जानी-मानी लेखिका विनीता परमार हाल में त्रिपुरा की एकल यात्रा पर गई थीं। त्रिपुरा यात्रा को उन्होंने शब्दों में संजोया और मुझे भेजा। आप लोगों से साझा कर रहा हूँ। आप भी इस रोमांचक यात्रा में भागीदार बनिये- मॉडरेटर
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त्रिपुरा भारत के आखिरी प्राकृतिक, अछूते स्थलों में से एक है। यह क्षेत्र अपनी प्राचीन भव्यता, लहरदार पहाड़ियों, घाटियों और नदियों के लिए प्रसिद्ध है जो इसके बीच से बहती हैं। उत्तर पूर्व क्षेत्र …त्रिपुरा उत्तर-पूर्व भारत का एक शांत, प्रकृति-संरक्षित और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध राज्य है, जिसे सही मायनों में “भारत का शांग्री-ला” कहा जा सकता है। यहाँ की हरियाली से ढकी पहाड़ियाँ, रहस्यमय घाटियाँ, झीलें, प्राचीन मंदिर और जनजातीय विरासत इसे एक स्वप्निल, आत्मिक शांति से भरपूर स्थल बनाते हैं। भीड़-भाड़ से दूर त्रिपुरा का सौंदर्य, उसकी सादगी और उसकी आत्मा में बसी विविधता इसे एक ऐसा स्थान बनाती है जहाँ प्रकृति, संस्कृति और आध्यात्मिकता एक साथ सांस लेते हैं।
त्रिपुरा अपनी मादक हरियाली, शांत झीलों और सदियों पुरानी सभ्यता के दरवाज़े खोलकर खड़ा है, फिर भी अब तक अनचाहा खजाना बना हुआ है। यहां तक पहुँचने में आने वाली चुनौतियाँ—दुर्लभ परिवहन की राहें, सीमित आतिथ्य सुविधाएँ और अपरिचितता की धुंध—बाहरी आगंतुकों के लिए अक्सर भय का आवरण बन जाती हैं। प्रदेश की दिलकश संस्कृति और आदिवासी विरासत को उजागर करने वाली कहानियाँ आज भी बहुत से कानों तक नहीं पहुँच पाई, जिससे यह आश्चर्यजनक सौंदर्य अक्सर अज्ञात ही रहता है।
पूर्वोत्तर भारत की शांत, रहस्यमयी और सांस्कृतिक विविधताओं से सजी भूमि त्रिपुरा की यात्रा मेरे जीवन की एक अविस्मरणीय अनुभूति बन गई। यह यात्रा केवल स्थानों की खोज नहीं थी, बल्कि एक ऐसी यात्रा थी जहाँ इतिहास, प्रकृति और अध्यात्म एक साथ साँस लेते हैं। इस यात्रा के हृदय में बसे थे—उनाकोटी और छबिमुड़ा, दो ऐसे दिव्य स्थल, जहाँ चुपचाप खड़े पत्थर भी बोलते हैं, जहाँ बहती नदी की लहरों के साथ देवी-देवताओं की छवियाँ अठखेलियाँ करती हैं, और जहाँ घने जंगलों की नीरवता में भक्ति की एक सूक्ष्म, किंतु गूंजती हुई ध्वनि सुनाई देती है।
उनाकोटी, अपने विशाल शिलाचित्रों और पौराणिक आभा के साथ जैसे एक खोया हुआ अध्याय है भारत के सांस्कृतिक ग्रंथ का, जबकि छबिमुड़ा प्रकृति की गोद में छिपी एक ध्यानस्थ कृति की भाँति लगता है। इन स्थलों की भव्यता और रहस्य से भरी हुई उपस्थिति ऐसी है कि वे यात्रियों को केवल देखने नहीं, अनुभव करने के लिए बुलाते हैं।
सच कहूँ तो, सिर्फ़ और सिर्फ़ इन दो स्थानों की वजह से त्रिपुरा की यात्रा की जा सकती है—इतनी गहराई, इतनी दिव्यता और इतना सौंदर्य कहीं और नहीं मिलता। ये स्थल केवल भूगोल पर बिंदु नहीं, बल्कि आत्मा की मानचित्र पर उजली लौ की तरह चमकते हैं।
उनाकोटी: पथरीली देवताओं की अद्भुत विरासत
उनाकोटी की यात्रा एक रहस्यमयी, अध्यात्मिक और कलात्मक संसार में प्रवेश करने जैसी थी — एक ऐसी दुनिया, जहाँ शिल्प, प्रकृति और आस्था सहस्राब्दियों से एक साथ सांस ले रहे हैं।उनाकोटी को “पूर्वोत्तर का अंगकोर वाट” भी कहा जाता है।
अगरतल्ला स्टेशन से कुमारघाट की ट्रेन यात्रा का रोमांच अकेले में चेहरे पर एक मुस्कान बिखेर देता है। कुमारघाट एक छोटा सा स्टेशन वहाँ उतरते ही आम भारतीय स्टेशनों की तरह दृश्य देख मन में एक आश्वस्ति हुई कि यहाँ ठगे जाने की संभावना कम है। मैंने मर-मोलाई कर कौलाशहर ( लोगों के उच्चारण में मैंने इसे कोयला शहर समझा था और कई प्रश्न भी दाग दिये। लोगों ने बताया कैलाश को हम लोग ऐसे बोलते हैं।) होते हुए उनाकोटी तक जाने के लिए बुक किया। रास्ते में ड्राइवर से बात करते हुए मुझे त्रिपुरा के विषय में अज्ञानता के साथ – साथ झारखण्ड के विषय में कम जानकारी का भी पता चला। कुमारघाट स्टेशन के आसपास तुलसी माला पहने लोगों के साथ टैक्सी ड्राइवर की बातों से पता चला कि झारखण्ड के देवघर में ठाकुर अनुकूलचंद्र जी का सत्संग आश्रम है। ठाकुर अनुकूलचंद्र के आश्रम की स्थापना बांग्लादेश के पबना जिले में अपने जन्मस्थान से देवघर स्थानांतरित होने के बाद शुरू हुई थी। हम सब उन्हीं के शिष्य हैं और देवघर जाना हमारी इच्छा है। इस सपने ने ड्राइवर और मेरे बीच एक अनदेखा संबंध स्थापित हुआ। अब उनाकोटी की बातों को बताते मुझे उनाकोटी की अद्भुत यात्रा की बातें बताना लगा। उनाकोटी पहुँचने से बस थोड़ी देर पहले झमाझम बारिश होने लगी। उनाकोटी पहुँच हमने सड़क किनारे गाड़ी खड़ी की, बाहर बारिश हो रही थी यह जगह पाँच बजे शाम तक बंद हो जायेगी इसके भय से मैं रेनकोट पहन उनाकोटी के गेट तक गई वहाँ ढेर सारे सुरक्षा गार्ड बारिश से बचने के लिए बैठे थे। मैंने टैक्सी ड्राइवर से भी चलने का मनुहार किया, वह तैयार नहीं हुआ। गेट पर एंट्री के बाद सेक्यूरिटी गार्ड ने फिसलन से बचते हुए चलने की सलाह दी।अकेली मैं चल पड़ी प्रस्तरों को देखने, बारिश छूटने का नाम नहीं ले रहा था। प्रवेश करते ही त्रिपुरा की पहचान एयरपोर्ट पर बनी आकृति मेरे सामने थी।
उनाकोटी की दृष्टि यहाँ की दो बड़ी-बड़ी आँखें हैं, जो दूर से ही एक विशालकाय चेहरे के रूप में नज़र आती हैं।
जब पास जाकर उन पत्थरों को देखा, तो उनमें उकेरी गई नक़्क़ाशी की सूक्ष्मता और भव्यता ने मंत्रमुग्ध कर दिया। चारों तरफ एक भी व्यक्ति नहीं दिखाई दे रहा था मैंने हिम्मत जुटाई और इस सुंदर जगह को दिखाने के लिए बहनो को वीडियो कॉल किया। भय में मैं ध्यान से देख नहीं पा रही थी, तुरंत खुद को समझाया और जैसे ही देखा कि उस विशाल चेहरे के दोनों कानों से बड़े-बड़े गोलाकार कुंडल लटक रहे हैं, सिर पर एक भव्य मुकुट शोभायमान है, और गले में एक विशाल हार सुशोभित है। मस्तक पर बनी तीसरी आँख साफ़-साफ़ बताती है कि यह आकृति भगवान शिव की ही है। मैंने उस अदृश्य शक्ति को याद किया और वीडियो कॉल बंद कर सीढियों से नीचे उतरने लगी। बारिश और फिसलन के साथ इन आकृतियों को देखना रोमांचित कर रहा था। जगह जगह बोर्ड लगे हुए थे।
उनाकोटी का अस्तित्व और उसके पीछे की सारी दंतकथाएँ भगवान शिव के इर्द-गिर्द ही घूमती हैं। पहली नक़्क़ाशीदार प्रतिमा के बगल में एक और समान प्रकार की आकृति मौजूद है, जिससे उनकी संख्या और भी बढ़ जाती है।
जब मैं सीढ़ियों से उतरकर थोड़ा और आगे बढ़ती गई, तो समझ आया कि उनाकोटी कितना विशाल क्षेत्र है। सामने से नीचे, ऊपर, दाएँ-बाएँ कई सीढ़ियाँ गुज़रती हैं, जो इस अमूल्य धरोहर के व्यापक विस्तार को दर्शाती हैं।
यह विडम्बना है कि भारत के सुदूर उत्तर-पूर्व के घने जंगलों में स्थित इस अद्भुत विरासत के बारे में आज भी पुख़्ता जानकारी का अभाव है। पुरातात्विक अध्ययनों से अनुमान लगाया जाता है कि ये पथरीली कलाकृतियाँ लगभग 7वीं से 9वीं शताब्दी की हैं। भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा इस स्थल के उत्खनन कार्य जारी हैं ताकि इस महान विरासत की गहराई से खोज की जा सके।
वापसी के मार्ग में, दूसरी तरफ की सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए मैं एक छोटी धारा, धालूछोरा, के पास पहुँची। यहाँ विशाल पत्थरखंडों पर उकेरा गया लगभग 30 फ़ीट ऊँचा एक मुखाकृति था, जो ‘उनकोटिश्वर काल भैरव’ का प्रतिनिधित्व करता है। इस मूर्ति के सिर पर करीब 10 फ़ीट लंबा मुकुट है, जिसके दोनों ओर गंगा और यमुना की सुंदर नक़्क़ाशियाँ अपनी जगह लिए हुए हैं। उनके सामने नंदी की विशाल प्रस्तर प्रतिमा भी विराजमान है।
धालूछोरा के पास एक पंडित जी रहते हैं, जो स्थानीय लोगों की पूजा-अर्चना में सहायता करते हैं। अचानक से दिखे पंडित से पहले मैं डर गई फिर कठिन सीढियों को उतरने में उनसे मदद ली।उन्होंने बताया साल में दो बार — मकर संक्रांति (जनवरी) और अशोक अष्टमी (अप्रैल) के अवसर पर यहां विशाल मेले लगते हैं, जिसमें त्रिपुरा और आस-पास के क्षेत्रों से हजारों श्रद्धालु और पर्यटक पहुँचते हैं। काल भैरव की प्रतिमा से आगे बढ़कर ऊपर की ओर सीढ़ियों से चढ़ते हुए एक प्राचीन मंदिर के अवशेष मिलते हैं। वहीं पास ही एक कमरे के अंदर कई शिला-खंडों पर बनी मूर्तियों को सुरक्षित रखा गया है।
उनाकोटी में महादेव के अतिरिक्त देवी पार्वती, देवी दुर्गा, विष्णु, राम, हनुमान जी, नरसिंह, गणेश भगवान, रावण इत्यादि की भी प्रतिमाएं मिलती हैं। पास ही एक टिन शेड के रूप में एक अन्य मंदिर के अवशेष हैं, जहां पाँच आकृतियों वाला एक शिवलिंग विद्यमान है।
नीचे की ओर सीढ़ियाँ उतरते हुए मैं धीरे-धीरे धालूछोरा के उस रहस्यमय और शांत हिस्से में पहुँची, जहाँ प्रकृति और मानव सृजन एक-दूसरे में घुल-मिल गए हैं। घने पेड़ों की छाया से घिरा हुआ एक छोटा सा तालाब सामने था, जिसके ऊपर से गिरता झरना एक अनवरत संगीत-सा गूँज रहा था। पानी की बूँदें चट्टानों से टकराकर जब हवा में बिखरतीं, तो ऐसा प्रतीत होता मानो प्रकृति खुद कोई आरती कर रही हो।
झरने के किनारे, तीन विशालकाय गणेश आकृतियाँ ध्यान आकर्षित करती हैं। सामान्यतः जिन गणेश की कल्पना हम सौम्य और प्रसन्नचित्त रूप में करते हैं, यहाँ उनके उग्र स्वरूप ने एक अलग ही भाव जगाया। उनकी मोटी सूँढें और नुकीले दांत इस बात की गवाही दे रहे थे कि यह कोई आम मूर्तिकला नहीं है। हर आकृति में शक्ति और स्थायित्व का ऐसा समावेश था कि मानो वे चट्टान से नहीं, स्वयं पर्वत के हृदय से उकेरी गई हों। इन मूर्तियों के पास ही विष्णु की एक प्रतिमा भी स्थित थी—शांत, गम्भीर और नयनाभिराम। ऐसा लगा जैसे गणेश की ऊर्जा के पास विष्णु की शांति संतुलन बनाए हुए है।
इनके निकट ही ज़मीन में आधे हिस्से तक धँसा हुआ एक विशाल शिवलिंग है, जो काल की गहराइयों में छिपे अध्यात्म का संकेत देता है। यह शिवलिंग ऐसा प्रतीत होता है मानो वह सैकड़ों वर्षों से धरती की नब्ज़ सुन रहा हो, मौन में सब कुछ कहता हुआ।
इन प्रतिमाओं को देखकर मेरे भीतर प्रश्नों की एक लहर-सी उठने लगी। ये आकृतियाँ किसने बनाई होंगी? कौन-सा यंत्र, कौन-सी तकनीक रही होगी उस समय? यह मात्र हथौड़े और छैनी का कमाल तो नहीं हो सकता। क्या यह किसी अज्ञात विज्ञान की उपज है? या फिर वह श्रम, धैर्य और समर्पण की मूर्त छवि है जो अब हमारे समय में विरल हो चली है? मैं वहाँ खड़ी होकर इन चट्टानों की सतह पर चलती उँगलियों से न जाने कितनी कहानियाँ पढ़ने की कोशिश कर रही थी।
लोककथाएँ, पौराणिक आख्यान, और दंतकथाएँ अपने-अपने स्थान पर हैं, परंतु इन पत्थरों में छिपी कला और साधना उस कल्पना से भी कहीं आगे है। यह किसी देवत्व की उपासना भर नहीं, एक युग की सांस्कृतिक चेतना का मूर्तरूप है, जिसे किसी ने चुपचाप प्रकृति की गोद में आकार दिया।
उनाकोटी की पौराणिक कथाएँ
उनाकोटी का शाब्दिक अर्थ है — ‘एक करोड़ से एक कम’। माना जाता है कि यहां एक करोड़ से एक कम, यानी 99,99,999 देवी-देवताओं की आकृतियाँ पत्थरों पर उकेरी गई हैं।
पहली कहानी के अनुसार, भगवान शिव अपने एक करोड़ गणों के साथ काशी या कैलाश पर्वत जा रहे थे। रास्ते में रात हो जाने पर उन्होंने तय किया कि वहीं रात्रि विश्राम किया जाए। शिव जी ने अपने गणों को सूर्योदय से पहले उठने का आदेश दिया, लेकिन अगली सुबह वे सब सो रहे थे। क्रोधित होकर शिव ने सभी गणों को पत्थरों में बदल दिया।
दूसरी कहानी में कालू कुम्हार नामक एक शिल्पकार की कथा है। वह माता पार्वती का भक्त था और उसने भगवान शिव के साथ कैलाश जाने की इच्छा जताई। शिव ने शर्त रखी कि अगर वह सभी गणों की मूर्तियाँ बना सके तो उसे साथ ले जाएंगे। लेकिन कालू कुम्हार एक करोड़ मूर्तियां बनाने से पहले थक गया और केवल 99,99,999 मूर्तियां ही बना सका। इसलिए वह वहीं रह गया।
एक और कथा यह भी बताती है कि कालू कुम्हार ने एक आकृति अपनी खुद की बनाई थी, इसलिए उनकी कुल संख्या एक करोड़ से कम रह गई।
उनाकोटी का सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व
उनाकोटी की पत्थर की ये विशाल मूर्तियाँ न केवल धार्मिक महत्व रखती हैं, बल्कि स्थानीय जनजातीय संस्कृति, जीवन-शैली और उनकी कलाकारी की भी अभिव्यक्ति हैं।
यहाँ की आकृतियों के कानों के कुंडल, गले के हार, और मुखाकृतियाँ स्थानीय जनजातियों के जीवन और संस्कृति की झलक प्रस्तुत करती हैं। इन मूर्तियों को किसी एक व्यक्ति की रातों-रात की मेहनत नहीं, बल्कि सैकड़ों वर्षों से पीढ़ी दर पीढ़ी शिल्पकारों ने बनाया है।
उनाकोटी की यह धरोहर हमारी सांस्कृतिक विरासत का अमूल्य हिस्सा है, जो उत्तर-पूर्व भारत के इतिहास, धर्म, कला और लोककथाओं को जीवंत करती है।उनाकोटी एक विश्व धरोहर स्थल के रूप में यूनेस्को की अस्थायी सूची में शामिल है। इसका मतलब है कि यह स्थल यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल घोषित किए जाने के लिए विचार किया जा रहा है।
छबिमुड़ा: जहाँ प्रकृति ने पत्थरों में देवताओं को गढ़ा
उनाकोटी से लौटकर मैं अगरतल्ला होते हुए दक्षिण त्रिपुरा के अमरपुर की ओर बढी। यहाँ से आगे की यात्रा नाव द्वारा गोमती नदी के माध्यम से होती है। नाव की सवारी शुरू होते ही मेरे मन में एक नई उत्सुकता जागी। घने जंगलों से गुजरती नदी, उसके दोनों ओर पहाड़ियाँ और सामने एक चट्टान पर उकेरी गई विशाल प्रतिमा—यह था छबिमुड़ा, जिसे स्थानीय लोग देवतामुरा भी कहते हैं।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की परछाई में
जब राजा अमर ने बंगाल की ओर से हो रहे लगातार आक्रमणों से तंग आकर उदयपुर से अपनी राजधानी हटाकर अमरपुर में बसाई, तो शायद उन्हें भी पता नहीं था कि वे एक ऐसे भूभाग को पहचान दे रहे हैं, जो आने वाले समय में एक आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहर के रूप में जाना जाएगा।
अमरपुर, जो अब गोमती ज़िले का एक डिवीजन है, न सिर्फ ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसमें बसे छबिमुड़ा या चकराकमा जैसे स्थान इसे रहस्य, रोमांच और अध्यात्म का संगम बना देते हैं।
छबिमुड़ा पहुँचते ही सबसे पहले गोमती नदी की सधी हुई लहरें आपका स्वागत करती हैं। नदी के दोनों ओर ऊँची-ऊँची चट्टानें, उनके पीछे घने जंगल और उसके बीच से बहती वह शांत-सी गोमती — एक पल को समय ठहर जाता है।
इन चट्टानों पर उकेरी गई देवी-देवताओं की विशालकाय मूर्तियाँ देखने से कहीं ज्यादा, उन तक पहुँचने का सफर रोमांचकारी है। यह कोई सामान्य दर्शन नहीं है — यह एक यात्रा है गहनता की, भय और श्रद्धा के बीच झूलते अनुभवों की।
नौकायात्रा: किसी हॉरर फिल्म जैसी याद दिला देने वाला रोमांच
गोमती नदी में नौका से लगभग 3 किलोमीटर का सफर तय करना होता है। जैसे-जैसे हम जंगल के भीतर जाते हैं, घना सन्नाटा गहराता है — और बीच-बीच में पक्षियों की आवाजें, पत्तों की खड़खड़ाहट, पानी में हलचल… सब मिलकर एक सिनेमाई अनुभव गढ़ते हैं।
नाव धीरे-धीरे उस स्थान की ओर बढ़ती है जहाँ एक 20 फीट ऊँची, चट्टान पर उकेरी हुई माँ दुर्गा की आकृति आपको स्तब्ध कर देती है। यह प्रतिमा न सिर्फ आकार में विशाल है, बल्कि उसमें जो ऊर्जा है, वह आपके भीतर उतरती है।
यहाँ सिर्फ देवी दुर्गा ही नहीं, बल्कि भगवान शिव, गणेश, विष्णु, नरसिंह आदि की मूर्तियाँ भी हैं, जो मान्यता अनुसार त्रिपुरा की जनजातियों द्वारा बनाई गई थीं। इन मूर्तियों की बारीकी और भाव-भंगिमा देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि यह स्थान किसी विश्व धरोहर से कम नहीं।
रोमांच और आध्यात्म का संगम
जहाँ एक ओर स्थानीय लोग मानते हैं कि छबिमुड़ा से ही स्वर्ग का रास्ता खुलता है, वहीं दूसरी ओर, इस जगह को लेकर रहस्य और रोमांच भी कम नहीं हैं। कई बार ऐसा लगा कि हम किसी पुराने रहस्य को छू रहे हैं। भय और विस्मय का ऐसा मिश्रण कम ही देखने को मिलता है।
इस यात्रा के दौरान मुझे कई बार लगा कि शायद मुझे यहाँ नहीं आना चाहिए था — लेकिन अब जब लौटकर सोचती हूँ, तो यह निर्णय मेरी पूरी त्रिपुरा यात्रा का सबसे सुंदर, सबसे सार्थक हिस्सा रहा।
छबिमुड़ा की सबसे प्रसिद्ध मूर्ति दुर्गा की है जो महिषासुर का वध कर रही हैं। यह मूर्ति करीब 20 फीट ऊँची है और एक खड़ी चट्टान पर इस तरह उकेरी गई है कि लगता है जैसे वह अभी जीवंत होकर युद्ध के लिए निकल पड़ेगी। उसके पास ही शिव, विष्णु, कार्तिकेय और अन्य देवी-देवताओं की आकृतियाँ हैं। ये सब 15वीं शताब्दी की मानी जाती हैं और त्रिपुरा के माणिक्य वंश के राजाओं द्वारा निर्मित मानी जाती हैं।
यहाँ की हर मूर्ति किसी कहानी को कहती प्रतीत होती है। मैंने देखा कि स्थानीय आदिवासी इन मूर्तियों को केवल पूजा की वस्तु नहीं मानते, बल्कि अपने जीवन का हिस्सा मानते हैं। उनके लिए ये मूर्तियाँ जंगल की आत्मा हैं, उनके पूर्वजों की पहचान हैं।
छबिमुड़ा तक पहुँचना आसान नहीं है, लेकिन जो पहुँचता है वह इस स्थल की भव्यता और शांति में खो जाता है। यहाँ कोई भीड़ नहीं, कोई मंदिर का पुजारी नहीं, कोई चढ़ावा नहीं—सिर्फ नदी, पहाड़, जंगल और उन पर उकेरी गईं मूर्तियाँ। ऐसा लगता है जैसे प्रकृति और कला ने मिलकर इसे बनाया है, बिना किसी मध्यस्थ के।
यह पूरी यात्रा मेरे लिए एक आध्यात्मिक अनुभव बन गई। न तो यहाँ वैसी भीड़भाड़ थी जैसी बड़े तीर्थस्थलों पर होती है, न ही कोई शोरगुल। यहाँ सिर्फ प्रकृति की आवाज़ें थीं—नदी की लहरें, पत्तों की सरसराहट और कभी-कभी पक्षियों की चहचहाहट। उनाकोटी और छबिमुड़ा भारत के उन अनछुए रत्नों में हैं, जिन्हें जानना और अनुभव करना हर उस व्यक्ति के लिए ज़रूरी है जो इतिहास, संस्कृति, और प्रकृति के मिलन को समझना चाहता है। अगर हम सही दृष्टि से देखें, तो इन पत्थरों में हमें समय, भक्ति, परंपरा और प्रकृति—चारों का अद्भुत समन्वय दिखाई देता है।
इस यात्रा ने न केवल मेरे भीतर के पर्यटक को तृप्त किया, बल्कि एक साधक को भी जाग्रत कर दिया जो जीवन और प्रकृति की गहराइयों को समझना चाहता है। यह यात्रा समाप्त नहीं हुई, बल्कि मेरे भीतर कहीं आरंभ हुई है।