लेखक-कवि विनोद कुमार शुक्ल को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने पर यह टिप्पणी लिखी है अमेरिका प्रवासी प्रसिद्ध अंग्रेज़ी लेखक अमितावा कुमार ने। लेखक की अनुमति से हम इसका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित कर रहे हैं। अनुवाद किया है कुमारी रोहिणी ने। कुमारी रोहिणी ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से कोरियन भाषा और साहित्य में पीएचडी तक पढ़ाई की है- मॉडरेटर
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88 साल के हिन्दी लेखक विनोद कुमार शुक्ल को इस साल का ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है। ज्ञानपीठ पुरस्कार भारत का सबसे प्रतिष्ठित साहित्यिक पुरस्कार है। मेरे दोस्त रवीश ने उस रात अपने शो में कहा कि इस चमकते-दमकते भारत में शुक्ल उस पुरानी और जर्जर हो चुकी कमीज़ की तरह हैं जो सड़क पर चल रही है। एक ऐसी कमीज़, उम्र ढल जाने के बावजूद भी जिसका रंग थोड़ा ही सही बरकरार है, एक ऐसी कमीज़ जिसमें जीवन भर की सुगंध समाहित है। हालाँकि इसके धागे और इसकी सिलाई घिस गई है लेकिन बावजूद इसके फ़ैशन की इस दुनिया में यह अब काफ़ी उपयोगी बनी हुई है।
एक महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या शुक्ल हमें इस समकालीन क्षण से निबटने में हमारी मदद करते हैं? आज ही सुबह मैं अपने इलाक़े के पब्लिक रेडियो स्टेशन WAMC पर एक लाइव राउंडटेबल रिकॉर्डिंग में शामिल था। उस पैनल में मेरे साथ लेखक फ्रैन्सिन प्रोसे, लूसी सैंटे और दीनाव मेंगेस्तु भी शामिल थे। हम वहाँ ट्रम्प के कार्यकाल में अमेरिका में आने वाले बदलावों पर बातचीत कर रहे थे – और मैं लगातार मोदी के कार्यकाल में भारत में होने वाले बदलावों के बारे में सोच रहा था। विश्वविद्यालय परिसरों में छात्रों पर होने वाले हमले, असहमति का दमन, आक्रामक और ख़तरनाक पुरुषत्व का उभरना, ये सारी ऐसी विशेषताएँ हैं जो हमें दोनों ही देशों में देखने को मिलती हैं। ऐसे में, दुनिया को लेकर शुक्ल की टिप्पणियाँ मुझे न केवल अतीत से, बल्कि कहीं और से भी आती हुई प्रतीत होती हैं। मैं किसी तरह की नकारात्मक बात नहीं कर रहा हूँ। मुझे उनके यहाँ एक ऐसी शांत जगह दिखाई पड़ती है जहाँ आपको आत्म-विश्लेषण का मौक़ा मिलता है। अपने लिखे में वे जिस तरह रोज़मर्रा के संघर्षों को पिरोते हैं वे एक तरह से हमें एकांत की अनुभूति करवाता है। उनकी दुनिया में निरंकुशता, उत्पीड़न या अन्याय उतना अप्रासंगिक नहीं लगता जितना कि उनके बेकार होने की बात स्पष्ट रूप से दिखती है।
वे कौन सी चीजें हैं जो साधारण को वास्तव में असाधारण बनाती हैं और हम उन्हें कैसे चिन्हित कर सकते हैं? मुझे हमेशा ही लगता रहा कि इस प्रश्न का जवाब हमें शुक्ल के साहित्य में मिलता है। शुक्ल के गद्य में हिन्दी भाषी क्षेत्र का ग्रामीण जीवन जिस तरह से जीवंत हो उठता है उसने मुझे हमेशा ही लुभाया। दरअसल, उनके उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ के कुछ पात्रों को मैंने चुपके से अपनी पिछली किताब में शामिल कर लिया है : एक क्लासरूम में भटकता हुआ सफ़ेद बगुला, फ़र्श पर पड़ी हुई मछली के काँटे, हाथी पर बैठा एक युवा साधु। कुछ साल पहले हार्पर कॉलिन्स इंडिया ने शुक्ल की कहानियों का अनुवाद ब्लू इज लाइक ब्लू नाम से प्रकाशित किया था।अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा और सारा राय ने उन कहानियों का अनुवाद किया था। अनुवादकों ने कहानी संग्रह के लिए भूमिका लिखी थी और उसमें से एक बात जो मुझे हमेशा ही याद रहती है कि ‘2011 के जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में विनोद कुमार शुक्ल ने सारा राय से पूछा कि इतनी भीड़ क्यों लगी है, और हर आदमी अपने हाथों में किताब क्यों लिए खड़ा है। जब उन्हें बताया गया कि वे सब के सब लेखक जे. एम. कोट्ज़ी से उनकी किताब पर साइन करवाने के लिए खड़े हैं तो यह सुनकर वे थोड़े उलझन में पड़ते दिखे। हिन्दी लेखक किताबों पर हस्ताक्षर तो करते हैं लेकिन निजी रूप से और शायद ही उनके इंतज़ार में कभी ऐसी क़तारें लगती हैं। इसके अलावा उनके लिए कोएट्ज़ी नाम मायने नहीं रखता, ना ही वहाँ उपस्थित दुनिया के दूसरे प्रसिद्ध लेखकों का नाम ही। इसका एक कारण यह हो सकता है कि वे केवल हिन्दी ही पढ़ते हैं, एक ऐसी भाषा जिसे बोलने वालों की संख्या शायद चीनी बोलने वालों से भी ज़्यादा है लेकिन जिसमें बहुत कम अनुवाद होते हैं। और अगर ऐसा नहीं भी होता तब भी इसमें संदेह है कि शुक्ल को इसमें किसी तरह की रुचि होती। हाल ही में, जब एक ईमेल में उनसे पूछा गया कि क्या वे किसी यूरोपीय लेखक से परिचित हैं, क्योंकि अक्सर उनके लेखन को पढ़ते हुए ऐसे ही लेखकों की याद आती है। तो शुक्ल ने ना केवल इस सवाल को टाल दिया बल्कि पूरी तरह नज़रअन्दाज़ ही कर दिया। शायद ऐसे सवाल जवाब के लायक़ ही नहीं होते। जैसे बत्तख़ का झुंड बत्तख़ों के जैसा ही दिखाई पड़ता है, हम कह सकते हैं कि शुक्ल भी केवल अपने तरह के ही दिखाई पड़ते हैं, शुक्ल की तरह।” यह एक तरह का असाधारण विवरण है। एक तरफ़ तो यह पूर्णता, और शायद आत्मविश्वास, एक तरह की अजेय स्वायत्ता की बात करता है, वहीं दूसरी तरफ़ मानसिक संकीर्णता, बंद-दिमाग़ वाला ज़िद्दीपना, और एक संरक्षित मानसिकता वाली भावना की भी झलक देता है। मैं इससे प्रभावित हूँ, और शायद मंत्रमुग्ध भी लेकिन मैं इससे थोड़ा सा परेशान और भ्रमित भी हूँ। अंत में, हालाँकि, मेरा ऐसा मानना है और इससे आश्चर्यचकित भी होता हूँ। और मन में थोड़ी अनिश्चितता लिए मैं उस कहानी को अपने उस फोल्डर में डाल देता हूँ जिसका नाम इंडियन प्रोविंशियलिज्म (भारतीय प्रांतीयता) है।
ऊपर वाली तस्वीर शाश्वत गोपाल ने ली है। यह तस्वीर जॉर्ज रिव्यू में प्रकाशित शुक्ल की महत्त्वपूर्ण कहानी ‘कॉलेज’ (और जो ब्लू इज ब्लू में कहानी संग्रह में भी है) के साथ लगाई गई थी। मैं अपने शब्दों के माध्यम से जिसे चित्रित करने की यहाँ कोशिश कर रहा हूँ, उस संवेदनशीलता की झलक पाने के लिए आप उस लेख को पढ़ें। हिन्दी के पाठक शुक्ल की कुछ कविताएँ उनकी मूल भाषा में यहाँ पढ़ सकते हैं। अंग्रेज़ी में दो कविताएँ, जिनका अनुवाद अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा ने किया है जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं। ऐसा लगता है कि मेहरोत्रा ने शुक्ल के काम के अनुवाद को एक तरह के कुटीर उद्योग में बदल दिया है। उनके द्वारा अनूदित कुछ अन्य कविताएँ आप यहाँ पढ़ सकते हैं। शुक्ल के लेखन में ऐसी भ्रामक सरलता और स्पष्टता है कि इन कविताओं के अनुवाद के लिए मुझे मेहरोत्रा ही सबसे उपयुक्त लगते हैं। और फिर भी, कोई भी हिंदी भाषी पाठक उनकी मूल कविताओं में असीम गहराई और आत्मीयता को ढूँढ सकता है, उसके लिए यह असंभव नहीं है!
आज दोपहर में WAMC की उस राउंडटेबल चर्चा से लौटने के बाद मैंने बैठ कर एक बार फिर से शुक्ल की उस कविता का पाठ किया जो मुझे बेहद पसंद है। उस कविता का शीर्षक है ‘दूर से अपना घर देखना चाहिए।’ (यह एक ऐसी कविता है जो मानवता को अपनाने और उसे गले लगाने को लेकर इतनी अधिक उदार और विस्तृत है कि लेखक की मानसिक संकीर्णता को लेकर मेरे मन में बैठे सभी संदेह धराशायी हो जाते हैं। ऐसा कल्पनाशील मानवतावाद, नए, चमकते भारत की संकीर्ण, तुच्छ महत्वाकांक्षाओं को लगाई जाने वाली एक फटकार की तरह है।) मैंने इस कविता का अनुवाद इसलिए नहीं शुरू किया क्योंकि मैं इसका अनुवाद कर सकता हूँ और उसके योग्य हूँ। बल्कि इसलिए किया क्योंकि मैं मूल के जितना करीब हो सके उतना करीब आना चाहता था और इसके अर्थ को दूसरी भाषा में व्यक्त करने की कोशिश करना चाहता था। शुक्ल को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने के उपलक्ष्य में, आप इसे आप पढ़ सकते हैं:
दूर से अपना घर देखना चाहिए
मजबूरी में न लौट सकने वाली दूरी से अपना घर
कभी लौट सकेंगे की पूरी आशा में
सात समुंदर पार चले जाना चाहिए
जाते-जाते पलटकर देखना चाहिए
दूसरे देश से अपना देश
अंतरिक्ष से अपनी पृथ्वी
तब घर में बच्चे क्या करते होंगे की याद
पृथ्वी में बच्चे क्या करते होंगे की होगी
घर में अन्न-जल होगा कि नहीं की चिंता
पृथ्वी में अन्न-जल की चिंता होगी
पृथ्वी में कोई भूखा
घर में भूखा जैसा होगा
और पृथ्वी की तरफ़ लौटना
घर की तरफ़ लौटने जैसा।
घर का हिसाब-किताब इतना गड़बड़ है
कि थोड़ी दूर पैदल जाकर घर की तरफ़ लौटता हूँ
जैसे पृथ्वी की तरफ़।
स्रोत: कवि ने कहा (पृष्ठ 16) रचनाकार: विनोद कुमार शुक्ल, प्रकाशन: किताबघर प्रकाशन
संस्करण : 2012
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