जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

जनवरी में हमने डीपीएस पुणे में कक्षा छह में पढने वाले बालक अमृत रंजन की कविताएं प्रकाशित की थी. अब वह बालक कक्षा 7 में आ गया है और उसकी कविताओं की जमीन पकने लगी है. बालकोचित खिच्चापन उसमें अभी भी है लेकिन अनुभव और सोच का दायरा विस्तृत हुआ है. उसकी कुछ कविताएं पढ़िए और उसे बेहतर भविष्य की शुभकामनाएं दीजिए- मॉडरेटर 
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सपना
अंधेरी रातों में
सोकर भी जगा रखता यह,
सपना…
कभी-कभी सोचता हूँ,
कि किस दुनिया में ले जाता यह,
सपना…
टुकुर-टुकुर मन में झाँकता यह,
सपना…
रात को मरने से बचाता यह,
सपना…
मन के पायलों को छनछनाता यह,
सपना…
मन की बंदूक को चलवाता यह,
सपना…
एक लंबी छलाँग लगवाता यह,
सपना…
चाँद पर पहुँचाता यह,
सपना…
सपनों के बिना ज़िन्दा नहीं रह पाएगा यह इंसान।
तो अपना लो इस सपने को
रस्ता तुम्हें अपने आप पता चल जाएगा।   
[१० फ़रवरी २०१४]
सफ़र बिना लक्ष्य के
दिन-रात सोचता रहता हूँ,
कब जाऊँगा सबसे बड़े सफ़र पे,
सफ़र बिना लक्ष्य के।
सुनसान, शांत यही सोचा है
मैंने उसके बारे में।
वह सफ़र जिसमें रस्ता न हो,
बस धूप का पीछा करते रहें।
पहाड़ों के बीच से
हवाओं को खींच के
चल दें हम
सफ़र बिना लक्ष्य के।
लेकिन जब भी मन को मनाते हैं
तैयार हो जा एक सफ़र के लिए”
मन मान जाता है
लेकिन जब हम
धूप, सुनसान और शांत रस्ते पर
निकल रहे होते हैं
तभी मन बोलता है
अरे भाई, नक्शा मत छोड़ जाना।
(२७ फरवरी २०१४)

भोर
वह रात आज याद करता हूँ,
हाँ, वही काली रात ।
उस रात की भूल-भुलैया में मैं
खो गया था ।
तभी अचानक,
मेरी आँखों ने बंद होने की ज़िद की ।
जबरदस्ती,
आँखों से मैंने परदे हटाए ।
देखा कि मुझपर रौशनी की वह
गरमाहट ऐसे आई
जैसे,
जिस जगह पर रेगिस्तान भी
गरमी से तड़पता है,
उस जगह पर पानी ।
उसी रौशनी का पीछा करते-करते
रात से बाहर निकल आया था मैं ।
उस भुल-भुलैया से बाहर
आ खुशी हुई लेकिन देखा
कि भोर की भूल-भुलैया में
घुस गया हूँ।
(१५ फरवरी २०१४)
मन की जमीन
  
चुपचाप कोने में छुपा रहता हूँ
परछाइयों में मिल जाता हूँ
यही करते हो तुम
मन की खुशी चुरा लेते हो,
क्यों नहीं समझते कि
जिन्दगी पर हक हमारा है,
जिन्दगी हमारी है।
और तुम जीने का सहारा
छीन लोगे।
मन की ज़मीन पर क्यों
कब्ज़ा जमाना चाहते हो।
रौशनी का सहारा क्यों छीनते हो।
लेकिन मुझे पता है कि
एक समय तुम भी मेरी जगह थे
और तुम्हारी ज़िन्दगी की ज़मीन को,
कोई अपना हक कहना चाहता था।         
(१८ अप्रैल २०१४)
खून
लगते हैं इसे नौ महीने,
रगों में आने में।
लाल होता इसका रंग,
मुश्किल नहीं यह समझाने में।
लेकिन यह मनुष्य को कौन समझाए
बाँट दिया है इसने खून को
हिन्दू, पाकिस्तानी, मुसलमानी को,
जैसे इसका रंग लाल नहीं,
पीला, नीला या हरा है।
लड़ाई इस पर लड़ी जाती है
कि किसका खून किससे बड़ा।
मानो या न मानो, इनसानों
हम हैं भाई-भाई,
मुट्ठी कस लें तो खून के
लिए नहीं होगी लड़ाई।
इसी खून के लिए लड़ते-लड़ते
बहा देते हैं किसी जान को,
अमूल्य खून को
बहा देते हैं हम
वह नौ महीने का समय
जो वापस कभी नहीं आएगा। 

[२ अक्टूबर 2013]
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