जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

प्रसिद्ध नाट्य समीक्षक जयदेव तनेजा की किताब आई है ‘मोहन राकेश: अधूरे रिश्तों की पूरी दास्तान’। इस किताब में उनके जीवन से जुड़े प्रसंग हैं और उन प्रसंगों के बीच उनकी मुकम्मल छवि देखने की कोशिश है। लेकिन इस किताब में सबसे विशेष मुझे लगा मोहन राकेश के पुत्र शालीन राकेश का अपने पिता पर लिखी यह टीप। आप भी पढ़िए जो बच्चा अपने पिता की मृत्यु के समय दो साल का था वह अपने पिता की छवि में से उनके वास्तविक रूप को किस तरह देखता है। यह किताब राधाकृष्ण पेपरबैक से प्रकाशित है-

===============================

वह शायद पापा की दसवीं पुण्यतिथि थी। मैं बारह साल का था। दिल्ली के श्रीराम सेंटर में उनकी स्मृति में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। मुझे याद है कि हम उनका एक फ़्रेम किया हुआ फ़ोटो लेकर वहाँ गए थे जिसे मंच पर रखा गया था। चित्र के सामने फूल और अगरबत्तियाँ लगाई गई थीं। मैं जितना उत्साहित था, उतना ही चकित भी। मेरे लिए यह एक बड़ी बात थी, कि मैं उस आयोजन में मौजूद हूँ जो एक प्रसिद्ध हस्ती की याद में किया जा रहा है, और वह हस्ती मेरे पिता थे। मैंने महसूस किया कि कई आँखें मेरी तरफ़ उठ रही हैं, शायद मेरी प्रतिक्रिया को देखने के लिए, जानने के लिए कि क्या मेरे अन्दर उनके जैसा कुछ है, मेरे चलने में, मेरे बोलने में? क्या यह मेरी कल्पना ही थी? मेरी फैंटेसी? वह क्या अपेक्षा थी जो मोहन राकेश का पुत्र होने के नाते मुझसे की जा सकती थी? यह जानने के लिए उस समय, मेरे ख़याल से, मैं बहुत छोटा था; और इन स्थितियों को आसान बनाने में किसी ने मेरी मदद की हो, यह भी मुझे नहीं लगता।
मुझे रेशमी साड़ी, बड़ी बिन्दी और चन्दन की ख़ुशबू में लिपटी उस ऊँची महिला का यह पूछना याद है, ‘तुम जानते हो, तुम्हारे पिता कौन थे?’ उकडूँ  बैठकर धीमी, भारी आवाज़ में बोल रहीं उस महिला से मैंने मुस्कुराते हुए कहा, ‘हाँ, वे मोहन राकेश थे।’ मुझे लगा, यह कहते हुए मुझे गर्व और प्रसन्नता का इजहार करना चाहिए। ‘तुम जानते हो, वे कितने महान थे?’ उन्होंने फिर पूछा, और आँखें मेरे चेहरे पर गड़ा दीं। मैंने कहा, ‘हाँ,’ लेकिन अब मेरी आवाज़ लड़खड़ाने लगी थी, माथे पर पसीना आने को था। मेरा आत्मविश्वास ढीला पड़ गया था, मैं अपनी माँ की तरफ़ देख रहा था जो एक कुर्ताधारी दाढ़ीवाले सज्जन से बतिया रही थीं। उस महिला ने मुझे माथे पर चूमा, जैसे कि मुझे आशीष दे रही हों! उम्र के उस पड़ाव पर भी मुझे लगा कि मुझे अतिरिक्त संरक्षण दिया जा रहा है; जिसमें असहमति की बहुत कम गुंजाइश है। मुझे अपना आपा हारा हुआ-सा लगा।
मोहन राकेश, एक नाम था जो मेरे चारों तरफ़ मौजूद था। मेरे पिता की भौतिक मौजूदगी के स्थान पर वह नाम आ बैठा था। बाक़ी लोग जैसे मृत जनों को अपने पीछे कर लेते हैं, मैं ऐसा नहीं कर सकता था। मेरे पास उनकी जीवित स्मृतियाँ नहीं हैं, सो यही अहसास मुझे ज़्यादा होता था । उनका ज़िक्र हमेशा अतिरंजनाओं में होता था। मेरे लिए वे ‘लार्जर दैन लाइफ’ ही नहीं; ‘लार्जर दैन डेथ’ भी थे। मुझे लगता है कि इसी के चलते मृत्यु मुझे आज भी बहुत ज़्यादा परेशान करती है। मेरे परिचय के दायरे में जब किसी का अवसान होता है तो मैं कई-कई दिन तक विचलित रहता हूँ।

पापा के कई नज़दीकी फ़ोटोग्राफ़र दोस्त थे जिनमें एक मित्तर बेदी भी थे। उन्होंने हमारे पूरे परिवार के बहुत अच्छे श्वेत-श्याम फ़ोटो लिये थे । इन्हीं तसवीरों के चलते मैंने अपने पिता को अनेक स्थिर भंगिमाओं में देखा। इनमें से एक भंगिमा उनके ठहाके की भी थी जिसके लिए उन्हें जाना जाता था, और जिसमें वे हँसते समय सिर को पीछे झटका देते थे। इसके अलावा और भी कई तसवीरें थीं- सिगार पीते हुए, अपने बच्चों, मुझसे और मेरी बड़ी बहन पुर्वा के साथ खेलते हुए, किताबें पढ़ते हुए, मेरी माँ अनीता राकेश और कई दोस्तों के साथ। इन सभी तसवीरों से मुझे यही महसूस हुआ कि उन्हें ज़िन्दगी को उसके तमाम रंगों में खुलकर जीना पसन्द था। ज़ाहिर था कि वे लोगों से बहुत प्यार करते थे, लेकिन उनकी आँखों में एक अलग ढंग की गहराई थी, एक गहनता जिससे लगता है कि किसी-न-किसी स्तर पर वे एक ऐसे तनहा व्यक्ति थे जो बाहर सिर्फ़ एक भूमिका अदा कर रहा है। यही चीज़ अभिनेता संजीव कुमार की आँखों में भी दिखाई देती थी।

उनके नाटकों को देखना हमने बहुत बचपन से शुरू कर दिया था। ‘आषाढ़ का एक दिन’ मुझे ख़ास तौर पर पसन्द रहा है। ‘आधे-अधूरे’ हमेशा एक बेहतर और अलग अनुभव होता था। इस नाटक के पात्रों का ताल्लुक़ मेरी माँ के परिवार से था, और यह बात हम बच्चों को एक अलग अहसास से भर देती थी। हर मंचन के बाद माँ हमें बैक स्टेज ले जाकर नाटक के अभिनेताओं से, निर्देशक और बाक़ी रंगकर्मियों से मिलवातीं। वे मुस्कुराते हुए हमसे मिलते, हमें प्यार करते। इससे मुझे थोड़ी झिझक होती थी, फिर भी इस सबसे लगता था कि मैं कुछ ख़ास हूँ ।
शुरू से ही मैं अपने पिता की सफलता से प्रभावित था, और उनके काम का प्रशंसक भी । घर में हर जगह मौजूद उनके नाटकों, कहानियों और उपन्यासों को मैं पढ़ता और उनके अर्थ की गहराई को समझने में लगा रहता। उनके प्रकाशकों से माँ के अच्छे सम्बन्ध थे जिनको हम ‘थ्री आर’ के नाम से जानते-राधाकृष्ण, राजपाल और राजकमल । हम अक्सर माँ के साथ इन प्रकाशकों के कार्यालयों में जाते थे। कभी रॉयल्टी लेने, कभी उनकी नई किताबों के प्रचार आदि के सम्बन्ध में बातचीत करने और हम बच्चों के लिए ढेरों-ढेर बाल-पुस्तकें लेने जिन्हें हम बड़े चाव से पढ़ते।
पापा का एक अहम् विरसा थे उनके दोस्त। वे इतने थे कि आज भी मुझे ताज्जुब होता है। निःसन्देह पापा बहुत लोकप्रिय और हरदिलअजीज व्यक्ति थे। मुझे ठीक-ठीक पता नहीं कि इसकी वजह उनकी बौद्धिकता और बौद्धिक क़द था, या उनकी ख़ुशमिज़ाजी, जिसके चलते हर कोई उनके साथ होना पसन्द करता था,  या फिर लोगों के साथ उनका डिप्लोमैटिक और मधुर बर्ताव;  या इन सबका मिला-जुला प्रभाव। मेरे ख़याल से अलग-अलग लोगों के लिए इसका अलग-अलग कारण रहा होगा। जो भी हो, हम उनके नज़दीकी दोस्तों और प्रशंसकों से अक्सर ही मिलते, यात्राएँ करते रहते।
बम्बई की कई यात्राएँ मुझे ख़ास तौर पर याद हैं, मेरे छुटपन से ही। वह जैसे हमारा दूसरा घर था। हम हमेशा उनके दोस्तों के यहाँ ही रुकते-मसलन, ओम शिवपुरी और सुधा शिवपुरी या अब्बू और अम्मी के यहाँ, जो आपा इस्मत चुग़ताई के पड़ोस में रहते थे। इनके अलावा कमलेश्वर अंकल, अमोल पालेकर आदि भी वहाँ रहते थे। माँ बड़ों से मिलती-जुलतीं, बतियातीं और मैं और मेरी बहन उनके बच्चों के साथ खेलते। इस तरह बम्बई हमारे लिए एक सुरक्षित लोक था, एक ऐसी जगह जो मेरे अतीत से जुड़ी थी, पापा से भी, और जहाँ मौज-मस्ती के साथ पारिवारिकता और ख़ाने-पीने की क़तई कमी न होती।
ख़ाने की बात करें तो इसे उन चीज़ों में गिना जाता है जिनको लेकर मेरे पिता दीवाने थे। वे अच्छे खाने के शौक़ीन थे और लोग हमेशा उनकी पसन्द का ध्यान रखते थे। मैंने अम्मी की आइसक्रीम और कमलेश्वर अंकल के मटन दो-प्याजा के बारे में अक्सर सुना है। उन्हें बियर और मछली फ्राई भी बहुत पसन्द थे जिन्हें उनके गोल-मटोल शरीर के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है।
बम्बई के अलावा हम जहाँ अक्सर जाते, वह शहर था कलकत्ता । वहाँ हम श्यामानन्द जालान और उनकी पत्नी के साथ रहते थे। मुझे वह शहर उसके अनूठेपन की वजह से याद है जहाँ आश्चर्यजनक चीजें होती थीं, अद्भुत स्थापत्य और एक ख़ास क़िस्म की रहस्यमयता जो बम्बई के ग्लैमर और खुलेपन का स्थानापन्न थी। पापा के तमाम दोस्त उन्हें एक ऐसे ऊँचे बुद्धिजीवी के तौर पर याद करते जिसका दिल सोने का था। इससे मुझे गर्व की अनुभूति होती, ख़ास कर तब जब मैं कुछ बड़ा हुआ।

पापा की निजी ज़िन्दगी में बहुत उथल-पुथल रही। मेरी माँ से मुलाक़ात होने के पहले वे दो विवाह कर चुके थे। पहले विवाह से उनको एक बेटा भी हुआ- नवनीत। मेरी माँ से उन्होंने विवाह नहीं किया लेकिन अपने अन्तिम समय में वे उनके ही साथ रहे; मात्र अड़तालीस वर्ष की आयु में अपने देहावसान तक। निजी जीवन का यह त्रास उनकी रचनाओं में भी दिखाई देता है। वह मानव-सम्बन्धों के मलबे को लगातार एक्सप्लोर करते हैं। और इनसानों के सम्बन्ध क्योंकि हर दौर में जटिल तथा ‘अनप्रिडेक्टेबल’ रहे हैं, इसलिए मोहन राकेश का साहित्य हमेशा प्रासंगिक रहता है। कमलेश्वर के साथ उन्हें नई कहानी आन्दोलन के प्रवर्तकों में भी गिना जाता है जिसने हिन्दी कथा-लेखन के लिए एक नई ज़मीन तोड़ी।
एक समय मुझे अपने सौतेले भाई नवनीत से मिलने की बड़ी गहरी ललक थी, लेकिन मेरी यह इच्छा कभी पूरी न हो सकी। नवनीत और उनकी मम्मी शीला जी हमसे हमेशा ही अलग रहे और मैं कभी उनसे नहीं मिल सका। लेकिन आज भी मैं सोचता रहता हूँ कि मोहन राकेश का दूसरा बेटा कैसा होगा, वह कैसा दिखता है, कैसे सोचता है, क्या करता है, और हम दोनों में क्या चीज़ ऐसी होगी जो समान है!

अपने पिता के बारे में जो मैंने जाना, वह ज़्यादातर माँ की मार्फ़त जाना। हम बड़े हो रहे थे, वे ज़्यादा-से-ज़्यादा उनके बारे में बताने की कोशिश करतीं । वे कोशिश करती कि हम एक बड़े नाम की सन्तान होने की अपनी विरासत को समझें, जानें। दूसरी तरफ़ वे उनके नहीं होने से भी जूझ रही थीं, और दो छोटे बच्चों  को पालने की ज़िम्मेदारी निभा रही थी (पापा के जाने के समय मैं मात्र दो साल का था और बहन पाँच साल की)। वे हमें उनके बारे में ज़्यादातर तो वही बतातीं जो बाहरी लोगों से भी सुनने को मिलता था; एक इंटलेक्चुअल जो अपनी शर्तों पर जिया। लेकिन कुछ बातें उन्होंने ऐसी भी बताईं जो बाक़ी लोग नहीं जानते थे और जिन्हें मैं भी यहाँ नहीं लिख सकता।

माँ के मुताबिक़ पापा के साथ रहना एक मुश्किल काम था। वे बहुत मूडी थे। चीज़ों और वक़्त को लेकर अत्यन्त संवेदनशील । उनकी स्टडी में एक घंटी रहती थी; एक बार घंटी बजी तो चाय, दो बार बजी तो कॉफ़ी। वे शाम को काम करते और देर रात तक करते रहते। फिर उठते भी काफ़ी दिन चढ़े। मेरी माँ ने अपनी सास, अम्मा को अपने साथ रहने बुला लिया था। पापा उनसे बहुत गहरे जुड़े हुए थे। दरअसल पापा के जाने से मात्र तीन महीने पहले ही अम्मा गई थीं और उनके जाने के बाद वे वैसे नहीं रहे थे, जैसे पहले थे। बेहद ख़ुशमिज़ाज होने के बावजूद वे अक्सर गहरे अवसाद का भी शिकार हो जाते थे। पापा के साथ माँ के जीवन के अनुभवों को राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित उनकी आत्मकथात्मक पुस्तक ‘सतरें और सतरें’ में पढ़ा जा सकता है।

माँ ख़ुद भी लेखक हैं। उनके दो कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। मेरे पिता की कुछ छवियाँ उनके लेखन में भी देखी जा सकती हैं। वे उन्हें प्यार करती थीं और विवाह के बन्धन के बिना ही उन्होंने उनके दो बच्चों को जन्म दिया। हमारे लिए वे माँ और पिता, दोनों की भूमिका में रहीं। निःसन्देह वे एक अद्भुत महिला हैं। उन्होंने हमें अपनी विरासत के प्रति तो सजग बनाया ही, उन मूल्यों पर बने रहने के लिए भी प्रेरित किया, जो उनके मुताबिक़, उन्होंने पापा से प्राप्त किए थे, सीखे थे। उनके अनुसार :
मोहन राकेश मूल्यों और सिद्धान्तों के धनी व्यक्ति थे। उनके सगे भाई ने जब उनसे फ़िल्म फायनेंस कॉरपोरेशन में चुने जाने के लिए पैरवी करने को कहा तो उन्होंने साफ़ इनकार कर दिया। वे ख़िताबों को भी पसन्द नहीं करते थे, इसीलिए उन्होंने पद्मश्री को अस्वीकार कर दिया था।

माँ, और बाक़ी लोग भी, पापा की आवाज़ की हमारे सामने बहुत तारीफ़ करते थे। वे कहते थे कि उनकी आवाज़ में एक विशिष्ट फ़िल्म की ध्वनि और गूंज थी जो आम तौर पर नहीं मिलती। कुछ वर्षों बाद हम संगीत कला परिषद् उनकी कुछ रिकॉर्डिंग्स सुनने गए जिन्हें माँ पिछले सालों में संरक्षित करती आई थीं। हमने कई रिकॉर्डिंग्स को चलाया, लेकिन वे सब ख़राब हो चुकी थीं। हम हारकर चलनेवाले थे कि एक रील की रिकॉर्डिंग चल गई; और तब अपने वयस्क जीवन में मैंने पहली बार अपने पिता की आवाज़ सुनी। इसे सुनकर माँ विह्वल होकर रो पड़ीं। इसमें वे मेरी बड़ी बहन पुर्वा से बात कर रहे थे। वे पूछते हैं :
पुरु बच्चा, किसका बेटा है? अनीता कौन है? अनीता मोहन राकेश की क्या लगती है?
फिर वे बहन की अबोध बातों को सुनकर ज़ोर से हँसते हैं। मेरे लिए भी यह लम्हा विशेष था। यह वह क्षण था जब मैंने ख़ुद को ‘असल’ मोहन राकेश के सबसे क़रीब पाया ।

अनेक लोग मेरी तुलना उनसे करते हैं-  मेरा चेहरा-मोहरा, मेरा सोचने और बोलने का ढंग, जो उनसे मिलता-जुलता है- और इस बात पर मुझे गर्व महसूस होता है। मैं सोचता हूँ कि मेरा एक हिस्सा मोहन राकेश हैं; उनका पुत्र होना मेरे लिए कृतज्ञता का कारण है। मैं उनसे कभी मिला नहीं, लेकिन मुझे ख़ुशी है और गर्व भी कि मैं उनसे जुड़ा हूँ; कि उनका एक अंश मेरे भीतर जीवित है। उन्होंने मुझे अपना नाम ही नहीं दिया; मेरी पहचान का एक हिस्सा भी मुझे उनसे मिला है। यह सच है कि मैं उनकी छाया से बाहर हूँ लेकिन यह भी सच है कि वे हर क़दम पर मेरे साथ हैं। उनके लिए और अपनी माँ के लिए, जो हमेशा उनके अभाव को भरने में लगी रहीं, मेरे पास दो ही शब्द हैं : ‘थैंक यू!

Share.

Leave A Reply

Exit mobile version