‘वर्षावास‘ अविनाश मिश्र का नवीनतम उपन्यास है । नवीनतम कहते हुए प्रकाशन वर्ष का ही ध्यान रहता है (2022 ई.) लेकिन साथ ही तुरंत उपन्यास के शिल्प पर ध्यान चला जाता है जो अपने आप में बिल्कुल ही नया है । अब तक हिंदी उपन्यासों में डायरी (नदी के द्वीप), पत्र (आईनासाज़) के इस्तेमाल संबंधी प्रयोग तो मिलते रहे हैं लेकिन वर्षावास में हुए प्रयोग अपने तरह का संभवत: पहला प्रयोग है जहाँ पूरी किताब ही विभिन्न माध्यमों के कथन से आगे बढ़ती है और पूरी होती है ।
शुरुआत ही है ‘लेखिका’ से जिसे पढ़ते हुए सबसे पहली अड़चन तो यही आती है कि ‘अरे! लिखने वाला तो पुरुष है, फिर यह लेखिका कौन है इसमें?’ फिर दूजा ख़्याल यह आता है कि ‘ अच्छा, हो सकता है कि लेखिका इस उपन्यास की एक पात्र हो’ लेकिन आगे जानने की चाहत में आप एक-एक पन्ने पलटते जाते हैं और अचंभित होते जाते हैं ।
साथ ही इसे पढ़ते हुए पुन: यह बात स्थापित होती है कि कोई भी रचनाकार यदि किसी पुराने पात्र, कथा, विषय को चुनता है तो उसका उद्देश्य यह नहीं होता कि वह पहले की ही बातों को हू-ब-हू रख दे, बल्कि वह उसमें नया क्या कर पाता है ? यही उस रचना की माँग होती है और ज़ाहिर है तत्कालीन समय की भी । यह विशेषता ‘वर्षावास’ में तो है ही, इसके साथ ही लेखक के काव्य-संग्रह ‘चौंसठ सूत्र सोलह अभिमान’ में भी यह विशेषता मौजूद है ।
इन बातों के अतिरिक्त ‘वर्षावास’ की एक खूबी यह भी हमारे सामने आई है कि किसी उपन्यास को पढ़ कर एक अन्य रचनाकार कविताएँ लिख दे । यह कविताएँ लिख रहे हैं यतीश कुमार।
काव्यात्मक समीक्षा इनकी ईजाद की हुई विधा है। और उसी विधा में उन्होंने ‘वर्षावास’ पर भी कविताएँ लिखी हैं ।
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1)
बूँदों की चाहत लिए
वर्षा की सन्तति ने चलना चुना
नापैद अनुभव की चाह चलना सिखाती है
जबकि रास्ते तलवों के अनुभव तैयार करते हैं
दिहाड़ी और दरमाहा निर्धारित करते है
रास्ते में आये मोड़ की दिशा
इस रास्ते में पेड़,पत्थर, बेंच और प्याऊ
सबसे सुंदर पड़ाव हैं
जिनके पार है फिर से उगने को आतुर
शहरी विलासिता से घबराई `एक उजाड़ गढ़ी’
चलना पाना है और ठहरना खोना
पर कभी-कभी पाना, खोना
चलना और पहुँचना
सब एक ही शय में ढले मिलते है
2)
छुईमुई की तरह सुंदर हैं स्पर्श
स्पर्श सुंदर मूर्ति गढ़ता है
स्पर्श भाषा बनकर कविता को बनाता है और सुंदर
सुंदर स्पर्श से जन्मता है
कभी अनचाहा तो कभी मनचाहा प्रेम
प्रेम में आदम ही नहीं शब्द भी गुम हो जाते हैं
अपरिचित सुपरिचित और
सुपरिचित अपरिचित बन जाते हैं
और यूँ धुआँ बनने तक प्रेम का यह चक्र क़ायम रहता है
प्रेम की चाहना में
कई बार जन्म लिया उसने
पर जो प्रेम कल्पना में होता है
यथार्थ में उसकी छाया तक नहीं होती
भटकना प्रेम का शाश्वत सच है
पर प्रेम में कई बार
अपने ही बनाये जाले में
मकड़ी की तरह भटकता है आदम
3)
हम दोनों को नहीं पता
कि हम दोनों में सलाई कौन है
और कौन ऊन
हम दोनों को यह भी नहीं पता
कि दिया कौन है और सलाई कौन
या यूँ कहें कि यह भी नहीं पता
कि कौन है दिया और बाती कौन
हमें बस इतना पता है
कि हमें एक दूसरे संग
पेड़ और लता की तरह
और गुथ जाना आता है
या फिर लता और लता की तरह …
4)
वह अक्षर-अक्षर चलकर आया है
कि दो पंक्तियाँ सुना सके
पर उसके कानों तक पहुँचने के कच्चे रास्ते में
उसे पके कांटे बहुत चुभते हैं
वह उस तक पहुँचना चाहता है
ताकि अर्थ अनुभव का चुंबन ले सके
पर अक्षरों को जोड़ते हुए यह भूल जाता है
कि पंक्ति बनते ही उसे पहिये में बदल जाना है
जो अपनी दिशा ढूँढने निकलेगी
जबकि उसे यह भी नहीं पता
कि प्रेम दिशाहारा होता है
प्रेम में दिशाहीन
समय को साड़ी की तरह समेटना चाहता है
उन्हें नहीं पता कि समेटना रुकना है
और रुकना विद्रोह का जन्म लेना
विद्रोह कोई भी करे
क्षत विक्षत दोनों को ही होना है
समय का साबुत पहिया
इस बीच आगे बढ़ जाता है
और स्मृतियों का घायल शोर लिए
वे अपनी जगह पर घूमते रह जाते हैं
5)
उजास की आँखें
देह की दरार से झाँक रही हैं
कि तभी नेह के अंधेरे ने उजास पी ली
अब वहाँ पहचाना अंधेरा क़ायम है
अंधेरा अपनी मृत्यु की तलाश में है
उसे नहीं पता
कि कभी- कभी किसी और की मृत्यु
किसी और की मुक्ति का कारण बनती है
सृजक अब ख़ुद एक मूरत है
जिस पर बीट करता समय
सीमाओं और यात्राओं के परे
यातना-मुक्ति की राह में
`रात्रिसूक्ति’ का पाठ पढ़ा रहा है
6)
अज्ञेया, अनंता, अलक्ष्या और अजा
सारी सहेलियों ने मिलकर उसे `एका’ बनाया
विद्या पढ़कर नहीं सुनकर आयी उसके पास
अब वह विद्या को लिए घूमती फिरती है
मिट्टी से बनी, बूँदों की प्यासी
बरसने के लिए बूँद-बूँद बनी
और फिर बादलों की तरह
पैर-पैर हो गई
अकेले चलने से उत्पन्न वो
ख़ुद अकेले चलने लगी
भूल गई कि समंदर पार करने की चाहना
देह का दर्द बढ़ाती है
विचलन और अस्मितावादी दुनिया में
लड़ाई सर्प और विष की है
जबकि उसे नहीं पता
कि वही सर्प है और वही विष भी
7)
तत्काल में रहना उसकी ताक़त
पूर्णावृत्ति उसका मंत्र
बेमौसम में मौसम लाना
उसका जादू
अधूरा दिखना उसका सौंदर्य
आँखों से तीर चलाना उसकी आदत
निशाना पहले बनाती
फिर बनाती उसका अस्त्र
उसे देखना सहल होने का रास्ता है
जहाँ सफलता विफलता का चुम्बन लेती है
फिर उसे गरल भी कर जाती है …
8)
बेड़ियों के दाग़ पुश्तों पर यूँ हैं
कि स्मृतियाँ भी ख़ुद को क़ैद में महसूस करती हैं
इसी साँकल को खोलने के लिए
उसने रहस्य और विस्मय के बीच का पर्दा उठाया
उसे हिरण बनना है
पर उसे नहीं पता
कि कुलाँचों के इस रस्ते में
मौन शब्द को कुचल रहे होते हैं
उसे कुचलने की आवाज़ सुनाई नहीं पड़ रही
बस उसके नाक
शब्द की लाश की दुर्गंध में सिकुड़ रहे हैं
मृत्यु किसी के लिए उपहार
तो किसी के लिए इंतज़ार होती है
आसानियों में सबसे आसान काम उसने चुना
`भूलना’,
जहाँ छूना और फिर छूकर तोड़ देना
और भी आसान है
यह सब करते हुए वह भूल गई
कि गिरते समय यही लगता है
यह सबसे सुंदर उठान है…
9)
समय में रहना
समय के जादू को तोड़ना है
उसके पाश से छिटक कर
उसे टूटते हुए देखना
कविता का असली जादू है
यह भी सच है
कि कविता देखने को
जानने में बदल देती है
कविता को बनते हुए उसने देखा
और पूछ बैठा “घर कहाँ है”
जवाब आया तलाश जारी है
फिर उसने सोचा
ख़ुद को पाना तुमको पाना है
और तुमको पाना असल में घर को पाना ही तो है
10)
चाहे पांडुलिपि हो
या ख़ुद की बनायी मूरत
निर्माण से ज़्यादा दर्द
सही मूल्यों के नहीं मिलने में है
नाम से मज़हब का छलकना
खौलते दूध में जामन डालना है
प्रेम में नाम सबसे ख़तरनाक शब्द है
बेनाम प्रेम का दही सबसे अच्छा जमता है
अपारदर्शी के साथ पारदर्शिता
और फिर उसकी पूर्णावृत्ति
ऐसा करते हुए वह समझ नहीं पाया
कि परिष्कार स्व का सबसे सुंदर विस्तार है
11)
ख़त मनमून है आँखों का
आँखें झलकाती है मन का आँगन
मन की खिड़की अंतस तक खुलती है
सपनों में सब खुल जाता हैं
पर सूरज वाला दरवाज़ा नहीं खुलता
जिसे खोलने हर रोज़ बेचैन चाँद टहलता है
वर्षावास उसके लिए
पंखों के उगने की जगह है
चिड़िया के फुदकने की आहट
उसके मन का रोमांच
पंख मन की वृत्तियाँ यूँ गढ़ता
कि सब ढका हुआ है
बस मन को छोड़कर
इस घर में खिड़की दरवाज़े नहीं हैं
यह मन की एक अवस्था है
यहाँ उपस्थित आसानी से अनुपस्थित में बदल
आवरण और अनावरण का फ़र्क़
धूमिल करता जाता है ।
12)
टटोलते हुए दायरों से यादें टकराने लगीं
दरवाज़े अब भी अपने खुलने के इंतज़ार में हैं
सोचने लगा
क्या मेरी तरह भाषा में बचने का हुनर
स्मृतियों के पास भी हैं
स्मृतियों में स्पर्शाकुलता की अकुलाहट
समय का बड़ा निवाला
एक साथ निगल जाने की हड़बड़ाहट
अपने हिस्से को पाने
और जीने की बेचैनी
सबसे पहले वर्तमान को निगल लेती है
उसे पता भी नहीं चला
कि इसी व्यवस्था ने उसे
पहले जलती हुई बाती बनाया
फिर सुलगती हुई
और फिर बुझती हुईं
अंत में बुझी हुई …
13)
ध्यान के रास्ते में
याद और आँख दोनों रोड़े हैं
जो एक साथ बंद नहीं होते
मैंने याद को याद बने रहने की मोमबत्ती जलाई
विस्मय होना नहीं, बनना चाहता हूँ
हताशा से आशा तक की यात्रा करनी है
अनहुआ को हुआ बनाना है
अब आँख को इंतज़ार है
भीतर की ओर खुलने का
जहाँ अस्थिरता नृत्य कर रही है
और यही समझ में आया
कि यात्राएँ असली मंज़िल है
और असली प्राप्ति भी
यह जाना कि
चलना नमक देता है
और समझा कि आनंद, उम्मीद, आवाज़ और साँसे
नमक के बिना सब बेस्वाद
इतना समझने का इंतज़ार ही था
कि वर्षावास का सूखा
नमक से नहा उठा…