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लगभग पाँच दशक के बाद डॉ मलिक मोहम्मद द्वारा संपादित पुस्तक ‘अमीर ख़ुसरो: भावनात्मक एकता के अग्रदूत’ पुस्तक का प्रकाशन हुआ है। राजपाल एंड संज प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक से एक लेख पढ़िए ‘अमीर ख़ुसरो: इतिहासकार के रूप में’, जिसके लेखक हैं यूसुफ़ पठान- मॉडरेटर

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अमीर ख़ुसरो की रचनाओं पर इतिहास का प्रभाव विशेष रूप से दिखाई देता है। उनके गद्य तथा काव्य साहित्य में इतिहासपरक रचनाओं का ही आधिक्य है। गद्य की अपेक्षा ख़ुसरो ने काव्य की रचना अधिक की है और इस काव्य-साहित्य का अधिष्ठान भी विशेषकर इतिहास ही है। उनके एक ‘दीवान’ (कविता-संग्रह) का नाम ‘गुर्रतुल कमाल’ है, जिसकी रचना उन्होंने सन् 1291 में की। इसी दीवान की एक प्रदीर्घ कविता (मसनवी) है-‘मिफताहुल कुतुह’। यह रचना बहुत लोकप्रिय हुई। इस प्रदीर्घ कविता में ख़ुसरो ने सुलतान जलालुद्दीन खिलजी की विजयों का वर्णन किया है।

‘देवल रानी तथा खिज्रखां’ नामक आख्यान-काव्य की उन्होंने रचना की, जिसमें सुल्तान अलाउद्दीन के पुत्र खिज्रखां तथा गुजरात के राजा करण की कन्या देवल रानी की प्रेम गाथा बखानी है। प्रेम कथा के साथ-साथ सम्बन्धित ऐतिहासिक प्रसंगों का विस्तृत वर्णन इस आख्यान-काव्य में पाया जाता है।

‘नूह सिपहर’ नामक कविता ख़ुसरो ने सुलतान कुतुबुद्दीन मुबारक की आज्ञा से लिखी थी। इस दीर्घ कविता में सुलतान कुतुबुद्दीन के राज्यारोहण से लेकर शाहजादा मुहम्मद के जन्म तक के ऐतिहासिक प्रसंगों का वर्णन किया गया है।

ख़ुसरो का ‘तुगलकुनामा’ काव्य भी विशेष प्रसिद्ध है, जिसकी रचना उन्होंने सन् 1320 ई० में की। इसमें सुलतान कुतुबुद्दीन की हत्या से लेकर तुगलक के विद्रोह तथा उनकी महत्त्वपूर्ण विजयों का वर्णन किया गया है।

उनके गद्य साहित्य में ‘खजाइनुल फुतूह’, ‘अफदल्-अल्-फवाइद्’ और ‘एजाज़ए खुसस्वी’ महत्त्वपूर्ण हैं। ख़ुसरो सन्त निज़ामुद्दीन औलिया के सम्पर्क में आये थे, उन्होंने सन्त निज़ामुद्दीन के वचनों का संग्रह ‘अफदल्-अल्-फवाइद’ के नाम से किया और वह उन्हें (सन्त निज़ामुद्दीन को) सन् 1319 में समर्पण किया। ‘एजाज-ए-खुसरवी’ एक विशेष प्रकार की गद्य रचना है, जिसकी तुलना ‘हयाते अमीर ख़ुसरो’ नामक उर्दू ग्रन्थ के नकी मुहम्मदखां खुरजवी ने फिरदौसी के ‘शाहनामा’ तथा निज़ामी के ‘सिकन्दरनामा’ आदि ग्रन्थों से की है।’ ‘द एन्सायक्लोपीडिया ऑफ इस्लाम’ ने इस ग्रन्थ का वर्णन ‘स्पेसिमेन्स आफ इलेगण्ट प्रोज़ कम्पोजिशन’ कहकर किया है। इन दो रचनाओं से भी ‘खजाइनुल फुतूह’ का महत्त्व अधिक माना जाता है और उसका अधिष्ठान इतिहास ही है। ‘खजाइनुल फुतूह’ में ख़ुसरो ने अलाउद्दीन खिलजी की अनेक विजयों का वर्णन किया है। खिलजी ने अनेक विजय प्राप्त कीं, उन्हें ख़ुसरो ने ‘विजयों का खजाना’ (खजाइनुल कुतूह) कहा है। इन विजय-वर्णनों के साथ-साथ अमीर ख़ुसरो ने अलाउद्दीन खिलजी की शासन व्यवस्था का भी वर्णन किया है।‘खजाइनुल फुतूह’ ‘एक अखबार’ है और इसी दृष्टि से इस ग्रन्थ का तथा इसके कर्ता ‘अखबार-नवीस’ अमीर ख़ुसरो का परीक्षण करना उचित होगा।

‘अखबार-नवीसी’ या ‘तारीख-नवीसी’ (इतिहास-लेखन) की परम्परा फारसी में विशेष रूप से थी। मुस्लिम शासकों के दरबारों में अखबर-नवीसों की नियुक्ति की जाती थी। इस फारसी इतिहास-लेखन पद्धति का प्रभाव महाराष्ट्र के शासकों पर भी पड़ा और उन्होंने भी अपने दरबारों में मराठी ‘अखबार-नवीस’ या ‘बखर नवीस’ नियुक्त किए। इसी कारण मराठी का ‘बखर-साहित्य’ समृद्ध हुआ। ‘अखबार’ को केवल इतिहास मानना उचित न होगा। इतिहास का अधिष्ठान उसे अवश्य होता है, किन्तु उसमें अखबार नवीस की प्रतिभा का विलास भी प्रतीत होता है। इसीलिए ‘अखबार’ एक साहित्य-कृति है, जिसमें ऐतिहासिक मूल्य के साथ-साथ साहित्य-मूल्यों का भी सुन्दर समन्वय पाया जाता है। ‘खजाइनुल फुतूह’ में ‘अखबार’ की सारी विशेषताएं प्रकट हुई हैं।

इस ग्रन्थ में जो इतिहास प्रतिबिम्बित हुआ है, उसकी सीमा रेखाएं सन् 1296 से लेकर सन् 1311 तक फैली हुई हैं। अलाउद्दीन खिलजी के विविध आक्रमण और उन आक्रमणों में उसे जो सफलताएं प्राप्त हुईं, उनका वर्णन इस ग्रन्थ में किया गया है। अलाउद्दीन की सेनाओं के मुगल सेनाओं से जो मुकाबले हुए उनके वर्णन भी इस ग्रन्थ में पाए जाते हैं। साथ ही साथ खिलजी ने गुजरात, राजपूताना, मालवा तथा देवगिरि पर जो आक्रमण किए, उनमें उसे जो सफलताएं प्राप्त हुईं, उनका भी वर्णन ख़ुसरो ने किया है। सिवाना, वरंगल तथा माबर में प्राप्त विजयों का वर्णन भी उन्होंने अपने ग्रन्थ में किया है। ग्रन्थ का नाम ही ‘विजयों का खजाना’ है और इस प्रकार के वर्णन पढ़ते समय वह सार्थक प्रतीत होता है।

ख़ुसरो इस्लामी दरबार के आश्रित थे। “गुलाम वंश के पतन से लेकर इन्होंने तुगलक वंश का आरम्भ तक देखा था। खिलजी वंश का शासनकाल तो इनके जीवन का मध्ययुग था। इस प्रकार इन्होंने दिल्ली के सिंहासन पर ग्यारह बादशाहों का आरोहण देखा था।‘

इतना ही नहीं बल्कि ‘खुसरो केवल कवि ही नहीं था वह योद्धा भी था और साथ ही क्रियाशील मनुष्य भी। उसने अनेक चढ़ाइयों में भाग भी लिया था, जिनका वर्णन उसने अपने ग्रन्थों में किया है।‘

‘खजाइनुल फुतूह’ के युद्ध-वर्णन पढ़ते समय डॉ० वर्मा तथा डॉ० ईश्वरीप्रसाद के ऊपर निर्दिष्ट विधानों की सत्यता प्रतीत होती है। ये सभी युद्ध-वर्णन पढ़ते समय ऐसा लगता है कि स्वयं ख़ुसरो इन युद्धों के समय वहां उपस्थित थे । आक्रमणपूर्व योजना, प्रत्यक्ष युद्ध के विभिन्न पहलुओं का विवरण, विजय के पश्चात् प्राप्त धन राशि का वर्णन, युद्धों में जिन सिपाहियों ने तथा सरदारों ने विशेष वीरता दिखलाई उनके पराक्रम का वर्णन आदि बातें पढ़ते समय ख़ुसरो की वर्णन-शैली की सूक्ष्मता तथा चित्रमयता का प्रभाव पाठकों के मन पर अवश्य ही होता है।

इतिहास की दृष्टि से आक्रमण की घटनाएं सत्य हैं, किन्तु उनमें अतिरंजितता भी दिखाई देती है। इस्लामी सेना के शौर्य का वर्णन करते समय ख़ुसरो शत्रु तथा शत्रु सेना की कायरता का वर्णन करते हैं, जो कभी-कभी अवास्तव तथा अनैतिहासिक भी प्रतीत होता है। देवगिरि के आक्रमण का वर्णन ख़ुसरो ने किया है, वह इसी प्रकार का है। इस्लामी दरबार का आश्रित होने के कारण वे अपने बादशाह की तथा उसकी सेना की बार-बार प्रशंसा करते हैं और शत्रु की कायरता एक गृहीत बात मानते हैं। लेकिन कभी-कभी उन्हें भी यह मानना पड़ता है कि इस्लामी सेना के शत्रु भी शूर थे और वे डटकर प्रतिकार करते थे। रणथम्भौर तथा चित्तौड़ पर जो आक्रमण हुए उनका वर्णन करते समय अमीर ख़ुसरो ने यह बात स्पष्ट रूप से लिख दी है।

अखबार-लेखन इतिहास की दृष्टि से वार्ता-लेखन है। इन वार्ताओं में घटनाओं का विवरण तिथि-निर्देश के साथ किया जाता है। ‘खजाइनुल फुतूह’ में जितनी भी घटनाओं का वर्णन ख़ुसरो ने किया है उन सभी घटनाओं की तिथि का निर्देश भी उन्होंने अपरिहार्यतः किया है। इतना ही नहीं बल्कि तिथि के साथ दिन का भी निर्देश करने में उन्होंने भूल नहीं की है।

अमीर ख़ुसरो एक कुशल निवेदक हैं। जिन घटनाओं का वर्णन वे करते हैं, उन्हें वे पाठकों के सामने साक्षात् कर देते हैं। उनके घटना निवेदन में एक विशेष लक्षणीय गुण है। और वह है गतिमानता। जितनी गतिमानता इन युद्धों में है, उतनी ही गतिमानता उनके इन वर्णनों में भी आ गई है। एक घटना को दूसरी घटना के साथ बांधकर अनेक ऐतिहासिक घटनाओं का एक घटना चक्र निर्माण करने में कुशल अखबार-नवीस का एक विशेष गुण होता है। अमीर ख़ुसरो में यह गुण विशेष रूप से दृष्टिगोचर होता है। जहां विस्तार की आवश्यकता होती है, केवल वहीं वे विस्तार से वर्णन करते हैं। आवश्यकतानुसार वे कुछ घटनाओं का केवल संकेत ही करते हैं। इसी कारण ‘खज़ाइनुल फुतूह’ पढ़ते समय हमारी जिज्ञासा कहीं भी कुण्ठित नहीं होतीं।

ख़ुसरो की वर्णन-शैली रोचक होते हुए भी उसका एक दोष बहुत खटकता है। वह है अतिशयोक्ति । ‘खाज़इनुल फुतूह’ के अनेक वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण हैं, जैसे- (1) चारों ओर पहाड़ियां थीं, मार्ग सितार के तार से भी बारीक था।’

(2) यह (किला) पत्थर का बनाया हुआ था। पत्थर इस कुशलता से जमाए गए थे कि उनके बीच में कोई सुई भी न जा सकती थी। 

(3) उसने यह सूचना भेजी कि मेरे पास इतना सोना है कि जिससे हिन्दुस्तान के सभी पर्वत ढंके जा सकते हैं।

अतिशयोक्ति ख़ुसरो की वर्णन-शैली का मानो एक अंग ही बन गई है।

ख़ुसरो की गद्य-शैली की और एक विशेषता है और वह है काव्यमयता। वर्णन करते समय ख़ुसरो का कवि हृदय भी जाग्रत हो उठता है और अपनी रसपूर्ण शैली में वे वर्ण्य प्रसंग को जीवित साकार कर देते हैं।

अलंकारिकता इन काव्यमय वर्णनों का एक अंगभूत भाग है। अलाउद्दीन ने जिन मस्जिदों का निर्माण किया उनका वर्णन करते समय ख़ुसरो कहते हैं।

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‘कुरान की आयतें पत्थरों पर खुदवाई। एक ओर लेख इतने ऊंचे चढ़ गए थे कि मानो भगवान का नाम ‘आकाश की ओर जा रहा हो दूसरी ओर लेख इस प्रकार नीचे तक आ गए थे कि मानो कुरान भूमि पर आ रहा हो।‘

और एक मीनार का वर्णन देखिए :

‘मीनार को मज़बूत बनवाने के लिए और उसे उतना ऊंचा बनवाने के लिए कि पुरानी मीनार नई मीनार की मिहराब मालूम हो उसने (सुलतान ने) इन बात का आदेश दिया कि पुरानी मीनार की अपेक्षा नई मीनार की परिधि दुगुनी बनाई जाय?’

हौज का वर्णन इस प्रकार किया गया है :-

“शम्सी नामक हौज सूर्य के समान कयामत तक चमकता रहेगा।‘

किले का विध्वंस इस प्रकार हुआ :-

‘लगभग आधा किला आकाश में धूल के समान उड़ गया। शेष आधा किला भूमि में रक्षा के लिए गिर पड़ा।’

इस ग्रन्थ के प्रसंग वर्णन तथा स्थल-वर्णन भी लक्षणीय हैं। उनमें चित्रमयता आ गई है। अलाउद्दीन ने जिन भवनों का निर्माण किया उनका वर्णन ‘खजाइनुल फुतूह’ के प्रारम्भ में किया गया है। उसके पश्चात् देहली के किले का भी वर्णन किया गया है। वरंगल के उद्यानों तथा किले के सुन्दर वर्णन भी इस ग्रन्थ में पाए जाते हैं। बर्मतपुर के एक सुन्दर मन्दिर का वर्णन ख़ुसरो ने ‘माबर की विजय’ का विवरण करते समय किया है, वह भी लक्षणीय है।

पहेलियों के रचयिता अमीर ख़ुसरो के दर्शन भी इस ग्रन्थ में जगह-जगह होते हैं। पहेलियों में जिस प्रकार के विरोधाभास तथा श्लेष की योजना होती है, उसी प्रकार की रचना ‘खजाइनुल फुतुह’ में भी प्राप्त होती है, जिससे उनके कल्पना-विलास के दर्शन भी होते हैं।

  1. खजाने को इस प्रकार परिपूर्ण कर दिया कि न तो बुध ग्रह उसे अपनी लेखनी से लिख सकता है और न शुक्र ग्रह अपने तराजू से उसे तोल सकता है।
  2. एक रईस नियुक्त किया गया जो कि बकवादी दुकानदारों से न्याय के कोड़े से बात करता था। इसके फलस्वरूप गूंगे खरीदने वाले भी बोलने लगे थे।
  3. यदि कोई कम तोलता, तो वही लोहा (वजन) उसके गले में तौक बन जाता था। यदि इस पर भी वे न मानते थे तो तौक तलवार बन जाता….. (दुकानदार) लोहे के बांटों को अपने हृदय के चारों ओर लोहे का किला समझने लगे और बांटों के शब्द उनके प्राणों के लिए जन्तर के समान थे।
  4. जब गेसूमल ने रात्रि के केशों में से मनुष्य के सिर के बाल के समान अत्यधिक इस्लामी सेना देखी तो उसके शरीर के रोएं कंघी के दांतों के समान खड़े हो गए। वह घुंघराले बालों के समान गिरता पड़ता किले की ओर भागा।

इस प्रकार के वाक्य पढ़ते समय अमीर ख़ुसरो की पहेलियों का स्मरण अवश्य होता है।

अमीर ख़ुसरो की गद्य-रचना का स्वरूप इस प्रकार है। ‘अखबार-साहित्य प्रकार

का परिचय इस रचना द्वारा होता है। इस रचना को इतिहास का अधिष्ठान प्राप्त हुआ है और फिर भी लेखक की प्रतिभा का विलास भी दिखाई देता है। साहित्य तथा इतिहास का संगम इस अखबार में हुआ है। व्यक्ति-वर्णन, स्थल-वर्णन, तथा घटना-वर्णन इस अखबार में हुआ है। व्यक्ति वर्णन, स्थल वर्णन तथा घटना-वर्णन इस अखबार की वर्णन-शैली के तीन प्रमुख घटक हैं। घटना-वर्णनों में अतिशयोक्ति के कारण अद्भुतरम्यता भी आ गई है, जो पाठकों की जिज्ञासा बढ़ाने में अत्यन्त समर्थ है। निवेदन की गतिमानता के कारण लेखकी शैली अत्यन्त प्रवाही बन गई है। एक प्रसंग पढ़ने के पश्चात् दूसरा प्रसंग पढ़ने की उत्सुकता पाठक के मन में निर्माण होती है। इतिहासकालीन वातावरण का पुनर्निर्माण करने में भी लेखक सिद्धहस्त है। साथ ही साथ अपनी वाणी की काव्यमयता के कारण उसकी गद्य शैली और भी निखर उठी है। पहेलियों के कर्ता का रचना- कौशल भी इस गद्य शैली का एक लक्षणीय पहलू बन चुका है। अमीर ख़ुसरो केवल रूखे ‘अखबार-नवीस’ (इतिहास- लेखक या वार्ता-लेखक) नहीं है, बल्कि उनकी प्रतिभा ने इतिहास को भी साहित्य की श्रेष्ठता प्रदान की है।

(नोट: इस लेख में खजा-इनुल फुंतूह के जिन अंशों को उद्धृत किया गया है, वे अलीगढ़ विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग द्वारा प्रकाशित खिलजीकालीन भारत नामक ग्रन्थ से लिए गए हैं। इस ग्रन्थ में ख़ुसरो के मूल ग्रन्थ तथा उसके अंग्रेजी अनुवादों की सहायता से डॉ० सय्यद अतहर अब्बास रिजवी ने हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया है। अलीगढ़ विश्वविद्यालय तथा अनुवादक डॉ० रिजवी का ऋण निर्देश करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूं। – लेखक)

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