उपसंहार से शुरु होने वाली इस कहानी के बारे में वाचिका का कहना है कि यह कहानी नहीं बस उसका खाका है, ‘ब्लू प्रिंट’. कितना कुछ तो होता है जो अनकहा रह जाता है, कितना कुछ अनाम रह जाता है. टुकड़ों-टुकड़ों में, कभी डायरी, कभी जर्नल की शक्ल में जो कुछ कहा जा रहा है फिलहाल वही पाठ महत्व रखता है. अपर्णा मनोज की यह कहानी स्त्री-विमर्श का अलग पहलू सामने लाती है, अलग कोण, उस पर उनकी सम्मोहक भाषा का जादू. कई दिनों पहले पढ़ी थी, तभी से आपसे साझा करने का मन रोज हो रहा था, मौका आज लगा- जानकी पुल.
द ब्लू प्रिंट
उपसंहार
मैंने अपनी बात कहनी शुरू की पर वह कहने से पहले ही खत्म हो गई. मैंने उसे लिखना चाहा पर भाषा उसे कहने के लिए कमज़ोर पड़ती थी. ये कुछ ऐसा था जो अदब और तहजीब से बाहर जाता दिख रहा था. अप्रत्याशित किये हमले जैसा, जिसमें परिपाटियों के टूटने के साथ कहीं मेरे टूटने का संशय भी था. मैं एक ब्लू प्रिंट तैयार कर रही थी. यौन धारणाओं के मकड़जाल में किसी अवचेतन को सही कहने की कोशिश में आखिरकार मुझे अपनी कहानी रस्सी की कमर पर नौटंकी करती, धीरे-धीरे आगे बढ़ती दिखाई दी. मुझे अपने इस उपसंहार में संहार के बाद का निर्माण दिख रहा है. ये ही इस कथा का प्रील्यूड भी और केंद्र भी.
मेरी कलम इस ब्लू प्रिंट पर तेजी से चल रही है. तभी कहीं से हलका सा रुदन सुनाई देता है. मैं रुकती हूँ. एक भ्रूण कलम की नोक में अटक गया है. रोने की आवाज़ यहीं से आ रही है. हूहू… दिशाओं में व्याप्त महा हाहाकार! इस शहर में इस भ्रूण को कौन फेंक गया?
दिल ने बिना झिझके कहा, “बास्टर्ड …”
और कलम की नोंक उसके गुलाब से मुलायम लोथ में भीतर तक घुस गयी, रेदती हुई. इस बार वह चीखा नहीं. चुप निगाह उसने मेरी आँखों में गाड़ दी. सामने के कलेंडर पर सलीब पर जीजस की देह पहले हिली, फिर कांपी और अविचल दीवार की नसों पर ठहर गई.
उसके अधबने ओंठ थरथराये, उदासियों की अजब जीभ बिना बोले ही मेरे अंतर्मन पर वार करने लगी. कलम की तराशी निब तड़प कर बाहर आई, जैसे गोली लौटकर उसीके बदन में छेद कर गई थी. भ्रूण कानून की धाराओं के अर्थ नहीं जानता था. न विस्थापन के मायने उसे पता थे. वह तो बस जीवन के कचरे से अपने हाथ-पैर बाहर निकालने की कोशिश कर रहा था. उसके चेहरे की पीड़ा देख, पहली बार पता चला कि प्रसव जितना कठिन माँ के लिए होता है, उतना ही कठिन भ्रूण के लिए भी. अब वह बड़ा हो रहा था. और और बड़ा. विधर्मी की तरह उसने अपनी नाल काटी और मेरी तरफ घूरने लगा. मैं सकपका गई. मेरी ज़ुबान पत्थर हो गई.
धूल में लोटते हुए वह बुदबुदाया,
“नहीं, ऐसा मत कहो.. तुमसे मुझे बहुत उम्मीदें हैं.. मैंने तो सुना था कि तुम्हारे इस शहर में कोई भगवान नहीं बसता, जिसके डर से लोग मुझे बास्टर्ड कहें. फ़र्ज़ करो कि मैं तुम्हारे ऊपर किये किसी रेप का नतीज़ा हूँ.. फ़र्ज़ करो कि तुम्हारा प्रेमी सम्भोग करके तुम्हें मेरे भरोसे छोड़ गया.. या तुम्हारा पति यदि कोई होता तो अपने स्पर्म में हर बार मेरी ही संरचना कर सकता था… हर बार मैं एक सोनोग्राफी में हाथ-पैर सिकोड़े दम साधे बैठी थी.. कोई बार -बार मुझे कोमाटोज़ करने की कोशिश कर रहा था.. इसलिए मैं भाग छूटी.. आवारा.. केनाबिस का सूखा फूल..
बास्टर्ड.. यही कहा न तुमने.. जन्म लेने से पूर्व ही मेरी हत्या की साजिश! दोस्त , तुम्हें माँ कहकर पुकारूं.. सिर्फ एक बार.” एक सिरफिरा मसीहा मेरे शरीर के क्रॉस पर अपनी आत्मा टिकाये खड़ा था. उसकी आँखों में एक युग की मुआफी थी. उसने काँटों के ताज से अपनी वैधता सिद्ध करनी चाही. दुनिया के पास अपराधों की फेहरिस्त में एक सलीब, एक भ्रूण और हत्या बची थी.
उसका माँ कहना …! एक गहरी निस्तब्धता में कमरा डूब गया.
केवल धड़-धड़ की तेज़ आवाज़ें कमरे के वज़ूद को किसी के होने की इतल्ला देती रहीं. मैं पुनश्च: अपने ब्लू प्रिंट पर झुक गई. सामने मेज़ पर टॉमस हार्डी के वेसेक्स का नक्शा खुला पड़ा है. मैं बीच-बीच में उसे देख रही हूँ. हार्डी ने सोचा था कि वेसेक्स सिरीज़ निकाल कर वह खासा रुपया कमा सकेगा. उसने कमाया भी पर उसके अंतिम उपन्यास यानी लेखन के उपसंहार :: “जूड द ओब्स्क्योर ” की जली हुई प्रतियाँ मेरे चारों ओर उड़ रही हैं. वेक फ़ील्ड का बिशप कितना निर्मम था! पता नहीं हार्डी ने कैसे इस दुःख को सहा होगा! बहुदा कहनियाँ ओब्स्क्योरीटी से ही जन्म लेती हैं. ब्रोकन वर्ड्स::
मेरी कलम इस ब्लू प्रिंट पर तेजी से चल रही है. तभी कहीं से हलका सा रुदन सुनाई देता है. मैं रुकती हूँ. एक भ्रूण कलम की नोक में अटक गया है. रोने की आवाज़ यहीं से आ रही है. हूहू… दिशाओं में व्याप्त महा हाहाकार! इस शहर में इस भ्रूण को कौन फेंक गया?
दिल ने बिना झिझके कहा, “बास्टर्ड …”
और कलम की नोंक उसके गुलाब से मुलायम लोथ में भीतर तक घुस गयी, रेदती हुई. इस बार वह चीखा नहीं. चुप निगाह उसने मेरी आँखों में गाड़ दी. सामने के कलेंडर पर सलीब पर जीजस की देह पहले हिली, फिर कांपी और अविचल दीवार की नसों पर ठहर गई.
उसके अधबने ओंठ थरथराये, उदासियों की अजब जीभ बिना बोले ही मेरे अंतर्मन पर वार करने लगी. कलम की तराशी निब तड़प कर बाहर आई, जैसे गोली लौटकर उसीके बदन में छेद कर गई थी. भ्रूण कानून की धाराओं के अर्थ नहीं जानता था. न विस्थापन के मायने उसे पता थे. वह तो बस जीवन के कचरे से अपने हाथ-पैर बाहर निकालने की कोशिश कर रहा था. उसके चेहरे की पीड़ा देख, पहली बार पता चला कि प्रसव जितना कठिन माँ के लिए होता है, उतना ही कठिन भ्रूण के लिए भी. अब वह बड़ा हो रहा था. और और बड़ा. विधर्मी की तरह उसने अपनी नाल काटी और मेरी तरफ घूरने लगा. मैं सकपका गई. मेरी ज़ुबान पत्थर हो गई.
धूल में लोटते हुए वह बुदबुदाया,
“नहीं, ऐसा मत कहो.. तुमसे मुझे बहुत उम्मीदें हैं.. मैंने तो सुना था कि तुम्हारे इस शहर में कोई भगवान नहीं बसता, जिसके डर से लोग मुझे बास्टर्ड कहें. फ़र्ज़ करो कि मैं तुम्हारे ऊपर किये किसी रेप का नतीज़ा हूँ.. फ़र्ज़ करो कि तुम्हारा प्रेमी सम्भोग करके तुम्हें मेरे भरोसे छोड़ गया.. या तुम्हारा पति यदि कोई होता तो अपने स्पर्म में हर बार मेरी ही संरचना कर सकता था… हर बार मैं एक सोनोग्राफी में हाथ-पैर सिकोड़े दम साधे बैठी थी.. कोई बार -बार मुझे कोमाटोज़ करने की कोशिश कर रहा था.. इसलिए मैं भाग छूटी.. आवारा.. केनाबिस का सूखा फूल..
बास्टर्ड.. यही कहा न तुमने.. जन्म लेने से पूर्व ही मेरी हत्या की साजिश! दोस्त , तुम्हें माँ कहकर पुकारूं.. सिर्फ एक बार.” एक सिरफिरा मसीहा मेरे शरीर के क्रॉस पर अपनी आत्मा टिकाये खड़ा था. उसकी आँखों में एक युग की मुआफी थी. उसने काँटों के ताज से अपनी वैधता सिद्ध करनी चाही. दुनिया के पास अपराधों की फेहरिस्त में एक सलीब, एक भ्रूण और हत्या बची थी.
उसका माँ कहना …! एक गहरी निस्तब्धता में कमरा डूब गया.
केवल धड़-धड़ की तेज़ आवाज़ें कमरे के वज़ूद को किसी के होने की इतल्ला देती रहीं. मैं पुनश्च: अपने ब्लू प्रिंट पर झुक गई. सामने मेज़ पर टॉमस हार्डी के वेसेक्स का नक्शा खुला पड़ा है. मैं बीच-बीच में उसे देख रही हूँ. हार्डी ने सोचा था कि वेसेक्स सिरीज़ निकाल कर वह खासा रुपया कमा सकेगा. उसने कमाया भी पर उसके अंतिम उपन्यास यानी लेखन के उपसंहार :: “जूड द ओब्स्क्योर ” की जली हुई प्रतियाँ मेरे चारों ओर उड़ रही हैं. वेक फ़ील्ड का बिशप कितना निर्मम था! पता नहीं हार्डी ने कैसे इस दुःख को सहा होगा! बहुदा कहनियाँ ओब्स्क्योरीटी से ही जन्म लेती हैं. ब्रोकन वर्ड्स::
मैं अपने काल्पनिक शहर का नक्शा फोल्ड करके रख देती हूँ..
घर की दायीं दीवार पर मेरे नक़्शे की छाया गिर रही है. इसकी तह से फ्रीदा काह्लो बाहर आती है. उसके हाथ में एक बड़ा कैनवास है . मैं भौंचक उसे देख रही हूँ . कितना सारा नारंगी रंग .. उसके हाथ, माथे पर लगा है. वह खुद कैनवास पर लेट गई है और तस्वीर में तब्दील हो रही है.. उसकी छाती पर वही भ्रूण पौधा बनकर खिला है..
कह दो कि ये भी बास्टर्ड है.. वाइन की बेल … एल पैड्रीगल.. द वौल्केनिक रॉक बेड..
मैं कुछ नहीं सुन रही. बस सोच रही हूँ.. अपनी कोहनी पत्थर के तकिये पर टिकाये फ्रीदा किस भ्रूण को जन्म देना चाहती है? वह सिसक रही है शायद… क्योंकि वह कभी माँ नहीं बन सकती… ये शादी भी एक वॉइड है… गले में काँटों का हार और सिर पर बैठी हमिंग बर्ड… ये तभी बोलती है जब सूरज की पहली किरण सुन्दर फूलों पर बिखरती है… इसका स्कारलेट रंग फ्रीदा के दुखों पर मलहम लगा रहा है… कई पेंटिंग्स मिक्स हो गई हैं, पर सभी की भाषा वही एक.. ब्रोकन वर्ड्स.
“I am not sick. I am broken.
But I am happy as long as I can paint.”
But I am happy as long as I can paint.”
मैं बीमार नहीं हूँ. टूट गई हूँ मैं. पर तब तक खुश हूँ जब तक रंग भरती रहूंगी…
ओह! तो वह फ्रीदा नहीं थी? उसके अवचेतन में छिपी रहस्यमयी आवाज़ थी. क्यों आई थी यहाँ? क्यों तंग कर रही है उसे?
उस आवाज़ ने हलके से कहा,.. “तंग नहीं कर रही… तुम्हारी लड़ाई लड़ने आई हूँ…, ये भ्रूण तुम्हारा अपना है… फेंक दोगी इसे?”
फ्रीदा आई और चली गई.
चेतना किस तरह अपने अनुकूल हेलिस्युनेशन बनाती चलती है! कमाल है! घड़ी की घिस-घिस के बीच उसकी आवाज़ दीवारों से टकराकर लौट रही थी, “अकेली ही तो हो. सभी तो छोड़ गए तुम्हें… पर मैं कैसे छोड़ जाऊं. अपने नक़्शे पर तुम अकेली बैठी हो… कौन सा शहर बसाओगी..?”
कोई दोस्त है ?
नहीं.
माँ-पिता?
नहीं.
घर-बार?
नहीं, उसने ओंठ भींच लिए. फिर माथे पर छलक आये पसीने को पोंछा. कलम उठाई और कागज़ पर स्याही बिखेर दी. पन्ने को फोल्ड किया और इंक ब्लौट के उस अजनबी चित्र में कई अर्थ तलाशने लगी. हरमेन रोर्शाक ये चित्र क्या सच में थॉट डिसऑर्डर को संकेतित कर सकते हैं? दर्द का घनत्व इंक के प्रेशर से कहीं अधिक था …तनिक विराम देते हुए उसने सोचा, “ओह! कैसे पूरी होगी उसकी गल्प…”
इस अप्रत्याशित प्रश्न के लिए वह तैयार नहीं थी. उसने तड़पकर कहा.. जाओ यहाँ से.
पर वह नहीं गई. उसकी बगल में बैठ गई. ठिठाई से दांत निपोरते हुए बोली…
उसे लगा कि वह उसकी खिल्ली उड़ा रही है . उसने सामने लगे शीशे में अपनी शक्ल देखी.. बरसों से वही दाग-धब्बों से भरी शक्ल .. पुराना पड़ा मेलसमा.. चिपकी हुई उम्र की चीकट..समय का मैल.. आँखों के गड्ढों में भरा गन्दला पानी .. ये कभी नहीं सूखा . न जाने कैसी चिकनी मिट्टी थी .. जो न दुःख सोखती थी , न सुख पीती थी . यहाँ हर मौसम ऊपरी परत पर तैरता रहता .
उसने नाइट रेस्ट खाई और बिस्तर पर लेट गई . आँखें मुंदने लगी थीं .
ये एक चाज़्म था . इसमें एक नदी गिर रही थी और उस जगह सागर में मिल रही थी जहाँ सूरज अस्त होता है . अब ये घाटी सतरंगी होने लगी , जैसे अपने ही पोस्त की अफीम पीकर ये मदहोश हो गई थी . पहली बार उसने समुद्र का किनारा देखा था . पहली बार उसने नदी को सागर में गिरते देखा था . नदी के बीच में बड़े -बड़े पत्थर शांत पड़े थे . वे किसी टापू बनने की प्रक्रिया से गुज़र रहे थे . नदी के पाट पर लकड़ी का झूलानुमा पुल बना था , जो हवा के कारण रह रहकर हिचकोले खाता. यहीं एक चट्टान पर आबनूसी गठी काठी का एक पुरुष बैठा था . उसने एक चट्टान का टुकड़ा लिया . उसे खूब घिसा . चट्टान सफ़ेद निकल आई . झक सफ़ेद जैसे नदी की लहरों के फेन . फिर उसने इस टुकड़े को काटना शुरू किया .. सुनहरे बाल , काली आँखें , तिरछी भंवें , नुकीली ठोड़ी , पतले अधर , हलकी मुस्कान .. कुल मिलाकर एक नारी की प्रतिमा . कलाकार गौर से अपनी कृति देखता रहा .. कृति और कलाकार की आँखें मिलीं .. चिंगारियां फूटने लगीं . लोमहर्षक .. आह ! कलाकार प्रतिमा के सामने बैठ गया . ठीक उसके पैरों के समीप . अब वह रो रहा था .. मेरी प्रेयसी .. मैं केवल पत्थर की मूरत ही बना सकता हूँ .. पर मैं तुमसे अगाध प्रेम करता हूँ .. प्रतिमा ने आँखें झपकायीं .. उसका सफ़ेद बदन काला पड़ने लगा . चेहरे पर कई दाग उभर आये .. उम्र ढलने लगी . पर कलाकार अब भी उससे प्रेम करना चाहता था .. पिग्मेलियन प्रेम . फिर स्त्री पुरुष बन गई और पुरुष स्त्री ..
उस स्त्री पुरुष ने कातर आवाज़ में कहा … मेरा आबनूसी रंग और मेरे भीतर का पुरुष जो अभी भी शेष है … अब भी तुम मुझसे प्रेम करोगे … ?
हाँ …करूँगा …
वे कई सालों तक एक दूसरे से प्रेम करते रहे .. फिर एक दिन पुरुष लहरों में खो गया . स्त्री उसी द्वीप पर रोती रही . एक दिन वह एक चट्टान पर बैठी थी . रोते-रोते उसने कहा .. मैं माँ नहीं बन सकी .. हमारा कायाकल्प क्यों हुआ .. ? मेरे अन्दर एक पुरुष बचा रहा जिसकी कोख नहीं हो सकती थी .. न कोई रज्जू नाल …जिसके एक सिरे से बीज चिपका रहता .. वह बड़ा होता और … अगले दिन उसने अपने पेट को बड़ा होते देखा .. वह चौंक गई . उसी दिन उस द्वीप पर न जाने कहाँ से परिंदों का टोला उड़ता आया और अपनी चोंच से ठोंग मार-मारकर उस स्त्री को घायल कर दिया .. बहुत सारे जानवर चट्टानों पर घर बनाने लगे . उन्होंने इस स्त्री को नदी पार धकेल दिया .. जैसे -जैसे उसका पेट बड़ा होता गया .. उसकी काया में धर्म का जन्म होने लगा .. एक ऐसे भगवान् का जन्म जिसकी आँखों के सामने वह शर्मिंदा थी .. और उसकी मूर्ति के आगे अपराधी ..
उसे सिद्ध करना नहीं आता था कि आगंतुक ईसा का पिता कौन है .. उसे इसी अप्रमाणिक समय बिंदु से जीवन की शुरुआत करनी थी .. अवैधता न जाने माँ के लिए बनी थी या संतान के लिए ..
नींद भी किसी भूले हुए इतिहास की तरह होती है और स्वप्न : स्मृति का पल .. वह सबसे छोटा पल जिसके खंडहर पर आपका अवचेतन काई और फफूंद की तरह उगना चाहता है . अवचेतन अतीत से जुड़ा मौसमी कुकुरमुत्ता .. पीली , हरी घास या कि सदाबहार का जंगली बैंगनी फूल .. अपनी उर्वरा पर जन्म लेता है , करवट बदलता है और झड़ कर मिट्टी की परतों में दब जाता है . आमुख :: देह की ऐंठन से उसकी नींद खुल गई . वह पसीने से तर थी . उसने अपने पेट की तरफ़ देखा .. उठकर कई ग्लास पानी पिया और फिर से बिस्तर में दुबक गई . आज उसका मन ऑफिस जाने का नहीं था . वह अपना ब्लू प्रिंट पूरा करेगी . कितने दिन से अधूरा पड़ा है . काश कोई बेड टी पिला दे . चाय की हुड़क ने उसे जाग्रत किया .
उसने लेमन टी बनाई और कमरे में पड़े बान के सोफे पर बैठ गई . सामने कल का अखबार तह किया पड़ा था . उसने खोलकर भी नहीं देखा था .
तभी किसी ने कॉल बैल बजाई . प्याला रखकर वह देखने उठी . सुबह-सुबह कन्नगी को देख कर हैरानी हुई .
अरे ! हाँ , दीदी .. अन्दर तो आने दीजिये . आ न . सब ठीक तो है .. हाँ , सब ठीक है . आज ऑफिस जाते हुए सोचा कि तुमसे मिलती चलूँ . अच्छा किया .. चाय पीयेगी . न दीदी ..शाम घर आ रही हो .. क्यों कुछ .. दीदी .. तुम्हें कुछ याद भी रहता है .. आज हमारी वेडिंग एनीवर्सरी है . पूरे बारह साल हो जायेंगे . डिनर हमारे साथ .. ओह .. यूँ ही व्यस्तता में चीज़ें भूल जाती हूँ .. शाम जल्दी ही पहुँच जाऊँगी.. छ: बजे तक . आज अभी तक तैयार नहीं हुईं दी .. छुट्टी पर हो क्या ? हाँ , मन नहीं हुआ ..
बहुत थकी हुई लग रही हो .. तबीयत ठीक है न .. हाँ , कन्नी एकदम ठीक है , बस मानसिक थकान . तू यहीं रुक जा कन्नी .. पर ऑफिस .. अच्छा फ़ोन कर देती हूँ मलय को .. वही इन्फोर्म कर देंगे . पर दी बात क्या है ? चल रहने दे .. बेकार सी .एल . कटेगी . तू जा . तुझसे कुछ बात करनी थी . कोई जरुरी बात ? हाँ , शायद बहुत जरुरी ..पर अभी नहीं .. किसी और दिन .. फिर कभी .. नहीं दी .. अभी और आज ही . मैं कहीं नहीं जा रही .. कन्नी , बहुत अकेलापन लगता है . जानती हूँ दीदी . आज मैं जो कुछ भी हूँ आपकी वजह से हूँ . मलय , मेरा पूरा परिवार .. मेरी खुशियाँ .. सब आपके कारण हैं . तुम सभी को देख कर खुश होती हूँ .. मेरे कौन है आगे -पीछे .. जो है वह तुम सभी का है . ये फ़्लैट , कार .. सब कुछ . दीदी .. प्लीज़ .. बोलने दे कन्नी . जानती है जब से रिशु हुआ है .. तब से कुछ अजीब -से मंथन से गुज़र रही हूँ . aparna manoj
फ्रीदा आई और चली गई.
चेतना किस तरह अपने अनुकूल हेलिस्युनेशन बनाती चलती है! कमाल है! घड़ी की घिस-घिस के बीच उसकी आवाज़ दीवारों से टकराकर लौट रही थी, “अकेली ही तो हो. सभी तो छोड़ गए तुम्हें… पर मैं कैसे छोड़ जाऊं. अपने नक़्शे पर तुम अकेली बैठी हो… कौन सा शहर बसाओगी..?”
कोई दोस्त है ?
नहीं.
माँ-पिता?
नहीं.
घर-बार?
नहीं, उसने ओंठ भींच लिए. फिर माथे पर छलक आये पसीने को पोंछा. कलम उठाई और कागज़ पर स्याही बिखेर दी. पन्ने को फोल्ड किया और इंक ब्लौट के उस अजनबी चित्र में कई अर्थ तलाशने लगी. हरमेन रोर्शाक ये चित्र क्या सच में थॉट डिसऑर्डर को संकेतित कर सकते हैं? दर्द का घनत्व इंक के प्रेशर से कहीं अधिक था …तनिक विराम देते हुए उसने सोचा, “ओह! कैसे पूरी होगी उसकी गल्प…”
“
झूठ मत बोलो.. तुम गल्प नहीं लिख रहीं.. अपनी डायरी लिख रही हो. तुम शादी क्यों नहीं कर लेतीं? “इस अप्रत्याशित प्रश्न के लिए वह तैयार नहीं थी. उसने तड़पकर कहा.. जाओ यहाँ से.
पर वह नहीं गई. उसकी बगल में बैठ गई. ठिठाई से दांत निपोरते हुए बोली…
“
कब तक अकेली रहोगी? उपन्यास कब तक लिखोगी? कहानियां… नौकरी? कभी प्रेम किया क्या? प्रेम ..? कब किया था उसने प्रेम ? शायद कभी नहीं ..“
फिर झूठ … किसी ने तुमसे प्रेम नहीं किया .. “उसे लगा कि वह उसकी खिल्ली उड़ा रही है . उसने सामने लगे शीशे में अपनी शक्ल देखी.. बरसों से वही दाग-धब्बों से भरी शक्ल .. पुराना पड़ा मेलसमा.. चिपकी हुई उम्र की चीकट..समय का मैल.. आँखों के गड्ढों में भरा गन्दला पानी .. ये कभी नहीं सूखा . न जाने कैसी चिकनी मिट्टी थी .. जो न दुःख सोखती थी , न सुख पीती थी . यहाँ हर मौसम ऊपरी परत पर तैरता रहता .
“
पर तुमने किसी को चाहा तो होगा ?” वह चौंकी … मन ही मन सोचा ..भला चाहने से क्या होता है ?“
कभी किसी पुरुष को एकटक देखा है ?”..
छी.. ऐसा भी कोई करता है ?“
क्यों .. पुरुष कर सकता है .. फिर ..?” उसने तिरस्कार और घृणा से मुंह सिकोड़ा..“
नहीं , वासना से नहीं .. प्रेम से .. कभी तो विमोहित हुई होंगी .. सच बताना .” ओह! कितना अनर्गल प्रलाप कर रही है ये . पता नहीं कौनसे राज़ पेट से उगलवाना चाहती है .. लेकिन गलत क्या पूछा इसने? किया तो था उसने प्रेम … नहीं प्रेम नहीं , इन्फेचुएशन था .. चन्द्र तो जान भी नहीं पाया था . पता होता तो उबकाई लेने के सिवा और क्या करता ? मुझे खुद शीशा देखते में उबकाई आती है .. उसने ग्लानि से शीशे की तरफ पीठ कर दी..जैसे अपनी अवहेलना को दरकिनार कर रही हो और दर्पण को भरोसा दिला रही हो कि तुम्हारे सच इनवरटिड इमेज के अलावा और हैं ही क्या .. वह लगभग कान के समीप आकर फुसफुसाते हुए बोली ..”नहीं, दमन था … पर स्त्री कभी बदसूरत नहीं होती … ..अच्छा , ये बताओ .. अपनी छोटी विवाहिता बहिन के सुखी परिवार को देखकर जलन होती होगी कभी-कभी ..” वह हैरत से उसे देखने लगी .. क्या कहे ? .. भला क्यों ? कन्नी , मलय , उनके दो बच्चे .. वे ही तो उसके दिल के सबसे करीब हैं .“
कहीं तुम उसके पति से प्रेम तो नहीं करतीं ..” जैसे एकदम गाज गिरी हो .. सीने में दर्द की चादर चली .. उसनें अपने होंठ काट लिए .. कैसा घिनौना मज़ाक है …“
बस ऐसे ही पूछ लिया ..अब कितने साल की हो गई होंगी तुम …”सफ़ेद बाल नहीं बता रहे उम्र ..चालीस की हो गई है वह ..
“
लगती नहीं हो ..” फिर बेहूदा मज़ाक .. ऐसी बिगड़ी हुई शक्ल .. उम्र से दस साल बड़ी लगती है वह .. और ये ..“
नहीं , सच नहीं लगतीं . काली हो ,पर तुम्हारी आँखें .. कभी इन पर गौर किया ? बहुत सुन्दर हैं ये . “ इतना मोटा चश्मा नहीं दीख रहा इसे … ख़ाक सुन्दर हैं …टलेगी नहीं क्या ..कितनी रात हो गई है ..“
बेवजह चिढ़ा मत करो .. खाना तो खा लो ..” कहीं से कोई उत्तर नहीं आया .. केवल रात रोशनदान से भीतर घुस रही थी .. शनै : शनै : नींद और स्वप्न ::उसने नाइट रेस्ट खाई और बिस्तर पर लेट गई . आँखें मुंदने लगी थीं .
ये एक चाज़्म था . इसमें एक नदी गिर रही थी और उस जगह सागर में मिल रही थी जहाँ सूरज अस्त होता है . अब ये घाटी सतरंगी होने लगी , जैसे अपने ही पोस्त की अफीम पीकर ये मदहोश हो गई थी . पहली बार उसने समुद्र का किनारा देखा था . पहली बार उसने नदी को सागर में गिरते देखा था . नदी के बीच में बड़े -बड़े पत्थर शांत पड़े थे . वे किसी टापू बनने की प्रक्रिया से गुज़र रहे थे . नदी के पाट पर लकड़ी का झूलानुमा पुल बना था , जो हवा के कारण रह रहकर हिचकोले खाता. यहीं एक चट्टान पर आबनूसी गठी काठी का एक पुरुष बैठा था . उसने एक चट्टान का टुकड़ा लिया . उसे खूब घिसा . चट्टान सफ़ेद निकल आई . झक सफ़ेद जैसे नदी की लहरों के फेन . फिर उसने इस टुकड़े को काटना शुरू किया .. सुनहरे बाल , काली आँखें , तिरछी भंवें , नुकीली ठोड़ी , पतले अधर , हलकी मुस्कान .. कुल मिलाकर एक नारी की प्रतिमा . कलाकार गौर से अपनी कृति देखता रहा .. कृति और कलाकार की आँखें मिलीं .. चिंगारियां फूटने लगीं . लोमहर्षक .. आह ! कलाकार प्रतिमा के सामने बैठ गया . ठीक उसके पैरों के समीप . अब वह रो रहा था .. मेरी प्रेयसी .. मैं केवल पत्थर की मूरत ही बना सकता हूँ .. पर मैं तुमसे अगाध प्रेम करता हूँ .. प्रतिमा ने आँखें झपकायीं .. उसका सफ़ेद बदन काला पड़ने लगा . चेहरे पर कई दाग उभर आये .. उम्र ढलने लगी . पर कलाकार अब भी उससे प्रेम करना चाहता था .. पिग्मेलियन प्रेम . फिर स्त्री पुरुष बन गई और पुरुष स्त्री ..
उस स्त्री पुरुष ने कातर आवाज़ में कहा … मेरा आबनूसी रंग और मेरे भीतर का पुरुष जो अभी भी शेष है … अब भी तुम मुझसे प्रेम करोगे … ?
हाँ …करूँगा …
वे कई सालों तक एक दूसरे से प्रेम करते रहे .. फिर एक दिन पुरुष लहरों में खो गया . स्त्री उसी द्वीप पर रोती रही . एक दिन वह एक चट्टान पर बैठी थी . रोते-रोते उसने कहा .. मैं माँ नहीं बन सकी .. हमारा कायाकल्प क्यों हुआ .. ? मेरे अन्दर एक पुरुष बचा रहा जिसकी कोख नहीं हो सकती थी .. न कोई रज्जू नाल …जिसके एक सिरे से बीज चिपका रहता .. वह बड़ा होता और … अगले दिन उसने अपने पेट को बड़ा होते देखा .. वह चौंक गई . उसी दिन उस द्वीप पर न जाने कहाँ से परिंदों का टोला उड़ता आया और अपनी चोंच से ठोंग मार-मारकर उस स्त्री को घायल कर दिया .. बहुत सारे जानवर चट्टानों पर घर बनाने लगे . उन्होंने इस स्त्री को नदी पार धकेल दिया .. जैसे -जैसे उसका पेट बड़ा होता गया .. उसकी काया में धर्म का जन्म होने लगा .. एक ऐसे भगवान् का जन्म जिसकी आँखों के सामने वह शर्मिंदा थी .. और उसकी मूर्ति के आगे अपराधी ..
उसे सिद्ध करना नहीं आता था कि आगंतुक ईसा का पिता कौन है .. उसे इसी अप्रमाणिक समय बिंदु से जीवन की शुरुआत करनी थी .. अवैधता न जाने माँ के लिए बनी थी या संतान के लिए ..
नींद भी किसी भूले हुए इतिहास की तरह होती है और स्वप्न : स्मृति का पल .. वह सबसे छोटा पल जिसके खंडहर पर आपका अवचेतन काई और फफूंद की तरह उगना चाहता है . अवचेतन अतीत से जुड़ा मौसमी कुकुरमुत्ता .. पीली , हरी घास या कि सदाबहार का जंगली बैंगनी फूल .. अपनी उर्वरा पर जन्म लेता है , करवट बदलता है और झड़ कर मिट्टी की परतों में दब जाता है . आमुख :: देह की ऐंठन से उसकी नींद खुल गई . वह पसीने से तर थी . उसने अपने पेट की तरफ़ देखा .. उठकर कई ग्लास पानी पिया और फिर से बिस्तर में दुबक गई . आज उसका मन ऑफिस जाने का नहीं था . वह अपना ब्लू प्रिंट पूरा करेगी . कितने दिन से अधूरा पड़ा है . काश कोई बेड टी पिला दे . चाय की हुड़क ने उसे जाग्रत किया .
उसने लेमन टी बनाई और कमरे में पड़े बान के सोफे पर बैठ गई . सामने कल का अखबार तह किया पड़ा था . उसने खोलकर भी नहीं देखा था .
तभी किसी ने कॉल बैल बजाई . प्याला रखकर वह देखने उठी . सुबह-सुबह कन्नगी को देख कर हैरानी हुई .
अरे ! हाँ , दीदी .. अन्दर तो आने दीजिये . आ न . सब ठीक तो है .. हाँ , सब ठीक है . आज ऑफिस जाते हुए सोचा कि तुमसे मिलती चलूँ . अच्छा किया .. चाय पीयेगी . न दीदी ..शाम घर आ रही हो .. क्यों कुछ .. दीदी .. तुम्हें कुछ याद भी रहता है .. आज हमारी वेडिंग एनीवर्सरी है . पूरे बारह साल हो जायेंगे . डिनर हमारे साथ .. ओह .. यूँ ही व्यस्तता में चीज़ें भूल जाती हूँ .. शाम जल्दी ही पहुँच जाऊँगी.. छ: बजे तक . आज अभी तक तैयार नहीं हुईं दी .. छुट्टी पर हो क्या ? हाँ , मन नहीं हुआ ..
बहुत थकी हुई लग रही हो .. तबीयत ठीक है न .. हाँ , कन्नी एकदम ठीक है , बस मानसिक थकान . तू यहीं रुक जा कन्नी .. पर ऑफिस .. अच्छा फ़ोन कर देती हूँ मलय को .. वही इन्फोर्म कर देंगे . पर दी बात क्या है ? चल रहने दे .. बेकार सी .एल . कटेगी . तू जा . तुझसे कुछ बात करनी थी . कोई जरुरी बात ? हाँ , शायद बहुत जरुरी ..पर अभी नहीं .. किसी और दिन .. फिर कभी .. नहीं दी .. अभी और आज ही . मैं कहीं नहीं जा रही .. कन्नी , बहुत अकेलापन लगता है . जानती हूँ दीदी . आज मैं जो कुछ भी हूँ आपकी वजह से हूँ . मलय , मेरा पूरा परिवार .. मेरी खुशियाँ .. सब आपके कारण हैं . तुम सभी को देख कर खुश होती हूँ .. मेरे कौन है आगे -पीछे .. जो है वह तुम सभी का है . ये फ़्लैट , कार .. सब कुछ . दीदी .. प्लीज़ .. बोलने दे कन्नी . जानती है जब से रिशु हुआ है .. तब से कुछ अजीब -से मंथन से गुज़र रही हूँ . aparna manoj
120 Comments
bohot hi umda hai…bhasha aur vicharon ka itna accha talmel hai..ki shabd hi nahi ban paa rahe hai…bohot hi achha….congrs..arpana ji…
मुझे कहानी की भाषा निश्चित रूप से प्रभावी लगी. ताजादम भी. पर शिल्प को लेकर अरुण देव ने जो सवाल उठाये हैं, उनसे सहमत हूँ एक हद तक. मुझे लगता है कि भाषा पर मेहनत की तुलना में शिल्प-कथ्य के संतुलन पर मेहनत थोड़ी कम हो गयी. खैर एक कवि के सामने ऐसे खतरे होते ही हैं. मुझे इस कहानी से और कई-कई कहानियों की उम्मीद जगी है.
too good …. speechless…
सच कहा दी आपने…. नारी का अंतर्द्वंद्व उसका अपना संसार है , जानती हैं आप जब इस कहानी की पहली कुछ लाईन्स को पढ़ा तो खुद को रोक दिया मैंने, सोचा इसे इत्मिनान से पढूंगी….ऐसे कि लफ्ज़ भीतर उतरते जाएँ और ऐसा हुआ भी…..दी, औरत के अंतर्मन और अंतर्द्वंद को बखूबी शब्दरूप दे पाई आप, इसमें निहित कितने ही बिंदु ऐसे हैं जिन्हें समझना एक जीवन को समझकर उसे जी लेने के समान होता है…..एक औरत, एक माँ, एक सामाजिक प्राणी और एक लेखिका सभी के मनोभावों को मानो शक्ल दे दी आपने….जी भर कर बधाई लीजिये …..
कहानी का प्लाट और उसका ट्रीटमेंट दोनों नए हैं…स्त्री मन को गहराई से आंकती कहानी…सचमुच अच्छी लगी…बधाई अपर्णा…
ज़िंदगी के कई पहलुओं को अपने में समेटे एक नई-सी और खूबसूरत कहानी…
अरुण देव आपने कुछ महत्त्वपूर्ण बातें कहीं . पर यहाँ मेरी आपसे असहमति है . कहानी के लिए अनुभव , भाषा और किस्सागोई की जरुरत रहती है , तो जिस कथानक को यहाँ उठाया गया है उसमें मातृत्व के अनुभव को नारी से अधिक कोई और समझ ही नहीं सकता . नारी का अंतर्द्वंद्व उसका अपना संसार है , उसके मनोविज्ञान और अवचेतन को पुरुष उथले तौर से तो समझ सकता है पर तह तक नहीं . मुझे नहीं लगा कि कहानी किसी अनुभव से नहीं गुज़र रही . रही बात भाषा की .. वह कहानी के अपने मनोविज्ञान के अनुसार ढलती है . जहाँ द्वंद्व हेल्युसिनेशन हो जाएगा , फ्रिग्मेंट बन जाएगा वहाँ भाषा abstract से concrete की ओर जायेगी . कभी-कभी काव्यात्मकता किसी कहानी की आवश्यकता भी हो सकती है . प्रत्यक्षा की स्वप्गीत इसी तरह की कहानी है . मैं इसे दोष नहीं मानती . और कहानी क्या किस्सागोई पर ही चला करती है ? सौलिलोकी में किस्सागोई का कितना स्थान रह जाता है . हाँ , घटनाएँ आती हैं पर अंतर्द्वंद से उठकर . ये एक अवचेतन मन की कहानी है और इसका शिल्प इस अवचेतन से कहीं नहीं भटका है .
सामाजिक रिश्तों की हमारी पारंपरिक सोच के बरक्स स्त्री के नैसर्गिक मनोविज्ञान और उसकी जैविक आकांक्षाओं को आकार देने वाली नयी मानवीय सोच की एक मर्मस्पर्शी कहानी, इस मानवीय अपेक्षा के साथ कि आने वाला समय-समाज इस सोच के प्रति अनुकूल रुख अपना सके। एक कलात्मक कहानी जो अपनी बुनावट में काव्य-स्पंदन का सा आस्वाद देती है।
*'दुनिया के पास अपराधों की फेहरिस्त में एक सलीब, एक भ्रूण और हत्या बची थी.'
'कई पेंटिंग्स मिक्स हो गई हैं, पर सभी की भाषा वही एक.. ब्रोकन वर्ड्स.'
'चेतना किस तरह अपने अनुकूल हेलिस्युनेशन बनाती चलती है! कमाल है!'
'नींद भी किसी भूले हुए इतिहास की तरह होती है और स्वप्न : स्मृति का पल .. वह सबसे छोटा पल जिसके खंडहर पर आपका अवचेतन काई और फफूंद की तरह उगना चाहता है .'*
ऐसी ही कितनी पंक्तियाँ कहानी में सुन्दर काव्यात्मकता का सृजन कर रही हैं….
एक कहानी जो कविता की तरह समस्या और समाधान दोनों समाहित किये हुए है….
भाषा का प्रवाह अंत तक बांधे रखता है!
एक ऐसी कहानी जो एक सांस में पढ़ी जा सकती है… एक ऐसी कहानी जिसका भाषिक सौंदर्य मन पर अमिट छाप छोड़ता है…, पात्र काल्पनिक होते हुए भी काल्पनिक नहीं लगते….
सभी नियमों से बड़ी है संवेदना और कहानी इस बात को सूक्ष्मता से स्थापित भी करती है… यही तो कमाल है!
अपर्णाजी, आपने बहुत अच्छा किया बता दिया। जानकीपुल का मैं अनुसरण कर रही हूं पर न जाने क्यों मेरे ब्लाग के रोल पर इसकी पोस्ट नहीं दिख रही।
आपकी कहानी बहुत ही अनूठे शिल्प की सशक्त कहानी है।
कविता का आस्वाद भी है कहानी में।
कहना तो बहुत कुछ चाहती हूं पर निशब्द हूं।
ढेर सारी बधाई और अनंत शुभकामनाएं।
भाषा और शिल्प के स्तर पर प्रयोग के साथ साथ कथ्य का नयापन भी हमें झकझोरता है …समाज की बनावट और मिजाज को दुरुस्त करने के लिए आज साहित्य में जबाब बहुत माँगा जा रहा है | हाशिए के समाज की उठी हुयी ये आवाजें और मुखर हों , हमारी कामना है ..| अपर्णा जी को बहुत बधाई …
अपर्णा मनोज के पास संवेदना की थाती है. कहानी के लिए अनुभव, भाषा और किस्सागोई की भी जरूरत होती है. विषय नया है. शिल्प पर थोड़ा और काम करना चाहिए था. कई बार प्रयोग की अधिकता कहानीपन का नुकसानकरती है.
कुल मिलाकर काव्यमयी भाषा के लिए यह कहानी याद आयेगी.
एक अलग तरह की कहानी। पोयेटिक इलेमेंट का उपयोग कविता का-सा सुख देता है। बहुत-बहुत बधाई अपर्णा जी को… प्रभात भाई का आभार….
नाल की तरह खुरों में ठोका हुआ अकेलापन …
kubsurat bhasha, khusuratee kahani, beech me ek do jagah swadesh deepak yaad aaye
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