जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

 

जैसा कि आप सभी जानते हैं कि प्रथम जानकी पुल शशिभूषण द्विवेदी स्मृति सम्मान युवा लेखिका दिव्या विजय को भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित उनके कथा संग्रह \’सगबग मन\’ के लिए दिये जाने का निर्णय लिया गया है। आगामी 6 जुलाई को दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में एक समारोह में उन्हें यह सम्मान प्रदान किया जाएगा। इस अवसर पर लेखिका के साथ एक लंबी बातचीत प्रस्तुत है। यह बातचीत की है प्रखर लेखक प्रचण्ड प्रवीर ने। यह बातचीत बहुत अलग तरह की है जो लेखिका की कथा यात्रा के साथ साथ कथा संवेदनाओं को लेकर है। आइये यह विस्तृत बातचीत पढ़ते हैं- मॉडरेटर
===============================

१. प्रश्न- दिव्या जी, आपकी पहली पुस्तक ‘अलगोज़े की धुन पर’ स्त्री-पुरुष प्रेम के विषय में हैं। वह भी तीक्ष्ण अनुभूतियों के साथ, जिसकी हिन्दी साहित्य में किञ्चित प्रशंसा भी की गयी। आपके लेखन के विषय में बात करने से पहले हम बात करते हैं विलियम मेकपीस ठाकरे की प्रसिद्ध उक्ति की – \’किसी दोषदर्शी (सिनिकल) फ्रांसीसी ने कहा है कि प्रेम व्यवहार में दो पक्ष होते हैं: एक जो प्यार करता है और दूसरा जो इसके लिए किसी तरह स्वयं को झुका कर (या अहसान जताते हुए) तैयार कर लेता है।\’ क्या आप ठाकरे की इस उक्ति से सहमत होती हैं?

उत्तर: प्रेम सहज और नैसर्गिक होता है परंतु वह इतना व्यक्ति सापेक्ष भी है कि उसके विषय में कोई अंतिम या सार्वभौमिक सिद्धांत नहीं हो सकता। फिर मानव मन को समझने की विधि अज्ञात ही रही है। शेक्सपियर और वर्ड्सवर्थ सभी ने प्रेम को अपने-अपने ढंग से देखा है। आदिकवि वाल्मीकि भी क्रौंचवध देख शोक-मग्न हो गये थे।
मेकपीस ठाकरे से सहमत हूँ क्योंकि प्रेम के दोनों पक्षों में कोई एक बहुत दीवानावार होता है और दूसरा उसके मुकाबले कम इसलिए ऐसा लगना लाज़िमी है कि वह किसी तरह स्वयं को झुका कर या अहसान जताते हुए संबंध में चला आया है। यहाँ तक कि संबंध में पहले प्रणय निवेदन किसने किया इसकी भी गणना रखी जाती है।
सम्बन्ध के आरम्भ से ही दोनों पक्ष अपने श्रेष्ठ प्रकट करने का प्रयत्न करते हैं ताकि यह देख सकें कि सामने वाला कैसी प्रतिक्रिया देता है और फिर उसका मूल्यांकन करता है। दरअसल सभी अपना एक मूल्य निश्चित किए रहते हैं और जीवन में मिलने वाले सुखों को उसका पारितोषिक मान कर चलते हैं। प्रेम का यह सुख, सदा से तय किए मूल्य से अधिक पारितोषिक के लिए आशान्वित रहता है। इसलिए जो आपको पसन्द करता है उसको पसन्द करना अधिक सुख देगा, सोच कर व्यक्ति सामंजस्य बिठाता है। हालाँकि यह सामंजस्य वास्तविक भी हो सकता है और सतही भी। साझे सुख के लिए वह सीख जाता है कि किस स्थिति में कैसा व्यवहार करना है। यहाँ प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक थियोडोर न्यूकोम्ब (Theodore Newcomb) की परस्पर समायोजन (एडजस्टमेंट) से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण बात याद आती है जिसके अनुसार एक प्रकार का सामंजस्य, सुखपूर्ण सम्बन्ध वाले व्यक्तियों के बीच विकसित होता है। वे एक-दूसरे की अवधारणाओं और दृष्टिकोण के साथ समन्वय करने का प्रयत्न करते हैं जिससे यथासंभव समान हो सकें। दृष्टिकोण की समानता व्यक्तित्व को एक-दूसरे के लिए और आकर्षक बनाती है।
इन पक्षों में ‘रोल रिवर्सल’ भी चलता है यानि पक्षों के मूल्य में अदल-बदल हो जाता है। आरंभ में जिस पक्ष ने अहसान जताते हुए प्रणय निवेदन स्वीकार किया था वही आगे चल कर पारस्परिक सुखों के लिए दूसरे पर इतना निर्भर हो जाता है कि दूसरे पक्ष का मूल्य सम्बन्ध में अधिक हो जाता है। जैसे ‘साइके’ और ‘क्यूपिड’ के यूनानी मिथक में रानी के आदेश पर क्यूपिड, राजकुमारी साइके को सबसे घृणित व्यक्ति से प्रेम के लिए प्रेरित करने की बजाय स्वयं उसके प्रेम में पड़ जाता है। वह अपनी पहचान छिपाए रखने के लिए रात के अँधेरे में, प्रतिदिन साइके के पास आता है। प्रेमी को बिन देखे ही साइके भी उस प्रेम में तुष्टि पाती है परंतु जब उसकी ईर्ष्यालु बहनें उसे कहती हैं कि उसका प्रेमी कुरूप दैत्य है तो वह रात को मोमबत्ती जला क्यूपिड को देखती है जिसे क्यूपिड अपना अपमान समझ, नाराज़ हो दूर चला जाता है।
इसके अतिरिक्त प्रतिबद्धता (कमिटमेंट) भी आजकल एक फ़ोबिया है जिसमें एक-दूसरे की अपेक्षाओं का भार उठाने की ज़िम्मेदारी बोझ लगती है। इस वजह से ‘रिलेशनशिप’ की जगह ‘सिचुएनशिप’ जगह बना रहा है जिसमें बग़ैर गंभीर हुए भी दो लोग सम्बन्ध में आ जाते हैं। वहाँ ख़ुद को राज़ी कर लेने की प्रवृत्ति अधिक देखी जाती है। एक तरह का प्रयोग जो सम्बन्ध से एक क़दम पहले है जिसे साझे सुख की गारंटी सुनिश्चित करने के लिए किया जा रहा है। इस सबके बावजूद मैं मेकपीस ठाकरे की एक अन्य उक्ति को ज़्यादा पसंद करती हूँ जिसके अनुसार “इसमें कोई संशय नहीं कि समझदारी से प्यार करना अच्छा है लेकिन प्यार करने में सक्षम न होने की तुलना में मूर्खतापूर्ण प्यार करना बेहतर है।”

२. प्रश्न: आपकी नयी पुस्तक ‘दराज़ों में बन्द जिन्दगी\’ डायरी विधा में लिखी गयी है। इसे पाठक पसन्द कर रहे हैं। अगला प्रश्न आपसे एक विचारवान साहित्यकार की भूमिका को लेकर है। प्रसंगवश, आपकी डायरी में आपकी किसी परिचिता का उल्लेख है जो कि प्रेम सम्बन्ध चाहती है पर मित्रता से अधिक उसे पुरुषों से कुछ नहीं मिलता है। इसके विपरीत आपकी कहानियों में भी ऐसा आता है कि स्त्री कुछ सम्बन्धों में मित्रता से अधिक नहीं चाहती, किन्तु पुरुष अधिक चाहते हैं। यह एक अजीब-सी स्थिति प्रकट करती है कि एक पक्ष केवल मैत्री और दूसरा पक्ष पूर्ण प्रेम की अपेक्षा या कुछ स्थितियों केवल पूर्ण प्रेम प्रदान करने की इच्छा भी रखता है। ऐसी स्थितियों में प्रेम निर्वाहण या मैत्री निर्वाहण दोनों ही कठिन है। हालाँकि हम इसे वास्तविक स्थिति के अनुसार लोग पर छोड़ सकते हैं, किन्तु विचार के स्तर पर आपकी दृष्टि में ऐसी अप्रिय स्थिति का निराकरण कैसे करना चाहिए?

उत्तर: बात डायरी की हुई है तो पहला उदाहरण अपने जीवन से ही देती हूँ। एक युवक वर्षों तक प्रणय-निवेदन करता रहा था। मेरी किशोरावस्था से आरंभ हुआ यह क्रम विवाह तक चलता रहा। प्रेम-निवेदन के उन दिनों प्रचलित सभी रूप उसने अपनाये किंतु मेरे मन में न मैत्री का भाव उपजा न प्रेम का। जो उपजी वह थी अरुचि। प्रेम क्यों नहीं उपजा इसका कोई तर्क मैं आज भी नहीं दे सकती। इस घटना का ज़िक्र इसलिए कि व्यक्ति प्रेम में प्रभावित करने का हरसंभव प्रयत्न करता है किंतु ये प्रयत्न प्रेम की परिणति तक पहुँचे आवश्यक नहीं। कहने को यह रसायनों का खेल भर है। दुनिया भर के रिसर्च इस विषय पर किए गये हैं किन्तु न तो रसायनों का ऐसा जोड़ मिला जो किसी को किसी के प्रति प्रेम में मुब्तिला कर दे और न ऐसा कोई मिश्रण जो प्रेम से बाहर निकाल दे। प्रत्युत्तर में प्रेम मिलने की प्रसन्नता और प्रेम द्वारा नकार पाने का दुःख, सब व्यक्ति को स्वयं ही अनुभव करने होते हैं, एक नितांत आवश्यक पाठ की तरह।
अब रुख़ आपके प्रश्न की ओर। मैं इस प्रश्न का उत्तर हो सकने वाली संभावनाओं की चर्चा करते हुए देती चलूँगी।
स्त्री और पुरुष की मित्रता बड़ी सुन्दर होती है किन्तु आकर्षण की एक महीन लकीर उनके मध्य विद्यमान रहती है। (परिचित होने पर यह लकीर विलुप्त भी हो जाती है पर कई दफ़ा गहरा भी जाती है) किसी भी प्रेम में आदर्श स्थिति यह मानी जाती है कि दूसरा पक्ष भी हामी भर दे किन्तु हर बार ऐसा होता नहीं। परिणामतः एक ओर प्रेम का आग्रह होता है और दूसरी ओर मित्रता का। ‘टग ऑफ़ वॉर’ जैसी स्थिति आन खड़ी होती है जहाँ पीछे हटने को कोई राज़ी नहीं। दोनों पक्ष अपने-अपने तर्कों के साथ डटे रहते हैं। एक के लिये प्रेम सर्वोपरि है और दूसरे के लिए मित्रता किन्तु कहीं तो अन्त होगा। आरंभिक रस्साकशी के पश्चात एक पक्ष जीत जाता है अथवा हार स्वीकार कर लेता है।
एकपक्षीय प्रेम अनेक स्थितियों का निर्माण करता है। अमूमन ये स्थितियाँ दूसरे व्यक्ति के प्रति प्रेम की उत्कटता पर निर्भर करती हैं। कई बार ऐसा प्रेम प्रतिफल न मिलने पर प्राकृतिक मृत्यु को प्राप्त होता है किन्तु कई दफ़ा हठ अथवा ऑब्सेशन के रूप में फलता-फूलता भी है। कभी यूँ भी होता है कि प्रेम की गहनता इतनी अधिक होती है कि कालान्तर में दूसरा पक्ष उसके आगे घुटने टेक देता है। यह विरल है किन्तु असंभव नहीं। इसका एक उदाहरण ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ में देखा जा सकता है। अधिकतर दोनों पक्ष सहमति से (अथवा असहमति से) सम्बन्ध विच्छेद कर लेते हैं। कभी दूसरा पक्ष प्रतीक्षा में रहता है कि प्रेम-भाव समय के साथ काल-कवलित हो जाएगा और सम्बन्ध पहले की भाँति सामान्य हो जाएगा किन्तु यह संभव नहीं। किसी भी मित्रता पर जब प्रेम की दृष्टि पड़ती है, तब कथित सामान्यपन पलट कर नहीं आता। दबे-छिपे हो अथवा ज़ाहिर तौर पर, प्रेम के तीखे/मीठे प्रहार बने रहते हैं।
अगर हम किसी के प्रेम-पात्र हैं तो प्रेम स्वीकार हो अथवा नहीं किन्तु उस प्रेम के प्रति सम्मान-भाव अवश्य रखना चाहिए। प्रेम इतना दिव्य होता है कि उसका अनादर उचित नहीं। प्रेम करने वाला मित्र है तो तब तो और अधिक संवेदनशील होना होगा।
मनुष्य प्रेम के प्रति जितना आकर्षित रहता है उतना ही भयभीत भी। इसलिए आश्चर्य नहीं कि उसके मन की भीतरी तहों में सघन प्रेम के प्रति भय छिपा रहता है। वह नहीं जानता प्रेम के स्वीकार के साथ मुक्ति संग आती है। मुक्ति अपने भय से, मुक्ति स्वयं से। अपना आप किसी ऐसे को सौंप देने का सुख जो उसे अपनी प्रीति से सँवार सके, अतुल्य होता है। स्पेस में भारहीन होने की तरह। सहज, निष्कलुष प्रेम का सौभाग्य सरलता से प्राप्त नहीं होता।
प्रेम उत्तरदायित्व है। अगर हम एकपक्षीय प्रेम में हैं तो प्रयत्न होना चाहिए कि जिस से हम प्रेम करते हैं हमसे किसी भी अवस्था में उसे दुःख न मिले। जहाँ दोनों ओर प्रेम है वहाँ निश्चित मात्रा में पीड़ा (मान-मनौव्वल, प्रीति-क्लेश आदि) का लेन-देन चलता है किन्तु एकतरफ़ा प्रेम में इसकी गुंजाइश नहीं होती। वहाँ अपने प्रेम की ज़िम्मेदारी स्वयं लेनी होती है। अपनी अपेक्षाओं को समाप्त कर प्रेम करना होता है। प्रेम में अकेले होने पर पीड़ा निश्चित रूप से होगी किन्तु कुछ लोग इस पीड़ा को ही सुख का स्रोत बना लेते हैं। कभी एकपक्षीय प्रेम में वे उन आत्मिक ऊँचाइयों पर जा पहुँचते हैं कि अपने प्रेमी की भौतिक उपस्थिति की आवश्यकता भी नहीं रह जाती। प्रेम को हम आरोपित नहीं कर सकते। हाँ, प्रेम करते हुए प्रतीक्षा कर सकते हैं अथवा प्रेम को अक्षुण्ण रखते हुए आगे की जीवन-यात्रा तय कर सकते हैं। प्रेम जीवन का महत्वपूर्ण अंग है किन्तु जीवन प्रेमजनित दुखों के बीच भी अपना मार्ग खोज लेता है।

३. प्रश्न- प्रेम को ले कर आपकी कहानियों में पात्रों की कुछ चारित्रिक विशेषताएँ स्पष्ट प्रकट होती हैं। जैसे कि \’प्रेम पथ ऐसो कठिन\’ की नायिका एक समय में बहुत से पुरुषों से प्रेम करती है और \’एक जादूगर का पतन\’ में नायक अपने जीवन में आयी सभी लड़कियों से छल करता है। इन विशेषताओं को आप किसी तरह देखती हैं? क्या ऐसे चरित्र वैचारिक स्तर पर प्रकट होते हैं या अनुभवों का विचारों में परिष्कार कर के?

उत्तर: एक चरित्र चार प्रेमियों से सच्चा प्रेम करती है और एक चरित्र कई स्त्रियों से छलयुक्त झूठा प्रेम करता है। दोनों में समाज की मर्यादाओं की अवज्ञा है पर एक तरफ़ सत्य और एक तरफ़ कपट है। हो सकता है दोनों पात्र पाठकों को करणीय-अकरणीय की दुविधा में डालते हों परन्तु आए तो दोनों समाज से ही हैं। यह कोई आधुनिकता की देन भी नहीं क्योंकि भोजदेव के शृंगार प्रकाश में वर्णित नायक भेदोपभेदों में ‘एक जादूगर का पतन’ का नायक अखिल ‘शठ नायक’ के समीपतर पड़ता है। इसलिए बहुप्रेम तो साहित्य में बहुत पहले से है और यह कल्पनाजनित नहीं बल्कि समाज सत्य है। अखिल कहता भी है, “यह एक आदिम चाह है। एक सदियों पुराना खेल जिसमें बेहद मज़ा आता है। मेरी इन्द्रियों को सबसे ज़्यादा सुख इसी में है।” अखिल इक तरफ़ा प्रेम का नतीजा अपने दोस्त में देख चुका है जिसे प्रेम में पूर्ण समर्पण पर भी प्रेमिका नहीं मिली इसलिए वह उस पीड़ा और अभाव से नहीं गुज़रना चाहता। वह मित्र से प्रतिवाद करते हुए कहता है “प्यार! कौन-सा प्यार? किसे होता है आजकल के ज़माने में प्यार? तुम्हें लगता है ये लड़कियाँ हमारे सिवा किसी से बात नहीं करती होंगी?”
अखिल असंस्कृत, निजी, वैयक्तिक और मुक्त तर्क को ऊपर रखता है और उसी के हिसाब से जीवन का मूल्यांकन करता है। उसी ज़िद में वह मर्यादा के विरुद्ध आक्रामक भी होता है जिसकी परिणिति पहले माया तथा अन्य लड़कियों को पीड़ा पहुँचाने और फिर स्वयम् को पीड़ा पहुँचाने में होती है। अखिल एक आत्ममुग्ध स्थिति में रहता है जो उसे वास्तविकता से दूर रखती है, इसकी अतिशयता उसे रोगी और असामाजिक बनाकर छोड़ती है।
जिस प्रकार एक ही मृदा-ताप-वायु पा कर भी भिन्न-भिन्न वनस्पतियाँ उगती हैं उसी प्रकार प्रेम की भूमि पर भी भिन्न पद्धति के प्रेमी होते हैं। अखिल से विलग ‘प्रेम पथ ऐसो कठिन’ की नायिका प्रेम को स्वस्थ रूप से ही अपनाती और व्यक्त करती है परन्तु यह चरित्र भी समाज के लिए ग्राह्य या त्याज्य है? दोनों कहानियों में प्रेम के निभाव में ईमानदारी और छल के अलावा एक और भेद और वह है लैंगिक भेद। लड़के का छलपूर्ण बहुप्रेम भी समाज में कुछ हद तक यह कहकर स्वीकार्य है कि लड़के तो होते ही ऐसे हैं परन्तु लड़की का सच भी अस्वीकृत है। चारों लड़के नायिका को अलग-अलग स्थितियों में मिलते हैं और आगे चल कर जब प्रेम पल्लवित हुआ तब वह चारों के लिए समान रूप से ही हुआ।
कहानी में द्रौपदी का सन्दर्भ भी दिया है “द्रौपदी! वह भी तो पाँच पुरुषों की अर्द्धांगिनी थी। तब से अब तक कुछ सदियाँ ही तो बीती हैं। माना, पाँच पुरुषों का पति रूप में चुनाव उसका निर्णय नहीं था परन्तु तब भी पाँच पुरुषों का संग उसने किया।” इस कहानी में नायिका के चरित्र का सवाल यही है कि यदि यह निर्णय स्वयं द्रौपदी का होता तो क्या तब भी वह इतनी ही पूज्य होती? अखिल में तो साहस नहीं था कि अपने किए का सामना करे पर यहाँ नायिका भावुक है तो साहसी भी। वह चारों लड़कों से समान प्रेम करती है इसीलिए उन सबसे प्रेम का स्वीकार करना चाहा और वह भी बिना किसी से छुपाए।
नायिका भेदों में देखूँ तो यह नायिका कहीं फ़िट नहीं होती क्योंकि जहाँ नायकों के वर्गीकरण में उसकी प्रेमिकाओं की संख्या भी गणनीय पैमाना है वहाँ नायिकाओं के लिए यह पैमाना नहीं है।
मेरे लिए ‘प्रेम पथ ऐसो कठिन’ का यह चरित्र ऐसा है जैसा पद्माकर ने नायिका के लिए लिखा है –
“सोने में सुगंध न, सुगंध में सुन्यो री सोनो।
सोनो ओ सुगंध तोमे दोनों देखियतु है।”
ऐसे चरित्र वैचारिक स्तर पर प्रकट होते हैं अथवा अनुभवों का विचारों में परिष्कार कर के? ऐसे प्रश्न मुझसे पूछे जाते रहे हैं, ख़ासकर ‘प्रेम पथ ऐसो कठिन’ के सन्दर्भ में। बल्कि दबे स्वर में असहज करने वाली बातें भी कही गयीं किंतु क्या लेखक से ऐसे प्रश्न उचित हैं?
अनुभव आप किसे मानेंगे? स्वयं उस परिस्थिति से हो गुज़रने को अथवा देखे-सुने को भी? क्या भोगा हुआ यथार्थ ही क़िस्से-कहानियों में उतरता है? इसके अतिरिक्त लेखक के लिए क्या कोई स्पेस ही नहीं! और मान लीजिए किसी कहानी के सन्दर्भ में यह सत्य हो भी तो क्यों लेखक इस बात का स्पष्टीकरण दे!
किसी भी व्यक्ति के जीवन में कई प्रकोष्ठ होते हैं जिसके स्वामी/स्वामिनी अलग-अलग हो सकते हैं। प्रेम बहुआयामी और परतदार होता है। सबसे एक ही प्रकार का प्रेम संभव नहीं। इस प्रकार प्रेम में निष्ठा का निर्वाहन किस प्रकार होगा यह व्यक्ति को स्वयं देखना होगा। प्रेम के नियम सामान्य जीवन के नियमों से भिन्न होते हैं। प्रेम में व्यक्ति उदात्तता के चरम को भी छू सकता है, संकीर्णता के सिरे तक भी पहुँच सकता है। ‘प्रेम पथ ऐसो कठिन’ को स्त्रियों ने बहुत प्रेम दिया वहीं ‘परवर्ट’ को पुरुषों का समर्थन मिला। इस से आप अनुमान लगा सकते हैं कि समाज में प्रेम को लेकर क्या मत है।
आप अगर मेरा अनुभव मेरे सन्दर्भ में जानना चाहते हैं तो मैं अपने जीवन में एक समय पर एक से अधिक प्रेम को प्रश्रय नहीं दे सकती। मेरा प्रेम-पात्र एक ही व्यक्ति होगा। अब यह कहा जा सकता है कि मेरे लिखे में और जीवन में अन्तर क्यों? तो इसका उत्तर यह कि अपने लिखे हर शब्द का अनुसरण लेखक नहीं कर सकता। लेकिन घट रही घटनाओं को नैतिक-अनैतिक की दृष्टि से परे जाकर, उस पर अपनी दृष्टि की चिप्पी लगाये बग़ैर, किसी परिणाम तक पहुँचने का दबाव लिए बिना लेखक लिख सकता है/ लिखना चाहिए।

४. प्रश्न- आपने भोज के शृङ्गारप्रकाश की बात की। वहाँ नायक के भेद-उपभेद में प्रवृत्तिगत भेद में अनुकूल, दक्षिण, शठ और धृष्ठ की चर्चा है। जहाँ आपकी एक कहानी में, जैसा कि आपने कहा कि नायक धृष्ठ है और वहीं नायिका के सम्बन्ध में आपने कहा कि नायिकाओं के लिए भेद में ऐसा कोई पैमाना नहीं है जिसमें ‘प्रेम पथ ऐसो कठिन’ की नायिका को कहीं रखा जा सके। अगर नायक का अर्थ हम ‘प्रोटैगोनिस्ट’ में लें और नायिका का अर्थ ‘प्रोटैगोनिस्ट’ के प्रेम पात्र लें, तो आपको नहीं लगता कि आपकी कहानी की मुख्य चरित्र ‘दक्षिण’ प्रवृत्ति की है?

हम जानते हैं कि ‘दक्षिण प्रवृत्ति’ का आशय उनसे हैं जो एक साथ कई प्रेम सम्बन्धों में रहते हैं। इसका एक अच्छा उदाहरण देवानंद की फिल्म ‘तीन देवियाँ’ में देखने को मिलता है। जहाँ फिल्म में नायक को एक साथ कइयों में प्रेम में पड़े होने के कारण कोई कुछ नहीं कहता वहीं आपकी कहानी के अंत में नायिका को भद्दी गालियों का सामना करना पड़ता है। प्रश्न यह उठता है कि ऐसी प्रवृत्ति क्या चरित्र के स्वभाव में है या यह प्रवृत्तियाँ बदल भी सकती हैं? एक साथ बहुत से प्रेम का निबाह दोनों पक्षों से स्वीकार्य न हो, उस स्थिति में क्या होगा? आपकी एक अन्य कहानी ‘फिसलते फासलों की रेत-घड़ी’में जहाँ नायक अबीर नाम की प्राध्यापिका से प्रेम कर रहा है, वहीं अबीर उसे केवल मैत्री समझती हैं क्योंकि पहले प्रेम के उपरान्त अब उसका हृदय अप्रवेश्य है।

इसी सिलसिलें में आपका मत ऐसा प्रकट होता है कि चारित्रिक विशेषताएँ कुछ भी हों, लेकिन प्रेम में समानुभूति और समान अपेक्षाएँ अभीष्ट हैं, किन्तु इसके लिए चारित्रिक आकलन आवश्यक जान पड़ता है। आप प्रेम में पहली नज़र के प्यार का समर्थन करती नहीं नज़र आतीं, जैसा कि रोमियो-जूलियट में हुआ था। क्या आज का डिजिटल समय मक्कारियों का समय है कि प्रेम की मासूमियत और विश्वास दुर्लभ हो चुका है? आज के समय में प्रेमी युगल यदि अपेक्षाओं, अनुकूलताओं, चारित्रिक विशेषताओं का आकलन करने बैठें तो क्या इसे स्वत: स्फूर्त प्रेम की अपेक्षा सोची-समझी चाल क्यों न समझी जाए?

उत्तर: संस्कृत काव्य और काव्यशास्त्र तो अभिजन तक ही सीमित थे, बाहर के समाज की चर्चा उसमें कम है बल्कि कहीं-कहीं उनके लिए असम्मान की भावना भी दिखाई पड़ती है। तब समाज की अभिव्यक्ति की खोज उसमें कैसे की जाये। 1881 में ‘हिन्दी प्रदीप’ में बालकृष्ण भट्ट ने भी संस्कृत काव्यशास्त्र के बरअक्स नवीन साहित्य दृष्टि की आवश्यकता जताई थी। नायक भेदों से प्रेमिकाओं की संख्या की गणना का पैमाना उधार लेकर देखें तो ‘प्रेम पथ ऐसो कठिन’ की नायिका दक्षिण प्रवृत्ति में ही गिनी जाएगी पर मुझे लगता है कि यदि वर्गीकरण करने वाले नायिका से यह अपेक्षा करते तो उसके लिए भी प्रवृत्तिगत भेद में ऐसा पैमाना रखते। नायक में यह प्रवृत्ति उन्हें जितनी सहज स्वीकार है वही दृष्टि नायिका के प्रति नहीं है इसीलिए वहाँ वह पैमाना अनुपस्थित है। यूँ भी नायक-नायिका के पुरातन वर्गीकरण को आज के साहित्य में मानने न मानने से क्या अन्तर पड़ेगा। मेरे ख़याल में संवेदना पक्ष की बात आज अधिक महत्त्वपूर्ण है।
आपने पूछा है कि यह प्रवृत्ति चरित्र का स्वभाव है या उसमें बदलाव भी हो सकता है। मेरी कहानी, पात्र के जीवन की तय समय-सीमा की है। समय के साथ उसमें बदलाव हो भी सकता है और नहीं भी। आप जिस निर्धारणवादी ढंग से इसका जवाब चाहते हैं, वह नहीं दिया जा सकता। प्रेम के अनुभव सबके लिए अलग-अलग होते हैं और वे उसी अनुसार प्रेम भावना के लिए प्रतिक्रिया करते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि बहुप्रेम में प्रवृत्त प्रेमी/प्रेमिकाएँ जीवन में किसी ऐसे समर्पित व्यक्ति से मिलते हैं कि वे उसी एक के प्रति समर्पित हो जाते हैं, और ऐसा भी देखा है जब समर्पित व्यक्ति को पूर्ण समर्पण पर भी छल मिलता है तो वह भी कालान्तर में प्रेमियों के प्रति छली हो जाता है। आपने मेरी कहानी ‘फिसलते फ़ासलों की रेत घड़ी’ की अबीर का ज़िक्र किया। आप देख सकते हैं कि अपने प्रेमी के मर जाने के बाद भी वह नये प्रेम के लिए ख़ुद को प्रस्तुत नहीं पाती जबकि मैंने पहले सवाल के जवाब में प्यार में सामंजस्य बिठाने वाले प्रेमी भी बताए। एक और सन्दर्भ जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘स्कन्दगुप्त’ का देती हूँ। उक्त नाटक में देवसेना स्कन्दगुप्त से प्रेम करती है परन्तु स्कन्दगुप्त विजया से प्रेम करता है। देवसेना के प्रेम को ठुकराने के पश्चात् स्कन्दगुप्त विजया से ठुकराया जाता है। तदुपरान्त वह देवसेना के पास प्रेम की आशा में लौटता है परन्तु देवसेना उसका प्रेम निवेदन अस्वीकार कर देती है। आप देख सकते हैं कि अबीर अपने मित्र से प्रेम नहीं करती इसलिए उसका प्रेम अस्वीकार कर देती है लेकिन देवसेना को तो स्कन्दगुप्त से प्रेम था तथा उसकी अनुपस्थिति में किसी और का प्रवेश भी उसके जीवन में नहीं हुआ था। तब तो स्कन्दगुप्त के लौटने पर देवसेना को सहर्ष तैयार हो जाना चाहिए था, वह तो वही था जिससे वह प्रेम करती थी पर वह ऐसा नहीं कर पाती।
प्रवृत्ति के लिए कई बार बाह्य कारक भी ज़िम्मेदार पाये जाते हैं, जैसे आजकल ‘पीअर प्रेशर’, ‘सोशल मीडिया’ और फ़िल्में। कुछ बहुप्रेम को स्टेटस भी बना लेते हैं और ख़ुद को सयत्न इस ओर धकेलते हैं। मनुष्य एक जीव के तौर पर मोनोगमस भी हो सकता है और पोलिगमस भी। सभ्यता और सामाजिक नियमों से वह मोनोगमस बनता है या नहीं यह उसकी स्वभावगत विशेषता है। दोनों ओर से बहुप्रेम स्वीकार्य न हो तो संबंध विच्छेद ही होगा।
जहाँ तक पहली नज़र के प्रेम की बात है वहाँ हमने साहित्य में पद्मावती के प्रति रतनसेन का प्रेम भी देखा है जो उसे पद्मावती के रूप-सौंदर्य के बारे में केवल सुन कर ही हो गया था। कृष्ण तो रुक्मिणी के पत्र पढ़ कर ही उसका हरण कर लाये थे। पहली नज़र के प्रेम का मेरी कहानियों के पात्र समर्थन करते हैं, ‘पियरा गई बेला स्वंजन’ की में नायक-नायिका पहली नज़र में ही प्रेम में पड़ जाते हैं। प्रेमी को लेकर पहले से भी तो एक फ़्रेम लोगों के मन में रहता है जिसका मिलान होते ही आकर्षण की लहर मन में दौड़ती है पर प्रेम पनपने में समय लगता है। बहुत जल्दी के प्रेम को आज अधिकतर युवा ‘इनफ़ैचुएशन’ (infatuation) कह कर पुकारते हैं। वे प्रेम को पकने का समय देते हैं। मेरे ख़याल यह अधिक ईमानदारी है। मक्कारियों से इन्कार नहीं है, वे कब नहीं थीं? भर्तृहरि को चिर यौवन के लिए अभिमंत्रित आम मिला जिसे वो अपनी रानी को दे देता है, रानी उसे अपने प्रेमी को, वह प्रेमी अपनी प्रेमिका को और इस तरह घूमते-घुमाते वह आम अगली सुबह फिर राजा भर्तृहरि तक आ पहुँचता है। तो मक्कारियाँ तो तब भी थीं। कोई कहे कि पहले कोई बुराई नहीं थी तब अच्छे कर्म करने के, यह नहीं करो अथवा वह करो आदि उपदेश क्यों दिए जाते थे। जिसका अस्तित्व रहा होगा उसी के प्रति तो सचेत किया जाएगा न? अनस्तित्व के विरूद्ध कौन चेताएगा।
निष्कर्षतः प्रेम की मासूमियत और विश्वास न तब दुर्लभ था और न आज डिजिटल युग में दुर्लभ है। हाँ संपर्क साधन बढ़ गये हैं इसलिए ज़्यादा लोगों से बातचीत होती है परंतु हर बातचीत प्यार तक तो नहीं पहुँच जाती न। स्वतः स्फूर्त प्रेम भी आगे चल कर टूट जाते हैं और सोच-समझ कर परख कर किए गये संबंध भी जीवनपर्यंत चलते हैं। प्रेम की अवधि प्रेम के पहले ही चरण से सुनिश्चित नहीं की जा सकती। धीरे-धीरे ही किसी रिश्ते में परिपक्वता आती है। अपेक्षाओं, अनुकूलताओं, चारित्रिक विशेषताओं का आकलन यदि सोची-समझी चाल मानी जाये तब यह आकलन स्वतः स्फूर्त प्रेम में भी होता है बस इसका आरम्भ प्रेम की उद्घोषणा के बाद होता है। इसके अतिरिक्त ऐसे प्रेमी जिनके पूर्व प्रेम अनुभव कसैले रहे हों वे स्वतः स्फूर्त प्रेम में पड़ने पर भी आकलन करने के लिए विवश होते हैं। जिनके लिए प्रेम सहज है उनके लिए “अति सूधो सनेह को मारग है” और जिनके लिए नहीं है उनके लिए “एक आग का दरिया है।”

५. प्रश्न- आप हिन्दी के साथ-साथ उर्दू, मारवाड़ी, बाङ्गला और अंग्रेजी पर भी पकड़ रखती हैं। आपकी दृष्टि से हिन्दी से इतर इन भाषाओं में किन महत्त्वपूर्ण कृतियों को आप पर प्रभाव पड़ा? किन लेखकों को आप प्रशंसनीय दृष्टि से देखती हैं।


उत्तर: कहानी की भाषा कहानी के निजी संसार को रचने में महत्व रखती है और पाठक से एक विशिष्ट संवाद प्रक्रिया स्थापित करती है। मेरी कहानियों की भाषा किरदारों और भावों के अनुसार होती है इसलिए एक कहानी में वह दूसरी से अलग है। धीर-गंभीर विषय और उद्देश्य वाली कहानी की माँग उसी के अनुरूप भाषा की होती है। मैं उसे सयत्न नहीं रखती बल्कि लिखते वक्त मूड उसी में ढल जाता है और भाषा अयत्नज हो जाती है। बिना उस मूड के हम या तो बात की सतह पर ही भटकते रहेंगे या फिर शब्दकोश और अर्थव्युत्पत्ति के भँवर में उलझ जायेंगे। डायरी में भी आप देखेंगे तो पाएँगे अलग-अलग दिनों की प्रविष्टि में भाषा का अंतर है। बल्कि अलग-अलग स्थानों पर यह अंतर और भी उभर आता है।
साहित्यिक प्रक्रिया के तीनों पक्षों लेखक, रचना और पाठक के बीच भाषा ही सेतु है अतः भाषा पात्र व परिस्थिति अनुकूल होनी चाहिए। लोग कहते हैं जहाँ अतिरिक्त नज़ाकत दिखानी हो वहाँ उर्दू ही मुफ़ीद होती है पर आप देखें ‘पियरा गयी बेला स्वंजन की’ और ‘भय मुक्ति भिनसार’ में वही काम तत्सम और देशज शब्दावली ने कर दिखाया है।
मारवाड़ी और बांग्ला भाषा मुझे आती नहीं है (हाँ, मारवाड़ी समझ अवश्य लेती हूँ)। कहानी में ये भाषायें पात्रों और स्थानिकता की प्रमाणिकता व उसकी गमक के लिए ज़रूरी थीं इसलिए इन भाषाओं के जानकार व्यक्तियों से सहायता लेकर पात्रों के हिन्दी संवादों का उल्था किया गया।
हिन्दी में भीष्म साहनी, मोहन राकेश, मन्नू भण्डारी, अज्ञेय आदि और हिन्दी के अतिरिक्त शरतचन्द्र, इस्मत चुगताई, मारख़ेज आदि की रचनाओं को मैं बहुत पसन्द करती हूँ।

६. प्रश्न- आपकी कहानियों में ‘स्पर्श’ प्रमुखता से आता है। ध्वनि के लिए आप वाद्य यंत्रों के नाम का सहारा लेती हैं जैसे कि ‘अलगोजा’, ‘क्लेरीनेट’ आदि, वहीं रूप के लिए मनुष्य देह आपके लिए प्रमुखता से आता है। नाट्य और काव्य जहाँ प्रमुखता से ‘दृश्य’ और ‘श्रव्य’ के समायोजन को लाते हैं वहीं आप ‘स्पर्श’ पर ध्यान देती हैं। ‘स्पर्श’, ‘गंध’ और ‘स्वाद’ और कई चीजें जैसे कि ‘भूख’ उस तरह से सर्वग्राह्य नहीं होती जिस तरह से ‘दृश्य’ और ‘श्रव्य’ चीजें। क्या आपको लगता है कि हर तरह के सम्बन्धों में ‘स्पर्श’ को प्रमुखता देनी चाहिए? हम यह जानते हैं कि प्रेमिल सम्बन्धों में ‘स्पर्श’ करना एक जोखिम उठाने जैसा है कि क्योंकि कई बार हमें पता नहीं यह हमारे अधिकारों का अतिक्रमण होगा या वह स्पर्श स्वीकार्य होगा। क्या ‘स्पर्श’ इस मंथन का समाधान है?

उत्तर: नाट्य दृश्य विधा है इसलिए वहाँ तो दृश्य-श्रव्य समायोजन पर बल होता ही है। प्रेक्षक समक्ष सब कार्य व्यापार चाक्षुष और श्रवण रूप में मंच पर होते हैं इसलिए नाटक के लिखित रूप में अन्य इंद्रियों का स्थान अपेक्षाकृत कम है। भारतीय काव्यशास्त्र में भी बिम्ब का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। हाँ, बिम्ब विषयक संकेत ज़रूर मिल सकते हैं जैसे दृष्टांत अलंकार में परन्तु अलंकार और बिम्ब एक नहीं हैं। बिम्ब की समीपवर्ती दृष्टि ज़रूर ढूँढ़ी जा सकती है पर बिम्ब की स्पष्ट चर्चा पाश्चात्य काव्यशास्त्र में ही मिलती है। बिम्ब में दृश्य और श्रव्य के साथ घ्राण, स्पर्श, स्वाद भी सम्मिलित होते हैं। साहित्य में इसके सबसे बड़े समर्थक में आधुनिक कविता के अमेरिकन कवि और आलोचक एज़रा पाउण्ड (Ezra Pound) का नाम दिखता है। स्कॉटिश मनोवैज्ञानिक जेम्स ड्रेवर (James Drever) ने मनोविज्ञान में ऐंद्रिय अनुभव के पुनर्जागरण को बिम्ब कहा है। बिम्ब भाषा और उसके प्रभाव की कड़ी के रूप में काम करता है और यही काम्य है। रणक्षेत्र में खड़े कृष्ण के लिए मुरलीधर की बजाय चक्रधारी का बिम्ब ही वीर रस के परिपाक के लिए उपयुक्त होगा।
मेरी कहानियों में रागात्मक स्थितियों में आपने स्पर्श आदि को रेखांकित किया है जो कि पात्रों और दृश्य की सघनता के लिए स्वाभाविक है। जैसे ‘प्यार की कीमिया’, ‘पियरा गयी बेला स्वंजन की’ में आए दृश्य। जैसे-जैसे उत्तरोत्तर मनोव्यापारों की ज़रूरत होने लगती है वैसे-वैसे ही अंगांगी भाव, भाव की एकता का अभिप्राय इनसे प्रकट होता है। पाठक के लिए ये पूर्वगामी अनुभूति का पुनरुत्पादन होते हैं जैसे अपने किसी प्रिय की याद आते ही दृश्य बिम्ब के रूप में उसकी छवि, श्रवण बिम्ब के रूप में उसकी आवाज़ आदि तुरन्त मन में जागृत हो जाते हैं। इसी प्रकार विविध वस्तुओं एवं पूर्व अनुभव के आधार पर परिचित गंध, स्वाद, स्पर्श आदि भी जागृत हो जाते हैं। पन्त ने ऐसी ही भाषा की आवश्यकता बताते हुए कहा है कि “शब्द बोलते हों, सेब की तरह, जिनके रस की मधुर लालिमा भीतर न समा सकने के कारण बाहर छलक पड़े, जिनका प्रत्येक चरण प्रियंगु की डाल की तरह अपने ही सौंदर्य के स्पर्श से रोमांचित रहे।”
दृश्य श्रव्य की सर्वग्राह्यता इसलिए लगती है क्योंकि अन्य बिम्बों की तुलना में इनका आधिक्य रहता है और अन्य बिम्बों में भी न्यूनाधिक दृश्यता विद्यमान रहती है परंतु हमें यह याद रखना चाहिए कि बिम्ब का अनिवार्य गुण दृश्यता नहीं बल्कि गोचरता होती है। ऐन्द्रियता की मात्रा घट-बढ़ हो सकती है। अस्पष्ट, धुँधले या मिश्र ऐन्द्रिय बोध भी हो सकते हैं पर वे हमारी अनुभूतियों को छूते अवश्य हैं। शेक्सपियर की व्याख्याता स्पर्जियन (Caroline Spurgeon) ने भाव सम्प्रेषण को बिम्ब का प्रमुख कार्य माना है।
हर तरह के सम्बन्धों में स्पर्श को प्रमुखता देनी चाहिए या नहीं यह तो सम्बन्ध की प्रकृति पर निर्भर करता है। पारिवारिक सम्बन्धों में तो यह नैसर्गिक ही है। भाषा तो सब कह नहीं पाती, जहाँ शब्द चुक जाते हैं वहीं से स्पर्श की शुरुआत होती है। परिस्थिति अनुसार जो सांत्वना, प्रसन्नता आदि हम स्पर्श से सम्प्रेषित कर पाते हैं, भाषा उसमें समर्थ नहीं। जहाँ तक प्रेमिल सम्बन्धों की बात है वहाँ दोनों पक्षों के आपसी कंफर्ट से ही तय होगा कि स्पर्श अतिक्रमण में गणनीय है अथवा नहीं। यूँ जब दोनों ओर प्रेम होता है तो वह महसूस हो जाता है, स्पर्श के लिए कोई लिखित अनुमति पत्र तो लिया-दिया नहीं जाता। ज्यों-ज्यों वह रिश्ता आगे बढ़ता होता है त्यों-त्यों ही आपसी कम्फ़र्ट भी। दूरस्थ सम्बन्धों में भी एक-दूसरे से जुड़ी वस्तुओं या उपहारों को गले लगाते, चूमते पाया जाता है। बीमारी में तो हम प्रिय व्यक्ति के स्पर्श को औषधि मानते हैं।

७. प्रश्न- आपका दूसरा कहानी संग्रह ‘सगबग मन’ प्रेम सम्बन्धों से आगे बढ़ कर व्यक्तिगत समस्या और सामाजिक स्थितियों पर भी उतरता है। आपकी कहानी ‘महानगर की एक रात’ उन कहानियों की तर्ज पर है जिस पर वस्तुत: घटनात्मक सत्य क्या रहा होगा, पर प्रश्न चिह्न लगा रहता है। कहानी में अनन्या रात में एक टैक्सी से अकेली डरी-सहमी घर जा रही होती और दुर्घटना के बाद उसकी आँख हस्पताल में खुलती है। उसे पता चलता है कि टैक्सी ड्राइवर ने ही उसे हस्पताल पहुँचाया था। उसे शंका होती है कि कहीं संदिग्ध ड्राइवर ने बेहोशी में उसका शील-भङ्ग किया है या नहीं। एक अनिर्णीत तथ्य की सत्यानुसंधान में जब कोई अपना सुख-चैन खो दे, उससे बेहतर क्या यह नहीं कि उसे भूल कर हम आगे बढ़ जाएँ। इसी बात को हम अगर सामाजिक स्तर पर ले चलें, तो कई बात यह हमारे लिए सम्भव ही नहीं रहता कि जो समाचार पत्र में या मीडिया में दिखाया-बताया जा रहा है, पक्ष-प्रतिपक्ष की जो लड़ाई हो रही है उसका सही-सही आकलन करें। जहाँ आपकी कहानी में सत्य की खोज अपने ऊपर अन्याय की जाँच-पड़ताल को ले कर है, वहीं मीडिया में सच की खोज नागरिक के रूप में सभी नागरिकों के अन्याय के विरोध में होती है। क्या आपकी कहानी की तरह हमें घटनात्मक सत्य की तह तक जाना चाहिए या सच की खोज छोड़ कर शान्ति की तलाश करनी चाहिए?

उत्तर: अनन्या सत्यानुसंधान किस तथ्य का कर रही है, अचेत अवस्था में अपने साथ हुए यौनाचार का। जिस दुर्व्यवहार का उसे संदेह है कि उसकी मूर्च्छित अवस्था में उसके साथ हुआ है क्या उसे भूल कर आगे बढ़ जाना सरल है? यदि यह उसके साथ हुआ है, और उसके अजाने हुआ है मतलब उसकी मर्ज़ी के विरुद्ध हुआ है तब वह कैसे इसे भूल कर सुख चैन से जी सकती है? लोग होश में भी अपने साथ हुए दुर्व्यवहार को नहीं भूल पाते और यहाँ तो अनन्या का संदेह अपने साथ हुई ज़बरदस्ती का है वह भी ऐसी स्थिति में जब वह विरोध करने तक की अवस्था में नहीं थी।
आचार्य शुक्ल ‘भाव और मनोविकार’ में कहते हैं “ यदि शरीर में कहीं सुई चुभने की पीड़ा हो तो केवल सामान्य दु:ख होगा, पर यदि साथ ही यह ज्ञात हो जाये कि सुई चुभानेवाला कोई व्यक्ति है तो उस दु:ख की भावना कई मानसिक और शारीरिक वृत्तियों के साथ संश्लिष्ट होकर उस मनोविकार की योजना करेगी जिसे क्रोध कहते हैं।” जब इतने-भर के लिए क्रोध पनप जा रहा है तब अनन्या पर क्या बीत रही होगी, सोचिए। जब हम समाचार में भी किसी के प्रति दुर्व्यवहार की ख़बर सुनते हैं तब हमारा सुख-चैन कुछ समय के लिए ही सही, छिन जाता है। हम सब उस पर बहस करते हुए अनाचारी को कोसने लगते हैं, उसके लिए कड़े दण्ड की माँग करने लगते हैं। तब जिस पर यह हो गुज़री वह क्यों सत्य की तह तक न जाये। उसके पास संदेह करने के लिए अपने कई तर्क, कई सबूत मौजूद हैं। अपनी देह पर तो उसका अधिकार होगा न? या कोई भी उसके इच्छा के विरुद्ध उसका उपभोग कर सकता है?
मीडिया की दिलचस्पी तो किसी घटना में तभी तक रहती है जब तक कोई नयी सनसनीखेज ख़बर उसे न मिल जाये और फिर वह उस ओर हो लेती है। ऐसे में लड़की पर हुए अनाचार की फिक्र फिर उसे कहाँ रहती है। पर क्या वह लड़की भी चुप बैठ जाये या लड़ती रहे अपने लिए न्याय की लड़ाई। शायद इसमें कोई यह तर्क दे सकता है कि अनन्या किया हुआ अपराध पता लगा भी लेगी तो क्या वह अनकिया हो जाएगा। नहीं होगा, पर तब तो हर अपराध के लिए यही तर्कणा देकर सबको सब भूल-भाल कर सुख चैन से जीना शुरू कर देना चाहिए। अपराध के साक्ष्य मौजूद न हों तो भी वह केवल साबित नहीं किया जा सकता पर नायिका को तो संदेह है कि अपराध हुआ है।
सत्यानुसंधान लेखक का कर्तव्य है पर समस्या को चिह्नित कर उसे इंगित कर पाठक की चेतना को व्यापक बनाना और उसकी संवेदना को परिष्कृत करना भी तो उसी का काम है। जर्मन दार्शनिक अडोर्नो (Adorno) रचना की समग्रता में सत्य की तलाश देखते हैं।
कहानी का अंत मैंने खुला रखा क्योंकि कोई निर्णय कहानी का उद्देश्य है ही नहीं। कहानी का उद्देश्य है कैसे एक महानगर में भी लड़की स्वयं को सुरक्षित महसूस नहीं कर पाती। क्यों समाज और शासन सैंकड़ों दावों के बावजूद ऐसे हालात पैदा नहीं कर पाया कि एक लड़की बाहर निकले तो लोगों पर भरोसा कर सके। आपको हाल ही की एक घटना बताती हूँ। यहाँ एक (जहाँ मेरे बच्चे भी पढ़ते हैं) विद्यालय में लड़कियों से प्रश्न पूछा गया कि अगर उन्हें आदमी अथवा भालू में से किसी एक के साथ रहना चुनना पड़े तो वे किसे चुनेंगी। हैरानी (?)की बात है कि सभी लड़कियों ने भालू के साथ रहना चुना। कारण पूछने पर सभी ने समवेत स्वर में उसी भय का ज़िक्र किया जो लगभग सभी स्त्रियों के अवचेतन में बना रहता है। बैंकॉक जैसे अपेक्षाकृत सुरक्षित शहर में रहते हुए, बारह-पंद्रह वर्ष की कच्ची उम्र की लड़कियाँ भी अगर ऐसे भय में जी रही हैं तो बताएँ किसकी गलती है!
क्योंकर शहर में बाहर निकलते हुए कहानी की नायिका को समय देखना पड़ता है, किसी के संग पर आश्रित रहना पड़ता है, क्यों पार्टी में आए कथित सभ्य सहकर्मियों से भी लिफ्ट माँगते वह हिचकती है कि कहीं यह भी उसका आमंत्रण न समझ लिया जाए, क्यों सामान्य बातों को भी वह सशंकित हो देखती है। पाठक अनन्या की मानसिक स्थिति से न केवल पूरी कथा में गुज़रें, वरन् अन्त में भी वे अनन्या की ओर से सोचें और मुख्य समस्या को पहचानें, यही मैं चाहती थी। कहानी का ज़ोर अन्त में कौन सही निकला कौन ग़लत, पर है ही नहीं। उसका उद्देश्य है समस्या को प्रस्तुत करना। कहानी के अनिर्णीत अन्त से पहले जो समस्या है, विचार उस पर अपेक्षित है। अन्त में दिया गया निर्णय कथा में एक स्थूल घटनात्मकता ही पैदा करता और पाठक का ध्यान कहानी की समस्या से हटा देता। वह अपने अनुमानों के ठीक या ग़लत निकलने पर ही केन्द्रित हो जाता और फिर शासन, कानून आदि को कोस कर वह कथा से बाहर निकल जाता। जबकि अब वह चिंतनशील हो फिर से कहानी में अनन्या के शंकाकुल मन के लिए उत्तरदायी संकेतों, कारकों पर नज़र दौड़ाएगा। जर्मन समाजशास्त्री लॉवेंथल (Leo Lowenthal) के अनुसार “साहित्य से पाठक को जो जीवनानुभव मिलते हैं वे वैयक्तिक के साथ-साथ सामाजिक भी होने चाहियें।”

८. प्रश्न- आपकी कहानी ‘मग़रिबी अँधेरे’ यूँ तो देखने में हॉरर कहानी लगती है, किन्तु हर हॉरर कहानी किसी न किसी लौकिक बुराई की ओर इशारा करती है। क्या किसी फ़िल्म या चर्चित कहानी को आप इस कहानी के प्रेरणास्रोत के रूप में याद करती हैं? यद्यपि ‘एडगर एलन पो’ को नास्तिक माना जाता है, पर उनकी कहानियों में बाइबिल की प्रभाव साफ नज़र आता है।
आप कहानी इस अर्थ में महत्त्वपूर्ण लगती है कि वह कुछ प्रत्ययवादी दार्शनिक प्रस्तावनाओं की तरह सजीव और निर्जीव वस्तुओं के साथ-साथ मृत प्राणियों की संवेदनाओं की बात करती है। क्या इसे कथा के लिए महज संयोग समझें या आप किसी दर्शन/संप्रदाय से जुड़े मत की तरफ इसका आधार देखती हैं?

उत्तर: साहित्य प्रथमतः आत्माभिव्यक्ति है पर अनिवार्यतः दूसरे के लिए सम्प्रेषण भी। अब पाठक उस आत्माभिव्यक्ति को अपने अर्थों में कैसे देखता है यह उस पर है। ‘मग़रिबी अँधेरे’ कहानी के लिए पाठकों का अपना-अपना मत है, ज़्यादातर पाठकों ने इसे फ़ैंटेसी कहानी कहा। यह हॉरर कहानी नहीं है, वरन जादू और यथार्थ का मेल है। कुछ विचारक शुद्ध फैंटेसी को यथार्थ विरोधी बताते हैं पर यह शुद्ध फैंटेसी नहीं। जहाँ भ्रम यथार्थ बन जाए और यथार्थ भ्रामक हो ऐसा कुछ संसार इस कहानी में रचना था, इसलिए भूलभुलैया के रूपक और बिम्ब काम में लिए। परी कथाओं के संसार भी जादुई यथार्थवाद के लक्षणों में आते हैं, मार्ख़ेस (Marquez) ने भी इसका प्रेरणा स्रोत बचपन में सुनी दादी-नानी की कहानियों को बताया है।
इस कहानी की प्रेरणा मानव मन की सामान्य जिज्ञासा है जो बचपन से हमारे संग चलती है कि मृत्यु के बाद भी कोई दुनिया है या जो है बस यही है। पहली बार जब कोई मृत्यु हम अपने आस-पास देखते हैं तो सवालों का एक प्लावन हमारे मन में आता है, फिर बड़े-बुज़ुर्गों से मृत्यु के बाद की बातें जो हमें पता चलती हैं वे उत्तरोत्तर एक अनुमान ही लगती हैं क्योंकि जो मरता है वही जानता है कि उसके बाद क्या होता है, जीवित व्यक्ति तो कैसे जानेगा।
मृत्यु जीवन का अवश्यंभावी परन्तु अबूझ छोर है। जीवन के परली पार का एक आकर्षण भी है और उसका डर भी। डर कि हम जो शरीर हैं वे नहीं रहेंगे और अपनों से अलग होना होगा। कालांतर में मृत्यु की अडिगता जान “कभी तो मरना ही है” की स्वीकृति आ जाती है परन्तु उसमें भी एक तसल्ली हमने पैदा कर ली है कि आत्मा अमर है। अर्थात् हम किसी न किसी रूप में यहाँ अवश्य होंगे लेकिन डर तब भी बना रहता है। वह भय है पीड़ादायी मृत्यु का। कोई भी पीड़ायुक्त मृत्यु नहीं चाहता। अपने किसी परिचित को मैंने इस प्रकार की पीड़ा में देखा, उनके अपने पछतावे भी थे जो उन्हें और भयभीत रखते थे। अंतिम क्षणों में वे मृत्यु को अत्यंत सहज रूप में चाहते थे। फ़्रायड ने भी मनोविज्ञान में ‘डेथ ड्राइव’ का ज़िक्र किया है। जब कहानी मानव जीवन के सभी पहलुओं के अध्ययन का विषय है तब मृत्यु भी उन्हीं में से एक है। आप स्वयं रचनाकार हैं, जानते हैं कि रचनात्मक मन एक बुझते हुए कोयले जैसा होता है। रोज़मर्रा की ज़िंदगी जीते हुए कब अचानक हवा का एक झोंका उस बुझते कोयले को सुलगा जाये, उस क्षण पर उँगली नहीं रख सकते। एक मद्धिम आलोक-सा लिए वह क्षण ही रचना की प्रेरणा बन जाता है और फिर वह विशिष्ट अनुभव व्यक्त होने के लिए लिखने पर विवश कर देता है जिसमें वर्तमान का अवगाहन ‘प्रत्यक्ष’ करता है, अतीत का ‘स्मृति’ तो अनागत का ‘कल्पना’।
कहानी में परिस्थितियों के वशीभूत होकर भी तथा जीवन के महत्त्व को प्रतिपादित करने के लिए भी मृत्यु मेरी कहानियों में आती है। जैसे ‘महानिर्वाण’, ‘काकदंत’, ‘मग़रिबी अँधेरे’। जादुई यथार्थवाद के जनक कार्पेंतियर (Alejo Carpentier) ने कहा था कि “हमारे पुराने विश्वास, रीति-रिवाज़ और प्रथायें, इनकी सहायता से ज़िंदगी की ठोस समस्याओं को समझना आसान होता है।” इन कहानियों में उन संदर्भों का भी इस्तेमाल है।
‘मग़रिबी अँधेरे’ में नताशा जब फ़ैसला लेती है तब उस पार की दुनिया के सौंदर्य से उद्भूत न तो वह जड़ता की स्थिति में है और न स्तब्धता की। न उग्रता की, न क्रोध की। तत्क्षण वह उस स्थिति में है जब उसे अपने निर्णय की सर्वाधिक संगति रुपायित होती लगती है। बस एक क़दम, और सहज मृत्यु या दूसरी दुनिया में प्रवेश। हम मृत्यु को अन्त मानते हैं पर यह हमारी दृष्टि की सीमा भी तो हो सकती है जो आदि-अन्त देखते हैं। यह आवश्यक तो नहीं कि जन्म आदि और मृत्यु अन्त हो। कोई मृत्यु को जीवन का अँधेरा पक्ष कहे तो जीवन तो उसी अँधकार से आता है। चाहे माँ के गर्भ में हो या मिट्टी के नीचे दबे बीज में, सब जगह। हम भी रोज़ आँखों को बन्द कर नींद के अँधेरे में अगले दिन की जीवन शक्ति अर्जित करते हैं। विराट से विराट वृक्ष की जड़ें भी अँधकार में अतल से अपने लिए जीवन खींच लाती हैं। यूँ भी प्रकाश का तो कोई न कोई स्रोत होता है जिसका अन्त भी होगा जबकि ब्रह्मांड में अँधेरे का कोई स्रोत नहीं, बस उसका अस्तित्त्व है।
हम सजीव दरअसल स्वयं अपनी सम्वेदनाओं को वस्तुओं पर, मृतकों पर आरोपित कर देते हैं। बचपन में किताब से पैर छू जाने पर हम उसे माथे से लगा क्षमा ही माँगते थे। हमारे लिए सृष्टि का सृष्टित्व पदार्थ से अधिक उसकी चेतना है। चाँद पर की गयीं मानव सहित-मानव रहित यात्रायें भी हमारे द्वारा चाँद में आरोपित चेतनत्व में कोई बदलाव नहीं कर पाईं। और इसके लिए धर्म युक्त संस्कारों और रीतियों से इन्कार नहीं। दिवंगत आत्माओं का स्मरण करने के लिए हर धर्म में प्रकारान्तर से अपनी पद्धतियाँ हैं जिसके द्वारा उनसे सजीव-सा व्यवहार ही किया जाता है, उनकी सम्वेदनाओं का ख़याल रखते हुए।
यहाँ बैंकॉक में भी मैंने ऐसा देखा है। मृत्यु हमसे हमारे प्रिय को तो छीन लेती है पर उसके प्रति हमारे भावों को नहीं मिटा पाती इसलिए मैं किसी एक धर्म या संप्रदाय विशेष की बजाय इसे मानवीय भावों की अभिव्यक्ति मानती हूँ। किसी दर्शन या संप्रदाय से न जुड़े होने पर भी प्रेमवश लोगों को यह करते पाया है, ढंग चाहे कोई भी हो।

९. प्रश्न- आपकी कहानियों में वर्णित देश में बहुत विविधता देखने को मिलती है। ‘प्यार की कीमिया’ लास वेगास में, ‘यार-ए-ग़ार’ अफगानिस्तान में, ‘यूँ तो प्रेमी पचहत्तर हमारे’ थाइलैण्ड में, ‘भय मुक्ति भिनसार’ पश्चिम बङ्गाल में, ‘काचर’ राजस्थान में स्थित है। शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय उन सभी कहानियों को नहीं लिखने को कहते जो स्वानुभूति से न गुजरी हो। बतौर पाठक हम यह भी चाहेंगे कि आपकी कहानियों के स्थानों में उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल और कर्णाटक भी आए। जिज्ञासा मात्र इतनी है कि यह कहानियाँ सायास है या अनायास?

उत्तर: व्यस्त जीवन में कुछ जगहें देखने-घूमने का मौका मुझे मिला और लेखक के लिए यह दोहरा आनंद होता है क्योंकि उसके अनुभव में लेखक के तौर पर भी कुछ न कुछ संचित होता रहता है। यूँ सुंदरतम स्थानों पर जाकर भी कई बार मन तथा आँखों को रचनात्मक सोबता नहीं मिलता और कई बार रोज़मर्रा की बातों ही से कहानी अँखुआ जाती है। यक़ीनन नये स्थानों पर पहुँच अवलोकन दृष्टि अधिक सक्रिय हो उठती है। कोई नया भाव, कोई दृश्य, कोई चरित्र यादों में जमा हो जाता है और बाद में कभी नुमायाँ होता है। और कोई दिन इतना लस्टम-पस्टम होता है कि किसी जगह पहुँच कर भी कुछ नहीं सूझता। कभी ख़ुद से बात करते-करते ही कोई विचार आ ठहरता है और लगता है कि मेरा यहाँ पहुँचना अकस्मात नहीं था।
जिन कहानियों का ज़िक्र आपने किया उनमें अफ़गानिस्तान छोड़ बाक़ी स्थान मेरे देखे हुए हैं। राजस्थान और थाईलैंड तो मेरे निवास स्थान ही हैं। ‘काचर’ में राजस्थान की जगह भारत के किसी और राज्य का गाँव होता तो भी कहानी बनती, काचर की जगह कोई और सब्ज़ी होती पर निस्संदेह स्थान की परिचितता बहुत सहायक होती है। जब कहानी में स्थान एक चरित्र की तरह आता है तब उसका स्थानापन्न नहीं हो सकता जैसे ‘यार ए ग़ार’ में अफ़गानिस्तान। हलाँकि मैं कभी वहाँ गयी नहीं, इसके विषय में मैंने अपनी डायरी ‘दराज़ों में बन्द ज़िन्दगी’ में ज़िक्र किया है कि कैसे वहाँ के एक स्थानीय व्यक्ति ने अपने देश को याद करते हुए सविस्तार अपनी पसन्दीदा वस्तुओं और जगहों का वर्णन किया। मेरी कहानियों में स्थान यदि चारित्रिक विशेषताओं के साथ आता है तो वह सायास होता है परंतु पहले उसे मेरी संवेदना से गुज़रना होता है। और जहाँ स्थान केवल स्थान की तरह आता है वहाँ स्थान की विविधता अनायास है।
शरतचंद्र ने ठीक ही कहा है पर उनका तात्पर्य स्वानुभूति यानी संवेदना से है। जैसा मैंने ऊपर भी कहा कि वह ख़ुद ही के जीवन में हो गुज़री हो ऐसी शर्त लेखक पर कैसे लागू होगी। लेखक एक दर्शक भी तो है, वह लिखते हुए केवल अपने अनुभवों की ही बात नहीं करता। वह अन्य व्यक्तियों, उनसे सम्बद्ध रोचक या आकर्षक घटनाओं को भी पूर्ण आत्मीयता के साथ सहेजता है और संवेदना के सूक्ष्म स्तरों पर परानुभूतियों को भी अपनी संवेदनाओं और कल्पनाओं से रंजित कर अभिव्यक्ति देता है। केवल स्वानुभव यानी केवल प्रत्यक्ष पर ही लेखक निर्भर करेगा तब वह लेखकीय यात्रा में एक स्थान पर जा कर रुक जाएगा या दोहराव का शिकार हो जाएगा। यहाँ तक कि प्रत्यक्ष में भी वह जस का तस नहीं लिख देता। ब्रिटिश लेखक वर्नन ली (Vernon Lee) एक उदाहरण देते हुए कहते हैं कि यदि हम लिखें कि “पहाड़ ऊपर उठ रहा है” तो दरअसल हम उस दृश्य वस्तु के ऊपर यह विचार स्थानांतरित कर देते हैं। वह उठ नहीं रहा होता हम उठान अनुभव करते हैं जो पहाड़ पर संप्रेषित कर दी जाती है। यह एक संश्लिष्ट मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा हम जड़ पर्वत को अपनी क्रियाशीलता के गुणों से युक्त कर देते हैं। सौंदर्यबोध के उल्लास और प्रकृति से प्रेरित होकर अपनी साहित्यिक मनोवृत्ति के आधार पर वह उसे वर्णित करता है।

१०. प्रश्न- आपकी पुस्तक ‘सगबग मन’ के लिए आपको शशिभूषण द्विवेदी स्मृति सम्मान मिल रहा है। इसके लिए आपको बधाई। इस कथा संग्रह में ‘वर्जिन गिफ्ट’ कहानी एक सामान्य आदमी के बारे में है जो सामान्य सुख-सुविधा से वञ्चित है, धन के आने पर उन सुविधाओं को प्रेम-सम्बन्ध से अधिक महत्त्व देता है। प्रेम के उपालम्भ की पृष्ठभूमि में ‘भय मुक्ति भिनसार’ किशोरी युवती के साधारण भय पर विजय के बारे में है। कथा संग्रह में कोई भी कहानी ‘सगबग मन’ नाम से नहीं है। इस शीर्षक से आप कहानियों की विविधता को कैसे एक सूत्र में बाँधती हैं? क्या शीर्षक की सार्थकता कहानियों की परिणति में किसी तरह की मुक्ति में देखती हैं – जैसे कि ‘काचर’ कहानी में बीजों का रोपना, ‘यूँ तो प्रेमी पचहत्तर हमारे में’ कहानी में दैहिक स्वातंत्रता, ‘समानान्तर रेखाएँ’ कहानी में सम्बन्ध विच्छेद में?

उत्तर: धन्यवाद।
पारंपरिक तौर पर देखा जाए तो कथा संग्रह की कहानियों में से किसी एक कहानी का शीर्षक ही संग्रह के शीर्षक के लिए चुन लिया जाता है। मेरे पहले कहानी संग्रह के लिए मैंने भी यही किया परन्तु दूसरे कथा संग्रह के लिए शीर्षक चुनते समय मैं कुछ ऐसा शीर्षक चाहती थी जो सभी कहानियों का समवेत स्वर हो। ऐसा जो वृत्त की परिधि पर अपनी अलग जगह रखती कहानियों को वृत्त के केंद्र पर एक कर दे। इसमें सभी कहानियों के शीर्षक अपनी कहानियों के लिए पूर्ण रूप से उपयुक्त थे, अपनी कहानियों के लिए वे अपरिवर्तनीय थे किन्तु संग्रह के नामकरण के लिए वे पृथक लगते थे। सबसे अलगाव करते हुए बस अपनी ही कहानी का प्रतिनिधित्व करते लगते थे, बाक़ी कहानियाँ उसमें अनुत्सुक सी दिखाई पड़ती थीं।।
संग्रह की कहानियों में तैरना-उतरना आरम्भ हुआ। कहानियों के अन्तर्जीवन में बुनियादी पैटर्न, अभिन्न साझा भाव की तलाश पर मैंने पाया कि सभी कहानियों के मुख्य पात्र आर्द्र मन से आविष्ट और सम्वेदित हैं। भीगा मन चाहे वह दुःख से हो, हर्ष से हो अथवा भय से। अपनी सब्ज़ियों, अपने सृजन के अपमान से आर्द्र ‘काचर’ की रतनी का मन, ‘महानगर की एक रात’ में अपने साथ हुए दुराचार से अनन्या का भयभीत मन, ‘पियरा गयी बेला स्वंजन की’ में पति के प्रेम से अपरिचित नायिका द्वारा प्रेम को चीह्न लेने हर्ष में डूबा मन। मन के तल पे सभी पात्र ऐसे पारदर्शी हैं कि अलग-अलग कहानियों में उपस्थित होते हुए भी उनकी नज़रें आपसी दूरी को काटती हुई लगती हैं। अपने मित्रों की हत्या के अपराध-बोध से भीगा ‘यार ए ग़ार’ के मूसा का दिल हो या ‘मग़रिबी अँधेरे’ में अपने पछतावों में घिरी नताशा का मन जो मृत्यु को जीवन से सहज मानता है। जबकि ‘भय मुक्ति भिनसार’ की देवश्री के मन से अपने भय पर पाई विजय के उल्लास में गीली मीठी सौंध उठती है। बाक़ी कहानियों के पात्र भी भिन्न-भिन्न कारणों से तर मन की स्थितियों में अपना प्रतिफलन देखते हैं।
आर्द्र या द्रवित या भयभीत के सामूहिक अर्थ को वहन करता शब्द ‘सगबग’ मुझे सभी कहानियों की सम्वेदना को समेटे हुए लगा। बस इसी प्रकार शीर्षक निश्चित हुआ ‘सगबग मन’।
कथाओं की परिणति कुछेक को छोड़ मुक्ति में नहीं हो पाती। ‘यार ए ग़ार’ का नायक अपने दोस्तों से की ग़द्दारी के पाप बोध से कभी मुक्त नहीं हो पाया, ‘महानगर की एक रात’ में अनन्या अपने संदेह से मुक्त नहीं हो पाती बल्कि वह पाठकों को भी उनमें बाँध लेती है। ‘यूँ तो प्रेमी पचहत्तर हमारे’ में रेखा की समस्या दैहिक स्वातंत्र्य की है ही नहीं। अपने पति के साथ बैंकॉक की गलियों में घूमते हुए भी वह केवल बिना लाज-ओ लिहाज के सब देख भर लेना चाहती है। उसकी समस्या अपनी देह के आकर्षण को लेकर खो गये आत्मविश्वास की है जिसे वह अन्त में फिर से पा लेती है। ‘वर्जिन गिफ़्ट’ का अन्त भी प्रेम से ऊपर उन सुविधाओं को महत्त्व देने का है उससे छुटकारा पाने का नहीं। ‘समानांतर रेखायें’ के दोनों पात्र प्रेम में एक दूसरे के प्रति अवाँछित आचरण से कष्ट पाते हैं और सम्बन्ध विच्छेद करते हैं पर आप देखिए कि वे अभी भी एक-दूजे से प्रेम करते हैं। अतः मुक्त हो ही नहीं पाते केवल अलग होने का फ़ैसला करते हैं।
‘काचर’ तथा ‘भय मुक्ति भिनसार’ में आपने जिस मुक्ति को इंगित किया है वह संपूर्ण रूप से फलित होती है। ‘पियरा गयी बेला स्वंजन की’ में नायिका ज़रूर मुक्त होती लगती है पर वह भी पति के प्रेम में बँधने के लिए तथा नायक तो उस तरह से भी मुक्त नहीं हो पाता।

११. प्रश्न- आखिरी प्रश्न, अगर ‘दिव्या विजय’ को एक वाक्य में जानना हो तो वह वाक्य क्या हो सकता है?

उत्तर: एक वाक्य भी क्यों, एक शब्द ही पर्याप्त है – ‘स्वप्नदर्शी’।

 

Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Ut elit tellus, luctus nec ullamcorper mattis, pulvinar dapibus leo.

Share.
Leave A Reply

Exit mobile version