जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

आज पढ़िए युवा लेखिका ज्योति शर्मा की कहानी ‘माया मेमसाहब द्वितीय’। कहानी लम्बी है लेकिन कुछ भिन्न प्रकृति की है। पढ़कर राय दीजिएगा-

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माया मेमसाब फ़िल्म देखने के बाद ही मुझे पीरियड होने शुरू हुए थे। हुआ यह कि मोना का बड़ा भाई मनसू बारहवीं में पढ़ता था और वो माया मेमसाब की सीडी लेकर आया था। मोना और मनसू की माँ शिक्षिका थी और दोपहर को जब वह स्कूल में थी हम तीनों ने फ़िल्म देखी। मनसू बीच-बीच में अंदर वाले कमरे में जा रहा था। मुझे बड़ी घबराहट हुई और मैं आधी फ़िल्म देखकर ही घर आ गई मगर फ़िल्म के सीन भुला नहीं पाई। रातों को मैं कल्पना करती थी कि मैं माया मेमसाब हूँ और कोई मेरे शरीर को जकड़ दे रहा है।

सुबह उठी तो लगा चड्डी में पेशाब कर दी हूँ पर बाथरूम गई तो पता चल गया कि मेरा मासिक चक्र शुरू हो गया है। अन्य सहेलियों का हो चुका था, इसलिए मुझे इसका ज्ञान था और मैं बेसब्री से इसका इंतज़ार ही कर रही थी।

देखिए अगर आपको आशा है कि मैं आपको कोई नरम नंगी कहानी सुनाने वाली हूँ तो अभी पढ़ना छोड़ दीजिए। अंतर्वासना टाइप वेबसाइट का बटन दबाइए। मैं साहित्यकार हूँ और गम्भीर कहानियाँ लिखना मेरी ज़िंदगी का मक़सद है।

माया मेमसाब के सीन याद करते हुए मैं जल्दी सो जाती और दादी के तकिए को दोनों जाँघों के बीच जकड़ लेती। उस ज़माने में हम लड़कियों को मम्मी तकिया न लेने देती थी। उन्हें डर था कि हमारी गर्दन मोटी हो जाएगी हालाँकि मम्मी की गर्दन तो बहुत ही मोटी थी मगर उन्हें क्या फ़र्क़ पड़ता उनकी तो बाऊजी से शादी हो गई थी, हमारी अभी होनी थी।

राम जी मम्मी बैकुंठ में मन मगन रहे मगर दुःख उन्होंने हम बहनों को कम न दिए। उधर दादी का तकिया जाँघों में फँसाकर सोने का मतलब था किसी आदमी के साथ खुले में सोना।

फिर भी प्रिया दीदी का जब पड़ोस में त्यागी जी के यहाँ आए नए किरायेदार अरोड़ा परिवार के बेटे राहुल से प्रेम चला, मम्मी सिर आसमान पर रोज़ उठाने लगी। इस पर एक शाम दादी ने मम्मी को फटकारा कि कोई ब्याह तो नहीं कर रही, उस पंजाबी के संग भग तो नहीं रही। जवानी ऐसी चढ़ी कि उतरते न बने, इसमें इतना हल्ला मचाकर छाती न जला। जैसे ही राहुल को वकालत की सनद मिली दीदी घर से भाग गई। दीदी ने वह तो बहुत बुरा किया। चाहे जितना राहुल के साथ प्रेम करती, उसके संग मज़े करती मगर भागना न था क्योंकि इससे छोटी और मेरे ऊपर कड़ी नज़र रखी जाने लगी। हम दोनों करमहीन प्रेम करने की सोच भी नहीं सकते।

जो बात मुझे माया मेमसाब में बहुत पसंद आई, वह थी कि माया मेमसाब पुरुषों को साबुन की बट्टी समझती थी। एक के बाद दूसरा आज़माती। अब देखिए हम लोगों ने तब तक तो औरतों को ही ऐसे इस्तेमाल होते देखा था। मैंने ब्याह से पूर्व प्रेम करने की कई असफल  कोशिशें की और ऐसी ही कोशिश में एक दफ़ा लड़के का रंडुआ बाप मेरे पीछे लग गया। नगर निगम में बाबू था। बहुत परेशान किया। हमारे बाऊजी घर में अकेले आदमी थे और औरतें हम तीन बहनों को मिलकर पाँच, तो उन्होंने हाथ खड़े कर लिए। अब लौंडों से मारपीट करे या नौकरी सम्भाले।

तब दादी और मम्मी ने मोर्चा सम्भाला। मिर्ची के पैकेट, मोगरी लेकर स्कूल के रास्ते पर दोनों खड़ी हो गई। जैसे ही मैं और छुटकी स्कूल को निकले वह रंडुआ बाबू ऑटो में हमारे पीछे आया। दादी और मम्मी मिर्चें उड़ाती ऑटो के पीछे दौड़ी। रुकता सुसरी के तोहे मैं देखूं ढोकरा ज्यादा जवानी आ रही है अपनी लुगाई कूं खा गयो और छोटी छोटी छोरीन कूं परेशान करे , कुतिया के जाने पीछे पीछे हल्ला मचाती जा रही थी फिर क्या ऑटोवाले ने ऑटो रोक दिया। उसके बाद तो दादी और मम्मी ने इतनी गंदी गंदी गालियाँ दी कि मैं यहाँ लिख नहीं सकती वरना पाठकों के कान में पिघला लोहा तैरने लगेगा ।

सब ख़ुशी-ख़ुशी घर लौटे। हमारी उस दिन की स्कूल से छुट्टी हो गई मगर दूसरे दिन स्कूल जाने को तैयार हुए तो वह रंडुआ बाबू पुलिस ले आया। बाऊजी उल्टे पुलिस से बात करने के हम लोगों पर नाराज़ होने लगे, ख़ूब चिल्लाने लगे । देर तक अंदर गालीगलोज करने के बाद बाहर गए। पुलिसवाले को हज़ार रुपए में सेट किया कि बाबू पुलिस को रिश्वत के आरोप में नौकरी से निकलवाने की बात करने लगा। पुलिसवाला घबराकर भाग गया और अब आया मम्मी को ग़ुस्सा। बाहर निकली, मम्मी बाऊजी के आगे पल्ला करती थी (राम जाने तीन-तीन औलादें ऐसे  में कैसे पैदा कर ली, ख़ैर ज़रूरी जगह पर पल्ला न करती होंगी) मगर उस दिन माथा उघाड़े थी और धे रैपटे पर रैपटें दिए बाबू को। ऐसे मेरे जीवन का बाबू प्रसंग समाप्त हुआ। बाबू मेरे जीवन का शायद अकेला पुरुष था जिसने मुझे प्रेम किया था।

बाऊजी अगर मुझसे लाड़ करते तो रमेश जैसे लड़के से तो मेरा ब्याह न करवाते। इनका पूरा नाम रमेश उपाध्याय है। घोड़े की लीद था तुम्हारा लाड़ बाऊजी। पता नहीं क्यों रमेश जी जैसे आदमी से मेरा ब्याह बाऊजी ने करवाया। मुझे एकदम एचडी क्वालिटी में याद है वह रात, मैं और दादी लाल इमली के कम्बलों पर सफ़ेद मलमल के लिहाफ़ चढ़ा रही थी, जाड़े के दिन थे। प्रिया दीदी को भागे सालभर हुआ था, सुनते हैं पेट से थी और मम्मी उनसे मिलने को मचल रही थी। छुटकी ढेर सारी वेसलीन अपने मुँह पर थपोड़ रही थी कि मुखड़ा फटे नहीं तभी बाऊजी ने अपना ओटाया हुआ शक्करवाला दूध पीते हुए दादी को बताया राधेश्याम उपाध्याय का छोरा रमेश उपाध्याय मंजू के लिए कैसा रहेगा? अब कई दफ़ा बेसन पिसाने मैं राधेश्याम शुक्ला की आटा चक्की पर गई थी। उसके छोरे रमेश को मैंने कई दफ़े देखा था, नाटा मगर पहलवान टाइप दिखता था। इस ज़माने में कोई झबरी मूँछें रखता है? वह रखता था। मोटी-मोटी टाँगें थी, यह आदमी मेरी लेगा! सोचकर ही मैं डर गई क्योंकि तब तक मैं कविता लिखने लगी थी। ये कोई हीरो टाइप आदमी न था बल्कि उसे देखकर ही समझ में आ जाता था कि आटा चक्की मालिक या दूध डेरी के बिजनिस में होगा। मैं लाख मना की मगर संक्रांत के बाद मेरा ब्याह उससे कर दिया गया।

झूठ क्यों कहूँ, शुरुआत में तो बड़ा मज़ा आया। औरत को भगवान ने दो ही तो सुख दिए है खाने का और सेक्स का। रमेश मुझे तरह-तरह की चीज़ें खिलाते और रातें ख़ूब गुलज़ार करते मगर दो औलादों के होते-होते रमेश ने शहर से बाहर कॉलोनी में एक और चक्की खोल ली। चक्की के लिए बैंक से लोन ले लिया और फिर आधी-आधी रात को घर  लौटते। मेरा ससुर राधेश्याम बड़ा लालची था। उसी ने इन्हें लोन लेकर चक्की खोलने का आइडिया दिया था। थके माँदे घर लौटते और आते ही बिस्तर पर ढेर हो जाते। इतवार को कभी कुछ किया तो किया वरना रस निकालकर फेंके गए गन्ने के फोक टाइप लाइफ थी अपनी।

उस लाइफ में मनोरंजन की इतनी कमी जैसे रेगिस्तान में पानी, धीरे-धीरे मेरा मन भी पत्थर की तरह होता जा रहा था

हम एक दूसरे के साथ रहते तो थे लेकिन अजनबी, कुछ इस तरह कि बच्चों की फीस और घर के राशन की लिस्ट के अलावा हम दोनों में बात न के बराबर होती। देखने में कोई कमी नहीं थी मेरे अंदर, बस थोड़ा मेकअप कर लेती तो माधुरी दीक्षित भी फेल मेरे सामने। मुझे मेरे मुहल्ले के लड़के माधुरी ही तो बोलते थे मैंने भी कभी नाक पर मक्खी न बैठने दी। प्रेम पत्र आते तो उन्हें पढ़कर जला दिया करती मैं, बस अपनी तारीफ़ देखने के लिए प्रेम पत्र पढ़ती और फिर जला देती ।

लेकिन आज देखो मुझे इस आदमी के साथ साधारण जीवन जीना मेरी मजबूरी हो गई। रमेश अपना बैंक लोन नहीं चुका पा रहा था क्योंकि मजबूरी थी घर ख़र्च बच्चों की पढ़ाई आटा चक्की पर निर्भर थी। उसे बंद भी नहीं किया जा सकता…गोदाम में पड़ा अनाज घुन लग गया ये अलग नुक़सान, आख़िर शरवती गेहूँ कब तक शरवती रहते एक दिन तो घुन खाते ही हैं। इधर लोन जो चुक नहीं पा रहा था घर  में परेशानी के दिन ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहे थे। बच्चों की पढ़ाई और भी महंगी हो गई।

एक दिन मेरी सहेली अपने घर कटोरा भर कचौड़ी देने आई, पिछले दिनों बेटे के जन्मदिन पर बने छोले भटूरे मैंने उसके घर भेजे थे उस कटोरे पर मैगजीन का एक पन्ना जिसपर किसी लेखिका की कहानी छपी हुई थी। और नीचे अंत में कहानी भेजने का पता। मैंने उस पन्ने को अपने पास रख लिया। जब मैंने नई वाली हिन्दी में कहानी पढ़ी तो मुझे लगा, कविताएँ तो लिखती ही हूँ पर कहानी भी लिख सकती हूँ। इस तरह की कहानियाँ लिखने का प्रयास तो मैं भी सकती हूँ। लेकिन कहानी लिखने के पैसे नहीं मिलते तो मैंने उपन्यास पढ़े थे, एक दो अपनी सहेली के घर से लाकर पढ़ें। फिर लगभग तीन महीने बाद एक उपन्यास लिखना शुरू किया। इस हिन्दी को लिखना आसान था, घर का काम करने बाद रमेश के घर आने से पहले मैं उपन्यास को बैठकर लिखती लेकिन रमेश का बाप हमेशा बीच में आवाज़ें लगाकर मुझे डिस्टर्ब करता। बेटा तो सारा दिन चक्की पर खटता लेकिन ये बुड्ढा सारा दिन बैठक का पलंग तोड़ता।

आज हमारी शादी की सालगिरह है।

बड़ा बेटा बारहवीं कक्षा में पढ़ रहा है और छोटा दसवीं में। आज की रात हमने बाहर खाने का प्रोग्राम बनाया। रात में तैयार होकर बैठे हैं, रमेश को आने में कुछ ज़्यादा ही देर हो गई मेरे दोनों बेटे मैगी खाकर सो गए। जब देर रात रमेश आया मैंने उससे कहा, रमेश आज बच्चे नाराज़ होकर सो गए तुम जल्दी क्यों नहीं आए? मेरे ज़रा सा तेज़ बोलने पर उसने मुझे ज़ोरदार चाटा मारा और जोर से चिल्लाने लगा, कहने लगा तुम्हारी यह फ़ालतू की मौज़ मस्ती के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं। मैं सुबह से शाम दुकान पर अपनी हड्डियाँ गला रहा हूँ और इन माँ बेटों को बाहर खाना है, मरो जाकर कहीं। तेरे बेटों की पढ़ाई और ट्यूशन के कम ख़र्चे हैं जो तुम्हें होटलों में खाना खिलाता डोलता फिरूँ! तेरे बाप ने मुझे पैसों की पेटियाँ नहीं दे रखी है, साधारण बाप की बेटी हो यहाँ भी मेरी औकात के हिसाब से रहा कर।

उस रात मेरी क़िस्मत ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। और मैंने ठान लिया कि मैं कुछ नहीं कर सकती लेकिन नई हिन्दी तो लिख ही सकती हूँ, तो मैंने उपन्यास लिखना शुरू किया और उसका नाम रखा माया मेमसाब द्वितीय। उस माया मेमसाब को देखकर ही उस रात मुझे पीरियड आ गई, आख़िर घर के उस माहौल में मैंने जैसे तैसे अपना उपन्यास पूरा किया। काफ़ी दौड़भाग के बाद एक प्रकाशन इसे छापने को तैयार भी हो गया, अच्छा ही हुआ कि तभी छप गई उपन्यास।

उपन्यास के बदले मुझे पैंतीस हजार रुपए मिले। पहली बार अपने लेखन से कमाये पैसों को देखकर मन में ख़ुशी का ठिकाना न रहा। लेकिन रात अब भी लम्बी ही थी मेरे लिए खर्राटे भरता मिट्टी का आदमी जो रोज़ रात मेरे साथ ही सोता था लेकिन भूल गया था कि उसकी कोई पत्नी भी है, जैसे घर में एक नौकरानी लाया हो। सुबह इसे सब्ज़ी के साथ पराठे खिलाकर दुकान भेज दे और रात खाना खिला दे हमारी ज़िंदगी चूल्हे से लेकर पेट तक ही थी।

आख़िर मैंने सोचा अगर इसका लोन उतर जाएगा तो इसके मन में शायद कुछ प्रेम मेरे लिए जागे। मैंने अपने  पति से कहा तुम चक्की के वास्ते लिया हुआ लोन चुका दो। वह उदास चेहरे से मेरी ओर देखने लगा और बोला कहाँ से आएंगे पैसे ?

मैंने कहा पैसै का इंतज़ाम हो जाएगा मुझे उपन्यास लिखने का कुछ पैसा मिला है तुम्हारा लोन तो उतर जाएगा, कम पड़े तो कुछ इंतज़ाम कर लेंगे। रमेश के चेहरे पर ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी, रमेश ने मुझे गले लगाया और कहने लगा क्यों न दूसरी आटा चक्की खोल लूँ। मैंने गुस्से से उसकी तरफ़ देखा और झल्लाकर कहा तुम क्या चाहते हो आटा चक्की के चक्कर में क्या मेरे और मेरे बच्चों के हाथ में भीख का कटोरा थमाओगे… क्या तुम्हें नहीं पता कि आजकल ज़्यादातर लोग पैकेट वाला ब्रांडेड आटा खाते हैं, तुम्हारी चक्की कैसे चलेगी! सोचो ज़रा सब ख़त्म हो जाएगा अगर दूसरी आटा चक्की लगा ली। अब ऐसा अन्याय न करना।

हमारा क्या होगा? हम तो सड़क पर आ जाएंगे, पहली बार रमेश मुझसे सहमत लगा उसने एक बार नहीं पूछा मैंने क्या लिखा? कैसे लिखा? कहाँ लिखा?  किसने छापा ?

उसे बस पैसे से मतलब है, उसकी मदद हो गई उसै कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। मैं भी लिखती रहूंगी यही सोचकर मैंने जीवन में कुछ करने की ठान ही ली।

जीवन कितना अटपटा है न, हम कितने बिम्ब रचते हैं उन ख़ूबसूरत ख़यालों में सपनों का राजकुमार जिसे हम पाना चाहते है वह तो शादी के बाद कभी नहीं मिलता… एक लड़की अपने परिवार के कितने आयामों पर ख़री उतरती है यह बस वही लड़की जानती है जिसने अपने सपनों की पोटली नदी में बहा दी और ख़ुद को बग़ैर इच्छाओं के उस एक व्यक्ति को सौंपा जिससे उन्हें एक दिन भी प्रेम न मिले, ललकार फटकार खाकर भी उस लड़की के सपने किस तरह से चकनाचूर होते हैं जिसके टुकड़े बटोरने मुश्किल हों। अगर कोई स्त्री अपने जीवन को अपने हिसाब से जीना चाहे तो उसके हिस्से आता है चरित्रहीन का टैग।

एक दिन अचानक प्रकाशक का फ़ोन आया कि आपके उपन्यास माया मेमसाहब को सम्मानित किया जाएगा, उस पर चर्चा होगी जिसके लिए आपको साहित्य लिट्रेचर फेस्टिवल में आना है। मुझे यह सुनकर बहुत ख़ुशी हुई लेकिन अंदर ही अंदर डर भी था क्या रमेश मुझे जाने देगा?

इसी कशमकश में दिन रात निकल रहे थे।

एक दिन दोपहर मुझे एक पत्र आया।

आज मेरे नाम पर ख़त कौन भेज सकता इस फ़ोन के जमाने में! फिर ख़त पढ़कर पता चला ये किसी युवक का था जिसने इतनी तारीफ़ें लिखी थी जितनी मेरे जीवन में कभी किसी ने की भी नहीं थी। न जाने अचानक एक इच्छा कहाँ से तैरती हुई मेरे कलेजे में आ धसी, लगने लगा ये कौन है जो मुझसे जाने क्या चाहता है।

लगभग दो महीनों में तीन ख़त जिसमें उसने तो अपना दिल खोलकर रख दिया। उसकी प्रेम भरी बातें पढ़कर किसी को भी इश्क़ हो सकता था। लेकिन मैं सोचती रही क्या ये सब होता है? जब हम अपने जीवन में बहुत आगे निकल आते हैं  तब कोई अचानक मन के बंद दरवाज़े पर दस्तक दे और कहे मैं आपको प्रेम करता हूँ सोचते हुए अनेक बार चेहरे पर अचानक  मुस्कान भर जाती है।

ख़ुद से इश्क़ होने लगता है, एक तरफ़ मैं जीवन में रोज़मर्रा की उलझनों से जूझ रही हूँ वहीं दूसरी तरफ़ किसी की बातें मुझे मन ही मन अलग दुनिया में ले जा रही थी। कभी खाना बनाते हुए चेहरे पर मुस्कान भर जाती।

जब से फ़ोन नम्बर का आदान प्रदान हुआ तब से लम्बी बातें और बातों में कभी गरम तो कभी नरम। अब फ़ेसबुक पर अकाउंट भी बनाया सबसे पहले उसे ही रिक्वेस्ट भेज दी बस वहीं से कुछ तस्वीरें, गीत, फूल पत्तियों की तस्वीरें लगाना शुरू किया और जब कभी मन उदास होता तो फ़ैज़, ग़ालिब का शे’र नहीं तो बेग़म अख़्तर की कोई ग़ज़ल, गीत या संगीत सुनती।

डिस्टेंस इश्क़ चल रहा था, उस इश्क़ में रूठना मनाना बहस लड़ाई सब कुछ तो था, जब प्रेम करते तो एक दूसरे टूटकर प्रेम करते। मैं छुप-छुपकर फ़ोन पर बातें करने को बेताब रहती लेकिन उसके पास समय कम प्रेम ज़्यादा करने दबा। कभी-कभी गुस्से में डीपी हटा लेती तो कभी बहुत ख़ूबसूरत सी डीपी लगा देती। मैं दोहरा जीवन जी रही थी  जिसमें एक तरफ़ अज़ाबों से भरी दुनिया तो दूसरी तरफ़ सिर्फ़ प्रेम… जिसे मैं चाहती थी। मैं सब कुछ छोड़कर उसके साथ रहना चाहती थी लेकिन बच्चों का प्रेम मेरे भटकते मन को थाम लेता था। देर रात व्हाट्सएप पर उसने मुझे कहा मैं तुम्हें देखना चाहता हूँ। मैं सोच में पड़ गयी। मैंने उसे कोई जबाव नहीं दिया पर वह जिद्दी मानने को तैयार नहीं वह चाहता था मैं उसे अपनी तस्वीरें भेजूँ। मैंने कहा तुमने मुझे फेसबुक पर देखा तो है फिर क्यों मुझे वीडियो कॉल करना चाहते हो। मुझे कुछ अनमना सा लगने लगा। मैंने गुस्से में इन्कार किया। शायद उसे बुरा लगा और मुझसे कुछ दिन बात नहीं की। मैं उन दिनों परेशान थी सोचा जब भी ख़ुशियाँ मेरे पास आती है कैसे उन्हें दूर धकेल देती हूँ। लेकिन समाज का डर मुझे खाता जा रहा था।

एक सुबह जब मैं नाश्ता बना रही थी तो ससुर ज़ोर-ज़ोर से अख़बार में ख़बर पढ़ रहे थे जिसकी हेडिंग थी धोख़ेबाज फ़ेसबुक मित्र ने एक महिला को किया बदनाम, और ज़ोर-ज़ो से पढ़ने लगे, एक आदमी एक महिला का फेसबुक मित्र बना उससे प्रेम करने लगा उसने उसकी कुछ आपत्तिजनक तस्वीरें माँगकर उन्हें वायरल कर दिया। उस महिला ने डर के कारण आत्महत्या कर ली। यह ख़बर सुनकर मैं सन्न रह गई।

मन बार-बार परेशान हो गया। कहीं मेरे साथ ऐसा कुछ हुआ तो, नहीं-नहीं ये बुढ्ढा बरबर करता रहता है इसकी ज़बान बहुत ख़राब है।

कितना भी मन बहला लूँ लेकिन मन में एक डर सा बैठ गया।

अगर ये ख़बर न सुनी होती तो शायद मैं उसे फ़ोटो भेज देती लेकिन डर ने घेर रखा था। मैं अक्सर उससे बात करते हुए सावधान रहती । लेकिन अब कुछ दिनों से वह नाराज़ था उससे बात नहीं हो रही थी। ज़िंदगी उसी तरह चलने लगी जहाँ न ख़ुशी थी और न ही रोमांस लेकिन अगर युवराज ग़लत लड़का होता तो वह बार-बार मुझसे बात करने की कोशिश करता लेकिन उसने कोशिश नहीं की, वह ठीक है। शायद समझ गया था मेरी परिस्थितयों को, लेकिन मैं भी युवराज को किसी भी तरह से मनाना चाहती थी।

आख़िर मैंने युवराज को मनाने का फैसला किया और अपनी एक कामुक सी तस्वीर एक ख़ूबसूरत सी नज़्म के साथ भेजी जिसमें मैं अपने गीले बालों में थी। मानना तो तय था आख़िरकार कुछ नाज नखरों और शिकायतों के बाद सब नॉर्मल हो गया। वह बार-बार मुझे कहने लगा मैं मिलना चाहता हूँ तुमसे, तुम्हें महसूस करना है मुझे। मैं भी तो उसकी बाहों को महसूस करना चाहती थी लेकिन मेरे लिए उसे बताना आसान नहीं था कि मैं उससे प्रेम करती हूँ।

यह तो तय था मैं उसे मिलती लेकिन अब कैसे कहाँ यह तय नहीं थाl सोचा रमेश का बुढ्ढा बाप सारा दिन बक-बक करता है ।

मैं अपने कमरे में कुछ अच्छे कपड़े चुनने लगी जिसमें कि मैं कुछ लड़की की तरह दिखाई दूँ। लेकिन मेरे कपड़ो में शादी की कुछ बदरंग साड़ियाँ और दिए लिए कपड़ों के अलावा कुछ नहीं, मुझे महसूस होने लगा कि मुझे कुछ आजकल के कपड़े लेने पड़ेंगे। इसी सोच विचार में ससुर जी की आवाज़ आती है अरे आज दोपहर का खाना मिलेगा या अब भी लेखिका जी काग़ज़ पेन लेकर बैठी है, सुनते ही मैं फटाफट नीचे दौड़कर आ गई। घर की हवा बदल गई है। सब यहाँ रईस के चोदे हैं बेशर्मी की आग लगी है।

चाहे बुढ्ढा भूखा मर जाए… मैं इतना सुनते ही खाना बनाने में जुट गई लेकिन अब भी कपड़ों को लेकर मेरे मन उथल-पुथल जारी थी।

अब कुछ दिनों से फ़ेसबुक पर लोग जुड़ते जा रहे हैं धीरे-धीरे उसने मुझे कहा कुछ कहानियाँ लिखो छोटी ही सही पर लिखो। मैंने कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया। युवराज ने मुझे कहा तुम कुछ ऑनलाइन पत्रिकाओं में अपनी कहानी भेजनी शुरू करो, कहीं तो छपेगी कहानी। मैंने अपनी कहानी का पात्र उसे बनाना शुरू किया और कुछ प्रेम कहानियाँ लिखी, जिन्हें आसानी से महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में जगह मिलने लगी। मुझे सब कुछ बहुत अच्छा लगने लगा, अब लोग मुझे मेरे नाम ‘नीरजा’ से जानने लगे।

कई बार मुझे लगने लगा, युवराज मेरा गहरा मित्र बनता जा रहा है।

मैंने अभी उसे देखा नहीं। मिलने की आस थी जिसका पता न था मिलना है या नहीं, मैं यह भी नहीं जानती थी वह मुझे कितनी गम्भीरता से लेता है अपने जीवन में.. यह भी पता न था।

सोशल मीडिया की कोई गारंटी नहीं कितने मुखौटे छुपे हैं इस देश दुनिया में।

मैं अब ज़मीं पर तो नहीं कुछ आसमां मेरे कंधे पर था और बादलों पर मेरा घर… मीठी-मीठी प्रेम की चाशनी में डूबे खट्टे अंगूर मीठे हो गए।

जिन्हें शराब की तरह धीरे-धीरे घूँट-घूँट पी रही थी। कहते हैं शराब का नशा धीरे-धीरे चढ़ता है और ठीक ऐसा ही युवराज का एहसास था कि मुझे नशा हो गया था। एक शे’र अचानक याद आ जाता…  कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया

काम इश्क़ के आड़े आता रहा

और इश्क़ से काम उलझता रहा

घर के हालात में निरंतर बदलाव आ रहा था काम धीमी चाल पकड़ रहा था लेकिन ऐसे खिसक रहा था जैसे कोई घोंघा मीलों दूर का रास्ता तय तय करने निकला हो। घर से कही निकलना बहुत मुश्किल था मेरे लिए युवराज मुझ पर मिलने का दबाव बना रहा था और मुझे डर था अगर इससे नहीं मिली तो ये मुझे छोड़ देगा, जो थोड़ा सुख है उसे जाते नहीं देख सकती। आख़िर कब तक उससे न मिलने का बहाना बनाती। मेरे जीवन में जो थोड़ा सुकून है वह इसी से है। मैंने उसे कहा सही समय आने पर मुलाक़ात ज़रूर होगी लेकिन जल्दबाज़ी में सब समाप्त हो जाएगा।

मैं तुमसे मिलने के लिए सही समय का इंतज़ार कर रही हूँ।

अगले दिन मुझे फ़ोन आता है बड़े लिट्रेचर फेस्टिवल में मेरे उपन्यास माया मेमसाहब द्वितीय के लिए पुरस्कृत किया जा रहा है मुझे।

वहाँ तीन दिनों के लिए बुलाया जा रहा है। वहाँ के आयोजक मुझसे अनुमति माँग रहे थे। मैंने तुरंत हाँ की, क्योंकि मैं जानती थी मुझे इस राह पर आगे जाना है। मुझे इस जीवन में मौका मिला है कुछ कर दिखाने का आख़िर मैंने तुरंत युवराज को फ़ोन कर बताया मुझे लिटरेचर फेस्टिवल में बुलाया जा रहा है, सुनते ही युवराज बहुत ख़ुश हुआ और उसने तय किया कि इस यात्रा में हम एक दूसरे से मिलेंगे। यह हमारी पहली मुलाक़ात होगी।

मुझे लिटरेचर फेस्टिवल में जाने से ज़्यादा युवराज से मिलने का उत्साह था। हम तय कर चुके थे कि हमें कहाँ मिलना है, कैसे मिलना है… एक महीने बाद की तारीख़ तय थी लेकिन मैंने अपने घर में अभी यह बात किसी को न बताई।

मैं समय देख कर अपने पति को बताना चाहती थी कि मुझे लिटरेचर फेस्टिवल से बुलावा आया है।

लिटरेचर फेस्टिवल में जा रही हूँ, वह ख़ुश होकर मेरे गले लगा और मुझे  कांग्रेचुलेशन कहने लगा।

अब सबसे पहले मुझे यह देखना था कि लिटरेचर फेस्टिवल में स्त्रियाँ किस तरह से तैयार होकर आती हैं। मुझे उस तरह के सामानों की आवश्यकता थी। मैंने यूट्यूब पर इस तरह प्रोग्राम देखना शुरू किया। किस तरीके से बोलते हैं, किस तरीके का आचरण प्रदर्शित करते हैं… मैंने यह सब देखना आरंभ किया और मैं कुछ तैयारियों में जुट गई। यहाँ लगातार मेरी युवराज से बातें होती थी और मैं उसे अपने आने की और अपनी तैयारियों की हर ख़बर देती जाती थी। वह भी काफ़ी उत्साहित था। हम दोनों आख़िर में काफ़ी दिनों की डिस्टेंस रिलेशनशिप के बाद मिलने वाले थे। अब हमारी मुलाक़ात में कोई बाधा नहीं थी, हमारा मिलना ऐसा था जैसे कि हमें प्रकृति ने मिलाने के लिए ही यह सब उत्सव किया हो।

अब मुझे पैसे की आवश्यकता थी जो मैं अपने पति से नहीं ले सकती थी। मैंने अपने हाथ में पहनी हुई एक सोने की चूड़ी जो काफ़ी सालों से पहनी हुई थी उसे बेच दिया और अपनी जाने की तैयारियों में लग गई…कुछ साड़ी, कुछ कपड़े और चप्पलें। मैं अपने पति की पीठ पीछे ही सारी तैयारियाँ कर रही थी। कुछ झुमके ख़रीद रही थी, कुछ कपड़े, कुछ मेकअप की सामग्री आदि। पार्लर जाकर फेशियल के साथ-साथ और थोड़े बहुत सौंदर्य निखार के काम कराने थें, आख़िर सम्मान से ज़्यादा डेट की तैयारी कर रही थी।

मैं रात के खाने पर  पति का इतंज़ार कर रही थी, मैं उनसे अपने जाने की बात कहना चाहती थी लेकिन उसका मूड हमेशा ही ख़राब रहता। बड़ी हिम्मत कर मैंने उन्हें कहा आपने मेरी उपन्यास पढ़ी? उसने कहा हाँ-हाँ आज पढ़ता हूँ और वह मेरे सोने तक उपन्यास पढ़ता रहा।

उस दिन रात पति ने मेरी उपन्यास पूरी पढ़ ली, मैं सो चुकी थी तबतक लेकिन उन्हें कुछ समझ में नहीं आया… उन्होंने  उपन्यास मेरे सिर पर मारी और मुझे बोला तू कितनी अश्लील उपन्यास लिखती है! क्या लिख रही है यह, किस तरह की किताब लिखी है और उसने मेरे साथ मारपीट करनी शुरू कर दी। मारपीट तक तो ठीक था लेकिन उसने मेरी उपन्यास को जला भी दिया। यह सब नहीं होना चाहिए था। मैं यह सब नहीं देखना चाहती थी कि मैं लिखूँ , उसे सिर्फ़ पैसों से मतलब था मैं पैसा उसे लिख कर दूँ इस बात से कोई मतलब नहीं था कि मैं क्या लिख रही हूँ। उसके दिए गए मार के निशान दिखाई दे रहे थे कुछ कपड़ों के अंदर थे तो कुछ कपड़ों के बाहर। बाहर के निशान तो मैं छुपा लेती पर कपड़ों के अंदर के निशान नहीं छुपा पा रही थी। मेरे कटिंग किए बालों को ज़ोर से पकड़ कर मुझे यह ताना मारा कि यह फैशन किसके लिए तेरा कोई यार बना है क्या… तू तो प्यार से मिलने जाएगी, तब तक उसे पता लग चुका था कि मैं एक लिटरेचर फेस्टिवल में जा रही हूँ लेकिन वह गँवार आदमी उसे नहीं पता था कि लिखने पढ़ने से मुझे एक आज़ादी मिली है और मैं उस आज़ादी का भरपूर इस्तेमाल करना चाहती थी अपना जीवन बनाने के लिए। उसके जीवन में बस उसकी आटा चक्की और उसका सारा दिन का आटा बेचने के अलावा उसके पास और कोई काम नहीं था। रात को आकर खल-खल करना और सुबह आटा चक्की पर सारा दिन दुकान पर बैठे रहना उसके अलावा उसकी जिंदगी में था भी क्या… मेरा जीवन भी उसी तरीके से चलाना चाहता था लेकिन मैं उस जीवन से निकलना चाहती थी और इसलिए मैंने उसकी मारपीट की परवाह किए बग़ैर अपने कपड़े लगाने शुरू किया। मेरे अंदर का डर अब शायद ख़त्म हो चुका था और मैं अपनी आगे की तैयारियों में जुट गई। वह भी मारपीट कर शायद थक चुका था इसलिए वह अपने कमरे में चला गया और मैं अपनी तैयारियों में व्यस्त हो गई क्योंकि मुझे तो जाना ही था मैं रुक तो नहीं सकती थी यह मुझे पता था कि यह सब कुछ होना है इसलिए मैं मानसिक रूप से तैयार थी।

और अगली सुबह मेरी ट्रेन थी। मुझे जाना था, मैंने अपने निशानों को छिपाया। मेरा बेटा मुझे स्टेशन छोड़ने गया और हमने एक दूसरे को गले लगाया। मैं शायद अब सब कुछ छोड़ चुकी थी, वापस तो आती पर एक दमदार औरत बन कर। मैं कभी अब उससे डर नहीं सकती न, कभी झुक सकती। मैं लिखने वाली लेखिका हूँ मैं किसी से नहीं डरूंगी।

मुझे किसी से मिलने का इंतज़ार था, हम फ़ोन पर तय कर चुके थे कहाँ मिलना है और किस तरह।

दूर से लम्बी-लम्बी बातों का सुख मुझे मिल रहा था। एक दिन अचानक तुमने मुझसे कहा हमें मिलना चाहिए। आख़िरकार एक दिन हमारी मुलाकात तय हुई, मैं बहुत उत्सुक थी तुम्हारी आने की तारीख़ पाकर। मैं अपने परिवार से जाने के नाम पर न जाने कितने तरह के बहाने बना चुकी थी और न जाने कितनी तरह की कल्पनाएँ अपने मन में संजो चुकी थी। क्या पहनूँ, क्या नहीं इसी सब में समय बीतता जा रहा था।

मैं तुम्हारे आने का इंतज़ार ही कर रही थी और तुम अचानक मेरे सामने आकर खड़े हो गए। मैं अचानक तुम्हारी चमकदार आँखें और खिला हुआ चेहरा देखकर उत्साह से भर गई। पहले मन में लगातार तुमसे मिलने की इच्छा ने मेरा मन और तन भीग जाता था।

लेकिन आज तुम साक्षात मेरे सामने थे। मैं कुछ कहती कि तुमने अचानक मेरी आँखों के आगे चुटकी बजाकर कहा…कहाँ खो गई?

मैं तुमसे इतने दिनों के इंतज़ार के बाद मिल रहा हूँ और तुम हो कि ख़ामोश खड़ी हो! क्या मेरे आने ख़ुशी नहीं तुम्हें? मैंने हँसते हुए कहा नहीं-नहीं ऐसा नहीं है।

और कैसी रही तुम्हारी यात्रा। चंचल स्वभाव के तुम हमेशा से थे इसलिए सीधे जबाव देना आता नहीं। तुमने भी बड़ा घुमावदार जबाव दिया मैं सात समंदर पार से पहाड़ों को लांघकर, जंगलों से गुज़रता हुआ तुम्हारे पास आया हूँ और तुम हो की मुझसे सवाल पर सवाल दागे जा रही हो!

अरे तुम तो बुरा मान गए मेरा मतलब कुछ और था।

चलो छोड़ो कैफ़े चलते हैं, वहीं बैठकर कुछ बातें करेंगे।

हम दोनों कैफ़े में जाकर बैठ गए। मैंने कहा तुम क्या पीते हो? तुमने आर्डर दिया और फिर से हम उसी दुनिया का हिस्सा थे जब हम साथ नहीं होते लेकिन एक दूसरे को महसूस करते। एक दूसरे को देखने मैं व्यस्त होना भी  प्रेम के सबसे ख़ूबसूरत पलों में से एक होते हैं। तुमने अपनी चुप्पी तोड़ी सुंदरी बार-बार कहाँ खो जाती हो तुम, मैं यहाँ तुम्हारी ख़ामोशी नहीं तुम्हारी बड़बड़ सुनने आया हूँ, जो रोज़ मुससे फ़ोन पर करती हो।

हम दोनों ही हँसने लगे। बातों-बातों में समय और ख़राब होते मौसम का पता ही नहीं चला। हम दोनों कैफ़े से बाहर आ गए।

टैक्सी में बैठकर हम चल दिए। हम जानते थे आज हम क्यों मिल रहे थे। बहुत लोगों के बीच भी अकेले पन मिटाने का एक ही तरीका था कि हम समय मिलने पर एक दूसरे से मिलते रहें।

एक दूसरे को समय दें। आज हमारी यह आमने सामने पहली मुलाक़ात थी कार पार्किंग से होटल तक जाते हुए हम भीग गए।

क्योंकि उसने पहले से ही होटल में रुम बुक किया था। मैं उसे लिफ्ट में मौका पाते ही निगाह भर देख लेती, उसके भीगे बाल और उसकी काली शर्ट जो सीने तक खुली हुई थी। मैंने युवराज के सीने को देखा और मन ही मन उसके सीने को चूमना चाहती थी लेकिन कुछ था जो मुझे पहल करने से रोक रहा था। मन ही मन भीग चुकी थी उसके अस्त व्यस्त बाल और चेहरे को देखकर। वह मुझे देख रहा था और हल्की सी हँसी उसके चेहरे पर आ गई, फिर अचानक मेरे कंधे पर लगे नीले निशान को देखकर मुझसे पूछा अरे ये चोट कैसे लगी? मेरी आँखें भीग गई।

मैंने अपना ध्यान अपने भीगे कपड़ों की तरफ़ किया ताकि मैं उससे अपने आँसू छिपा सकूँ। उसके पूछते ही कल रात की सारी आपबीती याद आ गई जिससे दूर भाग रही थी वही सब सामने आ रहा था। मैं बस उस सवाल को टालना चाहती थी और उसी समय लिफ्ट रुक गई शायद हम अपने फ्लोर पर आ चुके थे।

जब हम कमरे में पहुँचे थोड़ी देर ख़ामोशी पसरी थी लेकिन युवराज कब तक चुप रहने वाला था। उसने होटल में रखे एलेक्सा से कहा… किसी ख़ामोश लड़की से कैसे बातें की जाए? एलेक्सा जबाव देने लगी-

अगर लड़की गूंगी है तो वो नहीं बोलेगी। हम दोनों ही ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे। मैं भांप गई थी कि अब तुम्हारी चेतना में काम हावी है। हल्की फुल्की बातों के बीच तुम मेरे पास हो मैं तुम्हें चूमना चाहती हूँ मैं चाहती हूँ जीवन के अंत तक ये दिन यूंही चलता रहे।

मैं कपड़े चेंज करने बाथरूम में चली गई। मैंने गाऊन पहनी और ख़ुद को शीशे में देख रही थी क्या मैं अच्छी तो लग रही हूँ मेरे निशान दिखाई तो नहीं दे रहे । मैं थोड़ा फाउंडेशन लगाकर छिपाना चाहती थी, कहीं से दिखाई तो नहीं दे रहे मेरे शरीर पर लगे चोट के नीले निशान। मैं आख़िर असमंजस के बाद बाथरूम से बाहर आ गई।

मेरी ओर देखकर युवराज कहने लगा… हम्म्म ब्लैक गाऊन तुम पर फब रही है। तुम्हें याद था मैंने भी जबाव में गर्दन हिला दी और कहा मुझे वह सब याद है जो हम अक्सर लिखकर मिटा देते हैं पर मेरी ज़ेहन में तुम्हारी एक-एक बात बरकरार है। तुम चाहे भूल जाओ आज तुम्हारा प्रेम चरम पर है कल ग्राफ नीचे आएगा मैं इस पल को जीना चाहती हूँ और हमेशा के लिए यूँ ही मिलते रहने का वायदा भी करती हूँ। तुम मेरे पास आकर खड़े हो जाते हो और मेरे कंधे से साटन के गाऊन की डोरी खोलते हुए मेरे कांधे पर चूमते हो।

हम एक दूसरे के चेहरे की ओर देखते हुए एक दूसरे के होंठों को करीब लाकर, एक दूसरे की तेज़ साँसों को महसूस कर रहें हैं। तुमने मेरे बालों में हाथ डालकर मुझे अपनी तरफ़ खींचा और मैंने तुम्हारे निचले होंठ को अपने दोनों होंठों के बीच लेकर चुम्बन किया। हम एक दूसरे में खोते चले गए।

मैं उसकी ख़ुशबू की गिरफ़्त में हो चुकी थी, अब निकलना असंभव था। मैं उसकी आँखें देखती रही, और सोचने लगी एक चुम्बन ही काफ़ी होता है एक दूसरे की बीच की दूरी तय करने लिए। फिर हम थोड़ा खुल गए। हम दोनों में बराबर आग थी जो एक दूसरे को जलाने को काफ़ी थी। हम एक दूसरे की बाहों में लिपटे रहें, मुझे उसकी ख़ुशबू मदहोश करती जा रही थी। कभी वह मेरी गर्दन, तो कभी मेरे कंधे पर चूमते हुए लिपट गया। मुझे फिर से घबराहट होने लगी कि अगर मेरे कपड़ों के अंदर छिपे निशान युवराज को दिखाई  देने लगे तो, मैं क्या जबाव दूँगी। लेकिन मैं सोच ही रही थी कि युवराज ने मेरी गाऊन कंधे से हटाते हुए मुझे चूमा, मेरे कंधे पर पड़े निशान को देखकर उसने फिर मुझसे पूछा और इस बार में छिपा न सकी अपनी सारी आपबीती युवराज के सामने रख दी। युवराज ने मुझे गले लगा लिया। मेरे लिए इतना ही काफ़ी था कि एक पुरुष के प्रेम को जानने के लिए वह दर्द को समझता हो।

अगले दिन मैं साहित्य जगत में  प्रवेश करने को तैयार थी और मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर युवराज खड़ा रहा।

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