जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

आज पढ़िए संध्या नवोदिता की कहानी ‘विष खोपरा’। एक छोटी सी घटना कितने बड़े संदर्भों से जुड़ सकती है इस कहानी में देखा जा सकता है- मॉडरेटर

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पहली बार जब वह अजब-गजब जानवर दिखा तो भौंचक कर गया. बहुत देर तक समझ में ही नहीं आया कि यह अजूबा था क्या ! पांच फुट लम्बी, खूब तंदुरुस्त छिपकली, अपने चारों पैरों पर ठसक से बलखाती, कालोनी की सड़क क्रास कर रही थी. मंत्रमुग्ध कर देने वाली चाल. बस कुछ ही पल का नज़ारा. लगा यह तो डायनासोर छिपकली है. इतनी बड़ी छिपकली ज़िंदगी में कभी नहीं देखी. फिर दिमाग में कहीं से चलता हुआ ख्याल आया- गोह. क्या यह गोह है ? वही गोह जिससे राजा-महाराजाओं के ज़माने में महलों की ऊंची-ऊंची छतों पर चढ़ा करते थे. कहीं पढ़ा था कि गोह की पकड़ बड़ी मज़बूत होती है. बस रस्सी बाँध कर ऊपर कंगूरे पर फेंक दो, गोह उसे जकड लेती है, फिर फुर्ती से चढ़ जाओ.

उत्सुकता बढ़ी तो विष खोपरा के नाम से इन्टरनेट खंगाला. उसके चित्र आ गये, कई किस्में. ढेरों तस्वीरें. बड़ा अच्छा लगा. इसी को तो लाइव देखा था. काश यह फिर दिखे. इसे चलता देखने में अलग ही आनंद है.

कालोनी में लोग विष खोपरा के नाम से बहुत डरते. विष खोपरा मानो मौत का दूसरा नाम. सुनी सुनाई बातें थीं- कि यह पूंछ उठा कर फटकार दे तो विष की धार से आदमी वहीं मर जाए. अब राम जाने कितना सही. लेकिन सालों से यह सुनते हुए भी, सच यही था कि विष खोपरा ने कभी आदमी का रास्ता नहीं काटा था. बच्चे खेलते रहे और वह दायें या बाएं से उचकता- लपकता निकलता रहा. उसकी झलक कभी उत्सुकता तो कभी आतंक का पर्याय बनती रही. पर दोनों जीते रहे आदमी भी और विष खोपरा भी. और विष खोपरा के आतंक की वे कहानियां भी, जिन्हें सुनकर आदमी विष खोपरा के खून का प्यासा हो रहा था. विष खोपरा भी आदमी के बारे में ऐसा सोचता था इसका प्रमाण कभी नहीं मिला.

जुलाई की वह दोपहरी भी बेहद सुहानी थी. बरसात का मौसम, गंगा किनारे बसी खूबसूरत कालोनी शहर की अंतिम और रिहाइश थी. जो बस सात-आठ साल पहले ही बनी थी. इसके पहले खूब झाड-झंखाड़ और पेड़ पौधों का यह इलाका इन्हीं जंगली जीवों का “घर” था. आदमी जंगल उजाड़कर घर बना रहा था. इस कालोनी के बाद थोडा लंबा कछारी इलाका और फिर हरहराती गंगा. बरसात के समय बिलों में रहने वाले जीव भी मजबूरी में बाहर निकल आये थे. इंसान ख़ुशी में , मौसम की तरंग में बाहर निकले . ऊपर काली घटा, ठंडी हवाएं. चार मंजिला अपार्टमेन्ट की यह कालोनी अंग्रेजी के “बी” अक्षर की शेप में बनी थी. इस “बी” के दोनों पेटों में हरियाली से भरे पार्क सजे थे, जहां बच्चे खेलते रहते. फ्लैटों के पिछवाड़े नौ-दस फीट की कच्ची जगह छोड़कर एक लम्बा गलियारा बनाती ऊंची दीवार. इसी कच्ची जगह में ग्राउंड फ्लोर पर रहने वालों ने अपनी पसंद के मुताबिक़ पेड़, पौधे, फूल आदि उगाये हुए थे. मौसम की खुमारी सब पर छाई थी. गुलाब ख़ुशी में झूमता, एलोवेरा की लम्बी गूदेदार पत्तियाँ और फूल के मुटाती. इमरानथस झूम के और काहिया हो जाता, घास पानी में डूब के और प्यारी हो जाती. बरसात में हरियाली बेतरतीब होकर कुछ ज्यादा ही इठलाने लगती. कुछ लोग हरियाली की इस बेपरवाह अदा पर मर मिटते , तो अपने देहातीपन से ऊबे हुए कुछ लोग इसे देख कर नाक भौं सिकोड़ते. पिछवाड़े जमा खाद को वे गन्दगी कहते, गिरी हुई पत्तियों को कचरा. धरती की पोर-पोर से शान बिखेरती हरियाली उन्हें डराती. यहाँ साँप- बिच्छू आ सकते हैं. बच्चों को ख़तरा हो सकता है. विष खोपरा टहलता रहता है. माली बुलाकर इस सब ‘गंदगी’ को साफ़ करा देना चाहिए.

अचानक ग्राउंड फ्लोर के एक फ़्लैट के पिछवाड़े थोडा चहल-पहल सुनाई दी. कुछ महिलायें उत्सुकता से उधर झाँक रही थीं. पूछने पर पता लगा विष खोपरा है. विष खोपरा— नाम सुनते ही चेहरे पर मुस्कान आ गई. उस दिन दूसरी बार विष खोपरा दिखाई दिया.

अफ़सोस… सद अफ़सोस ! पहले तो वह नज़र नहीं आया. लगा लोगों को धोखा हुआ है, शायद झाड़ियों में चलता फिरता कुछ और देखा है. पर नहीं , थोड़ी देर में बहुत साफ़ हो गया. वह पांच फुट लम्बी चौकन्नी छिपकली नज़रों के सामने हरा गलियारा पार कर रही थी. वह कालोनी के गेट की दिशा में जा रही थी. पिछवाड़े में पानी के ड्रेनेज के कुछ खुले और कुछ बंद टैंको के ऊपर से गुज़रती वह तेज़ी से हरियाली पार कर रही थी. इतने सुन्दर और अजूबे जीव को चलते फिरते देखने का यह आनंद बहुत देर नहीं मिलने वाला था. काश कि वह छिपकली गायब हो गयी होती, काश कि वह दिखी ही न होती, काश वह ऊपर से जाने के बजाय टैंको में घुसकर पानी के रास्ते बाहर निकली होती. पता नहीं , ऐसा कुछ नहीं हुआ. वह कुछ सभ्य कालोनीवासियों की नजर में बहरहाल आ गयी. ये अभी ताज़े ताज़े सभ्यता की ज़द में आये लोग थे, जिनके माँ-बाप अभी गाँव में ही बसे थे, पर उनके बच्चे शहर के अंग्रेजी स्कूलों में दाखिले ले चुके थे. इनके खलिहानों में अब भी साँप घूमते थे, बिल्ली अब भी छींके से दूध गिरा जाती थी, लेकिन उनके बच्चों को शाम की ठंडी हवा से नजला होने लगा था. उन्हें अब एसी की हवा ही सूट करती थी. उनकी बीवियाँ बस चार-छः साल पहले ही साड़ी के घूंघट से मुक्त होकर सलवार कुरते में आई थीं. भले सास-ससुर के यहाँ जाने पर फिर साड़ी में सज जातीं. कभी बाहर घूमने जातीं तो एक पीस जींस-टॉप का रखती जो बस वहां फोटो खिचाने के काम आता. वे गप्पें मारते हुए कालोनी में टहलतीं और बच्चों पर निगाह रखतीं. कालोनी के ऐसे सभ्य पुरुष अभी बरमूडा में झिझकते थे, वे फुल लोअर में ज्यादा सहज महसूस करते.

इन कुछ सभ्य इंसानों के हम दो- हमारे दो पर सारी सृष्टि का अंत हो जाता था. इस दुनिया में माँ-बाप का दखल भी बस गाहे बगाहे होता. रिश्तेदार जितनी तेज़ी से आते उतनी ही तेज़ी से गायब भी हो जाते. आफिस, बीवी, टीवी और बच्चों के स्कूल के तनावों की इस बुनावट में किसी नये डिजायन की गुंजाइश नहीं थी.

तो वह बड़ी छिपकली अभी अभी सभ्य हुए इन कालोनीवासियों की निगाहों के राडार में आ चुकी थी. यही अफ़सोस गहरा साबित होना था. फ्लैटों की दीवार से थोड़ी दूरी बना कर उचकते- लपकते वह भी इस राडार से ओझल होना चाह रही थी. पर यह दिन शायद ऐसे ख़त्म नहीं होना था. यह शाम बहुत भारी होनी थी. सुहाना सलोना मौसम किसी बेजुबान और निर्दोष के मातम में घनी कालिख से पोता जाना था.

देखते ही देखते कड़क आवाजों और तंदुरुस्त शरीर के पुरुष गलियारे की ओर चिल्लाते हुए दौड़ पड़े. सभ्य औरतें अपने ताज़े रंगे होंटों को उत्सुकता और आतुरता से गोल घुमाने लगीं, उनकी काली भवें माहौल के उतार चढ़ाव में तन गयीं. बच्चे भी तमाशा देखने को उत्सुक. शिकार .. जैसे आदिम उन्मत्तता. घेराबंदी. सभ्य निगाहों में अजीब भूख. ज़मीन पर लाठियाँ पटकने की वहशी आवाजें. अजूबा, अलबेला, मस्तमौला जानवर सभ्य इंसानों से घिर चुका था. उसकी कहानियों से डरे हुए लोगों का घेरा बहुत मज़बूत था. पता नहीं बड़ी छिपकली ने सभ्य लोगों की कोई कहानी सुनी थी या नहीं. या उसे लगा हो गंगा किनारे केवल संत रहते हैं. जहां शेर और बकरी, साँप और नेवला आज भी एक साथ घूमते हैं.

बात की बात में कहाँ से लाठी आई, कहाँ से एक फटी पुरानी कमीज़, कहाँ से मिट्टी के तेल की बड़ी कैन. कब कमीज़ को लाठी पर लपेटा गया, कब उसे खूब सारे मिट्टी के तेल से तर किया गया. कब उसमें आग लगाई गयी और कब उस इक्कीसवीं सदी के नन्हें डायनासोर पर वह लाठी कहर बन कर टूटी. सुना है जान बचाने के लिए डायनासोर एक खुले टैंक में घुसा, टैंक छोटा था सो पूंछ बाहर रह गयी. विशाल छिपकली का धड़ टैंक के पानी में और पूंछ आग के हवाले… फिर भी कोई चीत्कार नहीं सुनाई दी. सभ्य इंसानों का हर्ष मिश्रित उन्माद देर तक गूंजता रहा. लोग उन्माद में चिल्लाने लगे- अब पेट फटने वाला है. सुना है, धुँए और आग में कुछ भी दीख नहीं रहा था. छिपकली खूब तड़पी कि शान्ति से मरी, पता नहीं. सुना है, उसके पिछले पैर जल गए थे. जिन पर वह खूब लोच लेकर मटक-मटक कर चलती थी. सुना उसमे बहुत विष था, पर सभ्य लोगों का विष ज्यादा तेज़ था या उसका, यह पता नहीं चला.

कहानी यहीं ख़त्म नहीं हुई. यह विष खोपरा की कहानी है सो यहाँ ख़त्म होनी भी नहीं है. वह जिंदा जलाया जा रहा था, उस पर सभ्यता के देवताओं को तरस नहीं आया, सभ्य देवियों को दया नहीं आई. कुछ के मन में आया यह पाप है, पर उन्मत्त आवाज़ का हथौड़ा उठा – विषैले को मारना पाप नहीं है. फिर किसी मन में दर्द की लहरें उठीं – जीव को बिना वजह जिंदा जलाना , फिर कहीं एक और लहर – बिना वजह तो जानवर भी किसी को नहीं मारता. तो शायद किसी को दया आई. सो गरजता हुआ काला मेघ आया. इतना पानी इतना पानी लाया कि आग का नामो- निशान न रहा. सभ्य लोग बरसात की तड़तड़ाती गोलियों से सहम गए. घरों में जा घुसे. सुहाने मौसम का मजा इस शिकार ने कई गुना कर दिया था. बरसात में चाय के साथ गरमागरम पकौड़ियाँ और इस ताज़ा शिकार के जिंदा जलने की गंध . निरीह शिकार उत्सव में बदल चुका था.

इधर नन्हें डायनासोर पर बरसात ने मलहम लगाया. पर क्या बचा था ! कुछ बाकी था क्या अब भी! कोई उम्मीद ? आतंक की आग भारी पड़ गयी थी. ओह.. यह तो पांच फीट वाली विशाल छिपकली का नन्हा बच्चा था. मुश्किल से दो फीट लम्बा. दर्द की लहरों ने उस मृतप्राय जीव को भरी आँखों से निहारा. वह हिल रहा था. विषैले जानवर की बेबस आँखें डबडबा रही थीं. मन ने और टटोला. उसके पिछले दोनों पैर झुलस चुके थे. विष से भरी पूंछ के साथ डायनासोर बच्चा बहुत निरीह लग रहा था. सारी कहानियाँ बेजान हो चुकी थीं. आधे बचे धड़ की पड़ताल के लिए शायद सभ्य शिकारियों को फिर आना था – बाकी मिट्टी का तेल डालने. या इसे घिसट-घिसट कर रात के रास्ते कहीं गुम हो जाना था. पता नहीं.

अब आप चाहें तो उम्मीद का इन्द्रधनुषी चश्मा पहन नीचे का यह अंतिम हिस्सा कभी न पढ़ने के लिए छोड़ सकते हैं.

लेकिन यह कहानी विष खोपरा की है सो उम्मीद की कोई किरण शायद ऐसे ही दिखनी थी, शायद ऐसे ही बुझनी थी. अधजला नन्हा बच्चा जाने किस ताकत से हरा गलियारा पार करने लगा. अगले दो पैरों पर बेतुकी-सी थकी चाल से वह जिंदगी की आस में घिसट रहा था या मृत्यु की चाहना में. मन की लहरों को आस जगी. शाम गहरी होने लगी. थोड़ी निश्चिंतता हुई कि शायद रात के अँधेरे में ज़िन्दगी की किरण का बसेरा है. लेकिन नन्हां बच्चा घंटों घिसट घिसट कर एक अनजानी ताकत से जहां पहुंचा वह “बी” का पेट था. वहां तो ट्यूबलाईट की रोशनियाँ थीं. पूरी कालोनी में कारों की लम्बी कतार. यह कतार भी कालोनी के गेट तक जा रही थी. बेतरह घायल छिपकली घिसटते हुए कार के नीचे अँधेरे में रेंगने लगी. कहर का दूसरा हिस्सा अभी बाकी था. उत्सव का वहशी मज़ा अभी पूरा नहीं हुआ था. फिर कई लाठियाँ दौडीं. इस बार देर नहीं लगी. निशाना बिलकुल नहीं चूका. विष की पूँछ नहीं , विष का सिर.. सभ्यता की अंतिम चोट. मन की लहरें पछाड़ खाने लगीं. उम्मीद की चमकीली लकीर स्याह अँधेरे में पूरी तरह घुल गयी थी. काले रंग पर अब कोई रंग नहीं चढ़ना था. यह रुंधी हुई शाम मन पर भाप बनके ऐसे ही जमनी थी.

उस रोज़ पवित्र रमजान की बाईसवीं तारीख थी. कहते हैं उस दिन मुसलमान गिरगिट को भी नहीं मारता जिसे वह वैसे कभी जिंदा नहीं छोड़ता. कहने को तो उस दिन नीलकंठ का सावन का सोमवार भी था, जिसमें हिन्दू किसी ज़हरीले साँप की भी जान नहीं ले सकता. उस अभागे सोमवार ने शिव को अधजला तड़पता विष खोपरा भेंट किया. शिव, जो किसी को नहीं दुत्कारते ! जो विष को भी गले में उतारते हैं. ज़हरीला नाग उनके सिर पर विराजता है, गले का हार बना रहता है. जिनके नाम पर लाखों लोग कांवर लेकर दिन रात गंगा और शिव के बीच की दूरी अपने क़दमों से पाट रहे थे. हिन्दुओं ने सावन को भुला दिया. पर सुना है विष खोपरा को सावन और रमजान दोनों याद थे. अपने मिलन के दिनों की रूमानियत में शायद वह प्रेम में डूबा रहा हो. उसने किसी पर आक्रमण नहीं किया. जिस पुरुष ने उस पर लाठी का पहला वार किया उसकी पत्नी का सावन के सोमवार का व्रत था. जिस घर में उसके लिए कई लोग कई रात रोये, वह एक नास्तिक का घर था.

किसी को यह जानना ही नहीं था कि वह गोह थी कि विष खोपरा. किसी को यह जानने की फुर्सत नहीं थी कि वह ज़हरीला था भी या नहीं, कि वह नर था कि मादा. दिलचस्पी बस एक थी कि कहीं उसकी किसी कोशिका में साँस तो नहीं बची? सभ्य लोगों के डर ने ध्वंस कर डाला था.

सुना है इतनी बर्बरता सच नहीं थी. उस पल फिर शिव को दया आयी थी. टैंक के रास्ते खुले ड्रेनेज से अचानक एक खिडकी कैलाश की ओर खुली थी. उनके दयालु हाथों ने कराहती छिपकली के दोनों साबुत पाँव हौले से पकड़ के उसे अपनी गोद में खींच लिया था. उस शाम दो उत्सव पूरे जोर शोर से हुए थे- और दोनों में विष खोपरा जान पर खेल के नाचा था.

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