आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री मुजफ्फरपुर के ऐसे क्लासिक हैं जिनके बारे में बात तो सब करते हैं लेकिन पढ़ता कोई नहीं है. उनके कुत्तों, उनकी बिल्लियों, उनकी गायों, उनकी विचित्र जीवन शैली की चर्चा तो सब करते हैं लेकिन उनकी कविताओं की चर्चा शायद ही कोई करता हो. पिछले दिनों पद्मश्री ठुकराने के कारण वे चर्चा में थे. जीवन के नौ से अधिक दशक देख चुके शास्त्री जी तन से भले अशक्त दिखते हों मन में वही ठसक, वही बांकपन दिखता है. अब तो इस उपेक्षित कवि की ये पंक्तियाँ खुद उनके सन्दर्भ में अर्थपूर्ण प्रतीत होती हैं-
फूले चमन से रूठकर
बैठी विजन में ठूंठ पर,
है एक बुलबुल गा रही,
कैसी उदासी छा रही.
यहाँ इस विविधवर्णी कवि की कुछ अर्थपूर्ण कविताएँ प्रस्तुत हैं- जानकी पुल.
१.
स्याह-सफ़ेद
स्याह-सफ़ेद डालकर साए
मेरा रंग पूछने आए!
मैं अपने में कोरा सादा
मेरा कोई नहीं इरादा
ठोकर मार-मारकर तुमने
बंजर उर में शूल उगाए
स्याह-सफ़ेद डालकर साए
मेरा रंग पूछने आए!
मेरी निंदियारी आँखों का-
कोई स्वप्न नहीं; पांखों का-
गहन गगन से रहा न नाता,
क्यों तुमने तारे तुड़वाए.
स्याह-सफ़ेद डालकर साए
मेरा रंग पूछने आए!
मेरी बर्फीली आहों का
बुझी धुआंती-सी चाहों का-
क्या था? घर में आग लगाकर
तुमने बाहर दिए जलाए!
स्याह-सफ़ेद डालकर साए
मेरा रंग पूछने आए!
२.
जिंदगी की कहानी
जिंदगी की कहानी रही अनकही,
दिन गुजरते रहे, सांस चलती रही!
अर्थ क्या? शब्द ही अनमने रह गए,
कोष से जो खिंचे तो तने रह गए,
वेदना अश्रु, पानी बनी, बह गई,
धूप ढलती रही, छांह छलती रही!
बांसुरी जब बजी कल्पना-कुंज में
चांदनी थरथराई तिमिर पुंज में
पूछिए मत कि तब प्राण का क्या हुआ,
आग बुझती रही, आग जलती रही!
जो जला सो जला, ख़ाक खोदे बला,
मन न कुंदन बना, तन तपा, तन गला,
कब झुका आसमां, कब रुका कारवां,
द्वंद्व चलता रहा, पीर पलती रही!
बात ईमान की या कहो मान की,
चाहता गान में मैं झलक प्राण की,
साज़ सजता नहीं, बीन बजती नहीं,
उंगलियां तार पर यों मचलती रहीं!
और तो और, वह भी न अपना बना,
आँख मूंदे रहा, वह न सपना बना!
चाँद मदहोश प्याला लिए व्योम का,
रात ढलती रही, रात ढलती रही!
यह नहीं, जानता मैं किनारा नहीं,
यह नहीं, थम गई वारिधारा कहीं!
जुस्तजू में किसी मौज की, सिंधु के-
थाहने की घड़ी किन्तु टलती रही!
३.
ऐ वतन याद है किसने तुझे आज़ाद किया?
कैसे आबाद किया? किस तरह बर्बाद किया?
कौन फ़रियाद सुनेगा, फलक नहीं अपना,
किस निजामत ने तुझे शाद या नाशाद किया?
तेरे दम से थी कायनात आशियाना एक,
सब परिंदे थे तेरे, किसने नामुराद किया?
तू था खुशखल्क, बुज़ुर्गी न खुश्क थी तेरी,
सदाबहार, किस औलाद ने अजदाद किया?
नातवानी न थी फौलाद की शहादत थी,
किस फितूरी ने फरेबों को इस्तेदाद किया?
गालिबन था गुनाहगार वक्त भी तारीक,
जिसने ज़न्नत को ज़माने की जायदाद किया?
माफ कर देना खता, ताकि सर उठा के चलूँ,
काहिली ने मेरी शमशेर को शमशाद किया?
४.
गुलशन न रहा, गुलचीं न रहा, रह गई कहानी फूलों की,
महमह करती-सी वीरानी आखिरी निशानी फूलों की.
जब थे बहार पर, तब भी क्या हंस-हंस न टंगे थे काँटों पर?
हों क़त्ल मजार सजाने को, यह क्या कुर्बानी फूलों की.
क्यों आग आशियाँ में लगती, बागबां संगदिल होता क्यों?
कांटे भी दास्ताँ बुलबुल की सुनते जो जुबानी फूलों की.
गुंचों की हंसी का क्या रोना जो इक लम्हे का तसव्वुर था;
है याद सरापा आरज़ू-सी वह अह्देजवानी फूलों की.
जीने की दुआएं क्यों मांगी? सौगंध गंध की खाई क्यों?
मरहूम तमन्नाएँ तड़पीं फानी तूफानी फूलों की.
केसर की क्यारियां लहक उठीं, लो, दाहक उठे टेसू के वन,
आतिशी बगूले मधु-ऋतु में, यह क्या नादानी फूलों की.
रंगीन फिजाओं की खातिर हम हर दरख़्त सुलगायेंगे,
यह तो बुलबुल से बगावत है गुमराह गुमानी फूलों की.
‘सर चढ़े बुतों के’– बहुत हुआ; इंसां ने इरादे बदल दिए;
वह कहता: दिल हो पत्थर का, जो हो पेशानी फूलों की.
थे गुनहगार, चुप थे जब तक, कांटे, सुइयां, सब सहते थे;
मुँह खोल हुए बदनाम बहुत, हर शै बेमानी फूलों की.
सौ बार परेवे उड़ा चुके, इस चमनज़ार में यार, कभी-
ख़ुदकुशी बुलबुलों की देखी? गर्दिश रमजानी फूलों की?
५.
मेरा नाम पुकार रहे तुम,
अपना नाम छिपाने को !
अपना नाम छिपाने को !
सहज-सजा मैं साज, तुम्हारा –
दर्द बजा, जब भी झनकारा
पुरस्कार देते हो मुझको,
अपना काम छिपाने को !
मैं जब-जब जिस पथ पर चलता,
दीप तुम्हारा दिखता जलता,
मेरी राह दिखा देते तुम,
अपना धाम छिपाने को !