गरिमा श्रीवास्तव ने बहुत लिखा है। बहुत महत्वपूर्ण अकादमिक लेखन किया है। लेकिन उनकी किताब ‘देह ही देश’ का अलग ही मुक़ाम है। कह सकते हैं कि इस किताब से उनको अकादमिक जगत के बाहर व्यापक पहचान मिली। पहले इस किताब को राजपाल एंड संज ने प्रकाशित किया और बाद में राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया। युद्ध और स्त्री के विषय पर लिखी इस किताब से आज भी पाठक जुड़ते रहते हैं। आज पढ़िए इस किताब पर कुमारी रोहिणी की टिप्पणी- प्रभात रंजन
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गरिमा श्रीवास्तव की ‘देह ही देश’ अपने पहले प्रकाशन के समय से ही रीडिंग लिस्ट में थी, लेकिन इसका पाठ मैंने लगभग दो महीने पहले शुरू किया था। हालाँकि बीच में कई और किताबें पढ़ीं और अब भी पढ़ी जा रही हैं लेकिन इस किताब की अपनी एक जगह है। इसे पढ़े जाना का मेरा अपना तरीक़ा और सच कहूँ तो स्पीड भी। पीएचडी के बाद शायद ऐसा पहली बार हो रहा है जब किसी किताब को पढ़ते हुए पेंसिल की ज़रूरत महसूस हुई और पढ़ना रोककर पहले जाकर पेंसिल ख़रीदी गई क्योंकि अंडरलाइन करने को इतना कुछ मिल रहा था मानो उसे रेखांकित ना किया जाए तो वह उस ट्रेन की तरह हो जाएगी जो चंद सेकंड से छूट जाती है और आप मुँह ताकते रह जाते हैं।
इस किताब को पढ़ते हुए आप जैसे जैसे आगे के पन्नों पर जाएँगे वैसे वैसे आपको लगेगा मानो किसी तेज चाकू की नोक आपके गले के सबसे कोमल हिस्से पर चुभाई जा रही है।
आज के दौर में जब स्त्रियों और उनकी हालत को लेकर बड़ी आसानी से मीम और जोक बना दिये जाते हैं, ऐसे समय में ‘देह ही देश’ जैसी किताब के बहाने स्त्रियों के इतिहास और उस पर होने वाले शोषण के इतिहास को पाठकों के सामने लाने का काम आसान तो नहीं है। हालाँकि लेखक गरिमा श्रीवास्तव इसे एक यात्रा वृत्तांत और रोज़नामचे के रूप में दर्ज करना शुरू करती हैं लेकिन एक पाठक को यह किताब एक स्त्री द्वारा उसके काम की वजह से की जाने वाली दूसरे देश की यात्रा का ब्योरा नहीं लगता बल्कि यह यात्रा वृतांत है उन तमाम स्त्रियों का जिन्होंने चाहे-अनचाहे ना जाने कितने देशों को स्वाधीन बनाने के लिए अपने स्व की बलि दे दी या कहें कि उनसे ये बलि ले ली गई।
इस किताब को पढ़ते हुए मुझे सो छंग-हुई कि लिखी किताब ‘दी कम्फ़र्ट वीमेन’ की याद आई। सो ने यह किताब कोरियन पेनिनसुला के उन औरतों के जीवन पर लिखा है जिन्हें द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापानी सैनिकों के शारीरिक सुख को पूरा करने के लिए जबरन सीमाओं पर भेज दिया जाता था और सैनिक उनके साथ शारीरिक संबंध बनाते थे।
दो विभिन्न देश, दो अलग दुनिया और दो लगभग अलग-अलग परिवेश, लेकिन औरतों की स्थिति और परिस्थिति में जरा सा भी फ़र्क़ नहीं। वो कहते हैं ना जब वीमेन इन वर्ल्ड इनसाइक्लोपीडिया देखें तो सबका हाल एक ही दिखता है।
जहां एक तरफ़ सो छंग हुई पचास के दशक की कोरियाई महिलाओं और उनकी स्थितियों का ब्योरा अपनी किताब में दर्ज करती हैं वहीं गरिमा श्रीवास्तव आज इक्कीसवीं सदी में सात समंदर पार जाने के बाद भी महिलाओं की वास्तविक स्थिति और परिस्थिति से अपनी नज़र नहीं हटा पाती हैं, वह बोस्निया, हर्ज़ेगोवानिया, क्रोएशिया की स्त्रियों के अनुभवों को अपना अनुभव मानते हुए उसे दर्ज करती चली जाती हैं। एक आम इंसान को उन औरतों को देखते हुए ऐसा लग सकता है कि उनका जीवन सामान्य हो चुका है और वे अपने ऊपर और अपने तथा अपनों के साथ होने वाले अन्याय को भूल चुकी हैं लेकिन इस किताब को पढ़ कर आप समझ सकते हैं कि ऐसा नहीं होता। कुछ घाव भर ज़रूर जाते हैं लेकिन उसकी टीस बनी रहती है। कोई भी युद्ध जब होता है तो वह केवल सीमाओं या युद्धक्षेत्र में नहीं लड़ा जाता और ना ही इसका असर केवल युद्ध में सीधे शामिल लोगों पर पड़ता है। युद्ध के बाद का असर जिसे शायद आफ्टरमैथ कह सकते हैं ज़्यादा अधिक और भयावह होता है। और उस आफ्टरमैथ को जिसे सबसे ज़्यादा झेलना पड़ता है वह होती हैं औरतें। हिंसा, रेप, प्रताड़ना जैसे शब्द अब केवल शब्द भर रह जाने का भाव पैदा करने लगे हैं लेकिन ऐसे में ही जब आप देह ही देश या दी कम्फर्ट वीमेन जैसी किताब उठा लेते हैं तो ये शब्द आपकी ज़ेहन में बस जाते हैं और आपको ऐसा महसूस होने लगता है मानो आपके सामने आपके अस्तित्व का संकट ना जाने कब से मंडरा रहा है और आप उससे बेसुध स्त्रियों, उनके जीवन और उनके संघर्षों को भुलाकर उन पर बनाई जाने वाली मीम पर या तो हंस रहे हैं या उसका सब्जेक्ट बन कर भी चुप हैं।
देह ही देश पर कहने, सोचने और गुनने के लिए बहुत कुछ है लेकिन फ़िलहाल इतना ही कि ये एक मस्ट रीड है और इसे बिना देरी पढ़ा जाना चाहिए।