आज पढ़िए युवा लेखक प्रचण्ड प्रवीर की कहानी। प्रचण्ड अपने प्रयोगों के लिये जाने जाते हैं और अक्सर विधाओं में तोड़फोड़ करते रहते हैं। उनकी यह कहानी व्यङ्ग्य सम्राट हरिशङ्कर परसाई की कहानी मौलाना का लड़का : पादरी की लड़की को श्रद्धाञ्जलि स्वरूप समर्पित है-
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फ़ारसी कविताओं मेँ गुल और बुलबुल को प्रेम का प्रतीक मान कर किस्सों और कविताओं मेँ बहुतेरी मिसालें दी गयी हैँ। हमारे भारत मेँ कमल और भौँरे की, कोयल और पपीहे की जो प्रसिद्ध जोड़ियाँ है, हिन्दुस्तान के फ़ारसी लिखने-पढ़ने वालोँ ने उन्हेँ भुला कर गुल और बुलबुल को सिर चढ़ा लिया। मतलब ऐसे शायर रहते भारत मेँ थे, पर दिल-ओ-दिमाग फ़ारस मेँ बसा था। कुछ वैसे ही कि जैसे आजकल के स्क्रिप्ट राइटर रहते भारत मेँ है, पर दिल-ओ-दिमाग अमरीका मेँ होता है। इसलिए गुजरे ज़माने के शायरोँ को अगर आँखोँ की तारीफ़ करनी होती तो वे ‘नर्गिस’ और ‘बादाम’ की उपमा से करते थे। बहुत गहरे पैठने पर यह मालूम होता है कि शुरुआती फ़ारसी कवियों के माशूक़ तुर्क हुआ करते थे, जिनकी आँखेँ छोटी और गोल होती थीँ। यही कारण रहा होगा कि मूल फ़ारसी कवियों ने ‘नर्गिस’ के गोल कटोरीनुमा फूल से आँखोँ की तुलना करनी चालू की, जो ‘ऐ नर्गिस-ए-मस्ताना, बस इतनी शिकायत है’ तक जारी रही।
एक कहानी थी गुल और बुलबुल की। एक था गुल और एक थी बुलबुल, दोनो चमन मेँ रहते थे। थी वो कहानी बिलकुल सच्ची मेरे नाना कहते थे। अब जमाना बदल गया है। हम जिस कहानी की बात कर रहे हैँ वह है बुल और बुलबुल की। है ये कहानी बिलकुल सच्ची, मेरे मामा कहते हैँ।
एक था बुल और एक थी बुलबुल!
वो बुल था। देसी नाम बैल हुआ, पर देखिए बैल कहलाना फैशन से बाहर की चीज है। इसलिए वह खुद को बुल कहलाना पसन्द करता था। ‘शिकागो बुल्स’ नाम की प्रसिद्ध अमरीकी बास्केटबॉल की टीम की तर्ज़ पर बिना बाजू की बनियान पहनना, शॉर्ट्स मेँ घूमना, छोटे बाल रखना, नए डिजाइन का मोबाइल रखना, महँगे जूते पहनना, ये सब हमारे बुल की पहचान थी। किसी शक्तिशाली बैल की ही तरह उसकी भुजाएँ पुष्ट थीँ। बचपन मेँ पढ़ाई की शुरुआत मेँ ही काली स्लेट पर खल्ली से ‘गाय हमारी माता है’ लिखने के अभ्यास मेँ बार-बार ‘गाय हमरी माता है’ लिखते रहने के कारण पहली क्लास मेँ ही उसका नामाकरण बैल हो गया था। थोड़ा बड़ा हुआ तो फैशन के हिसाब से वह बैल के बजाय साण्ड या ‘बुल’ बन गया। चूँकि असली नाम सर्टिफिकेट के काम आता है और अपना बुल बिजनेस वाले परिवार से था, इसलिए उसका अच्छा वाला नाम किसी ने कभी याद नहीँ भी किया। बुल शहर के बीचोबीच चौक पर रहता था। कॉलेज मेँ कई साल तक घिसटने के बाद अक्सर शाम मेँ अपने पिताजी के फैशनेबुल कपड़े की दुकान पर लेडीज सूट और अन्य नारी उपयोगी परिधान बेचता नज़र आता था।
वो बुलबुल थी। वह शहर के एक कोने रहती थी जहाँ आवारा लड़के उसके हुस्न और आवाज़ की तारीफ़ सुन कर सुनहली शामों मेँ अक्सर ‘शाम ढ़ले खिड़की तले’ चक्कर लगाया करते थे। अपने झरोखे मेँ खड़ी हो कर बुलबुल कुछ ऐसे गाती थी, ऐसे गाती थी। पूछो, पूछो कैसे गाती थी? बुलबुल कुछ ऐसे गाती थी, जैसे जवानी की दहलीज पर आई लड़कियाँ बातेँ करती हैँ। तात्पर्य यह है कि गला कुछ सुरीला हो या न हो, रसिक लड़के उसमेँ कुछ ‘सुर’ जैसा ढूँढ लिया करते थे। इसलिए बुलबुल सोशल मीडिया स्टार भी थी। बुलबुल कोका कोला कलर की फ्रॉक पहन कर फोटो खिँचवाती और सोशल मीडिया के भाँति-भाँति प्रकारोँ पर नियमित लगाया करती। हर तसवीर पर हजारोँ पसन्द, सैकड़ोँ साझाकरण। अगर कभी कोई गाना गाते हुए विडियो डाल दिया जाय तो फिर नीचे ‘वाह-वाह’ की झड़ी लग जाती थी। लोग बार-बार पूछते कि आप टीवी पर अमरीकी तर्ज वाले प्रतियोगिताओं मेँ हिस्सा क्योँ नहीँ लेती? बुलबुल कैसे बताती कि वह इस इन्तज़ार मेँ है कि कोई उसकी खोज करे। कोई आये और रातो-रात इस मामूली शहर के छोटे बदहाल कोने से उसे निकाल कर बम्बई के फिल्म जगत के सिंहासन पर बिठा दे। बुलबुल के सौन्दर्य के प्रति रुझान और वेशभूषा के प्रति लगाव देख कर माता-पिता ने पत्रचार से फैशन डिजाइनिङ् का कोर्स मेँ दाखिला दिलवा दिया था। जो कि कई सालोँ से चलता आ रहा था। इस तरह बुलबुल अमरीकी अभिनेत्री ‘मार्लेन डीट्रिख’ की तरह अपने कपड़े खुद डिजाइन करने लगी थी।
बुल बिजनेस वाली फैमिली से था जैसा कि पहले बताया जा चुका है। इसका सहज परिणाम था कि उसके पॉकेट मेँ आम लड़कों की तुलना मेँ ज्यादा पैसे! जिसके कारण यह लाजमी था कि जब शहर मेँ बहुत से छोटे-छोटे रेस्तराँ खुल रहे थे, वहाँ बुल कभी जन्मदिन की, कभी पास होने की, कभी बॉस्केटबॉल के अन्तर-मोहल्ला टूर्नामेँट के ऐतिहासिक महत्त्व वाले त्रैमासिक मैच जीतने की पार्टियाँ देता रहता था। जब ऐसी ही एक पार्टी चल रही थी, किसी यार-दोस्त ने स्मार्टफोन पर बुलबुल का गाना चला दिया। देखने वालोँ ने देख लिया कि जब बुलबुल ऐसे गाती थी, ऐसे गाती थी, जैसे कि लड़कियाँ बातें करती हैँ, वो बुल ऐसे शरमाता था, ऐसे शरमाता था। पूछो, पूछो कैसे शरमाता था? वो बुल ऐसे शरमाता था जैसे वह घबरा जाता हो। लेकिन बुलबुल को मालूम नहीँ था कि बुल ऐसे क्यूँ शरमाता था, वो क्या जाने उसका नग़्मा बुल के दिल को धड़काता था। दिल के भेद न आते लब पर, ये दिल ही मेँ रहते थे।
एक था बुल और एक थी बुलबुल !
लेकिन आखिर दिल की बातें ऐसे कितने दिन छुपती हैँ। ये वो कलियाँ हैँ जो एक दिन, बस काँटे बन के चुभती हैँ। एक दिन जान लिया बुलबुल ने, वो बुल उसका दीवाना है। तुम को पसन्द आया हो तो बोलूँ, फिर आगे जो अफसाना है।
हूँ, बोलो न? चुप क्योँ हो गये?
बुलबुल की पहली पहचान अगर उसका बेहिचक गाना है तो दूसरी पहचान बेझिझक आसमान मेँ उड़ना है। हमारी बुलबुल उड़ना चाहती थी, पर कैसे? माँ-बाप ने उसे पिंजड़ें मेँ कैद कर रखा था। बुलबल को कोई सैय्याद कैद न करे तब तक अफसाना कैसे बने? इसलिए कह सकते हैँ कि कैद मेँ थी बुलबुल! और इसी बात से सहानुभूति रखती थी उसकी सहेली – बमपिलाट।
वो बमपिलाट थी। बमपिलाट शुद्ध देसी नाम है, जिसका मतलब होता है एक विशेष प्रकार की दोहरे बदन वाली लड़की। मतलब जो मोटी तो नहीँ कही जा सकती, पर गाल भरे-भरे होँ, हाथ और बाजू भी पुष्ट होँ। विशुद्ध मोटापे से कुछ कम, प्रचुर आलस, रात-दिन टीवी के सामने पड़े रहने और बहुतायत मेँ पौष्टिक खाने के कारण गदरायी लड़की बमपिलाट कहलाती हैँ। सामाजिक और आर्थिक पक्ष देखा जाय तो बमपिलाट आम तौर पर बड़े घर की बुद्धू-सी नज़र आने वाली लड़कियाँ होती हैँ। माँ-बाप और सहेलियों के ताने सुन कर, वे सलवार-कुर्ता पहनना पसन्द करती हैँ। बमपिलाट लड़कियाँ उड़ानें भरने को तैयार बुलबुलों की सहेली होती हैँ, जिन्हें देख कर बुलबुल अपने कमनीय हुस्न पर इतराया करती हैँ और बमपिलाट अपनी आलस दूर करने उनसे गप्पे लड़ाया करतीं हैँ। जिन्हें ऊँची उड़ान भरनी होती है, उनके अन्दर तीव्र महत्त्वाकाङ्क्षा होती है। महत्त्वाकाङ्क्षा का स्वाभाविक फल है ईर्ष्या, जलन, कटूक्तियाँ और अहङ्कार। ऐसा देखा गया है कि लड़कियोँ को जीव-विज्ञान और वनस्पति विज्ञान मेँ नैसर्गिक लगाव होता है। गरीब लड़कियाँ नर्स बनना चाहती हैँ। मध्यमवर्गीय लड़कियाँ डॉक्टर। जब उनका मेडिकल मेँ दाखिला नहीँ हो पाता है तो वे कवयित्रियाँ या लेखिकाएँ बन जाती हैँ। बमपिलाट को इस मामले मेँ बेहद ईमानदार थी। बारहवीँ के बाद घरवालोँ ने पटना मेँ रख कर मेडिकल की तैयारी करवायी। बमपिलाट को इस चूहा दौड़ से मतलब था नहीँ, पर उसके माँ-बाप को बहुत मतलब हुआ करता था। लड़की अगर अच्छी डॉक्टर हो तो ही अच्छा डॉक्टर लड़का मिलेगा। किसी बहाने से ही सही, बमपिलाट डॉक्टरनी तो कहलाएगी। लिहाजा डेण्टल कॉलेज मेँ डोनेशन दे कर एडमिशन करा दिया गया। जैसे घर, वैसे ही हॉस्टल। बमपिलाट ने किसी तरह ज़रूरत से ज्यादा साल बिता कर डिग्री ले ली और वापस घर आ कर टीवी देख करते हुए दिन बिताने लगी। महत्त्वाकाङ्क्षाहीन होने का सहज फल होता है – दब्बू, झेँपूपन, साहसहीन और दूसरोँ पर अवलम्बन।
बुलबुल मन ही मन इस बात से खुश थी कि बमपिलाट का रेगुलर मेडिकल नहीँ हुआ और केवल डेण्टल पढ़ने को मिला। साथ ही इस बात से जलती भी थी कि नाम की ही सही, बमपिलाट डॉक्टर तो है। यहाँ बुलबुल का फैशन डिजाइनिङ् का कोर्स भी छः साल मेँ नहीँ पूरा हो रहा। घर वालोँ को मनलायक लड़का भी नहीँ मिल रहा था। बमपिलाट इन मामलों मेँ दिल की बड़ी साफ थी। जलने-जलाने वाला उसका मिजाज नहीँ था।
बुधवार को दिल को बहलाने के बहाने बुलबुल बमपिलाट से बाजार चलने को बोली। बमपिलाट भी फुरसत मेँ थी तो मान गयी। दुपट्टा खरीदने के बहाने बुलबुल बमपिलाट को लिए बुल के दुकान पर जा पहुँची। बुलबुल तो पहले ही जान चुकी थी कि बुल उसका दीवाना था। उधर बुलबुल को सामने देख कर बुल को काटो तो खून नहीँ। इतने दिनों से यार-दोस्त बुलबुल के गाने सुना कर दिल मेँ जो हसरतों के बीज बो रहे थे अब वे गुन्चें बन कर खिलने वाले थे। किन्तु बुल देसी आदमी था। ध्यातव्य है कि आचार्य विश्वनाथ महापात्र ने ‘साहित्य दर्पण’ के तीसरे परिच्छेद के अन्तर्गत नायक-नायिका भेद की चर्चा मेँ प्रेम का आदर्श बतला गये हैँ – आदौ वाच्यः स्त्रिया रागः पुंसः. पश्चात्तदिङ्गितैः। मतलब है कि प्रेम का प्रारम्भ पहले स्त्री की ओर से होना चाहिए, फिर स्त्री की प्रेम-चेष्टाओं को देख कर पुरुष की ओर से। यही बात बुल को देसी तौर पर, कहा जाय तो खून की तरफ से जाहिर था कि कौन कहता है कि चाहत पे सभी का हक़ है? तू जिसे चाहे तेरा प्यार उसी का हक है!
बुलबुल ने कपड़ोँ की गुणवत्ता पर बुल को सुनाते हुए बमपिलाट से बहुत कुछ कहा। नए-नए फैशन की बात की। यह भी कहा कि बम्बई की अभिनेत्रियों मेँ कटरीना कैफ और श्रद्धा कपूर ही अच्छे कपड़े पहनती हैँ। बुलबुल के इशारो को जब बुल ने नहीँ समझा तब बुलबुल ने अपनी किस्मत के नाम पर सिर ठोक कर कहा कि पसन्द आये नीले दुपट्टे का रङ्ग कुछ फीका मालूम पड़ता है। कुछ अच्छे चटख रङ्ग का इन्तज़ाम कीजिए, आने वाले इतवार हम फिर आएँगी।
दुकान से निकलने के बाद बमपिलाट ने गुपचुप खाते हुए गुपचुप पूछ लिया कि बुलबुल इतवार को फिर आने का इरादा क्योँ रखती है। बुलबुल ने हँस कर बताया कि कुछ बातेँ समझ ली जाती हैँ। इतने इशारे से बमपिलाट एकदम समझ गयी और उसने आपत्ति जतायी कि बुलबुल अपने होश खो बैठी है जो चौक बाजार पर बैठे बुल पर अपना दिल निछावर कर रही है। बुलबुल की मंजिल तो बम्बई की फिल्म इण्डस्ट्री है। वह क्योँ अपना सफर भूली जा रही है। बुलबुल ने बमपिलाट को समझाया कि बम्बई जाने के लिए पैसे लगते हैँ। क्या पता बुल के मार्फत उसके किस्मत की चाभी खुल जाए। वैसे अभी बस दिल बहलाया जा रहा है।
बुल के दोस्तोँ ने बुल को बहुत समझाया कि बुलबुल उस पर फिदा है। लेकिन देसी बैल को कुछ समझ मेँ आए तब तो। यारों ने कहा कि भाई हमारी बात तो मानोगे नहीँ। एक काम करते हैँ। हमारे शहर मेँ एक रूस से पढ़ कर वापस लौटा एक डॉक्टर आया है। बहुत दिनों तक तो यहाँ के कॉलेज मेँ दादागिरी करने की कोशिश करता रहा। पैसे वाले बाप का बेटा था। नालायक भी निकलेगा तो रूस से पढ़ा डॉक्टर बनेगा। लिहाजा रूसी डॉक्टर साहब एक साल के पाठ्यक्रम मेँ दो-दो साल शोध कर के, बकायदा डिग्री ले कर वापस हिन्दुस्तान आ गये थे। यहीं क्लीनिक खोलने का इरादा रखते थे।
वो चिराग था। अपने कुल-खानदान का चिराग ! चिराग का मतलब होता है माँ-बाप की पहली और बहुधा एकलौती औलाद कि बड़े भाग्य से लड़का हुआ। चिरागों को माँ-बाप बेहद लाड़-प्यार से बिगाड़ते हैँ जिससे कि वह बड़े हो कर सहजता से उद्दण्ड, निष्ठुर, बड़बोले और रूखे होते हैँ। चिरागों की खासियत है कि वे गुप्त रूप कुण्ठित से होने के कारण, अपने कपड़ों और जूतों पर बहुत ध्यान दिया करते हैँ। दैवयोग से खाने मेँ अक्सर नमक कम या ज्यादा हो जाया करता है। उनकी माँएँ उनके बालोँ के रख-रखाव की तारीफ़ करते नहीँ थकतीं। चिराग पढ़ने मेँ अगर कमजोर भी होते हैँ तो उनके बाप उनके लिए डोनेशन देने के लिए पङ्क्तियों मेँ सबसे आगे तैयार खड़े रहते हैँ। इन सबके बावजूद चिराग अपने माँ-बाप की आलोचना करने से भी नहीँ थकते। उनकी धृष्ट आलोचना को उनके माँ-बाप नैसर्गिक प्रतिभा समझ कर सिर आँखों पर बिठाते हैँ। कुछ लोग का मानना है कि भारतीय जीवन बीमा निगम के शुभङ्कर (लोगो) मेँ दो हाथ एक दीये की रोशनी को हवा के थपेड़ों से बचाते हैँ, उसके रचयिता ने किसी कृतज्ञतारहित चिराग के निजी जीवन से प्रेरणा ली होगी।
चार यार ‘स्वादिष्ट’ रेस्तराँ पर मिले। चूँकि चिराग साहब तशरीफ लाये थे तो उन्होँने ऐलान किया कि बुल के बजाय वह बिल भरेँगे। बुल बेचारा चुपचाप बैठा रहा। बाकियों ने बुल के दिल का हाल चिराग को तफसील से सुना डाला। चिराग ने मन ही मन सोचा कि है तो यह बैल। नाम भले ही साण्ड का रख लिया हो, इस जैसे नालायक बिजनेस वाली फैमिली के लड़के से होगा भी क्या? फिर उसने इतना ही कहा – लड़की भाव दे रही है तो दुप्पटे का रङ्ग क्या दुनिया के रङ्ग दिखाओ। दुनिया के रङ्ग बागों मेँ, फूलों मेँ, बहारों मेँ दिखते हैँ। कपड़ों के रङ्ग मेँ क्या रखा है।
तकरीबन यही बातेँ बुल ने इतवार को बुलबुल को कही कि दुनिया मेँ बहुतेरे रङ्ग है। वे रङ्ग बागों मेँ, फूलों मेँ, बहारों मेँ दिखेँगे। इस तरह बुलबुल ने बुल से, बुल ने बहारोँ से कह दिया। इक चौदहवी के चाँद ने तारों से कह दिया। दुनिया किसी के प्यार मेँ जन्नत से कम नहीँ, इक दिलरुबा है दिल मेँ जो हूरों से कम नहीँ।
एक दूजे का हो जाने पर, वो दोनों मजबूर हुए, उन दोनों के प्यार के किस्से, गुलशन मेँ मशहूर हुए। साथ जियेंगे, साथ मरेंगे, वो दोनों ये कहते थे।
एक था बुल और एक थी बुलबुल।
इधर बमपिलाट के माँ-बाप की साध पूरी हुयी। उन्होंने बमपिलाट के लिए ‘चिराग’ जैसा वर ढूँढा। चिराग के माँ-बाप ने चालीस लाख की माँग रखी थी। पर लड़की बमपिलाट थी और ज्यादा बमपिलाट हुयी जा रही थी। इसलिए घरवालोँ ने मन मार के रिश्ता मंजूर कर लिया। डॉक्टर मिलेगा तो खानदान की नाक बची रहेगी। यहीँ क्लीनिक खोल लेगा, तो बमपिलाट भी पास ही रह जाएगी।
बमपिलाट जो अब तक शृङ्गार रस की बारीकियों से, नायक भेद से भी अपरिचित थी, अचानक से चिराग के वक़्त-बेवक़्त आने वाले फोन कॉल से परेशान होने लगी। कभी सास-बहू का सीरियल चल रहा हो, या किसी नागिन-चुड़ैल का षड्यन्त्र, चिराग उसके टीवी देखने मेँ खलल डालने लगा। चिराग ने बमपिलाट से पूछा कि वह ‘आत्मनिर्भर’ क्योँ नहीँ है? अब जमाना आत्मनिर्भर होने का आया है। बमपिलाट ने सोच कर कहा कि जहाँ आपकी क्लीनिक होगी वहीं मैँ भी डेण्टल क्लीनिक खोल लूँगी। चिराग इससे बहुत सन्तुष्ट तो नहीँ हुआ पर प्रकट मेँ कहा कि तुमने मेरी पहली परीक्षा पास कर ली है।
बमपिलाट ने बुलबुल को बताया कि माँ-बाप ने उसके लिए चालीस लाख मेँ रूसी डॉक्टर ढूँढा है। सुन कर बुलबुल कुछ खुश हुयी और कुछ जली भी। खुश इसलिए कि डॉक्टर है तो क्या हुआ, रूसी है। जलन इसलिए कि कम से कम डॉक्टर तो है। दिल्ली-बम्बई मेँ रहेगी। मॉल-शॉल घूमेगी। है तो बमपिलाट ही, फैशन करना नहीँ आता है। ये दिल्ली-बम्बई जा कर क्या करेगी?
बुलबुल के घरवालोँ को जब बुल और बुलबुल के बारे मेँ पता चला, उन्होंने यह सोच कर राहत की साँस ली कि इसी बात पर बुलबुल के सिर से बम्बई का नशा चला गया। एक ही अफसोस था कि लड़का बिजनेस वाली फैमिली से है। लेकिन कब तक हमारी ही कैद मेँ रहेगी बुलबुल? कब तक हमारा ही दाना चुगेगी बुलबुल? जिम्मेदारी का हस्तान्तरण होना चाहिए। इसलिए आनन-फानन मेँ बुल और बुलबुल की सगाई कर दी गयी। बुलबुल ने अपनी सगाई का न्यौता बमपिलाट को दिया, तो बदले मेँ बमपिलाट ने भी उसी तारीख पर होने वाली अपनी और चिराग की सगाई का न्यौता पकड़ा दिया। बुलबुल कुनमुना उठी कि बमपिलाट ने जानबूझ कर ऐसा किया होगा। लेकिन कोरोना चल रहा था, दोनो ने प्रकट मेँ एक-दूसरे को कहा कि कोरोना मेँ मेहमान पचास से अधिक नहीँ हो सकते इसलिए कोई बात नहीँ। वरना हम दोनों अपनी-अपनी सगाई निपटा कर दूसरे की खुशियों मेँ शरीक होते।
सगाई के बाद इश्क़ ने वहशत का रङ्ग पकड़ा। चिराग ने मोहब्बत मेँ इम्तिहान लेने शुरू किये। जबकि बमपिलाट केवल बमपिलाट थी, चिराग उसे दुबली होने के लिए कहने लगा। आप को छरहरी होना चाहिए, आपकी सहेली बुलबुल की तरह। उधर बुलबुल ने बुल से कहा कि तुम्हारा फैशन का अन्दाज़ लफंगों जैसा है। तुम्हें कोर्ट-पैण्ट पहनना चाहिए। चमड़े वाले शराफत भरे जूते पहनने चाहिए। ऐसे कोई पंजाबी शोहदे नज़र आते हो। ये क्या? बाजुएँ बैल जैसी क्योँ है? लड़कों जैसे क्योँ नहीँ दिखते? ऐसे ही रहना है तो तुम्हेँ बुलबुल के बजाय किसी बमपिलाट को पसन्द करना चाहिए था।
इन सब कठोर बातों का एक नतीजा यह हुआ कि बमपिलाट दुबली होने के लिए सुबह-सुबह पार्क मेँ दौड़ने जाने लगी। दूसरा नतीजा यह कि उधर दूर चौक से इधर पार्क आ कर बुल ने भी दौड़ लगाना शुरू किया। चक्कर लगाते-लगाते पस्त बमपिलाट की भिड़न्त बुल की बलिष्ठ भुजाओँ से हो गयी। अचानक भिड़ जाने दोनो सकुचाए और एक दूसरे को पहचान कर और भी शरमाए।
थक कर दोनों एक बेंच पर बैठ गए। बुल ने बताया कि बुलबुल ने फरमाइश की है कि शादी के बाद वे बम्बई मेँ जा बसेंगे। बमपिलाट ने बताया कि चिराग भी बम्बई मेँ उसके लिए डेण्टल क्लीनिक खुलवा देगा। माँ बाप चाहते हैँ कि चिराग यहीं क्लीनिक खोले, पर चिराग दिल्ली और बम्बई से कम कुछ सोचता नहीँ। बुल ने आगे बताया कि बुलबुल को शिकायत है कि वह उसके लिए तोहफे नहीँ भेजता। शाम ढ़ले खिड़की तले गाना नहीँ गाता। बमपिलाट ने बताया कि चिराग ने उससे पसन्दीदा ‘अल्ताफ रज़ा’ और ‘हिमेश रेशमिया’ के गाने भेजे हैँ सुन कर याद करने के लिए। इस तरह बुल और बमपिलाट सुबह-सवेरे पार्क मेँ दौड़ने के बजाय साथ टहलने लगे। बमपिलाट बुलबुल से पूछ-पूछ कर फैशन की बातेँ सुनती और वही बुल को बताती।
दरअसल बात यह है कि अपने माँ-बाप जैसे सैय्याद के सौजन्य से बुलबुल पिंजड़े मेँ कैद थी।
आती थी आवाज हमेशा, ये झिलमिल झिलमिल तारों से, जिसका नाम मोहब्बत है वो, कब रुकती है दीवारों से, एक दिन आह बुल-ओ-बुलबुल की उस पिंजड़े से जा टकराई। टूटा पिंजड़ा, छूटा कैदी देता रहा सैय्याद दुहाई।
एक दिन जिद कर के बुलबुल सुबह-सवेरे अकेले-अकेले पार्क मेँ बुल का जायजा लेने जा पहुँची और वहाँ बुल को बमपिलाट के साथ घूमते पाया। बस फिर क्या था बुलबुल के गुस्से का ठिकाना न रहा, वह फौरन पाँव पटकती घर की तरफ लौटी। उसने अपने घरवालोँ को बताया कि बुल न उसको तोहफा देता है न ही उसकी तरफ ध्यान देता है। यहाँ तक कि वह साण्ड न हो कर मन्दबुद्धि बैल जैसा है। अब शादी से पहले यही हाल है तो शादी के बाद क्या होगा?
बुलबुल के घरवाले सही मायने मेँ सैय्याद थे। एक तो समझौता कर के बिजनेस वाली फैमिली मेँ लड़की दे रहे हैँ, उस पर यह गड़बड़? चार लठैतों के साथ बुल के घर जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने तबीयत से बुल को धमकाया कि अगर बुलबुल को तोहफे नहीँ दिये, ध्यान नहीँ दिया तो साण्ड के हाथ-पाँव तोड़ दिए जाएँगे। हो सकता है कि बुल से बैल बना दिया जाए। बुल भले ही कितना मन्दबुद्धि हो, उसे मान-अपमान तो समझ मेँ आता था। उसने फौरन सगाई तोड़ दी।
यह बात बुल ने बमपिलाट को मोबाइल पर बतायी। यह सुन कर बमपिलाट आह भर कर रह गयी। अगले दिन सुबह-सुबह वह पार्क नहीँ गयी यह सोच कर अब बुल पार्क मेँ क्योँ आने लगा? कुछ सोचना-विचारना चाहिए।
जग के उत्थान के लिए सजग चिराग ने ‘आत्मनिर्भर बनाओ’ के मिशन के तहत बमपिलाट को फोन कर के पूछा कि आज पार्क मेँ कितनी देर तक दौड़ी। बमपिलाट ने सीधे-सीधे बताया कि आज वह दौड़ने नहीँ जा पायी। चिराग के गुस्से का ठिकाना नहीँ रहा। उसने फिर से बातों पर वजन देते हुए बताया कि उसकी ही भलाई के लिए खाने का कैलोरी चार्ट, दिन मेँ दौड़ने का, रात मेँ देर तक जागने और सुबह जल्दी उठने का नियम बनाया गया है। इतनी मेहनत से यह कार्यक्रम जब तय किया गया है तो उसे क्रियान्वन करने मेँ कोताही क्योँ है? बमपिलाट ने उदास मन से कहा कि हुजूर एक मौका दिया जाए। लेकिन चिरागों की आदत होती है कि झुकने वालोँ को रौंद दिया करते हैँ। उसने फिर ताना किया कि चिराग ने बमपिलाट को जीवन सँवारने का मौका दिया है।
बमपिलाट इतना जानती थी कि दाँत ज्यादा दर्द करने लगे तो ‘रूट कैनाल’ कर दिया जाना चाहिए। डॉक्टर के पैसे भी बन जाएँगे और सामने वाला भी दाँत उखड़वा लेने के बाद दर्द से भी राहत पाएगा। इसलिए बमपिलाट ने व्यावहारिक सवाल पूछा कि यह बताओ कि चालीस लाख की जो रकम तय हुयी है, उसमेँ एडवांस कितना लोगे? इतने मेँ बम्बई मेँ क्लीनिक तो बनेगा नहीँ। यहाँ क्योँ नहीँ बना लेते? चिराग ने कहा पैसा तो तब लिया जाएगा जब शादी की तारीख पक्की होगी। क्लीनिक भी योजना के तहत बन जाएगा। यह सुन कर बमपिलाट आगबबूला हो गयी। अच्छा, तो तारीख कब पक्की होगी जब मैँ तुम्हारे हिसाब से बुलबुल जैसी छरहरी हो जाऊँगी। भाड़ मेँ जाओ। किसी और को ढूँढ लो और मुझे बख्श दो।
चिराग अपने बाप की नहीँ सुनते हैँ। बमपिलाट की धौंस क्योँ सुनी जाती। इस तरह बुलबुल और बुल की, चिराग और बमपिलाट की सगाई टूट गयी।
सगाई टूटने के बाद बुलबुल और बमपिलाट मिलीं। बहुत दिनों के बाद मिलने के कारण दोनों सखियाँ गले मिल कर खूब रोईं। बुलबुल ने बमपिलाट से कहा कि अच्छा हुआ, बिजनेस वाले लड़के से पीछा छूटा। उसकी मंजिल तो बम्बई है। वरना बाद मेँ तलाक लेना पड़ता ही। बमपिलाट ने बुलबुल से कहा कि मैँ तलाक-वलाक के चक्कर मेँ नहीँ पड़ती। एक ही कोई मिले और जिन्दगी टीवी देखते-देखते निकल जाय। बुलबुल ने बताया कि वैसे प्लान तो यह था कि बम्बई जा कर तलाक ले कर बम्बई की हीरोइनोँ के साथ तलाक की पजामा पार्टी करना है। फिलहाल वो बम्बई मेँ नहीँ है तो बमपिलाट के साथ ‘स्वादिष्ट’ रेस्तरां मेँ जा कर पार्टी की जाय।
बुल के दोस्तोँ ने भी उधर तय किया बरबादियों का सोग मनाना फिजूल है, बरबादियोँ का जश्न मनाना चाहिए। इसलिए वे भी स्वादिष्ट रेस्तराँ पर इकट्ठे हुए। चिराग साहब भी बुलाए गए। सफेद कोर्ट पैण्ट और भूरे रङ्ग की चमड़े वाले जूते पहन कर चिराग साहब रेस्तरां पहुँचे और बोले कि डेस्जर्ट और ड्रिंक्स का बिल वे ही भरेंगे। बुल को इससे कोई आपत्ति नहीँ थी।
‘स्वादिष्ट’ रेस्तरां पर जब चिराग, बुल और बाकी सोडा पी रहे थे, उसी समय रङ्ग-बिरङ्गे दुपट्टा ओढ़े बमपिलाट और कोका कोला कलर की फ्रॉक पहनी बुलबुल पहुँचीं। बमपिलाट चिराग को देख कर, बुलबुल बुल को देख कर सकपका गयी। लेकिन बुलबुल ने बमपिलाट का हौसला बढ़ाया कि उनके कारण हम अपनी जगह क्योँ बदलेँ। अगर किसी ने ऐसी-वैसी हरकत की तो हड्डी पसली न तुड़वा दी, तो बुलबुल मेरा नाम नहीँ है। मौके की नज़ाकत को समझते हुए बुल ने अपने बाकी दोस्तोँ को वहाँ से चलता कर दिया।
अब रह गये बुल, बुलबुल, बमपिलाट और चिराग।
बुलबुल और बमपिलाट ने भी सोडा ड्रिन्क मँगायी। चिराग ने बुल के कन्धे पर थपथपा कर उसे दिलासा दिया कि मोहब्बत मेँ नौसिखियोँ को हार झेलनी पड़ती है। अगर बुलबुल किसी और की हो जाय तो उसे बुरा नहीँ लगना चाहिए। वैसी भी बुलबुलेँ फ़ारसी होती हैँ। खतम हुए दिन इस डाली के जिस पर उसका बसेरा था। आज यहाँ और कल हो वहाँ ये, जोगी वाला फेरा था।
बुल देसी आदमी था। उसने दुहराया कि कौन कहता है कि चाहत पे सभी का हक़ है? बुल ने फिर पलट कर चिराग से सवाल दागा कि अगर बमपिलाट किसी और की हो जाय तो उसे बुरा तो नहीँ लगेगा। चिराग ने कहा कि वे पीछे छूटी गलियों पर मुड़ कर नहीँ देखते फिर भी बीते हुए लम्हों की कसक साथ तो होती है।
बुलबुल ने बमपिलाट से नाज़-ओ-अंदाज़ से पूछा कि उस दिन सुबह-सवेरे वह बुल के साथ क्योँ घूम रही थी। बमपिलाट ने नज़रें नीचे कर के कहा कि दोस्त होने के नाते बस फैशन की बातें हो रही थी। वैसे भी बुल जैसे साण्ड के लिए बुलबुल जैसी चिड़िया की जोड़ी ठीक नहीँ लगती थी। इसलिए बुलबुल को ग़म नहीँ होना चाहिए। बुलबुल ने चहक कर कहा कि उसे किस बात का ग़म है। वह तो खुशी मनाने के लिए रेस्तराँ आयी है। बमपिलाट ने बुल की तरफ चोरनिगाह से देखते हुए इसरार किया कि एक गीत सुनाओ न, तुम्हारा विडियो बना कर हम सोशल मीडिया पर डालेंगे।
बुलबुल ने ज़िया अज़ीमाबादी का शेर गा कर सुनाया – इक टीस जिगर मेँ उठती है इक दर्द सा दिल मेँ होता है / हम रात को रोया करते हैँ जब सारा आलम सोता है।
जब बमपिलाट यह विडियो बना रही थी, तब चिराग उठ कर बुलबुल के पास आ कर खड़ा हो गया। उसने एक हाथ अपनी पैण्ट के पॉकेट मेँ डाल कर और दूसरे हाथ को नचा कर पूछा, “आप बहुत अच्छा गाती हैँ। आप बम्बई मेँ फिल्म इण्डस्ट्री मेँ काम करना चाहेँगी?” बुलबुल चिराग को एकटक देखते रह गयी। चिराग ने आगे कहा, “मेरे कई दोस्त हैँ बम्बई मेँ। क्या इस विषय मेँ हम अकेले मेँ बात कर सकते हैँ।” बुलबुल ने अपना हाथ आगे बढ़ा कर इठलाते हुए कहा, “शौक से।”
चिराग बुलबुल को ले कर रेस्तराँ के बाहर चला गया। रह गए बमपिलाट और बुल।
बुल ने बमपिलाट को देखा पर चुपचाप बैठा रहा। वह देसी आदमी था। उसका मानना था कि प्रेम का प्रारम्भ स्त्रियोँ की तरफ़ से होना चाहिए। बमपिलाट ने अपना रूमाल गिरा कर उससे कहा, “सुनिए, क्या आप मेरा रूमाल उठा देँगे?” सुनते ही बुल ने मुस्कुरा कर कहा, “शौक से।”
कहते हैँ चिराग ने बमपिलाट और अपने लिए जो बम्बई की ट्रेन मेँ एसी के टिकट कटाए थे, उसने अपनी आन-बान-शान के कारण रद्द नहीँ किया था। उसी शाम चिराग के साथ बुलबुल पिंजड़ा तोड़ कर उड़ गयी। साथ ही बमपिलाट के घरवालोँ के चालीस लाख बच गये जब उन्होंने बुल की बमपिलाट से शादी का पैगाम कुबूल किया। इस तरह बुल और बमपिलाट की और चिराग और बुलबुल की खुशहाल जोड़ी बन गयी। बमपिलाट ने बुल की दुकान के बगल मेँ ही चौक बाजार मेँ दाँतो का क्लीनिक खोल लिया। चिराग और बुलबुल बम्बई चले गये तो उनकी कहानी और नहीँ मालूम। इस तरह बुल और बुलबुल की कहानी खत्म हुयी।
राजा बहुत अच्छी कहानी है !!!
याद सदा रखना ये कहानी
चाहे जीना, चाहे मरना
तुम भी किसी से प्यार करो तो
प्यार बुल-ओ-बुलबुल सा करना
प्यार बुल-ओ-बुलबुल सा करना
प्यार बुल-ओ-बुलबुल सा करना
प्यार बुल-ओ-बुलबुल सा करना