किसने कहा था कि कविता असल में चिंतन की एक शैली है, याद नहीं. लेकिन युवा कवि मृत्युंजय की कविताओं को पढते हुए अगर इस वाक्य का ध्यान आ जाता है तो अकारण नहीं है. एकध्रुवीय होते इस विश्व की क्रूर लीलाएं, विश्व-ग्राम के छदम उनकी कविताओं में उद्घाटित होते चलते हैं. मृत्युंजय की कविताएँ हिदी में बौद्धिक कविताओं की क्षीण होती परंपरा के धवल हस्ताक्षर की तरह हैं. वे सबसे मौलिक न सही सबसे अलग युवा कवि निस्संदेह हैं, ‘सभ्यता समीक्षा’ के कवि. रविवार को ‘कवि के साथ’ कार्यक्रम में उनको सुनने का अवसर होगा. फिलहाल उनकी कुछ चुनी हुई कविताएँ पढते हैं- जानकी पुल.
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1.
डी फॉर …
मस्तक नेटवर्क में आ पहुंचा हैकर
आओ, ताकत के अवतार.
सिरजनहार हमारे भय के औ सपनों के
आगच्छ, तिष्ठ, कल्याणं कुरु !
लाख-लाख घोड़ों की ताकत से
उत्तर-हिमालय और दक्षिण-समुद्र बीच
फंसी लाश खींच रहा
बड़े-बड़े टायकून अफलातून दोगले दलाल मददगार हुए
टूट रहे त्वचा घिरे अस्थिजोड़
खिंचे चले जाते हैं संग-संग
भीषण तनाव है, सीने में घाव है
नोकदार गहरा हुआ आया संक्रमण
धड धड धड गिरे चले जाते सब
घने मजबूत और बावले दरख़्त
पैरों को गर्दन में फंसा
हाथ बांध लिए पीठ पर
निकला हूँ लड़ने
ई-फील्ड ई-दुनिया ई-पूंजी ई-विरोध
ई-ऐक्टिविज़्म
मिडिल क्लास मुख-सुख है
डूब मरूं, शर्म करूं
क्या फैशन करूं?
कहो मार्क जुकेरबर्ग के
चरणों पर गिर पडूं?
बोलो तो,
लिंक की बग्घी में क्लिक-घोड़ा जोड़ो तो …
अलबेले उत्तर हैं आधुनिक डिजाइन
प्रश्न जो कभी तो पूछे ही नहीं गए
सांचे में गढे-मढे भीषण समरूप
एक बरन एक रूप
दुनिया के सारे स्थापत्यों
मस्जिदों मंदिरों और बुर्जियों
पर काबिज हैं बहुराष्ट्री शीशमहल
इतिहास हीन
वाशिंगटन न्यू जर्सी लीबिया त्रिपोली
पाकिस्तान भारत और इटली और फ्रांस
फेसबुक अरमानी जाब्स और अम्बानी
खूंखार रक्त चषक और बिसेलरी पानी
भारत के भीतर भी आ गया अमरीका
यूरेका ! यूरेका !!
पारदरस मलमल की झिलमिल कमीज ओढ़
निर्लज्ज नायक का बेहूदा बदन गठन
आधुनिक सुन्दर श्रमहीन देह
अब हमारे अपने हैं
टैंको बेल कोला और बिग बाजार
बे-रोजगारी और बर्बरतम सपने
आधुनिक हैं पुलिस के आयातित फाइबर मढे डंडे
इनकी तो यारी है – पर एनम फिक्स रकम
बांस के डंडे वे लगा किये पीठ से
दीठ से, हल्का सा बलप्रयोग
गायब शब्दकोष से
दुनिया को बूढ़ी निगाहों के सपनों में ढूंढें है छोकरा
सूअरबाडे माफिक रचे गए देश में
चिलमन है गद्दा है/ टीवी है तकिया है
मोबाइल इंटर-नेट/ ओबामा, बिल गेट
डंडे की यादों की समिधा है, आग चटक रंग सुर्ख
चित्र बना बेच रहा, आओ खरीदारों
कैसी यह दुविधा है?
बढ़िया यह सुविधा है…
डॉलर के लचकीले डिजाइन की लपेट में
फंस गयी बहुप्रसवा पृथ्वी
लहर बहर अंतिम हिचकोले खा
हिचकी में फूट पड़ी
‘कोई मदावा करो, जालिमों मेरे भीतर
असीर जख्मी परिंदा है एक, निकालो इसे
गुलू-गिरफ्ता है, ये हब्सदम है, खाइफ़ है
सितमरसीदा है, मजलूम है, बचा लो इसे‘ *
किसे अपील करे, किससे गवाही चाहे
सुनता हूँ मरम बेध चीत्कार
मां मेरी पृथ्वी मां मातृभूमि
बत्तीस आभरणों की जननी
कानों में खुंसा हुआ दुगुनी रफ़्तार से
चीख रहा ईयरफोन
‘कोलाबरी ….. डी‘
डी फॉर डैमेज एंड डिस्ट्रक्शन
भूल गए !!!
कुचीपुड़ी गरबा बिदापति औ नकटौआ
आख़िरी बार नचाकर
काट लिए पैर
साहेबान, मेहरबान, कदरदान
आधुनिक सिपह-सलार
घंटी तो न्याय की लगी हुई रहा करे
बजती है नाटो की ताल पर
आदिम सभ्यताओं की सूखी हुई खाल पर
पर डॉलर एक स्त्री,
हर डॉलर एक दलित
डॉलर में सौ ठो बेचे हूँ उर्दू
बद्दू, घुमंतू औ जर्दू
सब कुछ का एक डालर
ऐसी समानता
अंधेर नगरी की चौहद्दी
बढ़ी चली आयी औ हिरदय में
खुभ गयी
चुभ गयी सर्व-रस-ग्राही वह जीभ
नेटवर्क में घुस आया हैकर
आदतन बेरोजगार पशु
ईरादतन नेक
सर्जरी के पुरातन साफ्टवेयर में
कुंडली का योग बिठा
क्रास से नए बने रूपया निशान में
रिजर्व बैंक की साईट पर घूम रहा
आशा में कल को
कोई पहचानेगा क्षमता
पांच लाख डॉलर पर एनम
का काम…
हे राम!
* अख्तर उल ईमान की काव्य पंक्तियाँ
2.
दृश्यांकन
ज्ञान से अनुराग से और ज़बर से
सत्य का पोपला वह मुंह खोह जैसा
गोह जैसा चिपकता चलता गया
उजाले से बने आतंक के सर
चुनिंदा जिस्म के मन के
आये गज बाजि उपवन वाटिका सब भर गई है
कर गई है वक्त की गति को रसीली
हो गई गीली सतह
तह तक कोई भी रास्ता अब नहीं जाता
लौट आयी है वही भागीरथी
उलझती सांप बिच्छू गरल कंठों से
जटाओं की असंभव कैद में प्रमुदित दिखी सी
करोड़ों साल से
खुशी के इस अनोखे नाद में
हज़ारों साल की चुन दी गई फ़रियाद में
डूबे हुए है लाख दिल हैं लाख दर्द
सौ करोड़ रसोईयां
हैं बिना श्रम की दहकती सी आग
इस प्रजाति की यही अंतिम विदा बेला
अर्चना अभ्यर्थना की मांग में है श्मसानी राख
कहानी यूँ रही क़ि नहीं कोई बात
बच कर बच गई
है रात हर मुश्किल डगर में पोसते हैं
हाथ दिप दिप से उजाले
हमारे ही दिमागों में बने हैं बिल्डिंगों के कई माले
खिडकियों से शून्य टकराती हैं तन की नयी लीला
मन जो तन में खो गया है
जो होना वह हो गया है
जागती है अखिल संसृति
विकृति की पर्वत लहरियां बांधती हैं देश को नभ को क्षितिज को काल को थल को
देह मन में
कहीं ख़तरा नहीं है
हड्डियां और खोपड़ी सब हैं अलहदा
अदा ऐसी जी जले जल कर फले फल कर गले गल कर चले चल कर
कहीं पहुंचे नहीं मैं भटक जाता हूं
रफ्ता रफ्ता बढ़ते हैं नाखून
ना! खून बढ़ता है रफ्ता रफ्ता
रफ्ता रफ्ता हत्याएं होती हैं
रफ्ता रफ्ता बलात्कार
रफ्ता रफ्ता बदलती है सरकार
यह भी कितना सुखद है दृश्य
क़ि हम सब अदृश्य खिड़की से सटे अदृश्य दुनिया में अदृश्य शब्दों से
दृश्य गढ़ते चले जाते जा रहे होते हैं.
किलेबंदी टूट जाए तब जब कोई किला हो
किला नहीं है और बंदी टूट जाएँ ऐसा सिर्फ
वर्तमान और इतिहास की हथेलियों की रेखाओं में दर्ज है
भविष्य के चक्के में फंस गया है दुपट्टे का ज़री वाला काम
लाम पर कट रही हैं छोकरी की देह
3.
चलें…?
कोई लता अचानक किसी पेड़ की गर्दन से लिपट गयी
खून का दबाव भयानक हुआ… और
पत्तियाँ गिर पड़ीं जमीन पर,
चू पड़ीं
शहरों से कस्बों तक सड़कों पर दिख रहे
नन्हें चमकीले सांप
जहर भरे दोजखी
कान-आँख-नाक कहीं घुस जाने वाले
बिल्ली के पुरखे,
वे चमकीली आँखों से घूरते हैं
बार-बार मत्स्यगंधा छोकरी की
आँतों से कसे हुए सपनों को
खुफिया जासूस हैं हवाएं,
उनचास पवन दुश्मन के ठीहे पर बा-कतार
भरते हैं हाजिरी,
हर अग्निकांड के पहले और बाद
भाड़ में जाय ऐसी नीली मीमांसा
हत्या को आत्महत्या की बोतल में बंद करो
बहा दो खारे पानी के आसमान में
आत्महत्या के आजू-बाजू कन्धों
सभ्यता के देवदूत बैठा दो
चलो अब तुम्हारे चमन को चलें …
शहीद रेचेल कोरी की याद
जिन्होंने इजराईली टैंक के पहिये तले फलस्तीन के लिए जंग लड़ी.
रेत का एक महल है
बड़ा चमकदार और ठोस
प्रेतों के प्राण भी कांपते हैं थर थर थर
शव की तरह अटके दिखते हैं चिमगादड
दम साध गोल-गोल निश्चल नन्हीं आँखों
रुकी हुई
घूरा किये हर आने जाने वाली/वाले को
उनकी आँखों में है खालिस भविष्य
पटरा है वर्तमान पसरा सा नींद भरा
समय की गेंद उछल कर हमारे पार जा चुकी होगी
भारत की आधुनिक निर्मल व्याख्या हो चुकी होगी
बारीक धार चाकू से उधेड़ दिया गया होगा देश
बिना नमक कच्चा गोश्त चबाने का मौसम होगा
अंतिम समय अनंत समय के लिए टाल दिया गया होगा
तुम्हारे निचले होठ के मांस में दर्द भीषण बढ़ रहा होगा
टेसू फूले होंगे
एक विराट हांडी है
खुदबुद खुदबुद करती श्वेत-लाल पट्टों पर टंगी हुई
चमचम सितारों भरी नीली सपनीली
कठिन करेजे को चीर रही गीली सी भाप धुन
सुन सुन सुन चुन चुन चुन
एकोहं एकोहं एकोहं
नाश हो तृतीय का
पूंजी की नाल ठुंके राष्ट्र राज्य के घोड़े
खींच रहे चैरियेट, सांवल रंग हत्यारा विश्वजयी
हमारी शिराओं के रस्ते पर बढ़ा चला आया है मन तक
उससे अछूता नहीं भीतर का रन तक
घन तक और बन तक जन तक दर्पण तक
दर्पण के पीछे का मोरपंख कहाँ गया?
एक अष्टपाद है अस्थिहीन,
हाथ, हाथ सिर्फ हाथ, सूचना का जाल और माथ
पृथ्वी भर बिंधे हुए लाखों करोड दृग, एक-एक मीन-मृग
खारे समुन्दर का राजा वह चषकों में रक्त ढाल उन्मत्त
लहरों की बाहें मरोड़ तोड़ देता है
मकर-उरग-झखगन सब
एक-इक इशारे पर जमींदोज किये गए
लाखों बरस के प्रवाल द्वीप, जमी सभ्यताएं और प्रायद्वीप
किताबें खत्म हो चुकी होंगीं
बर्क और कोहे-तूर दोनों इंतज़ार में मुरझा गए होंगें
नीम के पेड़ों से लटकती आत्माओं की याद स्मृति से धुली जा चुकी होगी
मरी हुई बोलिया सुरक्षित ताबूतों में सहेजी ली गयी होंगीं
जंगल के सीने से बहता खून रुक नहीं पा रहा होगा
9 Comments
नई और ताजगी भरी. निपट मौलिक और महा आधुनिक की तो तलाश भी नहीं, सवाल तो प्रतिबद्धता का है. सम्भावना के कवि और उम्मीद जगाती कवितायेँ. मृत्युंजय को बधाई.
prhaar karti hain kvitaye..
भाड़ में जाय ऐसी नीली मीमांसा
हत्या को आत्महत्या की बोतल में बंद करो
बहा दो खारे पानी के आसमान में
आत्महत्या के आजू-बाजू कन्धों
सभ्यता के देवदूत बैठा दो
चलो अब तुम्हारे चमन को चलें …
सभी कवितायेँ अच्छी ''चलें बहुत अच्छी |धन्यवाद प्रभात जी
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