जाएगा और जो रिक्तता वह अनुभव कर रही है उसका हल भी निकल जाएगा। विवेक को बहुधा अपने कार्य से शहर के बाहर जाना पड़ता है। इस अवधी में संजना अकेले ही रहती है। एक प्राणी के घर होने से उसका समय भी अच्छा कटेगा।
इस तरह से गुट्टू का घर में आना हुआ। आते ही उसने अपनी ऊर्जा और प्रेम से सारे वातावरण को परिवर्तित कर दिया। जो घर नितांत एकाकी होने का आभास देता था वह प्रसन्न सा दिखने लगा। संजना अपने कार्यालय से घर आती तो गुट्टू उसके पीछे घूमता रहता। उसे सूंघता, चाटता और उत्तेजना से भर जाता।
संजना को बहुत अच्छा लगता कि कोई है जो उसके आने से इतना प्रसन्न होता है, उसका हृदय भी खुशी से भर जाता। वह जब टीवी चला कर बैठती तो वह उसकी बगल में सट कर बैठ जाता और उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का जतन करता। ऐसे समय में संजना उसे गोद में ले लेती और उसे सहलाने लगती। गुट्टू उसके स्पर्श को अनुभव करता हुआ एक तंद्रा में चला जाता, संजना अगर रुक जाती तो गुहार लगाने लगता। संजना को उसकी ये सब मनुहारें बहुत प्रीतिकर लगतीं। वह हंस देती और उसे अपने सीने से लगा लेती। कभी उसे चूम भी लेती। उसे अपने अंदर हिलोरें लेते इस प्रेम को पहचान कर बहुत अच्छा लगता, वह जीवन में एक संपूर्णता का अनुभव करती।
कार्यालय से आते हुए घर पहुंचने से पहले ही उसे एक आल्हाद का अनुभव होने लगता – कब वह घर पहुंचेगी, कब गुट्टू उसे देख कर दुम हिलाएगा और कब वह उसे सीने से लगा लेगी। गुट्टू उसे अपने बच्चे की तरह लगने लगा था।
गुट्टू को एक प्रशिक्षक के द्वारा यथोचित प्रशिक्षण दिलाया गया – वह बेवजह भौंकेगा नहीं, घर में वस्तुओं को तोड़ेगा नहीं, किसी को काटेगा नहीं, मल मूत्र त्याग के लिए बाहर ही जाना है और इसको किस तरह इंगित करना है ताकि घर का कोई सदस्य उसे बाहर ले जा सके, इत्यादि। उसे घर के बाहर घुमाने ले जाने के लिए एक व्यक्ति की सेवाएं ली गईं जो सुबह-शाम आता था और गुट्टू को बाहर घुमाने ले जाता था। अवकाश वाले दिनों में संजना स्वयं उसे बाहर ले जाया करती थी। विवेक को जानवरों के प्रति कोई विशेष लगाव नहीं था, वह गुट्टू को अपने निकट अधिक नहीं आने देता था। गुट्टू ने इस यथार्थ को स्वीकार कर लिया था और वह विवेक से एक दूरी बना कर रखता था।
दिन में विवेक और संजना अपने-अपने कार्य पर चले जाते थी। समस्या आई कि उस समय गुट्टू को कैसे संभाला जाए। कुछ लोगों से, जिन्होंने पालतू कुत्ते रखे हुए थे, सलाह करने पर यह निर्णय लिया गया कि दिन में उसे एक कमरे में ही सीमित रखा जाए और उसके खाने-पीने का प्रबंध भी वहीं कर दिया जाए ताकि वह अपना दिवस वहाँ आसानी से गुज़ार सके।
यह सब प्रबंध हो जाने पर संजना ने एक संतोष का अनुभव किया। अब गुट्टू अच्छे से अपने घर में रह सकेगा।
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संजना ने पाया कि अपने कार्यस्थल पर भी वह गुट्टू के विषय में सोचती रहती है – वह क्या कर रहा होगा, वह कुशल तो होगा या नहीं, उसने समय से खाना तो खा लिया होगा, वह इस समय घर में एकांत में दुखी तो नहीं अनुभव कर रहा होगा, इत्यादि। अक्सर वह अपना काम छोड़ कर ऐसे विचारों में गुम हो जाती। ऐसे में कोई कर्मचारी उसके पास आता तो वह अकस्मात अपने वर्तमान में लौट आती और सजग होकर अपने कार्य में जुट जाती।
संजना अपने कार्य के प्रति अत्यंत प्रतिबद्ध थी। कार्य में किसी प्रकार की ढिलाई उसे असहनीय थी, उसका कोई अधीनस्थ कर्मचारी यदि अपने कार्य के प्रति असावधानी दिखाता तो उसे संजना के क्रोध का भाजन बनना पड़ता था। ऐसे में जब वह स्वयं को ही कार्यस्थल पर केंद्रित न पाती तो उसे आत्मग्लानि का अनुभव होता। परंतु वह विवश थी। उसका ध्यान बार बार गुट्टू की ओर जाता था, और उसे सयास अपना ध्यान खींच कर वापस कार्य की ओर लाना पड़ता था।
गुट्टू जब भी अस्वस्थ होता तो वह स्वयं उसे चिकित्सक के पास लेकर जाती और सारा दिन उसे अपनी गोद में उठा कर रखती। वह उसकी देखभाल करने के लिए अवकाश ले लेती। यह वही संजना थी जो अपना स्वास्थ्य खराब होने पर भी अवकाश नहीं लेती थी और अपने कार्य स्थल से दूर रहना जिसे भाता ही नहीं था। उसके कार्यस्थल में तो उसे जाना ही ‘वर्कोहॉलिक’ के नाम से जाता था, सब को मालूम था कि मैडम की जान तो काम में ही बसती है। उसका बस चले तो वह अवकाश वाले दिन भी कार्यालय में आ जाए।
अब उसने यह नियम बना लिया था कि रात को घर पहुंचने के बाद वह गुट्टू को बाहर घुमाने ले जाती थी। इसके अतिरिक्त हर अवकाश के दिन वह उसे निकट के ही एक पार्क में ले जाया करती थी, जहां वह उसे बहुत देर खेलने देती थी।
पार्क में उसे अक्सर प्रमिला देवी मिल जाया करती थीं। पहली बार जब वह संजना को मिलीं तो संजना अकेली बैंच पर बैठी थी। गुट्टू को उसने छोड़ दिया था। वह आसपास के पौधों और क्यारियों में अपनी अन्वेषी जिज्ञासा शांत करने के लिए अपनी थूथन घुमा रहा था।
संजना प्रमिला देवी कि देख कर मुस्करा दी।
‘नमस्ते, आण्टी।‘
‘नमस्ते, बेटा।‘
कुछ देर तक दोनों चुपचाप बैठे रहे। फिर प्रमिला देवी ने बात को जारी रखने की गरज से कहा, ‘अकेली ही आई हो घूमने?’
‘नहीं, आण्टी। मेरा बच्चा मेरे साथ है। यहीं आसपास खेल रहा है। अभी आ जाएगा।‘
दोनों ने एक दूसरे को अपना अपना परिचय दिया। कुछ देर बाद गुट्टू आकर संजना की गोद में बैठ गया और प्रमिला को बहुत ध्यान से देखने लगा। संजना ने परिचय करवाया, ‘ये है अपना गुट्टू।‘
कुछ देर प्रमिला उसे ध्यान से देखती रहीं फिर अचरज दर्शाती हुई बोलीं, ‘यही वह बच्चा है जिसकी तुम बात कर रही थी?’
‘हाँ आण्टी, यही है मेरा प्यारा सा बच्चा।‘
‘वास्तव में बहुत प्यारा है।‘ प्रमिला ने कहा। अभी तक वह सहज नहीं हो पा रही थी और अचरज के भाव उसके चेहरे पर आ जा रहे थे। ‘और कोई….बच्चा…भी है तुम्हारा?’
‘नहीं, आण्टी। बस एक यही है। आपके भी बच्चे हैं?’
‘हाँ, हैं तो।…परंतु दो पांव वाले ही हैं।’
दोनों हंस दीं।
‘दो बेटे हैं। अपने अपने परिवारों के साथ विदेश में रहते हैं।’
‘तो आप और अंकल यहां रहते हैं?’
‘नहीं, इन्हें यह संसार छोड़े कुछ बरस हो गए। अब तो यह बुढ़िया अकेले ही अपने दिन काट रही है।’
संजना ने शोक व्यक्त किया। कुछ देर इधर उधर की बातें चलती रहीं। फिर दोनों अपने अपने घरों को चल दीं।
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संजना को अनुभव होता कि वह गुट्टू की भावनाओं को भांप लेती है। अभी गुट्टू की ओर से कोई इंगित नहीं होता परंतु संजना को यह आभास हो जाता कि गुट्टू को कुछ खाने को चाहिए। और कुछ ही देर में वास्तव में गुट्टू भूखे होने की आवाज़ें निकालता उसके आसपास मंडराने लगता। गुट्टू की अस्वस्थता का भान संजना को स्वयं से ही हो जाता। एक दिन अपने कार्यालय में काम करते हुए वह एकाएक चौंक गई जैसे कि कुछ दुर्घटना हो गई है या होने वाली है। कुछ देर तक वह अपनी व्यस्तता से उस भावना को दबाती रही। परंतु जब उससे नहीं रहा गया तो वह काम छोड़ स्वयं को शांत करने का प्रयास करती रही। परंतु इससे भी जब उसको चैन नहीं आया तो उसने अपने घर फोन लगाया जिसे उनके घर की कामवाली बाई ने उठाया। इससे पहले कि संजना कुछ कहती, वह बोल पड़ी, ‘बीबी जी, मैं आपको फोन लगाने ही वाली थी। गुट्टू एकदम निढाल होकर पड़ा हुआ है। न कुछ बोलता है, न खाता है, न पीता है और मेरे बुलाने पर कोई जवाब भी नहीं देता है। क्या हुआ होगा इसे?’
संजना तुरंत ही अशांत हो उठी, उसे ध्यान आया कि कुछ देर से वह स्वयं कितना व्याकुल अनुभव कर रही थी। ‘तुम उसका ध्यान रखो, मैं आ रही हूँ।‘
उसने अपने अधीनस्थ कार्य करने वाले कर्मचारी गुलशन को बुलाया और उसे परिस्थिति समझाते हुए बताया कि वह घर जा रही है। अब तक कार्यालय में उससे संबद्ध सभी स्टाफ को इस बात का ज्ञान हो गया था कि मैडम को अपने कुत्ते से कितना लगाव है। गुलशन ने तुरंत स्थिति को भांपते हुए कहा, ‘मैडम, आप चिंता न करें और जा कर गुट्टू का ध्यान करें, हम लोग कार्य को संभाल लेंगे।‘
संजना को एक क्षण के लिए यह ख्याल भी आया कि यदि इसी तरह उसे बार-बार कार्य छोड़ कर जाना पड़ा तो उसका स्वयं का महत्व कहीं कम न हो जाए। परंतु अभी वह इतनी व्याकुल थी कि उसने इस विचार को एक तरफ धकेला और कार्यालय के गराज की ओर बढ़ गई जहां उसकी गाड़ी खड़ी थी।
कमला ने घर का किवाड़ खोला, ‘मेम साब देखिए गुट्टू कैसे बेजान सा लेटा हुआ है।‘
संजना गुट्टू के पास आकर बैठ गई। उसने देखा कि यद्यपि गुट्टू को उसके आने का ज्ञान हो गया था परंतु उसने एक कान हौले से हिलाने के अलावा कुछ न किया और आंख बंद कर निश्चल पड़ा रहा। संजना ने उसके तन को छू कर देखा तो वह तप रहा था। उसने गुट्टू को नाम लेकर पुकारा परंतु उसके शरीर में कोई गतिविधि नहीं दिखी। संजना ने गुट्टू को एक कपड़े में लपेटा, कमला को उसे उठाकर अपने साथ आने के लिए कहा, और अपनी गाड़ी में लेकर उसे जानवरों के डॉक्टर के पास पहुंची।
गुट्टू का उपचार दो-तीन दिन चला। एक दिन संजना अवकाश ले घर पर ही रही और गुट्टू की देखभाल करती रही। अगले दिन वह अपने कार्य पर तभी गई जब उसे विश्वास हो गया कि गुट्टू को स्वास्थय लाभ होना आरंभ हो गया है। उसका मन तो हो रहा था कि वह और अवकाश ले परंतु एक वरिष्ठ अधिकारी होने के नाते उसके बहुत अधिक उत्तरदायित्व थे, जिन्हें त्यागना संभव नहीं था। एक उसका मन हुआ कि गुट्टू को साथ ही ले जाए परंतु इसमें भी बहुत सारे व्यवधान दिखे सो यह भी नहीं हो पाया। बहुत भारी मन से वह काम पर गई और जितना संभव था कमला से उसका हालचाल पता करती रही और आवश्यक निर्देश देती रही।
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कुछ दिनों पश्चात् पार्क में प्रमिला आण्टी से फिर भेंट हुई।
‘नमस्ते, आण्टी!’
‘नमस्ते। कैसा है तुम्हारा बच्चा?’
‘ठीक है, आण्टी। सामने खेल रहा है। आपके बच्चे कैसे हैं?’
‘सब अपने अपने जीवन में व्यस्त हैं।’
‘आण्टी, आप अकेली रहती हैं। कोई जानवर क्यों नहीं पाल लेतीं?’
‘अकेलेपन का उपचार तो अपनों का साथ ही होता है। वह संभव नहीं। सो अकेलेपन में रहने की आदत ही डाल ली है। अब तो अच्छा ही लगता है अकेलापन।’ कह कर प्रमिला हंस दीं। ‘और जहां तक जानवर पालने की बात है, सो वैसी कोई इच्छा नहीं हुई। उन्हें स्वतंत्र उन्मुक्त देखना ही भाता है।’
‘मेरा गुट्टू एकदम स्वतंत्र है।’
‘सो कैसे?’
संजना को इसका कोई सही उत्तर नहीं सूझा। प्रमिला कह तो ठीक रही थी। गुट्टू के गले में बंधा पट्टा उसपर अंकुश का बहुत बड़ा चिन्ह था।
बात को बदलते हुए संजना बोली, ‘आप अकेली रहती हैं। किसी बेटे के पास जा कर रहना संभव नहीं हो पाया क्या?’
‘संभव तो सब है बेटा। मुझे ही नहीं जमा। और इन्हें भी नहीं जमता था। यह हमारा घर है, हम अपने नियमों से रहते हैं। वहां बेटे का घर होगा। उनके नियम होंगे। है न?’
‘ठीक कह रही हैं आण्टी।’
उस दिन दोनों की बातचीत यहां समाप्त हो गई। परंतु बहुत देर तक संजना के मस्तिष्क में प्रमिला की बात घूमती रही।
गुट्टू स्वतंत्र नहीं है?…
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पिछले कुछ समय से गुट्टू संजना के हृदय के और अधिक समीप आ गया था। उसका अस्वस्थ होना संजना को उसकी भावनाओं के प्रति और जागरूक कर गया था। वह अपने कार्यालय से आकर उसे जितना संभव हो अपने साथ ही रखती। जब टीवी देखने बैठती तो उसे अपनी गोद में ले लेती और प्रेम से उसे सहलाती।
‘स्वतंत्र नहीं है।‘
यह वाक्य रह रह कर उसके मस्तिष्क में घूमता रहता। वह गुट्टू की आंखों में देखती और उसके भाव पढ़ने की चेष्टा करती। गुट्टू की आंखों से बहता हुआ जो दिखता था क्या वह एक निर्दोष प्रेम नहीं था?
वह स्वयं जो गुट्टू के लिए अनुभव करती थी क्या वह प्रेम नहीं था?
अब तो गुट्टू के रात के खाने की व्यवस्था भी उसने अपनी डाइनिंग टेबल के पास ही कर ली थी। यदि यह संभव होता उसे वह अपनी बगल में एक सीट देकर टेबल पर ही खाने को देती। परंतु उसकी छोटी काया के कारण यह संभव नहीं था। सो उसके लिए अलग से एक मेज कुर्सी लाई गई जिसे खाने के समय डाइनिंग टेबल के समीप ही लगा दिया जाता था और उसे संजना और विवेक के साथ ही खाना दिया जाता था।
संजना के गुट्टू के प्रति इस बढ़ते लगाव को विवेक भी देख रहा था। एक दिन कार्य से आने के बाद जब वह चाय पी रहा था – खाने में अभी कुछ समय था – तो उसने संजना से कहा, ‘तुम्हें इससे बहुत लगाव हो गया है।’
‘मुझे लगता है कि यह हमारे घर के सदस्य की तरह ही है, तो क्यों न वैसा ही इसका रहन सहन हो!’
‘वह तो बहुत अच्छी बात है। परंतु यह घर का वास्तविक सदस्य कैसे हो सकता है, यह तो एक जानवर है?’
‘यह जानवर नहीं है!’, संजना ने कुछ ऊंचे स्वर में कहा। फिर तुरंत ही स्वयं को संभाल कर बोली, ‘विवेक, प्लीज़्, इसे जानवर मत कहो। यह हमारे घर का सदस्य ही है।’
‘ओके, डीयर।’
‘यह मेरी हर बात समझता है और मैं इसकी।’
‘वह तो मैं जानता हूँ।’
अपने भीतर के इस विस्फोट पर संजना भी चकित थी। आखिर उसे इतना क्रोध क्यूं आया?
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अब गुट्टू परिवार का एक सदस्य बन चुका था। विवेक और संजना जहां कहीं भी जाते गुट्टू को साथ लेकर जाते। हर त्योहार और खुशी के अवसर पर उसे शामिल किया जाता। आरंभ से ही हर गतिविधि का नियोजन ऐसे किया जाता कि गुट्टू उसमें सम्मिलित रहे। विवेक ने अपनी गाड़ी की पिछली सीट पर गुट्टू के बैठने के लिए एक वाहक लगवा लिया था, जिसमें वह आसानी से बैठ जाया करता था। वे कहीं अवकाश पर घूमने जाते तो गुट्टू को भी साथ लेकर जाते भले ही उसके लिए कितना ही व्यय करना पड़े। विवेक ने भी धीरे-धीरे गुट्टू की आदत डाल ली थी। वह बहुत सहनशीलता से उससे व्यवहार करता था। गुट्टू को भी इस का ज्ञान था और वह विवेक के साथ उतना ही हेल-मेल रखता था जितना वह सहन कर सकता था।
रात्रि के साढ़े नौ बजे थे। विवेक और संजना धीमे-धीमे चलते हुए अपने घर की ओर आ रहे थे। गुट्टू की रस्सी को संजना ने पकड़ रखा था।
वे दोनों विवेक के एक मित्र के घर से वापस आ रहे थे। उस मित्र की शादी की दसवीं साल गिरह थी जिसमें उसने अपने कुछ मित्रों को सपरिवार आमंत्रित किया था। पार्टी बहुत अच्छी रही थी। वे उसी के बारे में बातचीत कर रहे थे। मित्र का घर अधिक दूर् नहीं था सो उन्होंने वहां पैदल ही जाने आने का निर्णय लिया था। पार्टी में कुछ बच्चे भी आए थे जो गुट्टू को देख कर बहुत खुश हुए थे। गुट्टू उनके साथ आनंद से खेलता रहा। विदा लेते हुए वे गुट्टू को हाथ हिला बाय करके गए और संजना से आग्रह किया कि फिर किसी दिन गुट्टू को दोबारा लेकर आए, वे उसके साथ कुछ और खेलना चाहते हैं। उन बच्चों ने गुट्टू को प्रेम से गले लगाया और उसे भी दोबारा आने को कहा। गुट्टू भी बहुत प्रेम से दुम हिलाता रहा और उन्हें भांति-भांति से अपनी खुशी जताता रहा जैसे कि वह उनकी हर बात समझ रहा था।
विवेक और संजना के साथ वह बहुत उत्तेजित होकर चल रहा था। वे तीनों सड़क के किनारे-किनारे चले जा रहे थे। अभी उन्होंने लगभग आधा रास्ता पार किया होगा कि एक कुत्ता गुट्टू को देख कर भौंकने लगा। गुट्टू भी उसे देख भौंकने लगा। विवेक ने दूसरे कुत्ते को भगाने की चेष्टा की परंतु वह उनके समानांतर चलता रहा। थोड़ी दूरी पर जाकर एक और कुत्ता उसके साथ मिल गया और वे दोनों ही भौंकते हुए चलते रहे। अगले चौराहे पर दो-तीन कुत्ते और जमा हो गए और वे सभी बहुत ही आक्रामक होकर भौंकने लगे।
गुट्टू भी उनपर भौंकता रहा और बीच-बीच में रस्सी छुड़ा कर उनकी ओर जाने की चेष्टा करता रहा। संजना रस्सी को कस कर पकड़े गुट्टू को उनके समीप जाने से रोक रही थी। कुछ देर बाद गली के कुत्तों की आक्रामकता और बढ़ गई, संभवतः संख्या बढ़ने से। वे एक-एक दो-दो करके गुट्टू के समीप आते थे और आक्रामक भाव-भंगिमा बना कर उसे और अधिक डराने की चेष्टा करते थे, और फिर वापस चले जाते थे। उनके पास आने से गुट्टू और अधिक उत्तेजित हो जाता था और उनपर झपटने को होता था। परंतु उन कुत्तों के आकार और संख्या में बड़े होने के कारण गुट्टू भी भयभीत दिखने लगा था। कुछ दूर और आगे चलने पर गुट्टू संजना के पास पास होकर चलने लगा और वहीं से उन कुत्तों के ऊपर भौंकता रहा। उसे डरा जान उन कुत्तों का हौसला और बढ़ गया और वे अधिक संख्या में संजना और गुट्टू के आसपास मंडराते हुए भौंकने लगे। अब तो संजना और विवेक भी भयभीत होने लगे थे और गुट्टू के साथ अपनी सुरक्षा करने का प्रयास उन्हें करना पड़ रहा था। उन कुत्तों ने भी परिस्थिति को भांप लिया। अब सारे कुत्ते जो कि संख्या में सात-आठ हो चुके थे उनके आसपास घूमते हुए गुट्टू पर आक्रमण करने लगे। इसी आपाधापी में संजना के साथ से रस्सी छूट गई। यह देख उन कुत्तों ने गुट्टू के ऊपर हमला बोल दिया। गुट्टू डर कर एक ओर भागा। सभी कुत्ते उसके पीछे पीछे दौड़े। संजना गुट्टू के पीछे उसे बचाने के लिए भागी परंतु विवेक ने उसे पकड़ कर रोक लिया। ऐसी परिस्थिति में कुछ भी हो सकता था। इतनी अधिक संख्या में कुत्तों से उलझना, और वह भी जब वे आक्रामक हो उठे हैं, उनकी स्वयं की सुरक्षा के लिए भारी पड़ सकता था।
गुट्टू कुछ ही दूर भाग पाया। एक कुत्ते ने उसकी पिछली एक टांग पकड़ उसे नीचे गिरा दिया और बाकी के कुत्ते उसे ऊपर टूट पड़े। फिर तो जो हुआ वह बहुत ही भयानक दृश्य था। सभी कुत्ते गुट्टू को निर्ममता से काट रहे थे और उसकी चमड़ी पकड़ कर खींच रहे थे। गुट्टू असहाय हो चीखने के अलावा कुछ न कर पा रहा था। एक कुत्ते ने उसके मुंह को ही दबोच लिया और अपने दांत गड़ा दिए। कुछ ही क्षणों में गुट्टू की चीखें हल्की पड़ गईं और केवल उसके रिरियाने की आवाज़ आती रही।
संजना तो गुट्टू के बचने की आशा छोड़ ही चुकी थी और रो रही थी। सौभाग्य से कुछ लोग आसपास से इकट्ठा हो गए और कुत्तों को भगाने के प्रयास करने लगे। एक व्यक्ति ने उन कुत्तों को कुछ पत्थर मारे और एक सज्जन आसपास से एक मोटी छड़ी ढूंढ लाए और कुत्तों पर उससे कई प्रहार किए। कुत्तों का आक्रमण अब ढीला पड़ने लगा और एक एक कर वे मैदान छोड़ कर भागने लगे। अंत में केवल एक कुत्ता शेष रह गया जिसने गुट्टू के तन की खाल को अपने दांतों में दबोच रखा था परंतु उसे भी छड़ी के प्रहारों से मार कर भगा दिया गया।
गुट्टू सड़क पर निस्पंद पड़ा था। संजना और विवेक ने सहमे हृदय से उसके पास जाकर देखा तो उन्हें लगा कि गुट्टू के प्राण पखेरू उड़ चुके हैं। संजना रोने लगी। विवेक ने उसे दिलासा दिया, ‘दिल छोटा मत करो।’
एक सज्जन ने गुट्टू के शरीर को छू कर देखा और बोले, ‘अभी सांस चल रई है। मरा नहीं है। इसे प्राथमिक उपचार दिलाइए।’
दूसरे सज्जन बोले, ‘इस मोहल्ले में तो रात को निकलना दूभर हो गया है। अभी कल ही किसी आदमी को काट लिया था इन्हीं में से एक कुत्ते ने।’
विवेक ने तुरंत अपने मोबाइल से गुट्टू के डॉक्टर को कॉल किया। उन्होंने गुट्टू को लेकर तुरंत उनके क्लिनिक में आने के लिए कहा जो उनके घर के पास ही था। वहां गुट्टू के घावों पर दवा लगाई गई और पट्टियां बांधी गईं। एक इंजेक्शन भी दिया गया। खाने की दवाएं भी दी गईं।
गुट्टू को जैसे-तैसे बचा लिया गया।
जब तक वे गुट्टू को लेकर घर आए आधी से अधिक रात बीत चुकी थी।
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गुट्टू के मुंह पर गहरे घाव थे जिन्हें पट्टियों से ढक दिया गया था। आधा से अधिक मुंह पट्टियों से ढका था। तन पर जगह-जगह गहरे घाव थे जिन पर पट्टियां कर दी गई थीं। दो टांगें बहुत बुरी तरह से दांतों द्वारा काटे जाने से हुए घावों से ग्रस्त थीं और लगभग पूरी तरह से पट्टियों से बंधी थीं। बाकी दो टांगों पर कुछ कम घाव थे जिन्हें पट्टियों से ढका गया था।
गुट्टू अचेतन अवस्था में था। उसकी सांसें तीव्र गति से चल रही थीं। संजना ने धीमी आवाज़ में उसे कई बार बुलाया परंतु उसकी तरफ से कोई इंगित नहीं मिला कि वह संजना की आवाज़ सुन पा रहा है। संजना रात भर सो नहीं पाई। बार-बार उठ कर गुट्टू के पास आती और थोड़ी देर बैठ कर फिर चली जाती। अपने बिस्तर पर करवटें बदलती और कुछ ही देर में फिर उठ कर आ जाती। रात्रि का जो काल बचा था उसमें यही उपक्रम चलता रहा।
अगले दिन दोपहर के समय गुट्टू ने आंखें खोलीं परंतु वह शून्य में ताकता रहा। संजना ने उसे सहलाना चाहा परंतु उसके तन पर इतने घाव थे कि सहलाने के लिए स्थान ढूंढना भी संभव नहीं था। विवेक सुबह अपने कार्यालय के लिए निकल चुका था। जाने से पहले उसने संजना को सांत्वना दी और विश्वास दिलाया कि गुट्टू जल्द स्वस्थ हो जाएगा। संजना ने अवकाश लिया जिसके लिए उसे अपने उच्चाधिकारी से बहुत अनुनय-विनय करना पड़ा और स्वयं भी उसे बहुत ग्लानि हुई क्योंकि आज बहुत से महत्वपूर्ण कार्य किए जाने पहले से ही निश्चित किए गए थे।
आज संजना का किसी भी काम में मन नहीं लग रहा था, खाना भी उसने कठिनाई से खाया। गुट्टू के तो कुछ खाने का प्रश्न ही नहीं उठता था।
संजना को संताप खाए जा रहा था। क्यों वे इतनी रात को गुट्टू को वहां लेकर गए। वहां पैदल जाने का निर्णय कितना गलत था। क्यों उसने रस्सी छोड़ दी थी। क्यों उसने गुट्टू को अपनी गोद में नहीं उठा लिया जब वे आक्रामक कुत्ते उसपर टूट पड़े थे। बहुत सारी गलतियां उससे हुई हैं, जिसका नतीजा यह है कि गुट्टू पीड़ा से पड़ा तड़प रहा है और वह कुछ भी करने में असमर्थ है।
अगले दिन गुट्टू को होश आया। वह बिस्तर से उठने में सक्षम नहीं था परंतु अपने आसपास के प्रति सजग था। वह आंखें खोल कर इधर-उधर देखता और उठने का प्रयास करता। परंतु इसमें उसे पीड़ा होती और वह हल्की चीखें मारता हुआ फिर निढाल होकर पड़ा रहता। उसकी आंखों में पीड़ा की झलक थी और एक कातर भाव्।
दूसरे दिन वह कुछ होश में दिखाई दिया और उत्सुकता से अपने चारों ओर देखता रहा। बीच-बीच में उसके कान भी सजग हो जाते थे मानो कुछ सुनना चाहते हों। आज उसकी पीड़ा में कुछ आराम दिख रहा था। तीसरे दिन जाकर वह अपनी टांगों पर खड़ा हो सका। संजना जहां भी होती वह उसके पास आता और दुम हिलाता हुआ उसके पैरों में लेट जाता।
संजना ने बहुत सावधानी से उसे उठा लिया और उसे अपनी गोद में लेकर बालकनी में बैठ गई। वह धीरे-धीरे उसका सिर सहलाने लगी। गुट्टू अपनी आंखें बंद कर उसके स्पर्श का अनुभव लेता रहा। संजना उसकी संपूर्ण पीड़ा को वास्तव में अनुभव करना चाहती थी। वह चाहती थी वह सारा कष्ट उसे हो ताकि वह गुट्टू की वेदना को स्वयं भी भोग सके। शायद इस तरह से गुट्टू का दर्द कम हो पाए!
संजना के मन में बहुत से भाव आ जा रहे थे — आज गुट्टू कैसा अनुभव कर रहा होगा? क्या वह अपनी मां की कमी को अनुभव कर रहा होगा? यदि उसकी मां उसके साथ होती तो क्या वह अपनी जान पर खेल कर उसे न बचाती? क्या वह उन तमाम कुत्तों में कूद कर सभी प्रहार अपने ही शरीर पर न ले लेती? क्या वह स्वयं, संजना, कभी ऐसा कर सकती? क्या उसकी मां उसे अधिक प्रेम और आत्मिक बल न देती? क्या हुआ जो उसके पास डॉक्टर और दवाइयों की सुविधा उपलब्ध न होती, उसके पास वह होता जो दुनिया की कोई भी दवा उसे नहीं दे सकती थी, उसके पास मां का हृदय होता। संजना कितना भी प्रयास कर ले, वह उसकी मां नहीं बन सकती। वह कितना भी दुलार प्रकट कर ले, उसे मां की ऊष्मा नहीं दे सकती। वह कितना भी प्रयास कर ले गुट्टू की भाषा नहीं समझ सकती।
यह हमारा अहंकार है जो हम समझते हैं कि केवल इंसान ही अपनी भावनाओं को भाषा के जरिए एक दूसरे से साझा कर सकते हैं। जानवर भी अवश्य ही अपनी भावनाएं एक दूसरे से बांटते हैं। हम उनकी भाषा नहीं समझ सकते। हम सदा उनके ‘पालक’ रहेंगे और वे सदा हम पर निर्भर रहेंगे – क्योंकि वे हमारे संसार में आ गए हैं और हम पर नितांत आश्रित हैं। इस तथ्य को कोई भी नहीं बदल सकता। यह एक कड़वी सच्चाई है। प्रमिला आण्टी सही कहती हैं। ग़ुट्टू हम पर आश्रित है, वह स्वतंत्र नहीं है, हम उसे कितना भी प्रेम कर लें वह पराधीन रहेगा। यह उसका मूलभूत स्वभाव है कि उसे हम पर प्रेम आता है। हम उस प्रेम से अपनी रिक्तता को भरना चाहते हैं, यह हमारा स्वार्थ है। हम उसकी अच्छाई का उपभोग करने के लिए उससे उसकी स्वतंत्रता छीन लेते हैं।
हे भगवान, मुझसे यह क्या अपराध हो गया? अपनी निजी आवश्यकता के लिए मैंने एक जीवित आत्मा को कितना दुख दिया। मैं नितांत आत्म केंद्रित और स्वार्थी हूं। यही नहीं अपितु मैं प्रवंचना की भी दोषी हूं। मैं अपने सुख के लिए एक जीव को संताप देने की दोषी हूं। मेरे लिए तो क्षमा भी उपलब्ध नहीं है।
इसी संताप में संजना के अगले कई दिन निकल गए। वह कुछ दिन से अधिक अवकाश नहीं ले सकती थी। उसपर बहुत बड़े उत्तरदायित्व थे जिन्हें दरकिनार करना उसके बस में नहीं रह गया था। उसे उन जिम्मेदारियों का निर्वाह करना ही था।
***
एक माह बाद संजना को प्रमिला आण्टी पार्क में मिलीं। उन्होंने संजना को देख प्रसन्नता जताई, ‘बहुत दिनों बाद दिखी हो। और तुम्हारा बच्चा नहीं दिखाई दे रहा?’
संजना ने प्रमिला आण्टी को गुट्टू के साथ जो हुआ था सब बताया। फिर कहा, ‘आण्टी, मुझे यह अनुभव हुआ कि मैं गुट्टू का कितना भी ध्यान रखूं उसके साथ न्याय नहीं कर सकूंगी। ऊपर से मेरी और विवेक की जिम्मेदारियां भी इतनी अधिक हैं कि गुट्टू को अधिक समय नहीं दे सकते। उस छोटे से जीव को केवल अपने मनोरंजन के लिए रखना उसके साथ न्याय नहीं होता।’
‘सही बात है। तो किसी को दे दिया?’
‘नहीं, उसे किसी को देना अथवा बेचना भी मुझे न्यायसंगत नहीं लगा। ऐसा करके तो मैं एक और पाप की भागीदार हो जाती। उसे एक ऐसी संस्था को दिया है जो बहुत से कुत्तों को रखते हैं। उनके पास खुला स्थान है जो शहर के बाहर प्रकृति के पास है। जानवरों की देखभाल के लिए यथोचित लोग भी हैं। वहां इन जानवरों को ऐसा वातावरण दिया गया है जहां वे नैसर्गिक रूप से जीवन जी सकते हैं। यह भी तो एक सत्य है कि उन्हें अब जंगल में नहीं छोड़ा जा सकता। वे वहां अधिक काल तक जीवित नहीं रह पाएंगे। परंतु जंगल से मिलता जुलता एक स्थान दिया गया है, जो जंगल के खतरों से रिक्त है।‘, संजना ने एक उदास मुस्कुराहट के साथ कहा, ‘वहीं अपने गुट्टू को छोड़ आई मैं। उसे देख कर मुझे लगा वह वहां खुश रहेगा और सुरक्षित भी।’
‘यह तो तुमने बहुत अच्छा किया।’
कुछ देर दोनों चुपचाप बैठी रहीं।
फिर प्रमिला बोली, ‘और तुम? तुम्हारा क्या होगा?’
‘मेरा क्या होगा? मैं जीवित हूं। आपसे यदा कदा मिलती रहूंगी।’
‘तुम फिर से अकेला नहीं अनुभव करोगी?’
‘सो तो है। मैं ने भी समझौता कर लिया है अपने एकांत के साथ। जैसे आपने कर लिया है।’
‘कुछ विचार नहीं किया?’
संजना कुछ क्षण शून्य में ताकती रही, ‘बहुत देर हो चुकी है।’
दोनों सामने खेलते बच्चों को देखने लगीं जैसे वहां से अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर आने की प्रतीक्षा हो।
परिचय–
प्रवीण ‘बनजारा’ का जन्म 1962 में दिल्ली में हुआ. दिल्ली विश्व-विद्यालय से भौतिकी में स्नातकोत्तर करने के पश्चात् बैंक में कार्यरत रहे. सम्प्रति स्वतंत्र लेखन.
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