जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

यह बात हम सभी जानते हैं कि एक ही रचना को पढ़ने का अनुभव जीवन के अलग-अलग पड़ाव पर कभी-कभी एक जैसा तो कभी-कभी सर्वथा भिन्न होता है। ऐसी ही कुछ बात वरिष्ठ कथाकार गोपेश्वर सिंह ने मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास ‘कसप’ के अपने पाठ को लेकर की है। गोपेश्वर सिंह के इस समीक्षानुमा लेख को आप भी पढ़ सकते हैं – मॉडरेटर

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मुझे लगता है कि जो प्रेम-कथाएं ‘बेस्ट सेलर’ मानी जाती हैं किशोर वय में या युवाकाल में पढ़ने पर एक तरह का अनुभव देती हैं और पचास पार के वय में पढ़ने पर दूसरे तरह का। ऐसा लिखते हुए मेरे सामने दो प्रेम कथाएं मिसाल के तौर पर मौजूद हैं। इधर मैंने ‘देवदास’ (शरतचंद्र) और ‘गुनाहों का देवता’ (धर्मवीर भारती) को दुबारा पढ़ा। दोनों उपन्यास पचास-साठ पृष्ठ के बाद भारी लगने लगे। तेजी से पन्ने उलटते हुए मैंने पूरा किया। मैंने अपने कुछ युवा मित्रों को पढ़ने के लिए कहा। उन्होंने पढ़ा, लेकिन उनकी कोई उत्साहजनक प्रतिक्रिया नहीं थी। इन उपन्यासों को जब मैंने अपने छात्र जीवन में पढ़ा था तो उस समय मेरी प्रतिक्रिया दूसरी थी। पहली यह कि जब पढ़ना शुरू किया तो दम साधकर पढ़ता रहा। जब तक खत्म नहीं किया, दूसरे किसी काम में हाथ न लगाया। दूसरी यह कि लगभग दो सप्ताह तक मन पर उदासी छाई रही, जैसे प्रेम-दुर्घटना, देवदास या चंदर के साथ नहीं, अपने साथ घटित हुई हो। आज ऐसी बात पर और अपने पर हँसी आती है।

मेरी जैसी प्रतिक्रिया आज के युवा मित्रों पर न हुई। उन्हें इन उपन्यासों में व्यर्थ की भावुकता नजर आई । उन्हें यह भी लगा कि देवदास और चंदर जमाने से दो-दो हाथ करने वाले प्रेमी नहीं हैं। उन्हें ‘कसप’ के डी.डी. और बेबी ज्यादा बेहतर और ज्यादा संघर्षशील चरित्र लगे। व्यर्थ की भावुकता से ऊपर प्रेम की टीस को जीते हुए, मगर जीवन की सार्थकता की खोज में अग्रसर। मुझे यह भी लगा कि आज की युवा मानसिकता बदल चुकी है। उसे ‘देवदास’ और ‘गुनाहों का देवता’ जैसी प्रेम कथाएं प्रभावित नहीं करतीं।
‘कसप’ पर अपने युवा मित्रों की तरह मेरी भी प्रतिक्रिया भिन्न है। जब पहली बार पढ़ा था तब भी भिन्न थी, आज भी भिन्न है। मुझे लगता है कि यह भावुक प्रेम कथा नहीं है। भावुकता की जगह व्यावहारिक जिंदगी की वास्तविकता से टकराती इस कथा में कुल खानदान की प्रतिष्ठा से डरकर नायक-नायिका छिप-छिपकर घुटते नहीं। अपने प्रेम को पाने के लिए वे जमाने से दो-दो हाथ करने में तनिक भी न डरते हैं, न घबराते हैं। पिछली पीढ़ी की प्रेम-कथाओं के नायक-नायिकाओं की तरह वे अपने प्रेम को छिपाते नहीं, डंके की चोट पर घोषणा- सी करते हैं। पहले अक्सर प्रेमकथा के नायक-नायिका का प्रेम प्रसंग रात के अंधेरे-सा होता था, ‘कसप’ में उजाले-सा है। प्रेमकथा के नायक-नायिका पहले एक-दूसरे के लिए बलिदान देते थे, इस प्रेमकथा में एक-दूसरे के लिए बलिदान का कोई भाव नहीं। कोई किसी के लिए अपनी इच्छाओं का न तो दमन करता है और न बलिदान करता है। यहां नायक-नायिका एक-दूसरे से उतना ही गहरा प्रेम करते हैं, जितना किसी भी जमाने के प्रेमी-प्रेमिका करते थे। उनका भी प्रेम उतना ही खरा और सच्चा है जितना पहले के प्रेमी-प्रेमिकाओं का होता था। लेकिन प्रेम के खरेपन के बावजूद एक फर्क यह है कि वे लिजलिजी भावुकता से मुक्त हैं और इस तरह लिजलिजे और अतार्किक बलिदान भावना से मुक्त हैं। ‘कसप’ एक तरह से लिजलिजी भावुक प्रेमकथा से मुक्ति का आख्यान है । एक अर्थ में यह नए जमाने की नई प्रेमकथा की प्रस्तावना है।

कसप’ बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की युवा मानसिकता की प्रेमकथा है। उस युवा मानसिकता की जिसकी आंखों के सामने देश-दुनिया की वास्तविकता खुली है और जो अपने सपने को हासिल करने के लिए कोई भी जोखिम उठाने को तैयार है। इसलिए बेबी या डी.डी. अपने प्रेम को किसी से छिपाते नहीं। उसके लिए संघर्ष करते हैं और उस संघर्ष में एक तरह से जीतते भी हैं। लेकिन यह जीत प्रेमकथा के न तो सुखांतवादी परिणति को प्राप्त होती है और न दुखांतवादी परिणति को। यह प्रेमकथा सुखांत या दुखांतवादी ढांचे को नकारती है। यह ऐसे अंत की ओर जाती है जो प्रेमकथा के परंपरागत ढांचे को तोड़ती है। नायक-नायिका विपरीत पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के बावजूद मिलन और विवाह की स्वीकृति तक पहुंचते हैं। लेकिन विवाह के लिए अपने एवं व्यक्तित्व की आत्म-रक्षा भी वे जरूरी मानते हैं। इसलिए सब कुछ अनुकूल हो जाने के बावजूद डी.डी. और बेबी के प्रेम की परिणति विवाह में नहीं होती। दोनों के जीवन की दिशा बदल जाती है। बेबी एक प्रतिष्ठित व्यक्ति से विवाह करके ग्राहर्स्थ के भीतर सामाजिक प्रतिष्ठा की ऊंचाई छूती है तो डी.डी. अविवाहित रहते हुए मुक्त औरतों के साथ मुक्त जीवन जीते हुए अंतर्राष्ट्रीय स्तर का प्रसिद्ध फिल्मकार बनता है। वे एक-दूसरे के लिए अपने शरीर और कौमार्य को बचाए रखने का भावुक फैसला नहीं लेते, जैसे कि पूर्व के बहुत-से नायक-नायिका ऐसे भावुक फैसले लेते और जीते हुए दिखाए जाते थे। वे एक-दूसरे की याद में रोते हुए अकेलेपन में जीवन को नष्ट कर देने की भावुक परिणति को भी नहीं अपनाते। वे अपना-अपना जीवन अपने-अपने तरीके से जीते हैं। लेकिन प्रेम की अंतःसलिता उन दोनों के बीच बहती रहती है।
इस अर्थ में यह नई प्रेमकथा है। नायक-नायिका अपनी-अपनी दुनिया में ऊपरी तौर पर व्यस्त हैं। सुखी, संपन्न और खुश हैं। लेकिन अपनी चाहत में अब भी वे एक-दूसरे के हैं। बेबी को ‘लाटा’ डी.डी. पसंद है। प्रेमकथा के प्रारंभ में ही डी.डी. का लाटापन बेबी को खूब पसंद आता है और डी. डी. को हथेली की आड़ से हँसने वाली बेबी। दोनों के व्यक्तित्व की ये खूबियां (जो दुनिया की नजर में खराबी ही मानी जाएगी) अंत तक बनी हुई हैं और कमाल यह कि उम्र के ढलान के समय भी बनी हुई हैं। कथा के अंत में डी.डी. और बेबी की मुलाकात होती है। एक तटस्थता के बावजूद लग जाता है कि दोनों एक-दूसरे को भूले नहीं हैं। जैसे दोनों जीवन भर एक-दूसरे को ही खोजते रहे हों। इस प्रेमकथा को सुखांत और दुखांत की परिधि में नहीं रखा जा सकता। इसलिए यह ऐसी प्रेमकथा है जो पुरानी सुखांतमयी या दुखांतमयी प्रेम-कथाओं की सीमाओं का अतिक्रमण करती है। डी.डी. अपनी सफलता के बाद अपने पुराने गांव गया है। वहां बेबी की बेटी गायत्री मिलती है, जो उसी की तरह मुंह पर उल्टी हथेली रखकर हंसती है। ‘वह उसका हंसना देख रहा है अपलक। अनुभव कर रहा है वह टीस उस अतीत को जो भविष्य नहीं हो सकता।’ (पृ. 296) यह टीस ही इस नई प्रेमकथा की आत्मा है।

‘कसप’ का अर्थ है–‘क्या जानें।’ प्रेम की अब तक जो कहानियां पढ़ी-सुनी जाती हैं वे प्रेम को, उसकी दीवानगी को परिभाषित करती-सी हैं। ‘कसप’ शीर्षक के बहाने लेखक बताता है कि प्रेम क्या है, कैसे होता है, उसकी दीवानगी कैसी होती है यह कौन बता सकता है? वह लगभग अपरिभाषेय है। इसी अपरिभाषित प्रेम का दर्शन ‘कसप’ उपन्यास के जरिए मनोहर श्याम जोशी रचने की कोशिश करते हैं। 
‘कसप’ की भाषा और शैली में ऐसा खिलंदड़ा अंदाज है जो पहले की प्रेम कहानियों में बिल्कुल नहीं होता था। चुहलबाजी के साथ इस कहानी की शुरुआत होती है – पहाड़ी शहर नैनीताल में और अंत भी पहाड़ में ही। जो अंदाज पहले था अंत में बेबी की लड़की गायत्री के बहाने वही उपस्थित हो जाता है। यह खिलंदड़ा अंदाज कथा नायिका बेबी के व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा है जो पूरे उपन्यास के विन्यास पर छाया हुआ है। एक प्रसंग देखिए। नायिका नायक को चाय देती है। नायक की चाय रखी हुई है। नायिका के पूछने पर वह कहता है कि वह गरमा-गरम चाय नहीं पीता। नायिका छेड़ती है- ‘फूक मारकर ठंडी कर दूं भाऊ?’ भाऊ यानी बच्चे। अंत में वर्षों बाद जब डी.डी. अमेरिका से लौटता है। उसके जूते के फीते की गांठ पड़ जाती है तो बेबी यानी मैत्रेयी मिश्र उसे खोलती है और कहती है : ‘अगर तेरा-मेरा यह सुनकर। वह मानकर ऐसा हुकुम चलाने का कोई रिश्ता है तो मेरा भी एक हुकुम सुन-फीते वाला जूता, नाड़े वाला पायजामा मत पहनाकर। तेरे बस की बात नहीं रे।” और इतना कहने के बाद – “यह औरत अब उल्टी हथेली भी आड़ में हंस रही है।” डी.डी. कहता है, “मेरे बस का कुछ नहीं री, भुस हुआ मैं भुस गंवार।” इस पर मैत्रेयी कहती है-“तू अमेरिका भाड़ झोंकने गया था जो भुस का भुस लाटे का लाटा ही लौट आया। बिल्कुल नहीं बदल रहा।” (पृ. 303)
बेशक प्रारंभ में और अंत में भी भाषा और शैली में खिलंदड़पना बरकरार है, मगर प्रारंभ में जो उत्सव की तरह है अंत में दर्द की शक्ल में-एक टीस की तरह । डी.डी. कहता है : ‘कोई नहीं बदलता। तू भी कहां बदल रही। एक स्वांग जैसा बना रखा तूने, छिप जो क्या जा रही तू उसमें।” (पृ. 303) दबा हुआ प्रेम दोनों के मध्य मुखर होता हैं, लेकिन यह मुखरता प्रेम को अपरिभाषेयता में ही ले जाती है। मैत्रयी कहती है कि अगर अगला जन्म होता हो तो, “मैं यही चाहूंगी, यही मनाऊंगी भगवान से कि तू मेरे अयोग्य पाया जाए लाटे … बार-बार तू मेरे अयोग्य ठहरे, बार-बार मैं आ सकूं इस सुंदर संसार में तुझसे पीछा करवाने के लिए।” इतना कहने के बाद ‘यह औरत उलटी हथेली की आड़ में हंसती है।’ इसके साथ ही डी. डी. का हाल प्रथम प्रेम के प्रथम मिलन जैसा है : “इस आदमी के खून में अभी तक अनजाना एक हार्मोन प्रवाहित हो रहा है जो कंठ में जाने कैसी शुष्कता गात में जाने कैसा कम्प आदि उत्पन्न कर रहा है। उसके प्रभाव को झुठलाने के लिए वह मुस्कुराने की कोशिश में है । वह मुस्कुरा नहीं पा रहा है। इसलिए होंठों पर जीभ फेर रहा है।” (पृ. 304) जो लोग प्रेम के शास्त्रीय विधान से परिचित हैं, वे जान सकते हैं कि प्रेम का वही अनजाना भाव नायक-नायिका में अंत तक ‘बना हुआ है।

‘कसप’ में ऊपरी तौर पर कथा कहने का बहुत ही अनौपचारिक अंदाज है, लेकिन भीतर ही भीतर एक सजग कथा दृष्टि के तहत लेखक कथा कहने का नया अंदाज लेकर उपस्थित होता है। एक उस्ताद कथाकार की तरह लेखक शुरू से आखिर तक प्रेम-कथा और उसकी शैली को लेकर सावधान है। बीच-बीच में वह सावधानीपूर्वक प्रेम की प्रकृति पर टिप्पणी भी जड़ता चलता है। कथाकार प्रेम को युवापन का ही बेगवान प्रवाह मानता है। नायिका से मुलाकात के बाद और थोड़ी-सी चुहलबाजी के बाद नायक के मन का हाल देखिए : “उसके मन में दो परस्पर विरुद्ध प्रार्थनाएं झकझोर रही हैं। पहली यह कि जो लड़की मैंने अभी-अभी देखी, इस जन्म में फिर कभी उससे सामना न हो। दूसरी यह कि जब तक सांस चल रही है मेरी तब तक यही लड़की प्रतिपल मेरी आंखों के सामने रहे। प्रेम होता ही अतिवादी है। यह बात प्रौढ़ होकर ही समझ में आती है उसके कि विधाता अमूमन इतना अतिवाद पसंद करता नहीं। खैर, सयाना-समझकर होकर प्यार, प्यार कहां रह पाता है।” (17-18) कहने का तात्पर्य यह कि सयाने- समझदार ढंग से इस अल्हण प्रेम-कथा को बुनने की कोशिश की गई है।

नैनीताल-अल्मोड़ा से शुरू हुई यह प्रेमकथा दिल्ली, बंबई और अमेरिका तक फैली है। एक बड़े फलक पर फैली इस प्रेमकथा के कई आयाम हैं, किंतु केन्द्रीय प्रश्न है वही अतिवादी किशोर प्रेम जो नायक देवीदत्त तिवारी यानी डी.डी. को अमेरिका से पहाड़ में अपने गांव के पास खींच लाता है। और यही मिलती है उसकी जीन सिम्मंस बेबी, जो अब सभ्रांत महिला मैत्रेयी मिश्र है। नायक पहाड़ में आकर और अपनी जीन सिम्मंस से मिलकर उसी प्रेम को खोज रहा है, जिसे वह खो चुका है और जो उसे जीवन भर टीसता रहा है।

उपन्यास का अंत भयंकर उदासी में होता है। शायद सभी प्रेम कहानियों की यही अनिवार्य परिणति है। प्रेम शायद पाने में नहीं, जीने में है। डी.डी. उसी उदासी को जी रहा है। उसी उदास को छिपाए वह पूरी दुनिया घूमता रहा है। कथा के प्रारंभ में डी. डी. को लगता है कि प्यार एक उदासी-सी चीज है और बहुत प्यारी-सी चीज है उदासी। आगे है : “अब वह उदास ही नहीं, आहत भी था । उदास और आहत, दोनों होना, उसे कुल मिलाकर प्रेम को परिभाषित करता जान पड़ा।” और अंत में भी डी.डी. उदास और आहत है। और कहानी के इसी मोड़ पर दृश्य फ्रीज हो जाता है। प्रश्न है कि आखिर क्या है डी.डी. और बेबी का संबंध ? उत्तर एक ही है-‘कसप’।

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