प्रकृति प्रेमी, बाघों के संरक्षण के लिए आजीवन काम करने वाले वाल्मीकि थापर नहीं रहे। उनके अतुलनीय योगदान को याद कर रही हैं प्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी वाणी त्रिपाठी– मॉडरेटर
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वाल्मीकि थापर का जन्म अगस्त 1952 में एक प्रतिष्ठित भारतीय परिवार में हुआ था। उनके पिता रोमेश थापर एक प्रसिद्ध पत्रकार और राजनीतिक टिप्पणीकार थे, जबकि उनकी चाची रोमिला थापर एक विख्यात इतिहासकार हैं। इस बौद्धिक वातावरण ने वल्मीकि के भीतर प्रकृति और वन्य जीवन के प्रति गहरी रुचि उत्पन्न की। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई की। बचपन से ही उन्हें वन्यजीवों, विशेष रूप से बाघों के प्रति गहरा आकर्षण था, जिसने आगे चलकर उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य बन गया।
वाल्मीकि थापर भारत में बाघ संरक्षण के लिए किए गए अपने समर्पित कार्यों के लिए जाने जाते रहे। उनका करियर चार दशकों से भी अधिक लंबा रहा, जिसमें उन्होंने राजस्थान स्थित रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान में मुख्य रूप से कार्य किया। उन्होंने 1970 के दशक में रणथंभौर में अपना कार्य शुरू किया, जो कि “प्रोजेक्ट टाइगर” के पहले निदेशक कैलाश संखला से प्रेरित था। वाल्मीकि थापर ने बाघों की सुरक्षा और पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने के लिए कई प्रयास किए और सरकार की कई समितियों और टास्क फोर्स में सदस्य के रूप में योगदान दिया। 2005 में वे टाइगर टास्क फोर्स के सदस्य भी रहे, हालांकि उन्होंने इसकी सिफारिशों से असहमति जताई और और अधिक कठोर सुरक्षा उपायों की मांग की।
एक लेखक और वृत्तचित्र निर्माता के रूप में भी वाल्मीकि थापर का योगदान उल्लेखनीय रहा। उन्होंने बाघों और वन्यजीवों पर 20 से अधिक पुस्तकें लिखी, जिनमें लैंड ऑफ द टाइगर, द सीक्रेट लाइफ ऑफ टाइगर्स, टाइगर: द अल्टीमेट गाइड, और टाइगर फायर: 500 ईयर्स ऑफ द टाइगर इन इंडिया प्रमुख हैं। इसके अलावा, उन्होंने बीबीसी और डिस्कवरी चैनल जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों के लिए कई वृत्तचित्रों का निर्माण और प्रस्तुति की, जिससे भारत का वन्य जीवन वैश्विक दर्शकों तक पहुँचा।
वाल्मीकि थापर वन्यजीव संरक्षण पर अपने स्पष्ट और अडिग दृष्टिकोण के लिए प्रसिद्ध रहे। उन्होंने कई बार सरकार की निष्क्रियता, भ्रष्टाचार और राष्ट्रीय उद्यानों में पर्यटन के कुप्रबंधन की आलोचना की। वे वन विभाग के कर्मचारियों को सशक्त करने, अभेद्य कोर क्षेत्रों के निर्माण और वैज्ञानिक, क्षेत्रीय निगरानी प्रणालियों के उपयोग की जोरदार वकालत करते रहे। वे मानते थे कि संरक्षण के लिए मानव-केंद्रित दृष्टिकोण के बजाय वन्यजीव-केंद्रित सोच को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
वाल्मीकि थापर भारत के सबसे प्रसिद्ध और मुखर वन्यजीव संरक्षकों में गिने जाते थे। उन्होंने बाघों की दुर्दशा के प्रति लोगों को जागरूक करने में अहम भूमिका निभाई और उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संरक्षण का प्रतीक बना दिया। वे कई बार सरकारी नीतियों से असहमत भी रहे हैं, लेकिन उनका उद्देश्य सदैव बाघों और उनके आवासों की सुरक्षा रहा है।
व्यक्तिगत जीवन में वाल्मीकि थापर ने प्रसिद्ध रंगकर्मी संजना कपूर से विवाह किया, जो अभिनेता शशि कपूर की बेटी हैं। उनके परिवार में कला और सामाजिक सक्रियता की समृद्ध विरासत है।
संक्षेप में कहा जाए तो वाल्मीकि थापर ने अपने जीवन को भारत के बाघों और पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा के लिए समर्पित कर दिया। एक लेखक, वृत्तचित्र निर्माता और कार्यकर्ता के रूप में उन्होंने यह दर्शाया कि किस प्रकार एक व्यक्ति के समर्पण से पूरे देश और विश्व में वन्यजीवों के प्रति दृष्टिकोण को बदला जा सकता है। उनका कार्य भारत में संरक्षण प्रयासों को प्रेरणा प्रदान करता रहेगा।
वाल्मीकि थापर का सबसे बड़ा योगदान भारत में बाघ संरक्षण के क्षेत्र में उनके आजीवन समर्पण के रूप में देखा जाता है। उन्होंने विशेष रूप से रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान में कई दशकों तक काम करते हुए न केवल बाघों के जीवन का गहराई से अध्ययन किया, बल्कि उनकी सुरक्षा के लिए ठोस प्रयास भी किए। उनके काम ने भारत में वन्यजीव संरक्षण की दिशा को एक नई पहचान दी।
इसके अलावा, वाल्मीकि थापर ने भारत सरकार की टाइगर टास्क फोर्स जैसे महत्वपूर्ण नीति-निर्माण निकायों में भी भाग लिया और संरक्षण नीतियों को बेहतर बनाने के लिए कई वैज्ञानिक और व्यावहारिक सुझाव दिए। हालांकि वे कई बार सरकारी नीतियों की आलोचना भी करते रहे, फिर भी उनका उद्देश्य हमेशा बाघों की सुरक्षा और पारिस्थितिकी तंत्र की स्थिरता रहा। उन्होंने बाघ को सिर्फ एक संकटग्रस्त प्रजाति के रूप में नहीं, बल्कि भारत की संस्कृति, विरासत और वन्य जीवन का प्रतीक माना। उनकी पुस्तक टाइगर फायर में 500 वर्षों की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर को संकलित कर बाघ को एक राष्ट्रीय गौरव के रूप में प्रस्तुत किया गया।
इस प्रकार वाल्मीकि थापर का सबसे बड़ा योगदान यही है कि उन्होंने बाघ को भारत और विश्व में संरक्षण का एक जीवंत प्रतीक बना दिया और उसके संरक्षण के लिए एक मजबूत भावनात्मक, वैज्ञानिक और नीतिगत आधार तैयार किया।वाल्मीकि थापर के जीवन से जो सबसे महत्वपूर्ण संदेश मिलता है, वह यह है कि जब किसी व्यक्ति में जुनून, धैर्य और साहस होता है, तो वह अकेले भी प्रकृति संरक्षण के क्षेत्र में गहरा और स्थायी प्रभाव डाल सकता है, चाहे उसे कितनी भी सरकारी उदासीनता, राजनीतिक बाधाएं या पारिस्थितिक चुनौतियाँ क्यों न झेलनी पड़ें।
उनका जीवन यह दर्शाता है कि एक समर्पित व्यक्ति पूरे देश को किसी संकटग्रस्त प्रजाति—जैसे कि बाघ—के संरक्षण के लिए जागरुक और प्रेरित कर सकता है। वे यह भी सिखाते हैं कि सच्चा संरक्षण सिर्फ पशु प्रेम नहीं, बल्कि गहराई से जुड़ा हुआ फील्डवर्क, निडर रूप से सच्चाई को उजागर करना और व्यवस्था की कमियों की ईमानदारी से आलोचना करना भी है। वाल्मीकि थापर ने विज्ञान, कहानी कहने की कला और सामाजिक सक्रियता का एक संतुलित मेल प्रस्तुत किया, जिससे वे न सिर्फ बाघों की आवाज़ बने, बल्कि भारत के समग्र पर्यावरणीय दृष्टिकोण को भी बदलने में सफल रहे।
उनके जीवन से हमें यह भी सीखने को मिलता है कि वन्यजीवों की रक्षा सिर्फ जीवों को बचाने की बात नहीं है—बल्कि यह हमारी संस्कृति, विरासत और भविष्य की रक्षा से भी गहराई से जुड़ी हुई है। अंततः, वाल्मीकि थापर हमें यह सिखाते हैं कि प्रकृति की रक्षा केवल नीतियों से नहीं होती, बल्कि दूरदृष्टि और साहस रखने वाले लोगों से होती है, जो इसके लिए बिना थके लगातार प्रयास करते हैं।
अब जब वाल्मीकि थापर हमारे बीच नहीं रहे, तो उनके बारे में यही कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने जीवन को पूरी तरह भारत के बाघों और जंगलों की रक्षा के लिए समर्पित कर दिया। वे सिर्फ एक संरक्षणवादी नहीं थे, बल्कि बाघों की आत्मा की आवाज़ थे—ऐसे व्यक्ति जिन्होंने जंगलों में समय बिताया, हर बाघ को एक जीवंत चरित्र की तरह जाना, और उनकी दुनिया को आम लोगों तक पहुँचाया।
उनकी सबसे बड़ी विरासत यह है कि उन्होंने हमें यह सिखाया कि प्रकृति की रक्षा कोई शौक नहीं, बल्कि एक नैतिक जिम्मेदारी है। उन्होंने अपने लेखन, फिल्मों और निडर विचारों के ज़रिए बाघों को राष्ट्रीय चेतना का हिस्सा बना दिया। उनकी आलोचनात्मक दृष्टि, व्यवस्था के प्रति ईमानदारी और साहसी आवाज़ हमेशा याद रखी जाएगी। उनकी अनुपस्थिति एक गहरी कमी है, लेकिन उनके विचार, किताबें और काम एक जीवित धरोहर के रूप में हमेशा प्रेरणा देते रहेंगे। आज जब भारत और दुनिया जलवायु संकट और जैव विविधता के क्षरण का सामना कर रही है, तो वल्मीकि थापर की सोच और चेतावनी पहले से कहीं ज़्यादा प्रासंगिक हो गई है।