जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

हिन्दी लेखकों की वर्तमान दशा-दिशा पर यह टिप्पणी लिखी है संस्कृतिकर्मी-सामाजिक कार्यकर्ता शुभ्रास्था ने, जो अपना राजनीतिक परामर्श उद्यम चलाती हैं। आप भी पढ़िए- मॉडरेटर 

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यह लेख समकालीन हिन्दी साहित्य के उस प्रवाह की समीक्षा करता है जो वर्तमान में सर्वाधिक चर्चितप्रशंसितपुरस्कृत और विमर्शों में उपस्थित रहा है—वह साहित्य जो प्रतिष्ठानों, अकादमिक संवादों और प्रकाशनों में केंद्रीय स्थान पर है। यह आलोचना सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य पर नहीं, बल्कि उस प्रभावशाली और उच्चगामी साहित्यिक वृत्त पर केंद्रित है जो आज साहित्यिक मानदंड और वैचारिक दिशा तय कर रहा है।

आज का चर्चित हिन्दी साहित्य दोहरे संकट से जूझ रहा है। एक ओर वह वैचारिक पाखंड और संकीर्णता का शिकार हो गया है, और दूसरी ओर लोकतांत्रिक असंतुलन का वाहक बनता जा रहा है। वह साहित्य जो कभी सत्ता के विरोध में जनता के साथ खड़ा होता था, आज सत्ता के विरोध के नाम पर स्वयं जनता से कटता जा रहा है। विचार की ईमानदारी अब विचारधारा की सुविधा में तब्दील हो चुकी है।

स्वतंत्रता संग्राम के समय हिन्दी साहित्य में विचारधारा थी—पर संकीर्णता नहीं। वह काल ऐसा था जब कलम से बारूद निकलती थी, और जन की बहुसंख्यक चेतना उस साहित्य में गूंजती थी। वह चेतना न सांप्रदायिक थी, न संकुचित। वह हिन्दू-मुसलमान, बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक की रेखाओं से परेएक साझा राष्ट्रबोध की वाहक थी।

महादेवी वर्मा, जिन्हें प्रायः केवल कोमल सौंदर्यबोध की कवयित्री मान लिया जाता है, उन्होंने नारी-विमर्श को सिमोन द बोउआर से पहले और कहीं अधिक सूक्ष्मता से प्रस्तुत किया। उनके लेखन में जहां आत्मिकता थी, वहीं सत्ता के विरुद्ध एक गहरे नैतिक प्रतिरोध की चेतना भी. रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और अज्ञेय जैसे रचनाकारों ने राष्ट्र और व्यक्ति के द्वंद्व को अत्यंत कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया—नारे नहीं, दर्शन के स्तर पर। अज्ञेय की ‘शेखर: एक जीवनी’ जैसी कृतियाँ राजनीति नहीं, राजनीतिक आत्मसंघर्ष का साहित्य थीं।

और तब, साहित्य केवल मंचीय प्रतिरोध का माध्यम नहीं था, वह राजनीतिक कलात्मकता का सशक्त उदाहरण था। छायावादियों ने, विशेषकर प्रसाद और महादेवी ने, आत्मिकता और प्रतीक के ज़रिए जो राष्ट्रबोध रचा, वह आज के शोरगुल और ध्रुवीकरण में गुम हो गया है।

अब स्थिति यह है कि हिन्दी साहित्य का विमर्श सत्ता-विरोध के नाम पर जन-विरोध में बदल गया है। बहुसंख्यक समाज की कोई भी भावना साहित्यिक उपेक्षा या व्यंग्य का विषय बन जाती है, जबकि अल्पसंख्यक समुदाय के भीतर के दोषों की आलोचना भी ‘संवेदनहीनता’ का प्रमाण बन जाती है।

हिन्दी साहित्य में आज बहुसंख्यक समाज की भाषा, संस्कृति, आस्था और सामाजिक चिंताओं के लिए जगह कम होती जा रही है। ग्रामीण धार्मिकता को रूढ़िवाद कहा जाता है, मंदिर की चिंता को सांप्रदायिकता, और बहुसंख्यक युवाओं की सांस्कृतिक पहचान की खोज को ‘राजनीतिक आकांक्षा’ का घातक रूप। वहीं दरगाह, गिरिजाघर, या अल्पसंख्यक प्रतीकों की बात हो तो उसे ‘संवेदना’, ‘संस्कृति’ और ‘अधिकार’ का नाम दे दिया जाता है। यह दोहरापन साहित्य की विश्वसनीयता को कमजोर करता है।

आज हिन्दी साहित्य में एक विचित्र वैचारिक अनुशासन लागू है—जो सत्ता की आलोचना करता है, लेकिन चुनिंदा रूप से। यह आलोचना विचार से नहीं, विचारधारा से संचालित है। साहित्य विचारधारा के साथ तो है, पर विचारशीलता से दूर। परिणामस्वरूप, आलोचना की जगह नारा आ गया है, और आत्ममंथन की जगह समूहगत ताली।

प्रगतिशीलता की यह परिभाषा अब केवल एक छद्म बन गई है—जहाँ हर हाल में अल्पसंख्यक के पक्ष में खड़ा होना नैतिक है, और बहुसंख्यक की बात करना सत्ता की हिमायत। यह चयनात्मक सहानुभूति ही साहित्य को विचार से विमुख और संवाद से निष्क्रिय बना रही है।

यह भुला दिया गया है कि 1947 में पाकिस्तान धर्म के आधार पर बना, लेकिन भारत नहीं। भारत में रहने वाले मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों, जैनों और अन्य समुदायों ने खुद को इस देश का नागरिक और धर्म से इतर एक साझा भारतीयता का भाग माना। हिन्दी साहित्य, विशेषतः स्वतंत्रता संग्राम के साहित्य ने इसी बहुलतावादी आत्मा को स्वर दिया था। आज जबकि साहित्य बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक की पहचान को सांप्रदायिक चश्मे से देखने लगा है, तो यह केवल साहित्य की नहीं, सांस्कृतिक सेक्युलरिज़्म की भी पराजय है।

हमें साहित्य में आत्मपुनरावलोकन की आवश्यकता है। हमें चाहिए वह दृष्टि जो सत्ता के समीप भी न हो और जनता से दूर भी नहीं। जो आलोचना करे—पर बिना चयन के। जो संवाद करे—पर बिना संप्रदाय के। जो बहुसंख्यक को गाली दिए बिना प्रगतिशील हो सके, और अल्पसंख्यक को पूज्य बनाए बिना सहानुभूतिशील। साहित्य तब तक जन का नहीं हो सकता जब तक वह केवल बोलता रहे—उसे सुनना भी होगा। और सुनना सबसे पहले उन्हें ज़रूरी है जो सबसे अधिक हैं, पर जिनकी पीड़ा को हमने ‘सत्ता की भाषा’ मानकर टाल दिया है।जब बहुसंख्यक की व्यथा भी लेखन योग्य मानी जाएगी, तभी अल्पसंख्यक की व्यथा विश्वसनीय लगेगी। तभी लोकतंत्र बचेगा। तभी साहित्य बचेगा।

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