जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

मेरे भीतर के पाठक को कथा से पहले वातावरण जानना होता है कि कथा के पात्र आखिर विचरते कहां हैं, क्योंकि वातावरण उन्हें बनाता है। ग्रामीण हैं तो जीवन धीमी गति और सहनशील धैर्य के साथ चलेगा और आप अपनी नब्ज़ सेट कर लेंगे। पात्र का परिवेश महानगर है तो एक बेचैनी पर आपकी नब्ज़ सेट होगी।

इस वातावरण गढ़न के माहिर मेरे समकालीनों में कोई हैं तो वे पंकज सुबीर हैं। ‘चोपड़े की चुड़ैलें’ कथा ने मुझ पर इसी महीन विवरणात्मक परिवेश के कारण गहरा असर डाला था। उनकी कहानियां विविध परिवेशों की कहानियां हैं…. एकदम माजिद मजीदी की फिल्मों की तरह…. कि परिवेश आगे है…. घटना कहीं इसके झीने आवरण में घट रही है, करवट बदल रहा है वक्त।

यह कहानी तो शुरू ही दृश्यात्मक टुकड़ों से होती है। इमली का पेड़, मुर्गियां, जंगल, कनेर के फूल, करोंदे के झाड़, चिरमी की बेल….चींटे, हवा नीबू की महक , बरसात और वीरबहुटियां इस पल-पल बदलते परिदृश्य के आगे बीमार लड़की और बेकरी वाला लड़का है, जो लड़की से आते जाते बतियाता है, दोनों के सरोकार जुड़ते जाते हैं अनजाने…और एक लंबा वक्त  बीत जाता है…..ओह कमाल का क्राफ्ट यहां जन्म लेता है। जंगल बीत चुके हैं, कंक्रीट जन्म चुका है, बरसातें कम हो गयी हैं….. मगर हम एक प्रेम कहानी के बीच खड़े हैं। यहां पंकज सुबीर एकदम अलग शिल्प में कथा बुनते हैं। आप उनकी रेंज पर चकित होते हैं।

यह कहानी विशुद्ध पाठकीय आनंद की किस्सागोई है जो हमें अपने नॉस्टैल्जिया के धीमे वक्तों में ले जाती है। जहां हम गलियों की बेकरियों में खुद को अपनी किशोरावस्था जैसा खड़ा पाते हैं…. प्लम केक खरीदते, हर छोटे सुख, संक्षिप्त मीठे संवाद को अपनी  स्मृति मंजूषा में सहेजे।

 एक अनूठी कहानी के लिए पंकज सुबीर को साधुवाद – मनीषा कुलश्रेष्ठ

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वीरबहूटियाँ चली गयीं

लड़की जब देर रात यहाँ आयी, तब उसे ऐसा लगा कि घर के ठीक पास ही एक छोटी-सी पहाड़ी है। रात के अँधेरे में ताँगे से उतर कर घर में घुसते हुए, नींद से भारी आँखों से जब उसने घर के ठीक पास इस पहाड़ी जैसी आकृति को देखा, तो यहाँ आने का उसका अनमनापन कुछ दूर हो गया। उसे पहाड़ पसंद हैं। वह जहाँ से आयी है, वहाँ उसके घर के पास कोई पहाड़ या नदी नहीं है। रात देर से आने के कारण अगले दिन लड़की की नींद बहुत देर से खुली। जब वह घर से बाहर आयी है, तब तक दोपहर हो चुकी है। बरामदे में आकर जब उसने अपने बायें हाथ की तरफ़ देखा, तो वह एकदम निराश हो गयी। वहाँ पहाड़ी नहीं है, इमली के बहुत बड़े-बड़े दस-पन्द्रह पेड़ एक क़तार में लगे हुए हैं। इतने पास-पास कि उनकी शाख़ें ऊपर की तरफ़ एक-दूसरे में गुँथी हुई हैं। इसी कारण रात के अँधेरे में ये इमली के पेड़ किसी पहाड़ी का भ्रम पैदा कर रहे थे। लड़की को याद आया कि उसे तो इमली खाना पसंद है। कच्ची इमली, गद्दर इमली, पक्की इमली, इमली तो उसे हर रूप में खाना पसंद है। यहाँ तक कि उसको इमली के नये-नये निकले खटमिट्ठे पत्ते और इमली के चिये भी आग पर भून कर खाना पसंद है। पहाड़ी का इमली के पेड़ों में बदल जाना अब लड़की को उतना बुरा नहीं लग रहा है। 

लड़की ने घर के बरामदे में खड़े होकर देखा कि वह कहाँ आयी है। मकान के सामने के आयताकार मैदान पर चारों तरफ़ लोहे के कँटीले तारों की तीन से चार फीट ऊँची फेंसिंग है, जिसके सहारे-सहारे चल कर रंगून क्रीपर की बेल एक तरफ़ की पूरी फेंसिंग पर फैली हुई है। फेंसिंग पर रंगून क्रीपर के लाल, सफेद और गुलाबी फूल यहाँ से वहाँ तक खिले हुए हैं। बीच-बीच में कहीं-कहीं बोगनबेलिया के बैंगनी फूल भी दिखाई दे रहे हैं। यह आयताकार मैदान मकान के सामने पूरी लम्बाई में फैला हुआ है। लड़की जहाँ खड़ी है उसके दायें हाथ की तरफ़ एकदम कोने में एक गुलमोहर का पेड़ खड़ा है। बोगनबेलिया की एक मोटी-सी लतर फेंसिंग को छोड़ कर एक झूला-सा बनाते हुए गुलमोहर की एक शाख़ का सहारा लेकर गुलमोहर पर भी चढ़ गयी है और बहुत ऊपर तक चली गयी है। गुलमोहर के कहीं-कहीं बचे हुए लाल-नारंगी फूलों के बीच बोगनबेलिया के फूलों का बैंगनी रंग इसी कारण बिखरा हुआ है। गुलमोहर के पेड़ के ठीक नीचे ही मैदान में आने के लिए एक बाँस का गेट लगा है। गेट से कुछ दूरी पर एक नीबू का छोटा-सा कुछ झुका हुआ सा घना पेड़ लगा है, जिसमें छोटे-छोटे हरे नीबू लगे हुए हैं। नीबू से कुछ हट कर एक पीले कनेर का नौजवान-सा पेड़ है। गेट से लेकर पीले कनेर तक की फेंसिंग के किनारे रंगून क्रीपर की जगह मेंहदी की झाड़ियाँ लगी हैं, जिन पर छोटे-छोटे सफ़ेद फूल आये हुए हैं। फेंसिंग के बाहर एक पगडंडी जैसा रास्ता है, जो दायीं तरफ़ दूर से साँप की तरह लहराता हुआ आ रहा है, गुलमोहर के पास आकर वहाँ से रंगून क्रीपर की लतर वाली फेंस के समानांतर चलते हुए बायीं तरफ़ चला गया है, वहाँ कुछ दूर तक चल कर इमली के पेड़ों की क़तार में गुम हो गया है। इमली के पेड़ों के पीछे की तरफ़ से कहीं-कहीं खेत और कहीं-कहीं से जंगल झाँक रहा है। गुलमोहर वाली तरफ़ जहाँ से यह रास्ता आता हुआ दिख रहा है, वहाँ दूर रास्ते के सिरे पर कुछ दुकानें बनी हुई हैं। बहुत दूरी पर होने के कारण दुकानें यहाँ से बस धुँधली-धुँधली सी ही दिखाई दे रही हैं।  

लड़की मकान में बाहर बने हुए बरामदे में खड़ी है। जिस पर मिट‍्टी के कत्थई-भूरे अँग्रेज़ी कवेलुओं की ढलवाँ छत है। कवेलू लकड़ी के पट्टों पर सलीक़े से जमा कर रखे गये हैं। जिस मकान में लड़की खड़ी है उसकी पूरी छत इसी प्रकार के कवेलुओं से बनी हुई है। मकान की छत बीचों-बीच से एक ढलान के रूप में आधी पीछे की तरफ़ चली गयी है और आधी आगे की तरफ़, जिसमें यह बरामदा बना है। यह एक छोटा-सा बरामदा है जिसमें कुछ-कुछ दूरी पर लकड़ी के खम्बे लगे हुए हैं जो छत को थामे खड़े हैं। बरामदे में अंदर की तरफ़ चारों ओर मनी-प्लाण्ट की बेलें फैली हुई हैं, जो बरामदे के चारों कोनों पर टँगी हुई लोहे की चार बाल्टियों में लगी हैं। मकान की नींव बड़े-बड़े पत्थरों से बनी है, जिन पर लाल रंग पुता हुआ है। जिस जगह लड़की खड़ी है ठीक उसी जगह बरामदे से उतर कर सामने के मैदान में जाने के लिए तीन पायदानों वाली सीढ़ी बनी है। लड़की बरामदे में खड़ी हुई चारों तरफ़ देख रही है। आस-पास का सब कुछ उसके लिए अजनबी है। लड़की कुछ देर तक इधर-उधर देखती रही, फिर बरामदे में रखी हुई लोहे की कुर्सी पर बैठ गयी। यह कुर्सी भी विचित्र आकार की है, लोहे की छड़ों से बने नाव की तरह के आकार पर प्लास्टिक की डोरियाँ बुनी हुई हैं। बरामदे में इस तरह की चार कु​र्सियाँ रखी हुई हैं। बाहर की पगडंडी पर थोड़ी सी चहल-पहल है। लड़की अपनी हथेली पर ठुड्डी को जमाये चुपचाप इस चहल-पहल को देखने लगी। इस चहल-पहल में उसके लिए एक अपरिचय की उदासी है, जो उसे अंदर से अनमना कर रही है। उसकी भूरी आँखों में एक प्रकार की उकताहट है, जैसे वो यहाँ नहीं होना चाहती हो, और उसे यहाँ होना पड़ा हो। 

अचानक मकान से एकदम सटी हुई रंगून क्रीपर की झाड़ियों में नीचे की तरफ़ कुछ हलचल हुई और वहाँ से मुर्ग़ी के कुछ चूज़े अंदर आ गये। एक के पीछे एक चलते हुए वे चूज़े लड़की से कुछ दूर सीढ़ियों के पास आकर ठिठक गये। उत्सुकता से आँखें उठा कर लड़की की तरफ़ देखने लगे। लड़की को देख कर कुछ डरे भी। जिस तेज़ी से चूज़े रंगून क्रीपर बेल के पास से अंदर आये थे, उस रफ़्तार को छोड़ कर अब वे सहमे से खड़े हैं। लड़की ने उन चूज़ों को देखा तो उत्सुकता से खड़ी हो गयी। लड़की के खड़े होते ही चूज़े पलट कर वापस उस तरफ़ भागने लगे जहाँ से आये हैं। केवल एक चूज़ा वहीं ठिठक कर खड़ा अपनी गोल आँखों से लड़की को देखता रहा। कुछ ही देर में सारे चू्ज़े रंगून क्रीपर में वहीं समा गये जहाँ से आये थे। लड़की सीढ़ियाँ उतर कर चूज़े के पास आ गयी। चूज़ा कुछ आगे-पीछे हुआ मगर भागा नहीं, टुकुर-टुकुर लड़की को देखता रहा। लड़की आगे बढ़ी तो चूज़ा भी आगे बढ़ा और सामने ज़मीन पर पड़ा हुआ एक दाना चोंच में दबा कर उतनी ही तेज़ी से पलट कर भागा और रंगून क्रीपर की झाड़ियों में समा गया। लड़की ने रंगून क्रीपर की झाड़ी में हाथ से जगह बना कर उस तरफ़ झाँक कर देखा। एक लड़का जिसकी पीठ लड़की की तरफ़ है, हाथ में एक खजूर के पत्तों की झाड़ू जैसी चीज़ से चूज़ों को खदेड़ कर ले जाता हुआ दिखा। कुछ देर बाद लड़का इमली के पेड़ों के पीछे कहीं ग़ायब सा हो गया। लड़की कुछ देर उस तरफ़ देखती रही फिर गुलमोहर के पेड़ की तरफ़ बढ़ गयी। 

लड़की फेंसिंग के एकदम पास बोगनबेलिया द्वारा गुलमोहर पर बनाये गये झूले पर आकर बैठ गयी। लड़की अभी भी उसी प्रकार उदास और अनमनी है। सामने फेंसिंग के पार जा रही कच्ची पगडंडी पर आवाजाही कुछ कम है, सन्नाटा-सा पसरा हुआ है। गुलमोहर पर बैठे हुए फ़ाख़्ता पक्षी की आवाज़ ही बस इस सन्नाटे को भंग कर रही है- टुड़ुट टू टू टू टू टू… इमलियों की तरफ़ से भी महोख पक्षी की आवाज़ आ रही है, मगर वह आवाज अलग तरह की है, कुछ गूँजती हुई सी तुप तुप तुप तुप तूप… ये आवाज़ें उस दोपहर को और उदास कर रही हैं। इन दोनों आवाज़ों में एक अपनी ही उदासी है, जो रह-रह कर चारों तरफ़ फैल रही है। लड़की बोगनबेलिया की लतर पर धीमे-धीमे झूला ले रही है। दूर से पगडंडी पर आते हुए व्यक्ति को देखती है, उसे देखती रहती है, जब तक वह ठीक सामने से होकर दूसरी तरफ़ गुज़र नहीं जाता। 

इस बार आहट दूसरी तरफ़ से हुई है, इमलियों की तरफ़ से। लड़की ने उस तरफ़ देखा, एक लड़का आ रहा है उस तरफ़ से। हाथों में कुछ डोलची-सी लिये हुए। लड़की अब उसी तरफ़ देख रही है। लड़का पास आया तो लड़की ने देखा कि लड़के के हाथ में बाँस की डोलची है, जिसमें अंडे रखे हुए हैं। लड़का जब ठीक सामने से गुज़रा तो उसकी नज़र लड़की से मिली, लड़का एकदम हड़बड़ा गया। उसकी चाल एकदम तेज़ हो गयी। कुछ दूर जाकर उसने पलट कर देखा, लड़की अभी भी उसकी तरफ़ ही देख रही है। वह और ज़्यादा हड़बड़ा गया और लगभग दौड़ते हुए उस धुँधलके में खो गया जहाँ दुकानें बनी हुई हैं। 

थोड़ी ही देर बाद वह लड़का धुँधलके से वापस आता दिखाई दिया। लड़के ने कुछ दूर से ही देख लिया कि लड़की अभी भी उसकी ही तरफ़ देख रही है। लड़का कुछ तनाव से भर गया। उसकी चाल एकदम असहज हो गयी। लड़का जाते समय जो डोलची लेकर गया था, वही उसके हाथ में है, मगर इस बार उसमें अंडों की जगह ब्रेड रखी हुई है। एक पूरी ब्रेड, जिसे काटा नहीं गया है। लड़का लड़की के सामने आया, नहीं चाहते हुए भी उसने लड़की की तरफ़ देखा, आँखों से आँखें मिल गयीं। लड़के का तनाव और ज़्यादा बढ़ गया। लड़का सिर झुकाए चलने लगा, आयताकार मैदान के दूसरे किनारे पर पहुँच कर जब वह दूसरी तरफ़ मुड़ा, तब उसकी साँसें ठीक से चलनी शुरू हुईं। 

लड़की ने आज भूरे मटमैले रंग की लंबी फ्रॉक पहनी है। जिस पर कहीं-कहीं गहरे कत्थई फूल से बने हुए हैं, जो दिख ही नहीं रहे हैं। आज फिर वह बोगनबेलिया के उसी झूले पर आकर बैठ गयी है। लड़की को उस तरफ़ आते देख रंगून क्रीपर पर बैठी हुई दो लाल-पुच्छी बुलबुल कुछ हैरत में डूबी उसे देखने लगीं, जैसे ही लड़की आकर बैठी तो दोनों फड़फड़ा कर उड़ गयीं। लड़की वहाँ बैठने के बाद कुछ ही देर में उस उनींदी सी दोपहर के भूरे रंग में घुल-मिल गयी। जैसे कैनवास पर बने किसी विस्तृत से लैंडस्केप में कोई भूरे रंग का धब्बा हो। इस लैंडस्केप में केवल दृश्य ही नहीं हैं, आवाज़ें भी हैं। कई तरह के पक्षियों की आवाज़ें और दूर कहीं से लोहे को पीटे जाने की आवाज़, जो दीर्घ-लघु के क्रम में हो रही है ‘ठक्क-ठक, ठक्क-ठक’। कहीं बैठा महोख आज भी इस आवाज़ में अपनी आवाज़ मिला रहा है। इन दोनों आवाज़ों के साथ बीच-बीच में छोटा बसंता भी अपनी ध्वनि मिला रहा है पुक पुक पुक पुक…

लड़की पिछले दो-तीन दिन से कुछ देर सुबह और कुछ देर शाम को यहीं आकर बैठती है। उसने महसूस किया है कि लड़का भी एक बार सुबह और एक बार शाम को, कभी एक लटकन, कभी एक डोलची तो कभी दोनों लिये पगडंडी से होकर इधर से उधर जाता है और कुछ देर बाद वापस आता है। पर उसके आने-जाने का कोई निश्चित समय नहीं है।

लड़के ने दूर से ही देख लिया कि लड़की आज भी वहीं बैठी है। उसके पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है, जाना उसे इसी रास्ते से है। उसके हाथ में आज भी अंडों की डोलची है। लड़के ने एक चौखानों वाली सफ़ेद शर्ट पहनी है, जिसकी आस्तीनों को उसने कोहनियों तक मोड़ा हुआ है। नहाने के बाद शायद उसने अपने बालों में कंघी भी नहीं की है, इसलिए बाल उसके सिर पर छितराए हुए से हैं। लड़का जैसे ही लड़की के सामने पहुँचा, वैसे ही रंगून क्रीपर में छिप कर बैठा एक गिरगिट क़दमों की आहट को सुन वहाँ से निकल कर पगडंडी की तरफ़ भागा, गिरगिट को देख लड़का एकदम उचका, उचकने से डोलची में रखा एक अंडा उछल कर नीचे गिरा और फूट गया। लड़के ने रुक कर ज़मीन पर फूटे हुए अंडे को देखा, उसके चेहरे के भाव कुछ बदल गये।

‘ये तुम्हारे अंडे हैं…?’ लड़की जब से यहाँ आयी है, तब से उसने पहली बार कुछ बोला है। प्रश्न को सुन कर लड़के ने हैरत से लड़की की तरफ़ देखा। उसे एकदम से विश्वास नहीं हुआ कि फेंसिंग के उस पार बैठी हुई लड़की ने यह प्रश्न उसी से किया है। लेकिन जब उसने लड़की की तरफ़ देखा और लड़की को प्रश्नवाचक नज़रों से अपनी ही तरफ़ देखते हुए पाया, तो उसे विश्वास हो गया कि कुछ देर पहले हवा में बहता हुआ जो प्रश्न उस तक पहुँचा है, वह प्रश्न असल में उसी से पूछा गया है। 

‘नहीं… मुर्ग़ी के हैं।’ हड़बड़ाहट में लड़के ने उत्तर दिया।  

‘कहीं देने जा रहे हो…?’ लड़की ने दूसरा प्रश्न कर दिया। 

‘हाँ…।’ लड़के ने बहुत संक्षिप्त-सा उत्तर दिया। 

‘इस समय…? दोपहर को जाते हो तुम ये अंडे देने…? सुबह-सुबह नहीं जाते…?’ लड़की ने फिर एक और प्रश्न किया।

‘आज देर हो गयी… रोज़ तो सुबह ही जाता हूँ। आज जंगल चला गया था। आने में देर हो गयी।’ लड़के ने इमली के पेड़ों के पीछे दिख रहे जंगल की तरफ़ इशारा करते हुए कहा। 

‘वहाँ… वहाँ कोई जंगल है क्या…? कितनी दूर है यहाँ से जंगल…?’ लड़की की आवाज़ में जंगल सुनते ही थोड़ा सा उत्साह घुल गया।

‘बस यहीं… ये जो इमली के पेड़ लगे हैं न, जंगल यहीं से शुरू होता है। तुमने रात में सियारों की रोने की आवाज़ें नहीं सुनीं ? बस इमली के पेड़ पार करो तो एक छोटा सा खेत है और खेत के पार फिर जंगल ही जंगल है।’ लड़के ने थोड़ा विस्तार से जानकारी प्रदान की। लड़की कुछ उत्सुकता के साथ झाँकते हुए इमली के पेड़ों के पीछे की तरफ़ देखने लगी, जिस तरफ़ लड़के ने इशारा किया है। 

‘ये अंडे कहाँ लेकर जा रहे हो…? वहाँ किसी दुकान पर ?’ लड़की ने दूर दुकानों वाले धुँधलके की तरफ़ देखते हुए पूछा। 

‘हाँ… बेकरी पर…।’ लड़के ने सिर पर छितराए बालों को एक हाथ से पीछे कर जमाते हुए कहा। 

‘वहाँ बेकरी भी है…? केक, बिस्किट भी बनते हैं वहाँ ?’ लड़की ने इस बार लड़के की आँखों में एकदम आँखें डालते हुए पूछा। 

‘हाँ, सब बनते हैं…।’ लड़का उत्तर देकर कुछ देर को चुप खड़ा रहा। लड़की भी चुप हो गयी। लड़के ने धीरे से लड़की की तरफ़ देखा, लड़की का चेहरा डूबा हुआ सा है। उसकी नज़र इमली के पेड़ों के ठीक ऊपर के भूरे-से आसमान में रुके हुए एक छोटे से सफ़ेद बादल के टुकड़े में अटकी हुई है। 

‘तुमको मँगवाना है क्या कुछ वहाँ से…? बेकरी से…?’ लड़के ने लड़की को कहीं और उलझा हुआ देखा तो प्रश्न किया।

 लड़की की तंद्रा जैसे प्रश्न से टूटी ‘हाँ…’ फिर लड़की के चेहरे के भाव एकदम बदले ‘नहीं… अभी नहीं, अभी पैसे नहीं हैं मेरे पास।’

‘अच्छा।’ लड़के ने लड़की के उत्तर पर बस इतना ही कहा और दुकानों की तरफ़ चला गया। लड़के के वहाँ से जाने के बाद लड़की एक बार फिर आसमान में थमे से खड़े बादल के टुकड़े को देखने लगी।  

पता नहीं कितनी देर तक लड़की उस बादल के टुकड़े को देखती रही। बादल का थमा सा दिख रहा वह टुकड़ा, मद्धम चाल से चलता हुआ उसके ठीक सामने के आसमान तक आ गया है। पास में किसी की आहट सुन कर लड़की ने आसमान से नज़र हटा कर सामने देखा। लड़का सामने खड़ा है। उसकी डोलची में एक पूरी रखी ब्रेड है और कुछ बिस्किट रखे हैं। लड़की ने प्रश्नवाचक नज़रों से लड़के को देखा। लड़के ने डोलची से बिस्किट उठा कर लड़की की तरफ़ बढ़ा दिये। लड़की फेंसिंग के पार हाथ बढ़ा कर बिस्किट ले लिए। 

‘ये ब्रेड ताज़ा बनी हुई है ?’ लड़की ने डोलची की तरफ़ देखा।

‘एकदम ताज़ा…। भट्टी से बस निकली ही है अभी।’ लड़के ने डोलची को ऊपर उठाते हुए कहा। 

लड़की ने डोलची में रखी ब्रेड को उठा लिया। कुछ देर तक ब्रेड को देखती रही, जैसे कुछ पहचानने की कोशिश कर रही हो। कुछ देर तक देखने के बाद उसने ब्रेड को चेहरे के पास लाकर लंबी साँस भरी, ताज़ी ब्रेड से उठती ख़मीर की गंध उसकी साँस में समाती चली गयी। लड़की के चेहरे पर एक अजीब सा गुलाबीपन आ गया। कुछ देर तक उसका चेहरा वैसा ही रहा, फिर धीरे-धीरे चेहरे का गुलाबीपन डूबता गया। लड़की बहुत कोमलता के साथ उस ब्रेड पर हाथ फेरने लगी। कुछ देर तक ब्रेड पर उसी प्रकार हाथ फिराने के बाद लड़की ने हाथ बढ़ा कर उस ब्रेड को वापस लड़के की डोलची में रख दिया। 

‘इन बिस्किटों के पैसे मैं दे दूँगी, जब मेरे पास आयेंगे तो…। ठीक है…?’ लड़की ने बिस्किट वाले हाथ को ऊपर करते हुए कहा। 

‘अच्छा…।’ लड़के ने उत्तर दिया और अपने रास्ते पर चला गया। लड़की उसी प्रकार बैठी बिस्किट पर अपनी उँगलियाँ कोमलता के साथ फिराती रही, मैदे के छोटे-छोटे कणों की खुरदुराहट को अपनी उँगलियों पर महसूस करती रही। ऐसा करते हुए उसके चेहरे के भाव बहुत कोमल होते जा रहे हैं।  

यह रात का समय है। लड़की बरामदे में उसी नाव के आकार की कुर्सी पर आँखें बंद कर लेटी हुई है। नाव के एक सिरे पर सिर रखा है और दूसरे सिरे से पैर लटका रखे हैं उसने। सामने के आयताकार मैदान में फेंसिंग से सट कर लगे हुए एक लकड़ी के खम्बे के ऊपरी सिरे पर एक बल्ब लगा है, जो पीला सा उजाला फेंक रहा है। उजाला गुलमोहर के पेड़ तक पहुँचने से पहले धूमिल होकर समाप्त हो रहा है। लड़का जब पगडंडी से होते हुए दुकानों की तरफ़ गया था, तब जाते हुए उसने रुक कर फेंसिंग के पार से लड़की को देखा था। कुछ देर तक वहीं रुका रहा था। लड़की की तरफ़ से कोई प्रतिक्रिया आने के इंतज़ार में। फिर चला गया था। अब लौट कर आया है, एक बार फिर फेंसिंग के पास रुक गया है। लड़की उसी प्रकार कुर्सी पर लेटी हुई है। लड़का ऊहापोह में खड़ा हुआ है। कुछ देर तक खड़े रहने के बाद उसने ज़मीन से एक पत्थर उठा कर लकड़ी के खम्बे पर धीमे से खटखटाने की आवाज़ की। जब लड़की ने उस आवाज़ पर कोई प्रतिक्रिया नहीं प्रदान की तो लड़के ने दूसरी बार पत्थर से खम्बे पर कुछ तेज़ी से खटखटाया। लड़की ने उस आवाज़ पर चौंक कर देखा। बल्ब के पीले उजाले में लड़का फेंसिंग के उस तरफ़ खड़ा दिखाई दिया। लड़की उठ कर फेंसिंग की तरफ़ बढ़ गयी। 

‘तुमने उस दिन मुझसे केक का पूछा था… वहाँ बेकरी में केक शाम को ही बनता है। मैं शाम को उधर बेकरी में दूध देने गया था, तो ले आया तुम्हारे लिए।’ लड़के ने हा​थ में पकड़ा काग़ज़ का एक छोटा सा पुड़ा लड़की की तरफ़ बढ़ाते हुए कहा। 

लड़की ने हाथ बढ़ा कर पुड़ा ले लिया और उसे खोल कर देखा। पुड़े में प्लम फ्रूट केक का एक छोटा, पीछे से गोल और आगे से तिकोना टुकड़ा रखा हुआ है। लड़की ने केक को नाक के पास लाकर सूँघा, मीठी गंध उसकी साँसों में उतर गयी। लड़के को कुछ अजीब सा लगा, यह लड़की हर चीज़ को सबसे पहले सूँघ कर देखती है। खाने की चीज़ को खाकर देखा जाता है कि सूँघा जाता है ? लड़की ने सूँघने के बाद केक को हाथ से छुआ तो केक की गरमाहट उसकी उँगलियों को महसूस हुई। लड़की को ऐसा ही केक खाना पसंद हैं, जिसके अंदर भट्टी की गरमाहट अभी बची हुई हो और खाते समय ज़ुबान को उस गरमाहट का एहसास हो। 

‘तुम दूध भी देते हो…?’ लड़की ने प्रश्न किया। लड़की के प्रश्न से लड़का थोड़ा असहज हो जाता है, इस प्रश्न पर भी ऐसा ही हुआ।

‘नहीं, मैं नहीं देता, हमारे यहाँ गाय हैं…।’ लड़के ने प्रश्न का उत्तर उसी असहज स्थिति में दिया।  

‘उन दुकानों पर दूध भी देने जाते हो तुम ?’ लड़की ने लड़के की तरफ़ देखते हुए अपने प्रश्न को थोड़ा सुधार कर पूछा।

‘हाँ… दूध और अंडे बेकरी में काम आते हैं न।’ लड़के ने बदले हुए प्रश्न का उत्तर प्रदान किया। 

‘मैं तुमको इकट्ठे पैसे दे दूँगी, इन सब चीज़ों के। अभी मेरे पास हैं नहीं पैसे।’ लड़की ने केक वाले हाथ को हिलाते हुए कहा। 

‘अच्छा…।’ लड़के ने उत्तर दिया और पगडंडी पर इमली वाली दिशा में बढ़ गया। 

लड़की वहाँ खड़ी कुछ देर तक लड़के को जाते हुए देखती रही। जब लड़का आयताकार मैदान से दूसरी तरफ़ मुड़ कर ओझल हो गया तो लड़की केक को लेकर वापस बरामदे की तरफ़ बढ़ गयी। 

लड़के ने सुबह-सुबह पगडंडी से होकर गुज़रते समय बाँस के गेट पर दोनों हाथ रख कर खड़ी लड़की को देखा तो रुक गया। पगडंडी को छोड़कर धीरे-धीरे चलता हुआ आया और लड़की के पास आकर खड़ा हो गया।

‘तुम कहीं बाहर से आयी हो यहाँ…? पहले तो कभी नहीं देखा तुमको यहाँ।’ लड़के ने पूछा। लड़का यह प्रश्न पहले दिन से ही पूछना चाह रहा था, मगर पूछने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। आज हिम्मत कर के पूछ ही लिया उसने। लड़की आज धूसर रंग की फ्रॉक पहने हुए है। जिस पर काले, कत्थई और लाल रंग के गोले बने हुए हैं। लड़की ने आज अपने बालों को बाँधा नहीं है, उसके बाल हवा का स्पर्श पाकर उड़ रहे हैं। वह कुछ बेपरवाह सी बाँस के गेट पर हाथ रख कर खड़ी हुई है।

‘हाँ…।’ लड़की ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया। 

‘रहने के लिए…?’ लड़के ने फिर से प्रश्न किया।

‘नहीं…. मरने के लिए…।’ लड़की ने बिना लड़के की तरफ़ देखे हुए धीमे और सपाट स्वर में उत्तर दिया। 

‘कोई बीमारी है तुमको ?’ लड़की के उत्तर से लड़का कुछ घबरा गया और घबराहट में प्रश्न किया उसने।

‘हाँ… सब यही कहते हैं।’ लड़की की आवाज़ इस बार कुछ काँप रही है। 

‘और तुम…?’ लड़के ने फिर प्रश्न किया। 

‘पता नहीं…।’ लड़की की आवाज़ ​स्थिर हो गयी है। 

‘क्या बीमारी है…?’ लड़के ने प्रश्न किया।

‘पता नहीं…।’ लड़की ने अपना पिछला उत्तर ही दोहरा दिया। 

‘फिर तुमको कैसे पता चला कि तुम मर ही जाओगी…?’ लड़के ने लड़की के उत्तर से झुँझला कर इस बार ऊँचे स्वर में पूछा।

‘सब कहते हैं और मुझे भी अब तो यही लगने लगा है।’ लड़की ने लड़के की झुँझलाहट को महसूस कर इस बार कुछ लम्बा उत्तर दिया।

‘मगर… मगर तुम मरने वालों जैसी तो बिलकुल भी नहीं दिख रही हो।’ लड़के ने लड़की की तरफ़ ग़ौर से देखते हुए कहा।

‘मरने वाले कैसे दिखते हैं ?’ लड़की ने भी लड़के की आँखों में देखते हुए प्रश्न किया। लड़का लड़की के प्रश्न पर थोड़ा सिटपिटा गया।

‘पता नहीं… मैंने किसी को मरते हुए नहीं देखा। दादी मरी थीं, तब मैं नानी के घर गया हुआ था। मैं तो दादी को आख़िरी बार देख भी नहीं पाया था। जब मैं नानी के घर गया था, तब दादी बीमार थीं थोड़ी, पर ऐसा नहीं लग रहा था कि वे एकदम चली ही जायेंगी। जब तक मैं नानी के घर से आया तब तक तो सब कुछ ख़त्म हो चुका था।’ लड़के की आवाज़ में उदासी घुल आयी है।

‘कहाँ है तुम्हारी नानी का घर ?’ लड़की ने लड़के को उदास देखा तो पूछा।

‘उधर पहाड़ पर है, आधी दूर तक रेल से जाना पड़ता है, फिर उसके बाद घोड़े से या पैदल…। मेरे लिए तो नाना घोड़ा भेज देते हैं स्टेशन पर। पर आने-जाने में बहुत वक़्त लगता है। मुझे भी इसी कारण वहाँ से आने में देर हो गयी थी, तब तक दादी…’ लड़के ने हवा में किसी दिशा की तरफ़ इशारा करते हुए कुछ उदास स्वर में कहा। 

‘तुम अपनी दादी से बहुत प्यार करते थे क्या ?’ लड़की ने कुछ देर तक चुप रहने के बाद पूछा।

‘हाँ… बहुत ज़्यादा… जब मैं नानी के घर जा रहा था, तब दादी मुझे गले से लगा कर रो पड़ी थीं, वे ऐसा कभी नहीं करती थीं, मुझे समझ नहीं आया था कि उन्होंने ऐसा क्यों किया। शायद उनको पता चल गया था कि वे मरने वाली हैं।’ लड़के की आवाज़ में सूनापन भरा हुआ है ‘मैं अपनी नानी से भी बहुत प्यार करता हूँ। नानी भी मुझसे बहुत प्यार करती हैं। लेकिन मैं नानी के वहाँ भी नहीं जा पाया बहुत दिनों से। दादी के जाने के बाद से ही नहीं गया। नानी की बहुत याद आती है मुझको। क्या पता इस बार नानी के घर जाऊँ तो नानी भी तब तक…’ लड़के ने बात को बीच में ही छोड़ दिया उसकी आवाज़ थोड़ा भीग गयी है। 

‘दादी के जाने के बाद मुझे ऐसा लगा कि मेरा बचपन एकदम ख़त्म हो गया है। मैं इसीलिए नानी के वहाँ जाना चाहता हूँ, अगर नानी भी चली गयीं, तो फिर मैं कभी अपने बचपन में नहीं जा पाऊँगा। मेरी माँ कहती हैं-‘नानियाँ और दादियाँ जब जाती हैं, तो उनके साथ हमारा बचपन भी चला जाता है। माँ अपने बच्चों को जल्दी-जल्दी बड़ा करना चाहती हैं, मगर दादियाँ और नानियाँ बच्चों को ज़िंदगी भर बच्चा बना कर रखना चाहती हैं।’ मुझे माँ की इस बात से बहुत डर लगता है।’ लड़के ने कुछ देर की चुप्पी के बाद कुछ उदास स्वर में कहा। लड़की ने उत्तर में कुछ नहीं कहा, वह बस चुप बैठी लड़के की बातों को सुन रही है।

‘मैं बहुत ज़्यादा बात कर रहा हूँ क्या ? दादी के जाने के बाद मैं ने किसी से खुल कर बातें ही नहीं कीं। दादी से ही बात करता था मैं। रात को उनके पास ही सोता था मैं। बहुत रात तक उनसे बातें करता रहता था। दादी के पास सारे सवालों के जवाब होते थे। उनके जाने के बाद पहली बार मैंने किसी से इतनी बातें की हैं। मेरे पास बहुत सारी बातें जमा हो गयी हैं, इसीलिए भी मैं नानी के घर जाना चाहता हूँ। नानी के पास जाकर अपनी सारी बातें ख़ाली करना चाहता हूँ। जब मैं नानी के घर जाता हूँ तो नानी के पास ही सोता हूँ। नानी भी दादी की तरह मेरी सब बातें सुनती हैं। मैं अब बड़ा हो गया हूँ, मेरे पास बहुत सी बातें हैं अब करने को… शायद इसीलिए घर के लोग कहते हैं कि मैं देर रात तक नींद में बड़बड़ा कर बातें करता हूँ।’ लड़के ने जैसे अपने आप से ही बातें करते हुए कहा।

‘तुम अपने पिता से बात नहीं करते ? सब बातें नानी, दादी या माँ से ही करते हो ?’ लड़की ने लड़के को कहीं खोया हुआ देखा तो प्रश्न किया।

‘पिता से…? पिता से कैसे बात कर सकता है कोई ? पिता के पास वक़्त ही कहाँ होता है ? फिर पिता से तो डर लगता है न, तो उनसे कैसे बात कर सकते हैं ? पिता से बात थोड़े ही की जाती है, बस जो कुछ वे पूछें उसका उत्तर ही दिया जाता है। मैंने अपने पिता से आज तक बात नहीं की, मुझे पता ही नहीं पिता से कैसे बात करते हैं। पहले दादी से बातें करता था, अब माँ से करता हूँ।’ उत्तर देते-देते लड़के की आवाज़ में थोड़ी सी उदासी आ गयी। 

‘कोई बात नहीं… कोई न कोई तो होना ही चाहिए हमारे आसपास जिससे हम बातें कर सकें। पता है हमारे अंदर रुक-रुक कर बातें ही आख़िर में बीमारी बन जाती हैं। बातों को अपने अंदर कभी रोकना नहीं चाहिए। रुक-रुक कर, रुक-रुक कर ये बातें हमारे अंदर ही अंदर एक दिन बड़ी और जानलेवा बीमारी बन कर हमारे सामने आ जाती हैं। कभी नहीं रोकना चाहिए बातों को…।’ लड़की ने लड़के की तरफ़ देखे बिना ही कुछ बुदबुदाते हुए कहा। 

‘​कोई जानलेवा बीमारी है क्या तुमको ?’ लड़के ने लड़की की बात के आख़िर में जानलेवा बीमारी का सुना तो एकदम से प्रश्न किया, उसकी आवाज़ में थोड़ी चिंता घुल गयी है।

‘शायद… सब ऐसा ही कहते हैं।’ लड़की ने कुछ धीमे स्वर में उत्तर दिया। 

‘कुछ लाऊँ तुम्हारे लिए बेकरी से…?’ लड़का चलने को उद्यत हुआ। 

‘तुम अपने लिए जो ब्रेड लाओगे उसमें से एक पीस मुझे दे जाना।’ लड़की ने इस बार लड़के की आँखों में देखते हुए उत्तर दिया। लड़का सिर को सकारात्मक रूप से हिला कर पगडंडी पर बढ़ गया। लड़की उसी प्रकार बाँस के गेट पर टिकी खड़ी रही। 

जब लड़का उधर दुकानों की तरफ़ से लौटा, तब तक लड़की वहीं उसी प्रकार खड़ी रही। लड़के ने डोलची में रखा ब्रेड का छोटा टुकड़ा लड़की की तरफ़ बढ़ा दिया। लड़की ने उसे लेकर आदत के अनुसार सूँघा और उसके चेहरे पर एक चमक सी आ गयी। 

‘इन सबके पैसे मैं दे दूँगी तुमको। ठीक है…?’ लड़की ने ब्रेड की सुगंध लेते हुए जैसे अपने आप से ही बहुत धीमे से कहा।

‘अच्छा…।’ कह कर लड़का पगडंडी पर बढ़ गया। कुछ दूर जाने के बाद झाड़ियों के पीछे लड़के ने अपनी डोलची में रखी ब्रेड को उठाया और उसे नाक के पास लाकर सूँघा। सूँघने के बाद उसके चेहरे पर कुछ नहीं समझ पाने के उलझन भरे भाव आ गये। वह तेज़ क़दमों से पगडंडी पर बढ़ गया। 

कुछ दिन लड़की लड़के को बाहर नहीं दिखायी दी। दोनों ही समय जब लड़का वहाँ से गुज़रा तो इधर-उधर नज़र घुमा कर लड़की को देखता रहा। आते समय भी और जाते समय भी, मगर लड़की दिखाई नहीं दी। फिर एक दिन लड़का जब कुछ देर से, शाम के थोड़ा-थोड़ा रात हो जाने पर झुटपुटे जैसे अँधेरे में उस तरफ़ से लौटा, तो उसने देखा लड़की बोगनवेलिया के झूले पर बैठी हुई है। पास लगे लकड़ी के खम्बे पर लगे बल्ब की धुँधली-ज़र्द रौशनी लड़की के आस-पास घुली हुई सी है। लड़का आज ब्रेड के साथ रस्क का एक छोटा पैकेट लेकर आया है। लड़की पर नज़र पड़ते ही लड़के की चाल कुछ धीमी हो गयी। लड़की के पास आकर कुछ झिझकते हुए वह ठिठक गया। 

‘तुम कहीं चली गयी थीं क्या ?’ लड़के ने लड़की को चुप देख कर कहा और रस्क का पैकेट लड़की की तरफ़ बढ़ा दिया। 

‘नहीं तो…।’ लड़की ने रस्क का पैकेट पकड़ते हुए उत्तर दिया।

‘दिखी ही नहीं तुम ?’ लड़के ने फिर पूछा।

‘हाँ मन नहीं किया, कुछ अंदर से अच्छा नहीं लग रहा था, इसलिए बाहर नहीं आयी।’ लड़की ने कुछ अनमने स्वर में कहा।

‘होता है ऐसा बीमारी में। मेरी दादी भी जब बीमार थीं तब उनको ऐसा ही लगता है। कहती थीं-‘आज कुछ अंदर से अच्छा नहीं लग रहा है।’ तुम्हारे साथ भी ऐसा ही हुआ है। बीमारी में ऐसा अक्सर होता है, इसमें चिंता करने की कोई बात नहीं है।’ लड़के के स्वर में लड़की के प्रति थोड़ी चिंता घुल गयी है। लड़की चुप रही।

‘तुम घर से बाहर कहीं नहीं जातीं ? थोड़ा घूम​-फिर लिया करो। घर ही घर में रहोगी तो बीमारी तुमको और परेशान करेगी।’ लड़के की आवाज़ में थोड़ा अधिकार घुल आया है। 

‘इच्छा ही नहीं होती… कभी-कभी बस इतना मन करता है कि उधर इमली के पेड़ों के पास जाऊँ और इमलियाँ तोड़ कर खाऊँ। वहाँ इमलियाँ लगी हैं अभी ? मुझे इमलियाँ बहुत पसंद हैं।’ लड़की ने इमली के पेड़ों की तरफ़ इशारा करते हुए कहा। 

‘बीमारी में इमली नहीं खाते, खटाई से तो बीमारी और भड़कती है। खट्टा तो ज़हर होता है बीमारी में। इमली खाने की बिलकुल मत सोचो। जो इमली ज़्यादा खाते हैं, वो एक दिन बहुत बीमार पड़ जाते हैं। तुमने भी इमली खा-खा कर ही बीमारी मोल ली है। मेरी दादी को भी इमली बहुत पसंद थी, मैं यहाँ से जाते समय उनके लिए रोज़ तोड़ कर ले जाता था। अभी भी ख़ूब इमलियाँ लगी हुई हैं पेड़ों पर, लेकिन तुमको नहीं ला कर दूँगा। मैं तुम्हारे लिए केक, बिस्किट, नान-खटाई और ब्रेड ला दिया करूँगा, रोज़ वही खाया करो, उससे बीमारी में फ़ायदा होता है।’ लड़के ने कुछ मासूमियत के साथ लड़की को झिड़कते हुए कहा।

‘नहीं रोज़ नहीं, अभी तो तुमको पिछले पैसे ही नहीं दिये मैंने। बेकरी वाला रोज़-रोज़ थोड़े ही उधार देगा तुमको। मैं ज​ब कहूँ तब ला दिया करो।’ लड़की ने समझाते हुए कहा। 

‘वह बेकरी हमारी ही है, मेरा मतलब मेरे पिताजी की ही है। वे मुझे अपने लिए कुछ भी लेने से कभी नहीं रोकते। मैं ले आया करूँगा। फिर जब भी तुम्हारे पास पैसे आयें तो दे देना, उसमें क्या है।’ लड़के ने कुछ लापरवाही भरे स्वर में उत्तर दिया। 

‘पता नहीं मेरे पास पैसे कब आयेंगे। कभी न कभी तो तुम्हारे पिताजी भी तुमसे पैसों की पूछेंगे ही।’ लड़की ने कुछ उदास स्वर में कहा।

‘कोई बात नहीं, घर की ही बेकरी है। पिताजी कुछ नहीं कहेंगे। मैं उनसे यह थोड़े ही कह रहा हूँ कि बेचने के लिए ले जा रहा हूँ। वे तो यही समझ रहे हैं कि मैं अपने खाने के लिए ले जा रहा हूँ। तुम बीमार हो, तुमको अभी यह सब खाना चाहिए।’ लड़के के स्वर में फिर लड़की के प्रति चिंता झलक रही है। 

‘पर तुम पूरा हिसाब अपने पास लिख कर रखना, मुझे तो आजकल कुछ याद नहीं रहता।’ लड़की ने कुछ कोमल स्वर में कहा।

‘अच्छा…।’ कह कर लड़का पगडंडी पर बढ़ गया। 

लड़की वहीं बैठी लड़के जाते हुए देखती रही। लड़का कुछ देर में बल्ब की पीली रौशनी की ज़द से बाहर हो गया। लड़की फिर भी उसी दिशा में देखती रही। शाम अब ठीक प्रकार से रात में बदल गयी है। बल्ब की रौशनी ने एक दायरा सा खींच रखा है, जिसके बाहर सब कुछ स्याह हो चुका है। रात अभी गहराई नहीं है मगर झींगुरों की सीटियाँ चारों तरफ़ बजने लगी हैं। दो तरह की आवाज़ें हैं, एक आवाज़ लगातार सीटी सी बज रही है, दूसरी बीच-बीच में थोड़ा-थोड़ा बज-बज कर रुक रही है। ऐसा लग रहा है जैसे संगत चल रही है दोनों के बीच। बल्ब के पास भी कई तरह के कीड़े वृत्त सा बनाते हुए उड़ रहे हैं, उड़ते-उड़ते ये कीड़े बल्ब से टकरा भी जाते हैं। धीमे-धीमे चल रही हवा में मेंहदी के फूलों की भीनी मगर उत्तेजक सी गंध घुली हुई है, जिसमें दूसरी दिशा से आ रही रंगून क्रीपर के फूलों की गंध मिल कर एक नये तरह की गंध बना रही है। मगर लड़की इन सब से नि:स्पृह चुपचाप बैठी हुई है। अचानक इमली के पेड़ों की तरफ़ से सियार के रोने की आवाज़ आयी ‘हुवा.. हुवा… हुवा…’ उस एक आवाज़ के रुकते ही उस तरह की बहुत सी आवाज़ें कोरस में गूँजने लगीं। इन आवाज़ों के गूँजते ही झींगुरों की वह संगत जो अनवरत सी चल रही थी, उसके स्वर पीछे छिप गये। लड़की उस आवाज़ को सुन कर एकदम चौंकी और कुछ देर तक इमली के पेड़ों की तरफ़ देखती रही, फिर चुपचाप वहाँ से उठ कर अंदर चली गयी।

लड़का अब लगभग रोज़ ही लड़की के लिए बेकरी से कुछ न कुछ लाने लगा है। लड़की आज फिर सुबह देर से सो कर उठी है। बाहर बरामदे में आकर लड़की ने चारों तरफ़ देखा, दूर-दूर तक सन्नाटा है। लड़की कुछ थकी-सी कुछ देर तक चारों तरफ़ देखती रही। कुछ भी ऐसा नहीं दिखा उसे, जिस पर वह अपनी दृष्टि को कुछ देर जमा सके। वही सब कुछ है, जो वह रोज़ ही देख रही है। लड़की ने आसमान की तरफ़ देखा, असमान एकदम साफ किसी नीले चँदोवे की तरह गुलमोहर से इमली तक तना हुआ है। कहीं कोई बादल नहीं। बस बहुत ऊपर तीन चीलें एक घेरा बनाते हुए चक्कर लगा रही हैं। लड़की के चेहरे पर ऊब पसरी हुई है। वह बरामदे में रखी कुर्सी पर बैठ गयी। कुछ देर बाद कुर्सी पर लेट गयी। मनी-प्लाण्ट की बेलों के बीच में दो छिपकलियाँ एक-दूसरे के पीछे भाग रही हैं, लड़की कुछ देर तक उनको देखती रही, फिर ऊब कर आँखें बंद कर लीं उसने।

कुछ देर बाद लकड़ी के खम्बे पर खटखटाने की आवाज़ आयी तो लड़की ने आँखें खोल कर देखा। लड़का गुलमोहर के पेड़ के पास खड़ा हुआ है। लड़की ने लड़के को देखा तो सधे क़दमों से बरामदे की सीढ़ियाँ उतर कर गुलमोहर की तरफ़ बढ़ गयी। गुलमोहर के पास पहुँच कर लड़की ने लड़के को देखा, लड़का आधी आस्तीन वाली पीली टी-शर्ट पहने हुए है। गहरे पीले रंग की टी-शर्ट। लड़के के हाथों पर जगह-जगह खरोंच के निशान हैं, जैसे किसी कँटीली झाड़ी से होकर गुज़रा हो वह। 

लड़की की नज़र लड़के के हाथों की खरोंचों पर पड़ी तो वह एकदम बोली- ‘ये तुम्हारे हाथों पर खरोंचें कैसी हैं ? क्या हुआ ?’

‘तुम्हारे लिए चिरमी के बीज लेने जंगल गया था, चिरमी की बेल करोंदे की झाड़ियों पर चढ़ी थी, तोड़ने में हाथ-पैर छिल गये थोड़े से। करोंदे के काँटे बहुत सख़्त और नुकीले होते हैं। पर चिंता की बात नहीं, एक दो दिन में ठीक हो जायेंगी ये खरोंचें।’ लड़के ने कुछ लापरवाही से उत्तर दिया। 

‘चिरमी…? मेरे लिए…?’ लड़की ने कुछ उलझन भरे स्वर में कहा।

‘दादी बताती थीं कि बीमारी में चिरमी के बीज हमेशा पास में रखना चाहिए, ऐसे, कि बीज हमारे शरीर को छूते रहें। उनमें ऐसी तासीर होती है कि शरीर से पूरी बीमारी को खींच लेते हैं। पूरी बीमारी हमारे शरीर से अपने अंदर सोख लेते हैं। एक बार ठीक हो जाओ, तो फिर उन बीजों को नदी में बहा देना चाहिए।’ लड़के ने लड़की के प्रश्न के उत्तर में समझाते हुए कहा।

‘चिरमी क्या होता है ?’ लड़की के स्वर में अभी भी उलझन है।

‘तुम चिरमी नहीं जानतीं ? अरे वही जिससे सुनार लोग सोना तौलते हैं। उसको रत्ती भी तो कहते हैं।’ लड़के ने अपनी जेब में हाथ डालते हुए कहा। जेब से हाथ बाहर निकाल कर लड़के ने लड़की के सामने हथेली खोल दी। हथेली पर गहरे लाल, एकदम सुर्ख रंग के अंडाकार मोतियों जैसे बीज रखे हैं, जिनका एक सिरा काला है। लड़की ने एक बीज उठाया और उसे पास से देखने लगी। 

‘ये ही चिरमी के बीज हैं, बहुत काम के होते हैं। हर बीज का वज़न एक रत्ती ही होता है। इसीलिए सुनार इनको सोना तौलने के काम में लेते हैं। दादी बताती थीं कि ये इंसान के शरीर, मन, घर, सब जगह से सारी बुराइयाँ, सारी बीमारियाँ खींच लेते हैं अपने अंदर। दादी हमेशा अपने पास रखती थीं। तुम भी अपने पास रखो इनको, तुम्हारी बीमारी भी दूर कर देंगे ये।’ लड़के ने लड़की को ग़ौर से बीजों को देखते हुए देखा तो समझाते हुए बोला। 

‘इनको खाना नहीं है, बस पास में रखना ही है, बहुत ज़हरीले होते हैं ये बीज। खा लिया तो ऐसे ज़हर चढ़ता है, जैसे किसी साँप ने डस लिया हो। कपड़े से ऐसे बाँध लेना कि ये बीज शरीर को छूते रहें। सप्ताह भर बाद मुझे दे देना, मैं इनको नदी में डाल आऊँगा और दूसरे ला दूँगा।’ लड़के ने हथेली आगे बढ़ाते हुए कहा। लड़की ने भी अपनी हथेली आगे कर दी, लड़के ने पूरी बीज लड़की के हाथ पर रख दिये। 

‘बरसात होगी तो जंगल से वीरबहूटी भी लेकर आऊँगा। दादी बताती थीं कि वीरबहूटी भी चिरमी के समान ही तासीर रखती है। वह भी इंसानों के शरीर से बीमारियाँ खींच लेती है। पर वीरबहूटी बस बरसात में ही निकलती है।’ लड़के ने अपनी बात पूरी करते हुए कहा। 

‘वीरबहूटी…?’ लड़की ने प्रश्न किया।

‘वीरबहूटी भी नहीं पता ? छोटे-छोटे मखमल जैसे लाल कीड़े होते हैं। एकदम चिरमी जैसे ही। बरसात में ही निकलते हैं। उनको ही वीरबहूटी कहते हैं। दादी को लाकर देता था मैं, दादी थोड़ी देर उनको अपने हाथ पर रखती थीं, फिर वापस छोड़ आने को कहती थीं। तुम्हारे लिए भी बरसात होते ही ले आऊँगा जंगल से। तुम बरसात तक यहाँ से चली तो नहीं जाओगी न ?’ लड़के ने अपनी बात को प्रश्न के साथ समाप्त किया। लड़की ने उसके प्रश्न पर सिर को नकारात्मक रूप से हिला कर उत्तर दिया। 

‘चलूँ, बेकरी तक हो आऊँ।’ कहते हुए लड़का आगे बढ़ा, फिर पलट कर उसने पूछा ‘क्या लाऊँ तुम्हारे लिए ? केक या बिस्किट ?’ 

‘कुछ भी, जो तुम्हारा मन करे।’ लड़की ने संक्षिप्त उत्तर दिया। लड़का मुड़ कर दुकानों की दिशा में चला गया। लड़की हथेली पर रखे चिरमी के बीजों से खेलते हुए बोगेनबेलिया के झूले पर बैठ गयी।

लड़का पिछले दो दिन से नहीं आया है। दो दिन से लड़की शाम से देर रात तक बरामदे में बैठ कर लड़के का इंतज़ार करती रही है। आज सुबह जब लड़की उठी, तो उसने देखा बाहर तेज़ बरसात हो कर रुक चुकी है। रात भर छत के कवेलुओं पर पड़ रही बूँदों की आवाज़ से लड़की को इस बात का एहसास होता रहा कि बाहर बरसात हो रही है। पानी की बौछारों ने पूरे बरामदे को गीला कर दिया है। बरामदे में रखी कुर्सियाँ भी पानी में तरबतर हैं। लड़की ने बाहर की तरफ़ देखा। चारों तरफ़ पानी ही पानी है। रंगून क्रीपर के सारे फूल पानी में भीग कर नीचे की तरफ़ झुके हुए हैं। गुलमोहर के पेड़ पर बचे हुए बहुत से फूलों की पंखुड़ियाँ पानी की बूँदें पड़ने से नीचे गिर कर ज़मीन पर बिखर गयी हैं। लड़की सीढ़ियाँ उतरते हुए गुलमोहर की तरफ़ बढ़ गयी। पूरे मैदान में बरसात के कारण कीचड़ हो गयी है, मगर मैदान में बीच-बीच में कुछ छोटे-बड़े पत्थर उभरे हुए हैं, लड़की सँभल-सँभल कर उन पत्थरों पर पैर रखती हुई गुलमोहर की तरफ़ जाने लगी। गुलमोहर की तरफ़ बढ़ते हुए अचानक उसकी नज़र पीले कनेर के पेड़ पर पड़ी। कुछ सोचते हुए वह पीले कनेर के पेड़ की तरफ़ मुड़ गयी। 

ज़मीन पर घंटियों जैसे पीले कनेर के फूल बिखरे पड़े हैं। लड़की ने कुछ फूल उठाए और उनको टोपी की तरह अपनी उँगलियों पर पहनने लगी। ऐसा करते हुए उसके चेहरा धीरे-धीरे खिलने लगा। सीधे हाथ की पाँचों उँगलियों पर पीले कनेर के फूल पहन कर लड़की ने किसी जादूगर की तरह अपनी उँगलियों को हवा में नचाया। कुछ देर तक उँगलियों को उसी तरह हवा में नचाने के बाद लड़की वहाँ से वापस गुलमोहर की तरफ़ चल दी। रास्ते में नीबू के पेड़ के पास आकर ठिठक गयी। उल्टे हाथ से नीबू की एक पत्ती को तोड़ा और उसे उँगलियों से मसल कर सूँघने लगी। नीबू के पत्तों की गंध साँसों में जाते ही लड़की के चेहरे के भाव बदल गये, उसने आँखें बंद कर ली और तेज़-तेज़ साँसें लेकर नीबू की गंध को सूँघने लगी। कुछ देर बाद जब उसने आँखें खोलीं तो देखा फेंसिंग के उस तरफ़ खड़ा लड़का बहुत ग़ौर से उसे ही देख रहा है। लड़की लड़के को इस प्रकार अपनी तरफ़ देखता पा कर कुछ सकपका गयी। मसली हुई पत्ती को वहीं डाल कर गुलमोहर की तरफ़ बढ़ गयी। 

‘दो दिन से कहाँ थे तुम ? और तुम्हारी डोलची… लटकन..?’ लड़की ने गुलमोहर के पास आकर पूछा। 

‘आज बेकरी पर दूध और अंडे सुबह जल्दी ही दे आया था। उस समय तेज़ बरसात हो रही थी, अभी बरसात रुकी तो तुमसे मिलने आ गया।’ अंतिम वाक्य कहते हुए लड़का थोड़ा असहज हो गया।

‘हाँ बरसात तो रात को ख़ूब हुई है। मुझे रात भर कवेलुओं पर बरसात की आवाज़ आती रही।’ लड़की ने कहा। 

लड़की ने देखा गुलमोहर के पेड़ की ज़मीन में उभरी हुई जड़ों के ठीक आस-पास बहुत सारे चींटे बदहवास से घूम रहे हैं। रात को हुई बरसात के कारण शायद उनके बिलों में पानी भर गया है। कुछ चींटे कतार में अपने सिर पर कुछ लादे हुए चले जा रहे हैं, और कुछ चींटे बेचैनी में इधर-उधर घूम रहे हैं। तेज़ चलते हुए एक-दूसरे से टकराते हैं और सिर पर लगे हुए तंतुओं को आपस में टकराते हुए कुछ बातें सी करते हैं और उसके बाद फिर दौड़ जाते हैं। ज़मीन पर बिखरी हुई गुलमोहर की लाल-सिंदूरी पंखुड़ियों के बीच दौड़ते हुए काले चींटे… ज़मीन पर विरोधी रंगों का एक सुंदर सा चित्र बना रहे हैं। 

‘तुम वहाँ क्या सूँघ रही थीं…?’ लड़के ने लड़की को चुप देखा तो प्रश्न किया। 

‘नीबू के पत्तों की सुगंध… मुझे बहुत अच्छी लगती है वह सुगंध। तुमने सूँघे हैं कभी नीबू के पत्ते…?’ लड़की ने उत्तर दिया।

‘तुम हर चीज़ को पहले सूँघ कर देखती हो, मैंने आज तक किसी को ऐसा करते नहीं देखा। क्यों सूँघती हो तुम हर चीज़ को ?’ लड़के ने एकदम सीधा प्रश्न किया।

‘सूँघने से हर चीज़ को पहचाना जा सकता है। सूँघने से अच्छे और बुरे की भी पहचान हो जाती है।’ लड़की ने भी एकदम सीधा उत्तर दिया।

‘सबकी…?’ लड़के ने फिर प्रश्न किया। 

‘इंसानों की नहीं… इंसानों के पास अब अपनी असल गंध बची ही कहाँ हैं ? हर इंसान के पास दूसरी हर गंध आती है, सिवाए उसकी असली गंध के। इंसान अपनी असली गंध को छिपाने के लिए कितनी कोशिशें करता रहता है। है न…?’ लड़की ने अपने उत्तर के अंत में एक छोटा सा प्रश्न लगा दिया।

‘और ये…? ये करना तुमको अब भी अच्छा लगता है ?’ लड़के ने प्रश्न के उत्तर में लड़की के सीधे हाथ की उँगलियों पर पहनी हुई पीले कनेर की टोपियों की तरफ़ इशारा करते हुए पूछा। 

‘जो अच्छा लगे उस काम को उम्र भर करना चा​हिए। बड़े होने का मतलब यह थोड़े ही है, कि जो कुछ आपको अच्छा लगता है, उसे अब छोड़ दो। हम बड़े होते जाते हैं और हमारी मनपसंद चीज़ें उदास पड़ी हमारी तरफ़ देखती रहती हैं, देखती रहती हैं कि शायद हम फिर उनके पास जायेंगे… मगर हमें बड़ा होना होता है, इसलिए हम उनको छोड़ते जाते हैं। कई बार हम छोड़ना नहीं भी चाहते, मगर बड़े होने के कारण हमें छोड़ना पड़ता है।’ लड़की ने उन पीले कनेर के फूलों पर दूसरे हाथ की उँगलियों को फिराते हुए कहा। लड़का कुछ हैरत के साथ लड़की की तरफ़ देखता रहा, और लड़की द्वारा कही गयी लंबी बात को समझने की कोशिश करता रहा। 

‘नीबू की गंध… पीले कनेर की टोपियाँ, नानियाँ…, दादियाँ…, नानी का घर… संतरे की गोलियाँ… कैरम की गोटियाँ, कंचे… कच्ची इमलियाँ… तितलियाँ… वे सब जिनसे हम बचपन में बहुत प्यार करते थे, वे सब हमारी राह देखते रहते हैं कि कब हम उनकी तरफ़ मुड़ते हैं, कब हम उनके पास आते हैं। मगर हम बड़े होने में लगे रहते हैं। बड़े होने के लिए बचपन का सब कुछ छोड़ते जाते हैं। बचपन से जुड़ी हुई चीज़ों को ‘बचपना’ कहने लगते हैं। उन पर हँसने लग जाते हैं। ऐसा नहीं करना चाहिए… हमें ऐसा बिलकुल नहीं करना चाहिए…।’ लड़की ने अपनी बात को और आगे बढ़ाते हुए, अपने आप से ही बात करते हुए कहा। लड़का कुछ समझा और बहुत कुछ समझ नहीं पाया। 

‘देखने… सुनने… सूँघने… चखने… और महसूस करने की चीज़ें हमारे आसपास बिखरी रहती हैं और हम बिना देखे, सुने, सूँघे, चखे या महसूस किये वहाँ से गुज़रते रहते हैं। फिर एक दिन ऐसा आता है कि हम फिर से देखना, सुनना, सूँघना, चखना और महसूस करना चाहते हैं, मगर हम ऐसा कर ही नहीं पाते। हम ऐसा करना भूल चुके होते हैं। हम सब कुछ भूल चुके होते हैं। वह सब कुछ जो बचपन ने हमें​ ​सिखाया होता है।’ लड़की ने लड़के को चुप देखा तो कुछ बुदबुदाते हुए कहा। लड़का उसी प्रकार हैरत से लड़की की तरफ़ देख रहा है।

‘मैं तुमको कुछ बताने आया हूँ।’ लड़के ने कुछ देर की चुप्पी के बाद कहा। लड़की ने प्रश्नवाचक नज़रों से लड़के की तरफ़ देखा।

‘मैं जा रहा हूँ… नानी के घर जा रहा हूँ…। वापस आने में थोड़े दिन लग जायेंगे मुझे…। मैंने बताया था न कि नानी का घर ज़रा दूर है यहाँ से।’ लड़के ने कुछ अटक-अटक कर अपनी बात को पूरा किया। 

‘चलो ये अच्छा कर रहे हो तुम… तुम्हारी बहुत इच्छा थी वहाँ जाने की।’ लड़की ने कुछ लड़के की तरफ़ देखते हुए कोमल स्वर में कहा। 

‘मुझे थोड़े दिन लगेंगे वहाँ से लौटने में… तब तक तुम…?’ लड़के ने अपनी बात को प्रश्न के अंदाज़ में हवा में छोड़ दिया। लड़की ने प्रश्नवाचक नज़रों से लड़के को देखा।

‘तब तक तुम चली तो नहीं जाओगी न ?’ लड़के ने लड़की को अपनी तरफ़ देखते हुए देखा, तो अपने प्रश्न को पूरा करते हुए कहा।

‘पता नहीं…।’ लड़की का स्वर कुछ उदास हो गया।

‘और… और… तुम मरोगी तो नहीं न तब तक ?’ लड़के ने दूसरा प्रश्न किया।

‘पता नहीं…  मुझे कुछ पता नहीं है। मगर तुम जाओ अपनी नानी के घर। वहाँ जाना तुम्हारे लिए बहुत ज़रूरी है।’ लड़की ने कुछ समझाते हुए कहा। 

‘आज बरसात हो गयी है, आज शाम तक शायद जंगल में वीरबहूटियाँ निकल आयेंगी। मैं अगर यहाँ रहता तो तुम्हारे लिए ला देता। दादी कहती थीं कि चिरमी से ज़्यादा असर वीरबहूटियों के छूने में होता है। शरीर में कैसी ही जानलेवा बीमारी हो, मन में कितना ही बड़ा दु:ख हो… वीरबहूटियाँ बस छूकर ही उस बीमारी को शरीर से और उस दु:ख को मन से खींच कर निकाल देती हैं। एकदम ठीक कर देती हैं, शरीर को भी और मन को भी। तुम चिरमी से ठीक नहीं हो रही हो, इसका मतलब बीमारी तुम्हारे शरीर में नहीं है, मन में है। वीरबहूटियों के छूने से तुम भी ठीक हो जातीं। मगर मैं तो जा रहा हूँ। और यहाँ कोई ऐसा भी नहीं है जिससे कह कर जाऊँ कि तुमको वीरबहूटियाँ ला दे जंगल से।’ लड़के की आवाज़ में ​थोड़ी निराशा आ गयी है।

‘कोई बात नहीं… तुम ऐसा मत सोचो… जब उधर से वापस आओ तब ला देना। तब तक तो बरसात होती रहेगी। बरसातें एक बार आ जाती हैं, तो इतनी जल्दी ख़त्म नहीं होती हैं। जब लौट कर आओ तब ला देना।’ लड़की ने सांत्वना देते हुए कहा। 

लड़का कुछ नहीं बोला, बस अपनी जेब में हाथ डाल कर कुछ निकालने की कोशिश करने लगा। जेब से एक कपड़े की छोटी सी थैली निकाल कर उसने लड़की की तरफ़ बढ़ायी। लड़की ने कुछ उलझन भरी नज़रों से उस थैली की तरफ़ देखा। 

‘इसमें चिरमी के बीज हैं। बहुत सारे हैं। आठ-दस बीज एक-एक सप्ताह तक भी अपने पास रखोगी तो भी तीन-चार महीने तो चल ही जायेंगे। मैं तो उससे पहले आ ही जाऊँगा, पर फिर भी ज़्यादा तोड़ लाया हूँ। याद से अपने पास रखते रहना। एक सप्ताह बाद नदी में… नदी में तुम कहाँ जाओगी, ऐसा करना ज़मीन में थोड़ा सा गड्ढा करके गाड़ देना। ज़मीन और नदी एक सी ही होती हैं, सब कुछ अपने अंदर सोख लेती हैं। इन बीजों से नयी बेल निकल आयेंगी।’ लड़के ने समझाते हुए कहा। लड़की ने हाथ बढ़ा कर कपड़े की थैली ले ली।

‘अच्छा मैं जाऊँ… मुझे जाने की तैयारी भी करनी है।’ लड़के ने कुछ सूनी आवाज़ में कहा। लड़की ने लड़के की आँखों में देखा। लड़के की आँखें कुछ बुझी हुई हैं। लड़की उन आँखों में गहरे तक देखती रही, देर तक देखती रही। लड़के ने भी उस दौरान अपनी पलकें नहीं झपकीं।

‘तुम्हारे तो पैसे देने हैं मुझे। मगर मेरे पास अभी तक नहीं आये हैं पैसे। क्या करूँ ?’ लड़की ने कुछ उदास स्वर में कहा।

‘मैं वापस आऊँ तब दे देना, पैसों की बिलकुल चिंता मत करो। बस अपना ध्यान रखना। ठीक है…?’ लड़के ने समझाते हुए कहा।

‘ठीक है, मगर तुमने लिख कर तो रखा है न हिसाब ? तुम लौट कर आओगे तब तक आ जायेंगे पैसे मेरे पास। आते ही दे दूँगी तुमको।’ लड़की ने कहा। 

‘अच्छा…।’ लड़के ने कहा और पगडंडी की तरफ़ बढ़ गया। लड़की जाते हुए लड़के को देखने लगी। उसे लगा जैसे लड़का कुछ धीमे-धीमे चल रहा है आज। कुछ उदास हैं उसके क़दम आज। लड़का फेंसिंग के कोने पर पहुँचा लेकिन रोज़ की तरह दूसरी तरफ़ मुड़ने से पहले उसने पीछे मुड़ कर लड़की को देखा। बहुत उदासी के साथ अपना सीधा हाथ हवा में हिलाया और तेज़ी से चला गया। लड़की की आँखें लड़के के ओझल होते ही एकदम बुझ गयीं।

यह उसके बहुत बाद का कोई दिन है। इस बीच बहुत कुछ कई-कई बार हो चुका है। कई-कई बार बरसातें आ-आकर जा चुकी हैं। चिरमी की बेल कई-कई बार करोंदे की झाड़ियों पर चढ़ कर, फल-फूल कर सूख चुकी है। कई-कई बार मख़मली-लाल वीरबहूटियाँ ज़मीन से निकल-निकल कर वापस जा चुकी हैं। इस बीच पृथ्वी कई बार सूर्य का परिक्रमण कर चुकी है। गुलमोहर कई सारी गर्मियों में लाल-सिंदूरी रंग फैला चुका है। इतनी बार कि उसे भले ही ‘सदियाँ’ या ‘युगों’ नहीं कहा जा सकता हो, पर ‘बरसों’ तो कहा ही जा सकता है। बरसों बीत चुके हैं। इतने बरस बीत चुके हैं कि वह सचमुच ही किसी दूसरी सदी की बात लग रही है। 

यह एक दोपहर है। एक उदास और सूनी दोपहर। एकदम शांत। आसमान पर बादल छाये हुए हैं, जिनके कारण हवा में उमस है। यह वही आयताकार मैदान है, मगर यहाँ सब कुछ बहुत बदल चुका है। रंगून क्रीपर और मेंहदी की फेंसिंग अब नहीं है, उसकी जगह पक्की बाउंड्री-वॉल बनी हुई चारों तरफ़। बाँस के गेट की जगह सुंदर बेलबूटों वाला लोहे का गेट लगा हुआ है। नीबू और पीली कनेर के पेड़ भी अब वहाँ नहीं हैं, वहाँ अब लाल पत्थरों का पक्का फ़र्श बना हुआ है। कच्ची ज़मीन अब वहाँ कहीं नहीं है, पूरे मैदान में ही लाल पत्थर लगे हुए हैं अब। वह कवेलुओं वाला मकान भी अब वहाँ नहीं है, उसकी जगह एक पक्की छत वाला दोमंज़िला घर बना हुआ है। बायीं तरफ़ अब वे इमलियों के पेड़ भी नहीं हैं, वहाँ भी मकान बने हुए हैं। मकानों के पीछे भी मकान हैं, न खेत हैं अब वहाँ और न जंगल है। फेंसिंग के सामने जो कच्ची पगडंडी हुआ करती थी, वह अब चौड़ी डामर की रोड हो चुकी है। उसके किनारे खड़ा लकड़ी का खम्बा लोहे के खम्बे से विस्थापित हो चुका है। जिस पर एक बड़ा मरकरी लैंप लगा हुआ है। बोगनबेलिया भी अब नहीं है। बस एक गुलमोहर ही है जो अब भी उसी जगह पर खड़ा हुआ है। गुलमोहर किसी की बाधा नहीं बन रहा था, इसलिए वह अभी भी उसी जगह पर है। जहाँ बोगनबेलिया की बेल झूला बना कर गुलमोहर पर जाती थी, वहाँ एक लोहे का झूला रखा है, जिस पर बैठने और पीठ टिकाने वाली जगह पर गहरा हरा रंग पुता हुआ है और बाक़ी जगह पर सफ़ेद रंग है। झूले की छत कत्थई रंग की टीन से बनी हुई है जो बीच से दोनों तरफ़ ढलवाँ होकर झुकी हुई है। 

झूले पर एक स्त्री और एक पुरुष बैठे हुए हैं। अधेड़ हो चुके स्त्री और पुरुष।  

‘तुम मरी नहीं…?’ आदमी ने ज़मीन पर पड़ी गुलमोहर की एक पंखुड़ी को देखते हुए कहा। 

‘तुम भी तो नहीं लौटे…?’ औरत ने झूले के हत्थे पर हाथ फेरते हुए उत्तर दिया। 

‘पहले तुम बताओ, तुमने तो कहा था कि तुम बीमारी से मरने ही वाली हो बस। फिर मरी क्यों नहीं ?’ आदमी ने प्रश्न किया। 

‘मैंने तुमसे झूठ कहा था। झूठ पूरा झूठ नहीं था, मैं तो मरना ही चाहती थी। मगर मरी नहीं। मैं यहाँ आयी नहीं थी, मुझे यहाँ भेजा गया था। मुझे एक बेकरी वाले लड़के… नहीं… तुमसे नहीं, वह एक दूसरा लड़का था, उससे प्रेम हो गया था। उस लड़के के पास से बेकरी की सुगंध आती थी। मुझे बेकरी की सुगंध बहुत अच्छी लगती थी, इसीलिए वह लड़का भी धीरे-धीरे मुझे अच्छा लगने लग गया था। पहले मैं बेकरी की सुगंध पसंद होने के कारण बेकरी जाती थी, फिर बाद में उस लड़के की गंध के कारण जाने लगी। कई बार होता है ऐसा कि हम किसी इंसान को प्रेम नहीं करते, उसकी आवाज़ से, उसकी गंध से प्रेम करने लगते हैं, और सोचते हैं कि हमें उसे इंसान से प्रेम है। बाद में जब वह गंध या वह आवाज़ वैसी नहीं रहती, तो हमारा प्रेम भी समाप्त हो जाता है। उस समय मुझे भी ख़ुद यह समझ नहीं आता था कि मैं लड़के से प्रेम करती हूँ या उस सुगंध से। वह लड़का ही एक सुगंध था, बेकरी की सुगंध। उस सुगंध को भूल जाने के लिए ही मुझे यहाँ भेजा गया था। सब चाहते ​थे कि मैं उस सुगंध को भूल जाऊँ, मगर मैं उस सुगंध को भूलना नहीं चाहती थी, मुझे लगता था कि मैं अगर उस सुगंध को भूल गयी तो मैं मर ही जाऊँगी। इसीलिए मैंने तुमसे कहा ​था कि मैं यहाँ मरने आयी हूँ। यहाँ आयी तो मुझे एक और बेकरी वाला लड़का मिल गया… तुम…। फिर एक दिन तुम भी चले गये…।’ उस औरत ने धीमे-धीमे अपनी बात को पूरा किया। बरसात कुछ तेज़ी पकड़ चुकी है। मगर झूले की अपनी भी छत है और फिर वह गुलमोहर के पेड़ के नीचे रखा है इसलिए ये दोनों बरसात से सुरक्षित बैठे हुए हैं। 

‘मैंने भी तुमसे एक झूठ बोला था। वह बेकरी मेरी नहीं थी, मैं बेकरी मालिक के घर में काम करता था। उनकी मुर्ग़ियों और गायों की देखभाल का काम करता था मैं। मुझे बेकरी मालिक के घर से दूध और अंडे बेकरी ले जाने होते थे और वहाँ से बस ब्रेड का एक पैकेट उनके घर देने जाना होता था। तुम्हारे लिए जो सामान मैं लाता था, वह उनकी नज़रों से बचा कर चोरी से लाता था। मैं चुपचाप से ब्रेड के पैकेट के साथ कुछ और सामान भी रख लेता था, और लाकर तुमको दे देता था। पहले मैंने कभी ऐसा नहीं किया था। फिर एक दिन मेरी चोरी पकड़ी गयी और मुझे काम से निकाल दिया गया। मेरे चोरी करने का पता चला तो माँ बहुत दु:खी हो गयी थी। पिताजी कहीं बाहर काम करते थे, सप्ताह में एक बार ही घर आते थे। उनके आने से पहले ही माँ ने मुझे नानी के घर भेज दिया था। और मैं चला गया। पिताजी आते तो मेरा जाने क्या हाल करते, इस डर से माँ ने मुझे यहाँ से नानी के घर भेज दिया था। फिर उसके बाद मैं नानी के घर ही रहा, वहाँ से वापस लौटा ही नहीं। पिता से बहुत डरता था मैं, उस डर के कारण मैं उसके बाद उनसे फिर कभी मिला ही नहीं। माँ कभी-कभार नानी की घर आ जाती थी, तो माँ से मिलना हो जाता था। फिर नानी के जाने के बाद माँ ने भी वहाँ आना बंद कर दिया… एक दिन दादी की तरह पिताजी भी चले गये। और अब तो माँ भी…’ आदमी ने भी धीमे-धीमे कुछ रुक-रुक कर बोलते हुए, कुछ उदास होकर अपनी बात को एकदम बीच में छोड़ दिया। आदमी के चुप होते ही बरसात की आवाज़ वहाँ गूँजने लगी। गुलमोहर से बच कर जो बूँदें झूले की छत पर गिर रही हैं, वो टीन से टकराकर ढलवाँ छत से होकर नीचे गिर रही हैं। 

आदमी के चुप होने के बाद वहाँ बहुत देर तक चुप्पी ही रही। दोनों में से कोई भी उसके बाद कुछ भी नहीं बोला। बस बरसात ही बोलती रही। कुछ देर बाद बरसात भी चुप हो गयी। बरसात के चुप होते ही चारों तरफ़ सन्नाटा पसर गया। बरसात के बंद होने के बाद भी बहुत देर तक वे दोनों चुपचाप उसी प्रकार झूले पर बैठे रहे। गुलमोहर की पत्तियों पर रुके हुए पानी की बूँदें झूले की छत पर गिर कर बरसात के अभी भी होने का भ्रम पैदा करती रहीं।

‘आता हूँ थोड़ी देर में।’ आदमी ने अचानक चौंक कर झूले से उठते हुए कहा।

‘कहाँ जा रहे हो…?’ औरत ने प्रश्न किया।

‘बरसात रुक गयी है, शाम होने को है, जंगल में वीरबहूटियाँ निकल आयी होंगी। लेकर आता हूँ।’ आदमी ने कुछ हड़बड़ाहट में उत्तर दिया।

‘मगर मैं मर नहीं रही…। मैंने झूठ कहा था।’ औरत ने समझाते हुए कहा।

‘अच्छा…? मगर बीमारियाँ तो हैं न तुम्हें ?’ आदमी ने कहा।

‘हाँ, मगर वो तो उम्र की बीमारियाँ हैं।’ औरत ने फिर समझाया।

‘उससे क्या होता है ? वीरबहूटियाँ तो सारी बीमारियों को दूर कर देती हैं। मैंने तुमको बताया था न ?’ आदमी ने जाने की जल्दी में उत्तर दिया।

‘मगर… मगर वीरबहूटियाँ लाओगे कहाँ से ? वहाँ अब कोई जंगल नहीं है…। अब तो वीरबहूटियाँ चली गयी होंगी वहाँ से।’ औरत ने बायीं तरफ़ इशारा करते हुए कहा। औरत की बात सुन कर आदमी का चेहरा एकदम सफ़ेद पड़ गया। 

‘चली गयी होंगी…? कहाँ…? जंगल अब वहाँ नहीं है…? कहाँ गया…? कोई बात नहीं, जंगल यहाँ नहीं है तो कहीं और होगा, जहाँ होगा, वीरबहूटियाँ वहीं गयी होंगी… मिल जायेंगी मुझे। मैं ढूँढ़ लूँगा… जंगल को भी और वीरबहूटियों को भी। अभी तो वीरबहूटियों की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है।’ अपने आप से ही बुदबुदा कर बोलते हुए आदमी लोहे के गेट से निकल कर सड़क पर आ गया। 

‘सुनो…।’ औरत ने आदमी को जाने के लिए उद्यत देखा तो कुछ सोचते हुए कहा। 

‘हाँ…।’ आदमी ने वहीं खड़े-खड़े पूछा।

‘तुम्हारे कुछ पैसे देने हैं मुझे, अब आ गये हैं मेरे पास।’ औरत ने झूले पर बैठे-बैठे ही कहा।

‘रखे रहो अभी अपने पास… लौट कर ले लूँगा तुमसे।’ आदमी ने कहा।

‘कब तक लौटोगे…?’ औरत ने प्रश्न किया।

‘जंगल के मिलते ही वहाँ से वीरबहूटियाँ लेकर लौट आऊँगा।’ आदमी ने अपने आप से ही बुदबुदाते हुए कहा और उस दिशा में बढ़ गया जहाँ पहले इमली के पेड़ होते थे। औरत झूले पर बैठी उस आदमी को पहले की ही तरह जाता हुआ देखती रही, आयताकार मैदान के कोने पर आकर आदमी मुड़ा और ओझल हो गया। औरत की आँखें आदमी के ओझल होते ही एकदम बुझ गयीं। 

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परिचय

पंकज सुबीर

प्रकाशित पुस्तकें- उपन्यास- ये वो सहर तो नहीं, अकाल में उत्सव, जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था, रूदादे-सफ़र। कहानी संग्रह- ईस्ट इंडिया कम्पनी, महुआ घटवारिन और अन्य कहानियाँ, कसाब.गांधी एट यरवदा.इन, चौपड़े की चुड़ैलें, अभी तुम इश्क़ में हो, होली, प्रेम, रिश्ते, हमेशा देर कर देता हूँ मैं, ज़ोया देसाई कॉटेज। ग़ज़ल संग्रह – अभी तुम इश्क़ में हो, यही तो इश्क़ है। व्यंग्य संग्रह – बुद्धिजीवी सम्मेलन। लंबी कविता – देह-गाथा। संपादन- नई सदी का कथा समय, विमर्श- नक़्क़ाशीदार केबिनेट, विमर्श दृष्टि, बारह चर्चित कहानियाँ, कुछ उदास कहानियाँ।

सम्मान- राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान, ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार, स्व. जे. सी. जोशी शब्द साधक जनप्रिय सम्मान, वागीश्वरी पुरस्कार, अंतर्राष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान, वनमाली कथा सम्मान, शैलेश मटियानी चित्रा कुमार पुरस्कार, अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान, स्पंदन कृति सम्मान, आचार्य निरंजन नाथ सम्मान, स्पेनिन डॉ. सिद्धनाथ कुमार स्मृति सम्मान, शांति गया शिखर सम्मान, व्यंग्य यात्रा सम्मान, सृजन कुंज सम्मान, पूश्किन सम्मान, दुष्यंत कुमार पाण्डुलिपि संग्रहालय कमलेश्वर सम्मान, शिक्षाविद् पृथ्वीनाथ भान सम्मान। 

फिल्म बियाबान की पटकथा, संवाद तथा गीत लेखन। 

प्रतिष्ठित पत्रिका हंस के मार्च 2024 अंक का संपादन। 

संपादक : विभोम स्वर, संपादक : शिवना साहित्यिकी 

पंकज सुबीर, पी.सी. लैब, शॉप नं. 3-4-5-6, सम्राट कॉम्प्लेक्स बेसमेण्ट, बस स्टैण्ड के सामने, सीहोर, मध्य प्रदेश 466001, मोबाइल : 09977855399, दूरभाष : 07562-405545, ई मेल : subeerin@gmail.com

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2 Comments

  1. कमलेश पाण्डेय on

    जानकी पुल पर पंकज सुबीर की कहानी – एक सुंदर फ्रेम में एक लाजवाब तस्वीर ।

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