आज पढ़ते हैं गौतम राजऋषि से बातचीत। गौतम सेना में कर्नल हैं, हम लोगों के लिए उम्दा शायर हैं, कथाकार हैं। लेकिन यह बातचीत उनके उपन्यास ‘हैशटैग’ को लेकर है। अनबाउंड स्क्रिप्ट प्रकाशन से प्रकाशित इस उपन्यास की पृष्ठभूमि पटना शहर की राजनीति, कैंपस से लेकर फ़ौज की अनुशासित दुनिया तक है। उनके यह बातचीत की है कुमारी रोहिणी ने। आप भी पढ़ सकते हैं- मॉडरेटर
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प्रश्न: आपके पहले उपन्यास के मुख्य किरदार ‘समर प्रताप सिंह’ को लेकर पाठकों के मन में यह जिज्ञासा है कि ‘समर प्रताप सिंह’ में एक फ़ौजी कर्नल गौतम राजऋषि, शायर गौतम राजऋषि और कथाकार गौतम राजऋषि में किसका अक्स सबसे ज्यादा है?
उत्तर: यह उपन्यास दरअस्ल एक लंबी श्रृंखला की पहली किस्त है। एक लेखक के रूप में मेरे लिए यह सुखद आश्चर्य था कि किताब जितनी चर्चा में रही है, उसका किरदार उससे कहीं ज़ियादा चर्चा में है। समर प्रताप सिंह मेरे शागिर्द रहे हैं तो ज़ाहिराना उनमें मेरे फ़ौजी वाले अवतार का अक्स ज़ियादा है। मेरे साथ जब भी रहते हैं वो तो स्वाभाविक रूप से लगातार कोई ना कोई शेर और ग़ज़ल सुनते ही रहते हैं। शायर वाला अक्स भी इसी ख़ातिर उनमें नुमाया होते रहता है जब-तब। कथाकार वाले अक्स से अछूते हैं अब तलक वो। अब आपने याद दिलाया रोहिणी जी तो सोच रहा हूॅं उस जानिब भी उन्हें ले चलूँ।
प्रश्न: एक जिज्ञासा है कि आपकी छवि एक संजीदा शायर और कथाकार की रही है। लेकिन पहले उपन्यास के रूप में आपने लोकप्रिय उपन्यास की विधा का चुनाव क्यों किया? हिंदी में तो यह विभाजन बहुत गहरा रहा है। आपको डर नहीं लगा कि कहीं हिंदी की तथाकथित मुख्यधारा आपको खारिज न कर दे?
उत्तर: डर….!!! बहुत ज़ोर की हॅंसी आयी…वो LOL वाली नहीं, ROFL वाली हॅंसी। डरता तो मैं इस पूरे ब्रह्माण्ड में अपने पापा से था, बस…अब वो रहे नहीं। वैसे हिंदी के स्वघोषित ‘मुख्यधारावी’ ख़ुद कितने दाख़िल हो रखे हैं हिंदी में कि ये किसी को ख़ारिज या ना-ख़ारिज करेंगे रोहिणी जी? हिंदी-लेखन में मैं बस अपने शौक के लिए ही हूॅं। ग़ज़ल की मान्य शैली में भी मैंने अपने मन से ख़ूब तोड़-फोड़ मचाया है, जिसकी बतेरे आलोचनायें भी सुनी है। तो इस उपन्यास को लिखते समय मुझे बस समर प्रताप सिंह की लंबी, अनूठी और दिलचस्प कहानी को सलीक़े से सुनाने में रुचि थी। उपन्यास हिंदी की किसी धारा में रखी जाएगी, यह बात तो मन के एक किसी आवारा से ख़याल तक में भी शामिल नहीं थी।
प्रश्न: समर प्रताप सिंह का नाम इस उपन्यास से अधिक हो गया। लोगों को उसमें कर्नल गौतम राजऋषि का भी अक़्स दिखाई पड़ने लगा है। आप समर प्रताप सिंह को गढ़ते समय, उनको बुनते समय अपने आत्म से कितने अलग थे?
उत्तर: समर प्रताप सिंह बिल्कुल अलग हैं, वो वैसे ही हैं उपन्यास में जैसे हैं। हॉं…कहीं न कहीं से थोड़ा-बहुत मैं शामिल ज़रूर हो गया हूँ कहानी बुनते समय। यह सायास नहीं रोहिणी जी, बल्कि लेखकीय अवचेतन मन का अनायास शामिल हो जाना है। कहॉं बच पाता है कोई भी लेखक अपने किरदार में उतर जाने से! समर साब के शुरुआती दब्बूपन और उनकी अपरिभाषित झिझक में निश्चित रूप से मेरा ‘मैं’ भी शामिल हैं। इंडियन मिलिट्री एकेडमी के ट्रेनिंग दिनों वाले कहानी के हिस्से में तो शर्तिया तौर पर मेरा अपना अक्स आ गया है…वही कमज़ोरियॉं, वही विकलता, वही जिवटता और वही-वही जीजिविषा।
प्रश्न: आपके उपन्यास हैशटैग में पटना का चित्रण बहुत जीवंत है। विशेष रूप से वहाँ के कॉलेज लाइफ़ का, राजनीतिक लाइफ़ की भी थोड़ी झलक है। उपन्यास का पटना आपके पटना से कितना मिलता जुलता है? चूँकि मैं भी मूलतः पटना से ही हूँ इसलिए यह सवाल मेरे लिए थोड़ा निजी और ख़ास दोनों है।
उत्तर: पटना महबूब शहर है। एक तो मेरा ससुराल है और दूजा, स्मृतियों के ख़ज़ाने के एक बहुत बड़े हिस्से पर इसी शहर की मुहर लगी हुई है। जैसे वेताल के कॉमिक्स में वेताल के तमाम ख़ज़ानों पर उसके अंगुठी का निशान लगा रहता है, ठीक उसी तरह से। उपन्यास के पहले आधे हिस्से में पटना एक तरह से समर प्रताप सिंह के ‘साइड-किक’ वाले किरदार के रूप में अवतरित है। उपन्यास का पटना मेरे वाले पटना से हूबहू मिलता है। वही है ही, सच पूछिए तो…जैसा मैंने देखा पटना को, जैसा मैंने महसूस किया इस शहर को। कालीघाट का दृश्य या फिर साइंस कॉलेज का कैम्पस…सारा कुछ मेरी अपनी स्मृतियों से उभर कर आया है।
प्रश्न: ऐसा माना जाता है कि लेखक का अपना एक अलग लोक होता है, जिसमें उसके पात्र वही करते-कहते हैं जो वे चाहते हैं। कई बार उन पर ख़ुद लेखक का भी ज़ोर नहीं चल पाता। लेकिन फिर लगता है कि कहीं ना कहीं लेखक के लिखे में उसकी स्मृतियों की भी भूमिका होती ही होगी। आप इस बारे में क्या सोचते हैं, क्या लेखक के लिखे में उसकी स्मृतियों का योगदान होता है और अगर हाँ तो कितना?
उत्तर: निश्चित रूप से, लेखक की अपनी स्मृतियॉं तो एक बहुत ही कारगर भूमिका अदा करती हैं किसी भी क़िस्से-कहानी को सुनाने में। चाहे उस परिवेश से जुड़ी स्मृतियॉं हों, जहॉं की कहानी रची जा रही है या फिर उस किरदार को लेकर उसकी स्मृतियॉं हों न, जिसके इर्द-गिर्द सारा ताना-बाना बुना जा रहा है। कई बार किरदार नियंत्रण से बाहर ज़रूर हो जाते हैं, जब आपका पहले से सोचा हुआ कुछ कहानी रचने के प्रवाह में कुछ और हो जाता है। यह प्रक्रिया सहज सी ही होती है… नैचुरल फ्लो में। एकदम अन्यास ही। लेखक को कई बार आभास तक नहीं होता है। लेकिन कथानक में चाहे जिस किसी भी लोक का निर्माण करें, किरदार और उससे जुड़ी कहानी तो उसने अपने आस-पास से ही या सुनी-सुनाई घटनाओं से ही चुनी होती है। तो ज़ाहिर है कि उसकी अपनी स्मृतियॉं एक अहम रोल निभाती हैं। हॉं, अनियंत्रित हो गया किरदार पूरे लिक्खे को एक मज़ेदार अनुभव बनाता ज़रुर है।
प्रश्न: वापस आपके उपन्यास के सवाल पर लौटते हैं। उपन्यास का नाम “हैशटैग” रखने के पीछे का कारण और प्रेरणा दोनों के बारे में बताएं।
उत्तर: नाम तो उपन्यास के कथ्य से ही जुड़ा हुआ है। जिस कालखंड की कहानी है, ठीक उन्हीं दिनों फ़ेसबुक पर लाइक बटन के विकल्प में अन्य इमोजी भी जोड़े गए थे। पहले लाइक बटन बस नीले रंग का थम्ब्स अप देता था। बाद में उसमें लाल रंग का दिल, हाहा, गुस्से और दुख प्रगट करने वाले इमोजी भी जुड़े। उन्हीं दिनों कुछ ऐसे वाक़िये सामने आये थे, जिसमें कुछ दिलजलों ने हार्ट वाला लाइक बटन दबा कर मन ही मन यह समझ लिया था कि उन्होंने अपने दिल की बात पोस्ट करने वाली लड़की तक पहुॅंचा दी है। ऐसी ही अपरिभाषित मानसिकता से कहानी का मुख्य किरदार भी ग्रसित है। लड़की ने पोस्ट में टैग कर दिया तो लड़के ने मान लिया कि उससे प्यार करती है। और फिर उपन्यास का नाम मुझे थोड़ा-सा ‘कैची’ भी रखना था…ज़ाहिर तौर पर युवा पाठकों को और किताब के बाज़ार को ध्यान में रखते हुए।
प्रश्न: आपके इस उपन्यास का मुख्य किरदार एक अपराधी है, भले ही उसने प्रेम और उससे उपजी अन्य भावनाओं के कारण ही अपराध किया हो लेकिन इसे जायज़ या संवैधानिक तो नहीं ठहराया जा सकता है ना? इस पर आप क्या कहेंगे क्योंकि आपने इसे अपराध कथा नहीं बल्कि प्रेम कथा का नाम दिया है।
उत्तर: निश्चित रूप से उपन्यास के मुख्य पात्र ने अपराध किया है कहानी में और कानून व संविधान के हिसाब से वह अपराधी है। लेकिन अपराधियों की प्रेम कथा नहीं होती क्या? प्रेम की भावना तो हर प्राणी में होती है, जो इस धरती पर विचरण करता है। एक अपराधी जो प्रेम में है, उसके प्रेम की कहानी को सुनाया तो प्रेम-कथा के उन्वान में ही जायेगा ना। उपन्यास में अपराध तो बस दो पन्नों में आया है। शेष सारे पन्ने तो प्रेम-रस में सराबोर हैं। अपराधियों की प्रेम-कहानी भी कोई तो सुनाये! वैसे भी उपन्यास के नब्बे प्रतिशत पाठकों की सहानुभूति नायक समर प्रताप सिंह के साथ है ना कि शगुन सिन्हा के साथ…जैसा कि फ़ीडबैक मुझे आये दिन मिल रहा है।
प्रश्न: अच्छी बात कही आपने कि पूरे उपन्यास में अपराध तो केवल दो पन्नों में ही है, और यह भी कि आपके पाठकों की सहानुभूति समर प्रताप के साथ है ना कि शगुन सिन्हा के साथ। ऐसे में एक लेखक के रूप में आपको क्या लगता है कि इस उपन्यास के पीछे के अपने इंटेंट को लेकर कितना सफल हो पाए हैं?
उत्तर: ख़ुश हूँ… दरअसस्ल बहुत ज़ियादा ख़ुश हूँ। उपन्यास बिक रहा है और पढ़ने वालों को पसंद आ रहा है। जिस इंटेंट की बात कर रही हैं आप, वो भी ख़ूब-ख़ूब सफल रहा है। कहानी के मुख्य किरदार को निगेटिव बनाने के बाद भी उसके पक्ष में लोगों की उमड़ती संवेदना को देखते हुए…वो अंग्रेजी में कहते हैं ना… सेवन्थ हैवेन… तो उधर ही उड़ता फिर रहा हूँ। थोड़ा मायूस भी हूँ… वो इसलिए कि इस उपन्यास को कम से कम नहीं तो तीन-साढ़े तीन साल पहले आ जाना चाहिए था। किंतु हिंदी के दो जाने-माने प्रकाशकों के निहायत ही गैर-पेशेवर रवैये से यह उपन्यास बहुत विलंब से आया। अभी तक तो इस शृंखला का तीसरा हिस्सा आ जाता। लेकिन देर-आये-दुरुस्त-आये वाला फकरा ख़ुद पर मारकर, थोड़ा और प्रफुल्लित हो जाता हूँ मैं।
प्रश्न: आपका यह उपन्यास टू बी कंटीन्यूएड वाले फॉर्मेट में है। पढ़ने वाले को आगे जानने की उत्सुकता होने लगती है। एक तरह से एक अधूरापन है आपके इस उपन्यास में। क्या इसकी अगली कड़ी का इंतज़ार किया जाए या फिर समर अपनी कहानी का अंत पाठकों पर छोड़ते हैं?
उत्तर: अधूरापन तो चप्पे-चप्पे में हैं, पूरी कायनात में है, हमारी-आपकी ज़िंदगी में है। इस उपन्यास में भी है। दर्शन बघार रहा था मैं ये तो। लेकिन जैसा कि शुरू में ही बताया मैंने कि यह उपन्यास ‘हैशटैग’ एक लंबी श्रृंखला का पहला उपन्यास है। अभी और भी उपन्यास आयेंगे आगे। अगला उपन्यास तो अभी इसी साल अक्टूबर तक आ जायेगा, जिसका नाम ‘इंफ़ॉर्मर’ है। दरअस्ल समर प्रताप सिंह की ज़िंदगी में इतने उथल और इतने पुथल हैं कि उनकी कहानी एक किताब में सिमट ही नहीं सकती है। उस एक अपराध के बाद से उनकी ज़िंदगी में ऐसा ‘टर्न’ आया कि वो जो “डेस्टिनी कॉलिंग” जैसा कुछ होता है ना, वैसा ही हुआ उनके साथ। वो जैसे किसी दैविक चयन का हिस्सा होकर कश्मीर पहुँच जाते हैं और फिर शुरू होता एक ना-ख़त्म होने वाले मुठभेड़-दर-मुठभेड़ का सिलसिला। दिल थाम कर बैठिये उनके अगले कारनामे का। दावा है मेरा कि हिंदी में भारतीय सेना द्वारा कश्मीर में आतंकवादियों के बर-ख़िलाफ़ पिछले साढ़े चार दशकों से चल रहे ख़ूनी ऑपरेशन्स की इतनी वास्तविक कहानी इससे पहले कभी नहीं लिखी गयी है।
प्रश्न: अब आख़िरी सवाल पर आते हैं, हिन्दी साहित्यिक दुनिया में गॉसिप का बाज़ार हमेशा ही गर्म रहता है, आये दिन सोशल मीडिया से लेकर लोगों के अपने-अपने समूहों में कोई ना कोई विषय (अमूमन ग़ैर-साहित्यिक) चर्चा के केंद्र में बना रहता है। ऐसे माहौल में आपका यह पहला प्रेम-उपन्यास अछूता कैसे रहता भला! ऐसी चर्चा है कि यह उपन्यास काल्पनिक नहीं बल्कि किसी सत्य घटना पर आधारित है। इस पर कुछ कहना चाहेंगे आप?
gautamउत्तर: हाहाहा…सच कहा आपने। इन गॉसिप करने और फैलाने वाले/वालियों को जाने क्या हासिल होता है ऐसे बेहुदा ‘नरेटिव्स’ से! इतनी कलात्मकता और रचनात्मकता अगर ये अपनी लेखनी में डालते, जितनी गॉसिप में डालते हैं, तो कोई कालजयी महाग्रंथ लिख डालते। इस उपन्यास के साथ तो शुरू से से अजब-ग़ज़ब वारदातें हुईं। आपको बता दूँ कि सबसे पहले इस उपन्यास का प्लॉट एक कहानी के रूप में आया था वर्ष 2017 में, जो बाद में मेरे कहानी-संग्रह “हरी मुस्कुराहटों वाला कोलाज” में शामिल भी हुआ। वर्ष 2020 के नवंबर महीने में मैंने उपन्यास का फ़ाइनल ड्राफ्ट एक प्रकाशक महोदय से सारी बातें तय हो जाने के बाद उन्हें सौंप दिया। तीन साल तक वो महोदय पांडुलिपि पर कुंडली मारे बैठे रहे। इन तीन सालों में वो लगातार यही कहते रहे कि बस उनके एडिटर इस ड्राफ्ट पर ही लगे हुए हैं… कुछ बदलाव करेंगे वगैरह-वगैरह। तीन साल बाद एक दिन जब ऊब कर मैंने घेरा तो जवाब देते हैं कि उनको कहानी ही समझ में नहीं आयी। बाद में एक और प्रकाशक जी परिदृश्य में आये। उन्हें भी इस शृंखला का कंसेप्ट बहुत पसंद आया। दो-दो घंटे के स्टोरी-बोर्ड वाले डिस्कशन तो हो गये इनसे। यहॉं तक कि इन दूसरे प्रकाशक ने उपन्यास के प्रोमोशन के लिए वीडियो कैंपेन वगैरह तक की बात कर ली मुझसे। और एक दिन अचानक से हट गये पीछे। मैं हैरान!वैसे अब सोचता हूँ तो लगता है जो हुआ अच्छा ही हुआ, वरना अलिंद महेश्वरी जैसे ज़हीन शख़्सियत से राब्ता न हुआ होता। उपन्यास छप जाने के बाद और थोड़ा सा चर्चित हो जाने के बाद, यह जो आप जिस गॉसिप का ज़िक्र कर रही हैं, उसकी शुरुआत हुई। इतना वाहियात और बेहुदा नरेटिव्स गढ़ा एक-दो लोगों ने उपन्यास की कहानी को लेकर, जिसमें एक वरिष्ठ लेखिका भी शामिल थीं, कि मुझे तरस आने लगा इन पर। अरे कम से कम उपन्यास तो पढ़ लेते पहले नमूनो(नियो)! दुख हुआ बहुत। दुख हुआ…अपने लिये नहीं, इन नरेटिव्स गढ़ने वालों/वालियों के लिए कि इनकी क्या गत बनेगी जब मेरे सामने पड़ेंगे किसी दिन। दे विल बी डेल्ट विद…विदाउट पिटी, विदाउट रिमोर्स। काहे कि शाब्दिक उदंडता में विश्वास नहीं करता मैं और शारीरिक उदंडता के लिए बहुत बेहतरीन तरीक़े से प्रशीक्षित हूँ मैं। तो इन नरेटिव्स रचने वालों को बच कर रहना चाहिए मुझसे रोहिणी जी, एक सुरक्षित दूरी बना कर रखनी चाहिए आने वाले दिनों में।
…और हॉं, उपन्यास बिल्कुल सच्ची घटनाओं पर आधारित है। समर प्रताप सिंह की ज़िंदगी और उनके आस-पास हो रही घटनाओं पर आधारित है। यह शृंखला लंबी चलनी है और ख़ूब चलनी है।