ङगोग़ी वा दिओङओ से रीमो वेरडिक्ट और एमील रूतहूफ्ट की बातचीत एल.ए.आर.बी [Los Angeles Review of Books] की वेबस पर 1 सितंबर 2023 को प्रकाशित हुई। इस साक्षात्कार का शीर्षक है “जैल ने मुझे हँसा दिया : ङगोग़ी वा दिओङओ के साथ एक चर्चा”। अंग्रेजी में यह साक्षात्कार यहाँ मिलेगा : https://lareviewofbooks.org/article/prison-left-me-laughing-a-conversation-with-ngugi-wa-thiongo/?fbclid=IwAR24w_nvWLhz_VAf7U2sxFqL7PNo0odYvHwmqvdoAdoAdeMzWlFbymimGz0
इस साक्षात्कार का हिंदी में अनुवाद डॉ. पूजा संचेती ने किया है।
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ङगोग़ी वा दिओङओ को अफ्रीकी महाद्वीप के पिछले अर्ध-शतक के सबसे अग्रणी लेखकों में गिना जाता है। केन्याटा तानाशाही के विरोधी होनी की वजह से 31 दिसंबर 1977 को उन्हें गिरफ्तार कर एक साल तक जेल में कैद किया गया। कारावास के दौरान, ङगोग़ी ने अपनी बुनियादी किताब डीकोलोनाइझिंग द माइंड : द पोलिटिक्स ऑफ लेंगवेज इन एफ्रीकन लिटरेचर (1986) की नींव तैयार की और निर्णय लिया कि वे अब से अंग्रेजी की जगह अपनी मातृ-भाषा ग़िकोयो में ही मुख्यता लिखेंगे। (स्वयं)-अनुवाद के पक्के समर्थक, उन्होंने हाल ही में इस विषय पर अपने निबंधों का एक संग्रह प्रकाशित किया है, जिसका शीर्षक है द लेंगवेज ऑफ लेंगवेजिस (2023)। हमारी उनसे बात-चीत उनकी इस नई किताब के बारे में थी, और किस प्रकार यह किताब उनके पेशेवर जीवन को प्रतिबिंबित करती है। हमारे इस साक्षात्कार का संपादित संस्करण प्रस्तुत है।
रीमो वेरडिक्ट और एमील रूतहूफ्ट : अनुवाद भाषाओं की भाषा क्यों है?
ङगोग़ी वा दिओङओ : जब दो या तीन भाषाएँ अपनी ज्ञान प्रणाली आपस में बाँटना चाहती हैं, वे यह अनुवाद द्वारा करती हैं। यानी कि, अगर भाषाओं की एक समान भाषा होती, उसे अनुवाद कहा जाता। अतः मेरी नई किताब का शीर्षक, द लेंगवेज ऑफ लेंगवेजिस ।
मैं भाषाओं के वर्गीकरण को नकारता हूँ, जहाँ कुछ भाषाएँ अपने को औरों से उच्च मानती हैं – खास कर उत्तर उपनिवेशवादी देशों में, या फिर उन देशों में जहाँ किसी भी प्रकार के अत्याचार का अनुभव हुआ है। अपितु, मैं यह भी मानता हूँ कि हर भाषा की अपनी अलग पहचान है। कितनी भी छोटी क्यों न हो, हर भाषा का अपनी अलग संगीतात्मकता होती है जिसकी जगह और कोई भाषा नहीं ले सकती। मैं इनकी संगीत-वादनों से तुलना करना पसंद करता हूँ। पियानो की अपनी विशेष आवाज़ या संगीतात्मकता होती है, जिसे हम भूले से भी गिटार की आवाज़ नहीं मान सकते। आप गिटार या वायोलिन जैसे अन्य वादनों को नष्ट नहीं कर सकते, छोटा नहीं बना सकते, कि सिर्फ पियानो की ही सुर-आवाज़ बची रहे। जब अलग-अलग वादन साथ काम करते हैं, तभी वे तालमेल बिठा सकते हैं, आरकेस्ट्रा बना पाते हैं – बिलकुल भाषाओं की तरह।
किताब में आपने “अल्पसंख्यक भाषा” (माइनोरिटी लेंगवेज) शब्द का उपयोग बिलकुल नहीं किया है। ऐसा क्यों?
क्योंकि इस शब्द का उपयोग कई मौकों पर हास्यास्पद होता है। सोचो, जैसे कि, एक भारतीय भाषा लाखों-करोड़ों लोग बोलते हों, लेकिन उसे फिर भी अल्पसंख्यक भाषा का दर्जा दिया जाता है। [हंसते हैं] यह परिभाषा उस ही ऊँच-नीच की प्रणाली का भाग है जिसे मैं नकारता हूँ।
लेकिन क्या प्राधिकार की भाषाएँ हैं? बिलकुल हैं! बल की भाषा वह है जो शासक राष्ट्र की भाषा है, या किसी देश के सत्ता खंड की भाषा है। मैं केन्या से हूँ, और मेरी मातृ-भाषा गिकोयो है। लेकिन केन्या में, अंग्रेजी प्रशासन और शिक्षण की भाषा है – अतः वह बल की भाषा है। इसके बावजूद कि केन्या की 90 प्रतिशत जनसंखा इसे नहीं बोलती। अगर शिक्षण या सरकारी नौकरी चाहिए, तो इस प्राधिकार की भाषा को सीखना पड़ता है।
कुछ बल की भाषाओं के दूसरी भाषाओं से अपराधशील ताल्लुक होते हैं। उपनिवेशवादी जान-बूझकर, सोच-समझकर उस भाषा को मार डालते हैं जो वहाँ की मूल जनता बोलती है। उनकी अपनी भाषा मूल निवासियों को पराजित करने का एक जरिया हैं। स्पेन के धर्मप्रचारकों की अमेरिका महाद्वीप पर बहुत विकसित सभ्यताओं से भेट हुई, जिनके पास अप्रतिम लेखन प्रणालियाँ थीं, इतिहास थे। स्पेन के लोगों ने व्यवस्थित रूप से इन्हें जला डाला, माया संस्कृति की सभी लेखन प्रणालियों और चीज़ों को तहस-नहस कर दिया।
किसे किस भाषा में अनुदित किया जा रहा है इसका साफ-साफ असर होते है कि किसे मान-सम्मान, पहचान, और पुरस्कार मिलते हैं। हमने देखा कि अब्दुलरज़ाक गुरनाह को 2021 में नोबेल पुरस्कार दिया गया, लेकिन वे अंग्रेजी में लिखते हैं, न कि अपनी मातृ-भाषा स्वहिली में। क्या आपको लगता है कि स्वीडिश अकादमी और पुरस्कार उद्योग का ज्यादातर अफ्रीकी और गैर-शाही भाषाओं के खिलाफ पक्षपात होती है?
गुरनाह और अफ्रीका के अन्य लेखक, और दुनिया के सभी लेखकों को मैं मुबारकबाद देता हूँ जिन्हें अपने लेखन के लिए उस तरह का सम्मान मिला है। मैं उम्मीद करता हूँ कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब किसी अफ्रीकी भाषा या, मानो, मूल अमरीकी (नेटिव अमेरिकन) भाषा मैं लिखने वाले को नोबेल पुरस्कार दिया जाएगा। बड़ी अजीब बात है कि अफ्रीका में एक भी ऐसा लेखक नहीं है जो अफ्रीकी भाषाओं में लिखता हो जिसे यह पुरस्कार दिया गया हो।
लेखन की गुणवत्ता प्रथम है, लेकिन एक और तरीके से भी हम इसे देख सकते हैं – आजकल, अफ्रीकी साहित्य के लिए खास पुरस्कार हैं, लेकिन उन्हें सिर्फ उस तथाकथित अफ्रीकी लेखक को दिया जाता है जो अफ्रीकी भाषा में नहीं लिखता। [हंसते हैं] इन प्रतियोगिताओं में अफ्रीकी भाषा में लिखे उपन्यास या कहानी को आप भरती नहीं कर सकते। ये पुरस्कार भाषाओं के दमन का एक हिस्सा बन गए हैं।
प्रकाशन उद्योग के बारे में आपके क्या विचार हैं?
अफ्रीकी साहित्य के मामले में, मैंने हमेशा तर्क किया है कि कम-से-कम तीन चीजों की जरूरत है: ऐसे लेखक होने चाहिए जो किसी अफ्रीकी भाषा में लिखते हों, लेकिन ऐसे प्रकाशक भी होने चाहिए जो इन किताबों को छापेंगे। क्योंकि प्रकाशक के बिना, किसी लेखक के पास जाने जाने का और कोई जरिया नहीं होता। और कोई लेखक किताबें इसलिए नहीं लिखता कि वे हमेशा उसके घर की लाइब्रेरी में पड़ी रहें। बहुत कम ऐसे प्रकाशक हैं [जो ऐसी किताबें छापते हैं], यह मैं आपको बता सकता हूँ।
लेकिन अफ्रीका में मुश्किल शासकीय भी है। अफ्रीका की ज्यादातर सरकारें वे लोग चलाते हैं जो उपनिवेशीय शिक्षण प्रणाली में तैयार हुए हैं। ये उपनिवेशीय पद्धतियाँ इन लोगों में आंतरिक हो गई हैं। वे अफ्रीकी भाषाओं का दर्जा घटाते हैं, और मानते हैं कि उचित शिक्षा अंग्रेजी, फ्रेंच, या पोरतुगली में ही हो सकती है। केन्या में हम एक कदम और आगे चले गए हैं। अब यहाँ स्कूल हैं जो अफ्रीकी लोग चलाते हैं, जहाँ अफ्रीकी बच्चे पढ़ते हैं, लेकिन जो ब्रिटिश पाठ्यक्रम पढ़ाते हैं।
आपके उपन्यास विझर्ड ऑफ द क्रो (2006) में, कामिती (कहानी का नायक) को उसकी प्रेमिका न्यावीरा इस बात से लगातार अवगत करवाती है कि राजनीति से भागा नहीं जा सकता। न्यावीरा कहती है कि इनसान को स्वयं की मुक्ति या समाज की मुक्ति (“परसनल सेलवेशन ऑर ए कलेक्टिव डेलिवरेंस”) के बीच एक को चुनना होगा। क्या गिकोयो में लिखना आपके लिए स्वयं की मुक्ति का मामला है, या फिर समाज की मुक्ति का?
शायद जब कोई अंग्रेजी में लिखता है, वह स्वयं की मुक्ति के लिए लिखता है। जोसेफ कौनरेड पोलिश थे, लेकिन 19 की उम्र में अंग्रेजी सीखी और अंग्रेजी में ही अद्भुत साहित्य लिखा। यह एक व्यक्तिगत मामला था, मतलब कि उन्हें ऐसा करने में साहित्यिक तृप्ति मिली, लेकिन पोलिश साहित्य में उनका कोई योगदान नहीं था। यही बात चिनुआ आचिबे और मुझ जैसे लेखकों पर भी लागू होती है। आचिबे का उत्कृष्ट उपन्यास थींग्स फोल अपार्ट (1958) अंग्रेजी में है, लेकिन इससे इबो साहित्य को कुछ भी, बिलकुल कुछ भी फायदा नहीं हुआ। यही बात जेम्स जोइस और अन्य आइरिश लेखकों के लिए भी सच है, क्योंकि आइरिश भाषा भी अंग्रेजी उपनिवेशीयियों ने व्यवस्थित रूप से तबाह की। वास्तव में जेम्स जोइस अपने लेखन में भाषा के सवाल की गहरी समझ दिखलाते हैं, लेकिन फिर भी उन्होंने अंग्रेजी में ही लिखा। यही बात मेरे पहले के उपन्यासों के लिए भी लागू है – वीप नौट, चाइल्ड (1964), द रीवर बिटवीन (1965), अ ग्रेन ऑफ वीह्ट (1967), और पेटल्स ऑफ ब्लड (1977) [अंग्रेजी में लिखे उपन्यास]। मुझे खुशी है कि मैंने इन्हें लिखा, अपितु इस बात की ज्यादा खुशी है कि बाद के उपन्यास मैंने गिकोयो में लिखे।
भाषा के मुद्दे के अलावा, क्या आप समुदाय के लिए लिखते हैं?
नहीं, सभी लेखकों को अपने भीतर के स्तोत्र से लिखना होता है। अगर आप कहो, “चलो, आज बैठकर लोगों के लिए एक उपन्यास लिखता हूँ”, तो इससे काम नहीं बनने वाला। बहुत अच्छी बात है अगर इससे लिखते रहने की प्रेरणा मिले, लेकिन लेखक के रूप में हमें अपनी कल्पना से वफादारी निभानी पड़ेगी। निजी तौर पर, जब में लिखता हूँ, तो कुछ व्यक्त करना चाहता हूँ। मुझे ऊँच-नीच बहुत चिंतित करती है। मैं ऐसा समाज नहीं देखना चाहता जहाँ बेघर लोगों के बगल में सोने के महल खड़े किए जा रहे हैं। मैं ऐसी दुनिया को नहीं स्वीकारता जहाँ कुछ की श्रेष्ठता कई औरों की अवहेलना पर खड़ी हो। मेरी किताबें लोगों के अधिकारों को मजबूत करने के नजरिये से लिखी गई हैं।
वीप नौट, चाइल्ड में ङजोरोगे और उसके पिता ङगोथो शिक्षा के उद्देश्य पर चर्चा करते हैं। ङजोरोगे अंत में तय करता है कि शिक्षा अपने में पर्याप्त अंत है, जबकि ङगोथो का मानना है कि यह अपने देश को फिर अपनाने का जरिया है। आपके अनुसार, शिक्षा का क्या लक्ष्य है?
जरूरत है कि दुनिया सभी को सशक्त बनाए, न कि सिर्फ कुछ को। हम आदतन यह मानना कि ज्ञान प्रोफेसरों और लेखकों की संपत्ति है, लेकिन सब के पास अपना खुद का ज्ञान होता है। मैं अंग्रेजी और तुलनात्मक साहित्य (कंपेरेटिव लिटरेचर) का विशिष्ट प्राध्यापक हूँ, लेकिन जब ताला-चाबी काम नहीं करते, तब मैं यह नहीं सोचता, चलो, मेरे सह-प्राध्यापक को बुलाते हैं। मैं ताला बनाने वाले को ढूंढता हूँ। यही बात कारखानों में काम करते लोगों के लिए भी सच है। फिर दोहराता हूँ, हमारे समाज के स्वभाव की वजह से, हर चीज़ की ऊँच-नीच शिक्षा और ज्ञान–प्रणालियों में भी झलकती है। हम मान लेते हैं कि कुछ लोगों के पास ज्ञान है और बाकिओं को झुककर इस ज्ञान की भीख माँगनी होगी, कि कुछ कतरें उन पर गिरें। अपितु हमें ऐसी प्रणाली ढूंढनी है जिसमें हम लोगों में व्यापक ज्ञान प्रणालियों को जोत सकें। ज्ञान को ऊँच-नीच के स्तरों में नहीं डाला जा सकता। यह एक वार्तालाप है, लेन-देन है। फिर ही हम सच में आगे बढ़ पाएंगे।
आपने व्यंग द्वारा बताया है किस तरह अफ्रीकी देश अपनी सार्वजनिक छवि के लिए अल्पाधिकार प्राप्त लोगों का शोषण करते हैं। विझर्ड ऑफ द क्रो की शुरुआत में एक दृश्य है जहाँ सूत्रधार बताता है कि अबुरिरिया की सड़कों पर भिखारिओं और मक्खिओं से पर्यटकों को आकर्षित किया जा रहा है…
[हंसते हैं] अफ्रीका की तस्वीरें देखो। वे ज्यादातर अत्यंत गरीबी दिखाती हैं, या फिर समृद्ध वन, जीव-जन्तु दर्शाती हैं, लेकिन वहाँ रह रहे सामान्य और अमीर लोगों को नहीं दिखाती। अफ्रीका सिर्फ गरीब लोगों का समूह नहीं है, सिर्फ बहती नाक और कानों-आँखों पर भिनभिनाती मक्खियाँ नहीं है। वहाँ मर्सिडीस-बेन्ज़ और हेलिकॉप्टर चलाने वाले भी हैं। मुद्दे की बात है दोनों को दिखाना। मैं यह तर्क नहीं कर रहा कि गरीबी की अवहेलना करो। लेकिन इन दो पहलुओं के फर्क को दिखाओ, और इनके बीच के संबंध का खुलासा करो। अगर में बेलजियम आया, तो मैं अपने कैमरा से सिर्फ महलों और ऊँची इमारतों को नहीं, बल्कि सड़कों और सामान्य जीवन को दिखाना चाहूँगा।
आपका बाद का काम पहले की किताबों से ज्यादा व्यंगपूर्ण है। मातिगारी मा ङजुरूंगी (1986) में जॉन बॉय जुनियर कहता है कि उसके पूर्वजों का समय त्रासदी का था और उसकी खुद की पीढ़ी का स्वांग का है। क्या आपके काम में भी यह बदलाव आया?
दिसम्बर 1977 में मुझे अधिकतम सुरक्षा वाली जेल में कैद किया था क्योंकि मैंने एक नाटक (आई विल मैरी वेन आई वांट) में हिस्सा लिया था। यह नाटक गिकोयो के एक गाँव में वहाँ के गाँववालों और मजदूरों ने मंच पर प्रस्तुत किया था। [यह नाटक ङगोग़ी ने ङगोग़ी वा मिरी के साथ लिखा था]। मैं जेल में बैठा इस सब के बारे में सोच रहा था। जोमो किनयाटा, वह नेता जिसने मुझे जेल में कैद किया, खुद गिकोयो-भाषी था। जैल सिर्फ इंसान को तबाह करने के लिए होती है, सो मुझे लगा मुझे अपने से और अपने वातावरण से अंतर बनाना होगा। सो मैं हँसने लगा। [हँसते हुए] मैं उन पर हँसने लगा जिन्होंने मुझे जेल में डाला था, और उससे मैं कुछ हद तक अपने घाव भर पाया।
व्यंग उपन्यास की ओर मैं अपने पहले गिकोयो उपन्यास में मुड़ा, जो मैंने टोइलेट पेपर पर लिखा था। और कितनी विडंबना हो सकती है – नाइरोबी में एक साहित्य का प्राध्यापक, अपने डिपार्टमेंट का चैयर, जैल की एक कोठरी में बैठा है, बिन कागज़ कलम या किताबों के। मुझे गिकोयो में लिखने के लिए बंद किया गया था, लेकिन जेल के कुछ पहरेदार खुद गिकोयो-भाषी थे, और उन्हें बड़ा ताज्जुब हुआ कि मुझे किसी भाषा में लिखने के लिए जेल हुई है। वे मुझसे गिकोयो भाषा पर चर्चा करते थे। वह समय विडंबनाओं से भरा था, लेकिन हँसी मेरे लिए बहुत जरूरी थी। मेरा मानना है कि तब से मेरे उपन्यास व्यंगपूर्ण हो गए हैं।
अ ग्रेन ऑफ वीह्ट से मुगो का एक उद्धरण लेते हैं: “मैं जरूरी हूँ। मैं मर नहीं सकता। अपने आप को जीवित, तंदुरुस्त, और मजबूत रखना – अपने जीवन के लक्ष की राह देखना – यह मेरी धर्म है, अपने आप के प्रति, और आने वाले कल के लोगों के प्रति।” मुगो पहचानता है कि उसका जीवित रहना सबसे जरूरी चीज़ है। निर्वासन चुनने पर, क्या आप भी उस ही नतीजे पर पहुँचे हैं?
एक बात मैं अभी ठीक किए देता हूँ – मैंने निर्वासन नहीं चुना। सबसे पहले, मैं मानता हूँ कि एक लेखक को जीवित रहना जरूरी है। अगर पहले से पता होती कि जेल में डाला जाऊँगा, तो मैं न कहता, “ओह, चलो अनुभव के लिए जेल चला जाता हूँ ताकि अपने लेखन मैं व्यंग ला सकूँ।” निर्वासन मैंने अपनी मर्जी से नहीं चुना। यह करने पर मुझे मजबूर किया गया। रिहाई के बाद, मैं डेविल ऑन द क्रौस (1980) के लोकार्पण के लिए लंदन में था जब केन्या मैं हालात बहुत बिगड़ गए। डैनियल आरप मोई की तानाशाही शुरु हुई। उस समय सरकार ने मौके का फायदा उठाकर कई लोगों को मार डाला। सह-लेखकों को ज़िम्बाब्वे भागना पड़ा।
जब मैं काफी समय बाद केन्या लौटा तो क्या हुआ? मेरी पत्नी और मुझ पर एक होटल में हत्यारबंद बंदूकधारियों ने हमला किया। हमसे कुछ भी नहीं चुराया – सिर्फ हमारा अपमान किया। [ङगोग़ी की पत्नी का हमलावारों ने बलात्कार किया। ङगोग़ी को बंदूक से पीटा गया, और सिगरेट से जलाया गया।]
अगर जेल और मौत के बीच चुनना हो, तो मैं निर्वासन चुनूंगा। इस बात के लिए मैं आभारी हूँ कि कई सालों तक मैं ब्रिटेन और अमेरिका में रह सका, नौकरी कर सका, कई बार बहुत ही उमदा संस्थानों में, जैसे कि येल, न्यू योर्क युनिवर्सिटी, और अब युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, अरवाईन। लेकिन विश्वास करें मेरा दिल अब भी केन्या में है।
एक बात को बिलकुल साफ करना चाहता हूँ – अगर जिंदा रहने के लिए भागना पड़े, तो इसमें कोई हर्ज नहीं है। निर्वासियों ने भी इतिहास में बहुत कुछ किया है। सबसे जाना-माना है मोसिस, जो इजिप्त मैं पला बड़ा लेकिन अपने लोगों को आजादी दिलवाई। येसू को खुद अपनी जान बचाकर इजिप्त जाना पड़ा। मुहम्मद के अनुयायी अपने बचाव के लिए इथियोपिया गए। कई लेखकों को हिटलर से बचने हेतु जर्मनी से अमेरिका जाना पड़ा। फिर भी, निर्वासन एक बाहरी जेल जैसा है। दोनों स्थितियों में कठिनाइयाँ हैं जिन्हें पराजित करने की कोशिश करते रहना पड़ता है।
आप वैश्विकरण (ग्लोबलाइज़ेशन) के कटु आलोचक हैं, जिसे आप वैश्विकवाद (ग्लोबलइझम) से अलग मानते हैं। इनमें क्या अंतर है?
मुझे लगता है कि वैश्विकवाद(ग्लोबलइझम)सभी लोगों के साथ आने की क्रिया है। जब मैं सफर करता हूँ, मेराभरोसा फिर पक्का हो जाता है कि अच्छे लोग इकट्ठे रह सकते है। वह वैश्विकरण (ग्लोबलाइज़ेशन) जो मुझे पसंद नहीं है उसे मैं संसाधनों का “गोबल-आइज़ेशन” (निगलने की क्रिया) बुलाता हूँ। अफ्रीका को ले लो, विश्व का दूसरा सबसे बड़ा महाद्वीप है। इस महाद्वीप के नब्बे प्रतिशत संसाधन पश्चिमी देश निगल जाते हैं। जैसे कि इसका सोना, हीरे, तांबा, ज़िंक, यूरेनियम। क्योंकि पश्चिमी देश इन संसाधनों को इतने उँचे प्रतिशत में व्यय कर लेते हैं, अफ्रीका गरीब रह जाता है। अफ्रीका दानी है, लेकिन दिखाया यूँ जाता है कि यूरोप अफ्रीका को दान दे रहा है।
अलगे किस अफ्रीकी लेखक को हमें पढ़ना चाहिए?
भविष्यकाल का लेखक, वह जो किसी अफ्रीकी भाषा में लिखता हो।
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ङगोग़ी वा दिओङओ केन्याई लेखक हैं जिन्होंने उपन्यास, नाटक, कहानियाँ, और साहित्यिक व सामाजिक समीक्षा से लेकर बच्चों के साहित्य तक पर निबंध लिखे हैं। वे गिकोयो-भाषी पत्रिका मूतीरी के संस्थापक और संपादक हैं।
रीमो वेरडिक्ट बैलजियम की युनिवर्सिटी ऑफ ल्योविन में डॉक्टरेट शोधकर्ता हैं, और जेम्स बॉल्डविन के मरणोपरांत कार्यकाल पर काम कर रहे हैं।
एमील रूतहूफ्ट बैलजियम में के.यू. ल्योविन में दर्शनशास्त्र पढ़ते हैं और डच-भाषी मीडिया के लिए लिखते हैं।
इस साक्षात्कार का हिन्दी में अनुवाद पूजा संचेती ने किया है। वे भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (आईआईएसईआर) पूणे में अंग्रेजी की सहायक प्राध्यापिका हैं।
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