जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

युवा कवि आशुतोष प्रसिद्ध की कविताएँ विभिन्न प्रतीकों के जरिए बहुत सी बातें कहती चली जाती हैं । समाज की विभिन्न गड़बड़ियों पर ध्यान ले जाना इन कविताओं की बड़ी विशेषता है । ‘नैहर का मोह छूटता नहीं’ कविता बरसात और नदी के रिश्ते को बताते हुए अचानक स्त्री जीवन के संघर्षों की ओर मुड़ जाती है जो कवि की संवेदनशीलता को लक्षित करती है । वहीं ‘बाध्य’ व ‘तुम्हें उऋण बोल रहा’ ये कविताएँ मानव के स्वार्थपूर्ण स्वभाव को स्पष्ट बयान करती हैं । मनुष्य जिस प्रकार गाय का इस्तेमाल केवल अपनी सुविधा के लिए करते आया है, कभी घर के लिए, फिर राजनीति के लिए और जब काम निकल जाए तो उसे छोड़ दिया जाए, इस ओर भी बेहद कुशलता से ध्यान आकर्षित करती है ‘तुम्हें उऋण बोल रहा’। यहाँ कैलाश बनवासी की कहानी ‘बाजार में रामधन’ को याद किया जा सकता है । इन सबके साथ जीवन की निजी अनुभूतियाँ तो हैं ही जिसे ‘अनुक्रम’, ‘इच्छा’ व ‘नाव डूबती हुई’ में महसूस किया जा सकता है लेकिन इसके बाद भी ये कविताएँ केवल व्यक्तिगत अनुभवों तक सीमित नहीं रहतीं, बल्कि अपने साथ बदले हुए समाजशास्त्र को भी लेकर चलती हैं, जो मानवीय स्थिति और उसके उसके मनोविज्ञान की ओर भी संकेत करती हैं । आशुतोष अयोध्या के रहने वाले हैं । उनकी कुछ कविताएँ पहले ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित हो चुकी हैं, यह जानकीपुल पर उनका पहला प्रकाशन है । आप भी पढ़ सकते हैं – अनुरंजनी

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नैहर का मोह छूटता ही नहीं

मैं आदतानुसार रोज़ की ही भाँति
चला आया हूँ उसके मोहारे तक
पर आज दिन ही कुछ और है
रेत के इस पार से जो कुछ भी जाता है
वह श्रद्धा सहित लौटा दिया जाता है
आज वह कुछ लेना नहीं चाहती है
आज उसका मन मूचामुच्च भरा है
वैसे भी देना ही जाना है उसने
पर आज सूरज का अरघ भी लौटा दे रही है
पत्थर को भी कागज की तरह
ठेल दे रही है किनारे

देखकर लग रहा आज चाहो
तो चलकर पार कर जाओ उसका विस्तार
गोदी में लेकर
उस पार कर देगी वह तुम्हें
इस पार से ।

रेत ही उसकी सम्पत्ति है
रेत का ही है उसका घर
रेत की ही है उसकी दुवारी
दुवारी पर खड़े होते ही
अंजुरी भर पानी ले
छिड़क लिया अपनी देह पर
फिर ठिठोली करते हुए पूछ बैठा –
बड़ी चमक रही हो ‘बूढ़ा’*
साफ सुथरी भी दिख रही

का बात है…

दो अँगुल आगे आकर
इठलाकर
मेरे पैरों को भिगोते हुए बोल
अभी-अभी गयी है बिटिया
फिर गम्भीर हो गई
चली गई दो अंगुल पीछे
यह कहते हुए
का करें भैया ?
कितना भी ससुराल में सुख मिलता हो
नैहर का मोह छूटता ही नहीं है
जितने दिन रही लड़ती भिड़ती रही
आसपास सब कब्ज़ा छुड़ाकर
मोहार दुवार सब सहेजकर गई है
हमको ही भरती रही

ख़ुद को देखा ही नहीं
जात बेर हम कुछ दय भी न पाए
कुछ पल को स्थिर रही
फिर थोड़ा हिली
मेरे पाँव तक आकर बोली
अगले बरस फिर आएगी आषाढ़ में
तब दे दूँगी ।

मन हुआ पूछूं तुम्हारे पास है क्या
सिवा पानी और रेत के
जो दे दोगी
पर चुप रहा ।

वह बताती रही
कि बीच-बीच में भी आती जाती रहेगी
पर टिकेगी नहीं
किसी से ज्यादा लड़ेगी भिड़ेगी नहीं
आएगी हाल चाल लेगी
चली जाएगी

टिकेगी फिर आषाढ़ में
जब दामाद बाबू निकलेंगे
किसी कालिदास के आग्रह पर
मेघदूत बनकर ख़बर देने
फिर जब वे लौटेंगे
तो ले जाएँगे साथ

बिटिया जात को कहीं अकेले
छोड़ने लायक नहीं बचा है संसार
जाए अपने घर-बार
मन से एक भय हटे
फिर भी बिटिया का मन है
नैहर से मोह है कि छूटता ही नहीं।

इतना बोलकर वह सुबकने लग गई
मैं सुनकर सोचता रह गया

रात सीढियाँ चढ़ने लगी
तो मैं भी उठा  ‘फिर आऊँगा’
कहकर लौटने लगा
वह भी लौट गई थोड़ा भीतर
बिना कुछ बोले

पलटकर देखा भी नहीं मैंने
पता नहीं
किवाड़ी बन्द की है या नहीं
मोहारे की ।

(* अवध क्षेत्र में बुजुर्ग महिलाओं को छेड़ने के लिए ‘बूढ़ा’ शब्द का प्रयोग करते हैं । )

अनुक्रम

व्यस्ततम दिनों में भी
जो रहे प्राथमिकता में

ख़ुद को याद करने से पहले जिनको किया याद
मुँह में निवाला डालने से पहले जिनसे पूछा
कुछ खाया है कि नहीं

उनके बहुत सामान्य दिनों में
ख़ोजता रहा ख़ुद को
मगर नहीं था मैं
मेरी स्मृति का एक चिन्ह भी नहीं

एक उम्मीद में जीता रहा
और मानता रहा
उम्मीद ही है कारण जीते रहने का

उम्मीद भरी आँखों से
खोजता रहा अपनी जगहपूछ नहीं पाया कभी ―
‘यहाँ सिर्फ़ मैं हूँ न.?’
धकिया के चढ़ नहीं पाया कभी
किसी बस या ट्रेन में

जहाँ-जहाँ मन ने चाहा की
कहूँ ―
‘यह मुझे चाहिए’
कहा ;
ठीक लगे तो दे दो।

मांगने पर भी नहीं मिलने वाले समय में
मैंने माँगा नहीं, न ही छीना बस किया इंतज़ार
और तब भी करता रहा इंतज़ार
जब समझ गया था
इंतज़ार
अपने साथ की गई क्रूरता है।

पीछे रहते-रहते
इंतज़ार करते-करते
मैंने महसूस किया
मैं लगातार पीछे होता जा रहा
इतना
कि पीछे शब्द भी
बहुत आगे जा चुका है मुझसे
मुझ तक आते-आते
रिक्त हो जाते हैं सारे पात्र
सूख जाती है नदी
सफ़ेद हो जातें हैं बादल
मैं अनुक्रम में पीछे से पीछे आता हूँ ।

इच्छा

भूल जाना चाहता हूँ
वह सब कुछ जो याद है
वह भी जो आगे कुछ दिनों में याद होगा
न जाने किस धनुष से संधान हुई है
यह स्मृति तीर
भीतर बहुत भीतर तक
जहाँ तक ख़ुद को महसूस सकता हूँ
चलती जा रही है
छीलती जा रही है

यत्न करके भी नहीं फेंक पा रहा
उस तीर से लिपटी स्मृतियों को
खींचकर बाहर
मैं स्मृति हीन होना चाहता हूँ
मैं जीना चाहता हूँ

बाध्य

हरहराकर गिरा है अभी अभी
एक हरा भरा पेड़
दूर तक गर्द ही गर्द है ।
हालाँकि
वह लाश नहीं
पर बन गया है लाश ।

चीख़ मर गयी है
सिर्फ़
दो चार सिसकी हैं

सिसकी स्वीकार का स्वर है !

स्वर और भी है
पर न जाने कौन-कौन

पुरानी जगह फैल नहीं पाती जड़
इसीलिए बदली जा रही है जगह
यह जानते हुए भी कि जड़ को नहीं
तने को चाहिए कोस भर जगह फैलने को
हमने बदल दिया

हमने बदल दिया जो नहीं बदलना था
जो बदलना था उसे परम्परा बना लिया
और ढोते रहे इस पीढ़ी से
अगली पीढ़ी के रीढ़ झुकने तक

झुकी हुई रीढ़
पहचान है इस पीढ़ी की

तुम्हें उऋण बोल रहा

एक जगह डेढ़ सौ में
दूसरे जगह पच्चास रुपए और दो कप चाय में
तीसरे जगह जाति बताने के बाद
मुँह जबानी दे दिया आश्वासन थाने वालों ने
कि जाओ अब
नहीं रोकेगा गाड़ी
कोई गोरक्षकों का दल
चंदा लेने को

सुरक्षित गुजर सकता हूँ अब मैं
अपने ही जिले की सड़क से
डुग्गु के साथ

लौट आया
इधर उधर पता करते
डाला खोज़ते

डाला खड़ा हुआ आकर
दुवारे पर
ऊँची जमीन देखकर
की आसानी से चढ़ सकें उस पर डुग्गु

खूंटे से पगहा खोला
मन से नहीं चढ़े तो
डाले में जबरन लाद कर
चल पड़ा डाले के पीछे पीछे

वहाँ उतर कर
पाँच-पाँच सौ की दो नोट
सेवक के हाथ में पकड़ाते हुए
मैंने कहा भईया रशीद
तो वो घुड़क के बोला―
पढ़े-लिखे हो,
समझो ..
ज़्यादा बतकही न गाँठो
एकर पगहा काटो
अब चुपचाप निकलो इहाँ से

पगहा काटते हुए मैंने पूछा
आप गौ सेवक हैं..?
वो गुर्राए “दिखता नहीं है क्या ”
मैं सोचने लगा
सेवक होते ही
सेवक कहाँ मर जाता है इनका ?

फिर बिना कुछ बोले
पगहा काटकर गिराया
डुग्गू के माथे पर
हाथ फेरते हुए कहाँ
जाओ
अब यही दुनिया है तुम्हारी

और गेट बंद करके
सरपट भागा
आगे की ओर

डुग्गु भी दौड़े
मेरे पीछे

जाता देख
गेट के सोंको में अपना थूथुन डाल
हकारने लगे जोर जोर
अम्मा…अम्मा करके

मैं चलता रहा
मुड़ा नहीं
मुड़ता तो जा नहीं पाता

एक-एक कदम आगे बढ़ाते हुए
मैं कई-कई कदम पीछे गया

पीछे जाते हुए बहुत पीछे गया
किसी ने सच कहा है
मरते हुए सारा जिया याद आता है

पीछे जाते हुए
मैं
उस दिन तक गया
जब डॉक्टर से बोलकर
गिरी जाति का
सीमेन करवाया था सोना को

उस दिन तक भी गया
जब डुग्गू
अपने भार और लम्बाई की वज़ह से
सोना के गर्भाशय समेत आ गए थे बाहर
और बड़ी मशक्कत के बाद
बच पाए थे दोनों महतारी पूत

उस दिन तक भी गया
जब सारा दूध पीकर
कुलाँचे भरते थे दुवारे भर में
अपने छोटे-छोटे चमकीले खुरों से

उस दिन तक भी
जब
उठते-बैठते, सोते-जागते
हर जगह डुग्गु ही डुग्गु थे

पिताजी कहते
गाय होती तो
ऐसी सुंदर गाय होती कि पूछो न..

सुंदर ललई रंग के
बड़े कान
ऊँचा ढिल
आँखों के नीचे जन्मजात काज़ल
और स्वस्थ इतने
कि दूर से चमकते थे डुग्गु

माँ और बहनों के लिए खिलौना हो गए थे,
फोन करो तो डुग्गु की शिकायत ऐसे मिलती
जैसे घर का कोई बच्चा हो
डुग्गु ये किए
डुग्गु वो किए

डुग्गु डुग्गु और बस डुग्गु

पर डुग्गु
चारा ज़्यादा खाते थे
पगहा खोल लेते तो पकड़ नहीं आते थे
खेत अब कोई जोतता नहीं
दूध भी वो नहीं दे सकते थे

दिन ब दिन उनकी शिकायत बढ़ती गई
जैसे बेकाम चीजों से बढ़ती है

फिर एक दिन तय हुआ
इन्हें छोड़ दिया जाए गौशाला

उस दिन
रात में सोना ने मुझसे गला झपका के
जैसे कहा
तुम मनाते हो बेटी न हो
हम मनाते है बेटी ही दो प्रभु
और नहीं खाई रात का अग्रासन
अगले दोनों पैरों के बीच मुँह रखकर पड़ी रहीं
पागुर भी नहीं किया..

मैं अभी अभी डुग्गु को छोड़ कर
आकर दुवारे बैठा हूँ

बगल वाले बाबा कह रहे
चलो फुर्सत मिली..

माँ

हाथ में एक ग्लास पानी लेकर
सामने खड़ी हैं
कह रहीं हैं
सोना एक बार भी नहीं बोली
बस उनकी आँख के नीचे गीला हुआ है
मुझे न जाने क्यों
ग्लास में पानी नहीं
आँसू दिख रहे हैं
सोना की खामोश
सिसकियों के..

 

नाव डूबती हुई

दूर किनारे पर
जाते हुए दिख रही हो तुम

टूट चुकी है पहले से पतवार
नाव की पेंदी में हो गया है छेद

थक गए हैं मेरे हाथ
उलीचते हुए
पानी को पानी में

जैसे-जैसे दूर हो रही हो तुम
डूब रही है नाव
ऊपर आ रहा हूँ मैं
शांत हो रही है देह
भर रही हो मुझमें तुम
वैसे ही
जैसे
मल्लाह की आँख में
भरती है
सूखती हुई नदी

 

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