जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

यतीश कुमार की किताब ‘बोरसी भर आँच – अतीत का सैरबीन’ के प्रकाशन का एक वर्ष पूरा हो चुका है। पूरे साल इसकी चर्चा बनी रही।  अब भी हो रही है। पढ़िए इसके ऊपर नई टिप्पणी जो लिखी है डॉ सुशीला ओझा ने- मॉडरेटर

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संघर्ष माँजता है, परिष्कार करता है, निखारता है। साहित्य की बोरसी में आग का रहना आवश्यक है। बोरसी मिट्टी की बनी होती है, सहिष्णुता के भाव से सराबोर रहती है और एक मौन साधक की तरह दूसरों को ऊष्मा देने के लिए स्वयं जलती रहती है। बोरसी की एक छोटी सी चिंगारी, राख में दबी रहती है। उस आग के नीचे गाय के गोबर का करड़ा और धान का भूसा रहता है, जो आग को अपने सीने में बड़ी तन्मयता से दबाए रखता है। समय की आँच से दबी हुई आग, स्मृतियों से अभिसिंचित होकर लपलपाती है। दबी हुई आग, जिसे ‘भऊर’ कहते हैं, इसमें पकाई हुई शकरकंद, आलू से सोंधी महक आती है। कितना स्वादिष्ट लगता है ‘भऊर’ में पका हुआ शकरकंद! छप्पर पर रखे हुए शकरकंद पर जब स्मृतियों की ओस पड़ती है तो मिठास द्विगुणित हो जाती है। जीवन की विघ्न-बाधाएँ पगडंडियों पर उगे कुश कंटक हैं, जिन्हें स्मृतियों की खुरपी बड़ी कलात्मता से संवारकर चमकाती है, महकाती है। कमनीय डालियों पर पनपी स्मृतियों के किसलय किनारों पर बीच-बीच में तुलसी की मँजारियाँ, लटककर स्मृतियों को गमकाती हैं। उबड़-खाबड़ स्मृतियाँ पगडंडियों में काँटे बनकर चुभती हैं। यह चुभन ही मस्तिष्क को ऊर्वर बनाती हैं। “न दैन्यं न पलायनं” के महमहाते संदेश में तुलसी की पावन गंध है। यतीश जी ने साहित्य की विभिन्न वीथियों से गुजरकर संस्मरण के प्रकर्ष, उत्कर्ष के स्वर्ण स्तंभ से साहित्य की छत की मुंडेर को श्रीसमृद्ध किया है। लेखक में संस्मरणात्मक साहित्य में अतीत और वर्तमान को जोड़ने की  गजब की कीमियागिरी है। यतीश जी का बचपन अभाव, कष्ट और संघर्ष में बीता है। पिता की आसामयिक मृत्यु ने कष्टों के दावानल में परिवार को अकेले छोड़ दिया। जलो! अनवरत जलो और फिर अपनी अदम्य जिजीविषा से लहलहाओ! जीवन जीने की कला स्वयं सीखो! जैसे वन में दावानल लगती है तो उन पौधों को कौन सींचता है? परिस्थितियाँ परिवेश के अनुकूल बनकर स्वयं राह बनाती हैं, खिलती हैं, पुष्पित, सुपल्लवित होती हैं। ये गमले के फूल नहीं होते। प्रकृति ही उनकी शुभचिंतक और मार्गदर्शक होती है। इनके पिता कम्युनिस्ट थे और ये तीन भाई बहन थे। माँ को जीविकोपार्जन के लिए विरासत में हिम्मत, अदम्य साहस और आत्म विश्वास के अतिरिक्त  कुछ भी नहीं मिला था। सरकारी अस्पताल में स्टाफ नर्स की नौकरी उस जमाने में प्रतिष्ठित नहीं मानी जाती थी।

माँ सुन्दर थी, उम्र कम थी और ऊपर से गदराया यौवन। उस जमाने में भी भ्रमरवृत्ति वाले पुरुषों का अभाव नहीं था। यतीश जी का घर लखीसराय था। माँ धैर्य और सहिष्णुता की मूर्ति थी। घोर अभाव में भी भावसंपन्नता और अनुशासन से उसने माँ और पिता दोनों के दायित्व का कौशलपूर्ण निर्वहन किया। उनके पिता के एक दोस्त ने आगे बढ़कर अभिभावकत्व का दायित्व लिया। माँ से विवाह कर गृहस्थी में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान  दिया। डॉक्टर साहब दलित थे लेकिन परिवार के प्रति समर्पित और निष्ठावान थे। उन दिनों सवर्णों का वर्चस्व था। डॉक्टर साहब दलित विरोधी प्रदूषण से ग्रसित थे।  आत्मग्लानि और अवसाद में घुट-घुटकर जीना उनके जीवन के लिए जहर बन गया। वे नशे का इंजेक्शन स्वयं लेने लगे और उनकी भी असामयिक मृत्यु हो गई। देहातमें एक किस्सा है -“जातो गवइनीं भातो ना खइनीं”- हम बच्चे इसके शिकार हो गए। लोग बाप का नाम पूछ-पूछकर मजाक उड़ाते थे। पहले बाप का क्या नाम है..फिर दूसरे बाप का नाम पूछते। अब बच्चे इन गूढ़ प्रश्नों से अनभिज्ञ भूल-भुलैया में खो जाते लेकिन प्रश्न भीतर तक चुभता था। इस चुभन में भी बड़ी शक्ति है, अगर उसके शूल गहराई में चुभते हों। इन रिसते घावों से भी औषधि निर्माण की अद्भुत कला की जानकारी मिलती है, यह धन्वंतरि का मंगल कलश बन जाता है। बस धैर्य की आवश्यकता होती है। यतीश जी ने स्वयं लिखा है –

“स्मृतियों के दरवाजे नहीं खुलते। एक कौंध के साथ दरवाजा अवश्य खुलता है। अगर ठीक से झाँकना शुरु करो तो।”

संवेदनशील हृदय ही स्मृतियों का  झरोखा खोलता है। गहरी भावनाओं का प्रबल वेग पर्वत की ऊँचाइयों को छूने का भी आमंत्रण देता है। समय और साहित्य में मापने वाला यंत्र विकसित नहीं रहता है। मस्तिष्क में मैगी की तरह जो वीथियाँ उलझी होती हैं, शिराओं में जो लाल प्रहरी दौड़ता है, वह स्मृतियों को दबोचकर सीने से लगा लेता है। जातीय संघर्ष और रक्त से सनी दलदल धरती ने लेखक को विषम परिस्थितियों में हिम्मत दिया, धैर्य दिया और बहुत सारे अनुभव भी दिए।

यतीश जी ने जीवन संघर्षों को बड़ी नजदीकी से देखा है, महसूस किया है – 

“उम्र के चढ़ते पायदान पर बचपन की स्मृतियों से बढ़िया कोई मलहम नहीं है।” 

स्मृतियाँ शक्ति कवच हैं। लेखक का ममहर मुंगेर था। इनके बड़े भाई का एडमिशन तिलैया स्कूल में हुआ। माँ के पास पैसे नहीं थे। उन्हें अपना गहना बंधक रखना पड़ा और कर्जा लेना पड़ा। नजदीकी के एक मास्टर साहब पैसे देने के बाद भी गहना लौटाना नहीं चाहते थे। इनकी बहन ने, जो बड़ी निर्भीक और साहसी थी, स्कूल के हेडमास्टर के समक्ष तपाक से गहने वाली बात खोल दी जब मास्टर उस स्कूल में साक्षात्कार देने आए थे। दिदिया के इस निर्भीक प्रयास से माँ का गहना मिल गया। 

        माँ अस्पताल में थी। ‘निरोध’ नि:शुल्क बाँटा जाता था। यतीश जी को मालूम नहीं था यह क्या चीज है? गुब्बारा बनाकर उड़ाते, कभी उसमें पानी भरकर खेलते। घर से पच्चीस-तीस किलोमीटर परीक्षा देने जाना होता तो कभी ट्रक के पीछे, कभी ट्रैक्टर के पीछे लटक जाते, कभी बिना टिकट ट्रेन में चढ़ जाते। पैसे का अभाव तो था ही। टीटी को चकमा देकर भाग निकलते। भोजन के लिए जलावन बहुत बड़ी जरूरत है। लोग लकड़ियाँ काटकर लाते और ट्रेन में टॉयलेट के पास रख देते ताकि ढोने की कठिनाई से बच सकें। इससे लोगों को आने-जाने में दिक्कत होती। एक दिन भयंकर हादसा हो गया। किसी आदमी ने बीड़ी पीकर फेंक दिया। बीड़ी बुझी नहीं थी। धीरे- धीरे लकड़ी से आग की लपट उठने लगी। लोग किसी तरह जान बचाकर भागे। कितने लोग मर गए और कितनी लाशें गायब कर दी गईं। कुछ लाशें कीचड़ से सनी घसीटी भी गईं। अस्पताल प्रबंधन की लापरवाही देखकर लोगों ने स्टोर का ताला तोड़ा और लाशों पर चादर ओढा़ई।

यतीश कुमार का जन्म पिता के देहान्त के बाद ननिहाल में हुआ। एक ओर बेटे के जन्म की खुशी, दूसरी ओर पिता के न रहने का गम-

“भागते बचपन में” यतीश जी लिखते हैं –

“बुद्ध की तरह उनकी आँखें खुलीं तो पिता उसे कहीं नहीं दिखे। चन्द्रमा के बदले में वृहस्पति के साथ बड़ा हुआ और आगे पिता उसकी जिन्दगी में ग्रह की तरह ही बने रहे।”

लोग कहते हैं कि उनकी वक्तृत्व शैली बड़ी अनूठी थी। मुकेश की तरह उनका स्वर था। यतीश जी भी मुकेश और रफी के गाने अकेले में सुनते-गुनगुनाते। अभिभावकत्व का अभाव ननिहाल में सालता रहता। जब कोई कहता बिना बाप का बेटा है तो जैसे गरम बरछी सीने में उतार देता था। ऊपर से नीचे तक दिमाग झनझना जाता था। लेखक बचपन में बड़े शरारती थे, चंचल थे, जिज्ञासु थे। जिज्ञासा में किसी चीज के अनुसंधान में लगे रहते और उसमें गलती हो जाती तो माँ से मार भी पड़ती। माँ मारती भी थी और रोती भी थी। बाल मन को माँ का मारना और फिर रोना समझ में नहीं आता था। प्यार से यतीश कुमार जी को लोग चीकू कहकर पुकारते थे। गोल-मटोल, साँवला रंग, घुंघराले बाल, खूबसूरत आँखें देखकर सभी आकर्षित हो जाते थे। माँ मारती थी तो दिदिया अपने स्नेह का मलहम लगाकर रिसते घावों को सहला दिया करती। दिदिया कोमल मन की रक्षिका थी। दिदिया के स्नेह और ममता की छाँव में बड़ा सुकून मिलता। वे कहते हैं –

“एक सुरंग है और मुझे वहाँ टहलने की आदत है। बार-बार मेरे भीतर का बच्चा कराहता है। और स्मृतियों के जंगल में विचरने के लिए एक सुरंग से गुजरने लगता हूँ। दिदिया मेरे कोमल मन की ढाल है।”

माँ कुटाई करती तो दिदिया बचाती। यतीश जी बचपन में शर्मीले, संकोची, हीन भावना से ग्रसित थे। वे आँखें नीची कर मन मसोस कर रह जाते पर दिदिया किसी से नहीं डरती थी। सिर उठाकर चलती और सभी मुसीबतों से लड़ने को तैयार रहती। लेखक ने बड़ी सुन्दरता से दाल-भात-चोखा का सिंबल रखा है (डीबीसी) जो अधिकतर उनका भोजन रहता और चारों ओर (बीबीसी) बुद्धिवर्द्धक चूर्ण देखता तो बच्चा का मन मसोस कर रह जाता। बालकों की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ चीकू में भी थीं। छुटपन में लेखक को प्यार- दुलार से चीकू कहकर ही पुकारा जाता। चीकू झूठ भी बोलते थे, चोरी भी करते थे। ‘चिन्ता मौसी’ ने पैसे दे-देकर चोरी की आदत लगा दी थी। वह अनाज के कुड़ा में पैसा चुराकर रखती और बालक चीकू उसे चुरा लेता। उसे सिनेमा देखने का शौक था। पैसा हाथ में आते ही तीसी के तेल में छना समोसा, अंडा, केराव की घुघुनी खाता, कॉमिक्स पढ़ता, अपने को धन्ना सेठ समझता लेकिन झूठ का तो पता चल ही जाता है। यतीश जी स्वीकारते हैं “झूठ कितने दिन लहलहाएगा, एक दिन सच के उगते ही उसे मरुस्थल बन जाना है।”

उस समय पानी की कितनी किल्लत थी! चापाकल भी सबके घरों में नहीं था। दूर से तसला में पानी लाना होता था। चापाकल ऊँचे रहते थे तो बालक चीकू को उस पर झूल -झूलकर चलाना पड़ता था। भैया का एडमिशन सैनिक स्कूल तिलैया में हो गया था। पैसे का अभाव था, माँ की सैलरी 260 रूपये थी और एडमिशन के लिए 3600 की लंबी यात्रा करनी थी। दीदी के विवाह के लिए माँ ने कुछ जेवर बचाकर रखे थे। बिहार की पृष्ठभूमि में जातीय समीकरण बदल रहा था। अब सवर्ण दलितों के समक्ष ढेबरी की तरह जलते थे। उस जमाने के बिगड़े माहौल में दीदी पैंट-शर्ट ही पहनती थी और बुलेट मोटर साइकिल चलाती थी। लड़कों के समक्ष निर्भीकता और अपने अदम्य साहस का परिचय दिया करती थी। उनके घिनौने प्रश्नों का आग्नेय दृष्टि से जवाब देकर उन्हें निरुत्तर कर दिया करती थी। लेखक उस समय की बिजली की कहानी बड़े रोमांचक ढंग से सुनाते हैं-

“80 की दशक में बिजली पूर्णिमा और अमावस्या की तरह अपने मियाद पर आती और जाती थी। ढेबरी, लालटेन के जमाने में पेट्रोमैक्स किसी बड़े जमींदार के यहाँ जलता या शादी विवाह में। उस समय एक स्टोव होता था। उसमें भी पेट्रोमैक्स की तरह हवा की जाती थी।”

एक बार स्टोव पर चढ़ी दाल उबलकर गिरने लगी। स्टोव बुझ गई तो चीकू ने उस पर पाँच लीटर मिट्टी का तेल उड़ेल दिया। मिट्टी तेल की गंध फैलने लगी तब तक दिदिया आ गई और आग लगने से बच गई।

उन दिनों एक अंगूर बेचने वाला आता और चीकु उसे ललचाई दृष्टि से देखता रहता। अंगूर वाला उसके हाथ पर दो अंगूर रख देता और वहीं डॉक्टर साहब के बेटे के पास खोमचे भर अंगूर होते, जिसे वह झूले में बैठकर खाता रहता। इसे देख चीकू के मन में एक टीस कुरेदने लगती। यतीश जी ने उस स्थिति का बड़ा खूबसूरत बिम्ब खींचा है – “गरीबी और स्वाभिमान रोज आपस में लड़ते पर धीरे -धीरे मेरी आँखों का पानी सूख गया और मैं आराम से उसके दिए अंगूर के दो दाने को चाव से खाने लगा।”

शुरु से शरारती चीकू कभी नाक में पेंसिल लगा लेता। उसकी नाक हरदम चूती रहती थी। एक दिन स्लेट वाली पत्थर सी पेंसिल उसने नाक में घुसेड़ ली। भइया ने बहुत कोशिश की, दीदी ने भी नाक दबायी लेकिन पेंसिल बीच में जाकर फूल गई थी और नहीं निकली। इससे बहुत पीड़ा होने लगी। श्वास नली अवरुद्ध होने लगी और दर्द छटपटाहट बढ़ती गई जिससे सारे लोग घबड़ा गए। उस समय माँ घर में नहीं थी। फिर विचार आया कि सुर्ती सुंघाई जाए। जोर से की छींक आने पर पेंसिल निकल जाएगी। और वही किया गया। सुर्ती सुंघाई गई और जोर की छींक आई। तब जाकर पेंसिल बाहर निकली और भइया, दीदी को राहत मिली। चीकू को ऐसे ही उल-जलूल काम करने की आदत थी। घर से स्कूल की दूरी लगभग दो किलोमीटर थी। चीकू मुख्य सड़क से भागकर अक्सर गेहूँ, धान, अरहर, चना, मटर, खेसारी के खेत, आम के बागान, इमली के पेड़ और पोखरा को लांघते चलता, छीमी, चना, अरहर की फलियों को चबाता, इमली आम पर निशाना साधता और उन फलों-फलियों को हाथ में लेकर आनंद से झूम उठता। अमरूद, शहतूत को फुनगियों पर चढ़कर तोड़ना और फिर डाल को छोड़ कूदना उसकी आदत बन गई थी। एक बार उसके दोस्तों ने रखवार के डर से अमरुद तोड़कर घास में छिपा दी थी। पेड़ पर चढ़ते हुए बालक की दृष्टि ढेर सारे अमरुदों पर पड़ी। वह डाल छोड़ कूद गया और अमरूद को गंजी में समेटने लगा। ढेर सारा अमरूद गंजी में नहीं समेटा जा रहा था। पीछे से दीदी और उसकी सहेलियों भी आ आईं। उन सबने अपने फ्रॉक में बाकी अमरुदों को समेटा।नमक मिर्च और भरुआ अचार लगाकर गमछा में उलट-पुलट कर खूब स्वादिष्ट ‘झक्का’ बनाया गया। बन्दर सेना ने खूब चाव से इसे छका। ऐसे ही कच्चे आम और कटहल के लेढ़ा को तोड़कर भी ‘झक्का’ बनाया जाता। चीकू ऐसे ही आँख मूँद कर गेहूँ और अरहर के कटे खेतों को रौंदता रहता। ऐसे ही एक बार कटे अरहर की खूँटी को रौंदते समय खूँटी चप्पल में घुसकर पैर में चुभ गई और पैर लहूलुहान हो गया। आम, जामुन तोड़ने में हवाई चप्पल, हवाई जहाज से कम नहीं था। इन सारे कामों में चीकू को आनंदानुभूति होती। यतीश जी ने बड़ी मार्मिकता से इस दृश्य को उपस्थित किया है-  “पगडंडियाँ फूल के बिस्तर बिछातीं। घास की दोस्ती इतनी प्यारी क्यों लगती है। शायद इसलिए कि दूब मिट्टी के सबसे नजदीक रहती है।”

बचपन के दिन भी क्या दिन थे! जिज्ञासा कौतूहल हिरणी की तरह कुलांचे मारती रहती थी। एक बार वहाँ राजीव गाँधी आए थे। किस तरह बच्चे उतावले होकर उन्हें देखने गए थे। उनको छूने की जिजीविषा मन में हिलोरें मार रही थीं। स्पर्श सुख तो नहीं मिला लेकिन अल्प दर्शन सुख जरुर मिला। पोखरे में जल-फल खाने का उतावलापन भी कम न था। रखवारों से बचके-बचाके जलफल खाना, कम पौरुष का काम नहीं था। उसमें कँवलगट्टा का आनंद ‘गूँगे के गुड़’ जैसा होता था। बाँस में दो गगरी नीचे करके बाँधी जाती। एक गगरी खाली रहती, ऊपर उसका मुँह होता। उसमें जलफल भर कर भर पेट खाते और गगरी में तोड़ -तोड़कर रखते। एक बार खेत में जल-फल से भरी एक गगरी मिल गई। बच्चों ने उस रात उसे चुराकर खूब खाया और छिलका खेत में ही छोड़ दिया। अगले दिन रखवार पता लगाते -लगाते हार गया लेकिन उस जलफल का कोई सुराग नहीं मिला। जलफल चुराने के लिए हाथ में टॉर्च की रोशनी रहती थी। फिर भी धुँधली रोशनी से साफ़-साफ़ नहीं दिखता था। लेखक के हृदय की गहराई से संवेदनाओं के तार कैसे जुड़ गए! मस्तिष्क में स्मृतियों के कितने सुन्दर रंग-बिरंगे बल्ब जल रहे हैं। द्रष्टव्य है लेखक के शब्दों की जादूगरी –

“मन एक अजायब घर है जहाँ स्मृतियाँ पनाह लेती हैं और रात्रि के एकान्त में अर्द्ध-चैतन्य से बाहर निकलकर चेतना के मनोभाव पर नृत्य करती हैं।”

बचपन में कुछ भी करना समग्रता में जीना है। न किसी का डर, न किसी का भय। मन की उठी लहर के साथ दौड़ते जाना है, परिणाम की चिन्ता नहीं। जो होगा उसका मुकाबला करने का अदम्य साहस है। होली के दिन भी कितने निराले होते थे। खूब योजनाएँ बनाई जाती थीं – लालटेन के कालिख में मिट्टी तेल मिलाकर मुँह में लेपना, कालिख की कमी हो तो अखबार जलाकर कालिख बनाना, सिन्दूर के पेड़ के डली से बीज निकालना, मिट्टी और गोबर का बढ़िया मिश्रण तैयार करना। सरसों के खाली कनस्तर का ड्रम बन जाता और बच्चे खूब हुड़दंग मचाते। भांग की खुमारी में ही लेखक ने अपने मित्र प्रशांत को पानी के चहबचे में पटक दिया। परिस्थितियों से अनभिज्ञ बाल मन ने प्रशान्त को होश में लाने का अथक प्रयत्न किया मगर सारे प्रयत्न विफल हो गए। दूसरे दिन पता लगा प्रशान्त भागलपुर चला गया, बोर्ड की परीक्षा वहीं से देगा। लेखक को पहली बार आत्मग्लानि की अनुभूति हुई – “प्रेम हो या दोस्ती, हम एक दूसरे की श्वास नली को अवरुद्ध करेंगे तो वह दम तोड़ देगी।”

यतीश जी के शब्दों में कितनी कलात्मकता है, कितनी, प्रगाढ़ता है, कितनी पारदर्शिता है, कितनी अगाधता है! इन शब्दों के मुकुर में दर्शन कर सकते हैं-

“स्मृतियों की फुहार पड़ते ही मन के पोखर में कुम्हलाए फूल अपनी पंखुड़ियाँ फैलाने लगते हैं तब अन्त:पटल पर ठंढी बयार उसको संचित करती है।”

बड़की अम्मा चीकू की बड़ी मामी हैं, जो चीकू को उपेक्षा से देखती हैं। चीकू डरे-सहमे-सिमटे बड़की अम्मा का पैर छूता है। वे हिकारत भरी नज़रों से देखतीं और कहतीं-  “बिना बाप का बेटा है। इसे अच्छे तरह से खिलाओ, माँ के बंधन से भागकर आया है, पता नहीं आगे क्या करेगा?” एक छोटे बालक के कान में यह बात जैसे गर्म शीशे के घोल की तरह उतरती है।

 “तुम पलंग पर क्यों बैठे हो?”

ये सब व्यंग्य बाण अगर सीधे हृदय में लगते हैं तो उसमें से एक प्रकाश का पुंज निकलता है और वही हुआ। चीकू को बड़की अम्मा के तिरस्कार से चोट पहुँची और उसने संकल्प लिया “करो या मरो।”

और ननिहाल तभी लौटा जब उसका चयन संघ लोक सेवा आयोग में हो गया। तब यतीश जी के स्मृति पटल पर बशीर बद्र की कविता ज्योति की तरह उभरकर हँस रही थी-

“ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं/ तुमने मेरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा।”

वास्तव में इन काँटों भरे बिस्तर में विराट की शक्ति छिपी होती है, अगर तुम अपनी मंजिल को पाने के लिए संकल्पित रहोगे। उपेक्षा से प्रेरणा मिलती है और शक्ति का संचयन होता है।

चीकू बड़ा भोला-भाला, गोल-मटोल बच्चा था। उसकी आँखें बड़ी-बड़ी और बाल घुमड़े -घुमड़े थे। बालों में जटा सी बँध जाती। एक दिन भइया ने बालों को सुलझाने का प्रयास किया। जाड़े के दिन थे तो नारियल तेल जम गया था। डब्बे को तवा पर रखकर गरम किया गया और वह थोड़ा ज्यादा गरम हो गया। मुलायम चमड़े पर गरम तेल पड़ते ही फफोले पड़ गए। बच्चा जब स्कूल गया तो मास्टर साहब की छड़ी की चोट से तिलमिलाहट, बेचैनी और दर्द बढ़ गया। फिर उसे छुट्टी मिल गई। माँ ने अस्पताल में फफोले से पानी निकाला, दवा, मलहम, पाउडर लगाया तब जाकर दो-चार दिन बाद घाव से राहत मिली।

भइया को हर काम सलीके से करना बहुत पसंद था और चीकू ठहरा अव्यवस्थित। चीकू को भइया ने पढ़ाया और फिर आठवें क्लास के पश्चात् उन्हें पढ़ने का जुनून सवार हुआ जहाँ जिन्दगी को एक नई दिशा, नयी भूमिका मिली। लेखक ने साहिर लुधियानवी के शेर का जिक्र किया है- “वो पेड़ जिनके तले हम पनाह लेते थे/ खड़े हैं आज भी साकित किसी अमीं की तरह।”

बचपन से चीकू शरारती तो था ही। एक दिन हथेली पर अनार फोड़ लिया जिससे पूरी हथेली जल गई। बचपन की तमाम उपेक्षाओं के बीच भी होली, दीवाली, दुर्गा पूजा जैसे उत्सवों में उत्साहित होकर समग्रता से जीना उसे आता था। बाढ़ की उफनाई नदी की तरह सारी वर्जनाओं को तोड़कर आगे बढ़ना उसे आता था। लेखक अब रेल अधिकारी हो गए हैं लेकिन होली की व्यवस्था और नशे की आदत ने अब तक उनका पीछा नहीं छोड़ा था। सियालदह की उस अलबेली होली में भी छककर भांग की पियाई हुई। भांग धीरे-धीरे असर करने लगा। पत्नी ने आराम से उन्हें सोने दिया। उन्हें भांग की लत लग गई थी। लेकिन अपनी ऐसी भयानक स्थिति देखकर उन्होंने छह वर्षों तक भांग को हाथ नहीं लगाया। फिर एक बार किसी शादी में भांग खाने के लिए उनका मन ललकने लगा। वहाँ एक पान की दुकान थी। यतीश जी ने कौतूहल से पूछा- “भैया भांग खिलाओगे?”

उसने कहा -“भांग नहीं है पर आप पान खाइए मस्त हो जाइएगा।”

पानवाले ने नशेड़ी समझकर सुर्ती वाला पान दे दिया, जिसमें सुर्ती अनुपात कुछ ज्यादा मिला दिया। लेखक पसीने-पसीने होने लगे। कोई पानी का ग्लास लेकर दौड़ा, कोई नींबू निचोड़कर लाया जिससे उल्टियाँ हुईं और तीन-चार घण्टे तक वे बेसुध पड़े रहे। इन सारी बातों से अलग, मन में एक दिव्य सुवास की अनुभूति हो रही थी, वह साहित्य का बीजारोपण था। विचित्र हरियाली सी कविता-कामिनी उनके हृदय में प्रतिष्ठित कमल पर आकर भ्रमर की तरह अनुगूंजित होने लगी। उनके कंठ के गह्वर में, जिह्वा के पलंग पर, अधरों की शय्या पर – एक गजब की हलचल, एक छलकन- “कहो ना प्रिया! तुम कौन हो?” कवि के अन्तस् कमल के मखमली पलंग पर यह कौन आमंत्रित कर रहा था! कवि को इसका भान नहीं था लेकिन मन रंग-बिरंगे पंखों में उड़ रहा है- “चिड़िया चहचहाती है, कोई गीत गुनगुनाता है, कोई कविता मंत्र में बदलकर मिलती है।” कवि ऊर्जस्वित होने लगता था जैसे एक नई दिशा मिल गई हो, एक नया मानसरोवर, जिसमें कविता हंसिनी बनकर तैर रही हो। अब जिन्दगी ने करवट ले ली है। निरभ्र आकाश खिलखिलाकर हँस रहा है। ऐसे समय में जिगर मुरादाबादी की एक कविता मन को कोमल स्पर्श देकर सहलाने लगती है- “जिन्दगी इक हादसा है और कैसा हादसा/ मौत से भी जिसका सिलसिला होता नहीं।”

पढ़ाई खत्म होते ही बाइस-तेईस की उम्र में यतीश जी की शादी हो गई। अभी परिपक्वता किस चिरइया का नाम है, इसका अनुभव नहीं था। शादी हो गई लेकिन अनुभवहीनता दरवाजे पर कुंडली मारकर बैठी थी। एक दूसरे को जानने समझने का विवेक नहीं था। दोनों तरफ अपने अहम् का भाव दरवाजे पर पर्दे की ओट से झाँक रहा था। दरवाजे के मंगल कलश पर रखी ज्योति जल रही थी, प्रकाश था मगर परिपक्वता के दीप कुछ झिलमिलाते से थे। लेखक ने अपनी अहमन्यता को अंगीकार किया है- “मुझमें न चाहते हुए भी  पुरुष तत्त्व ज्यादा था, जबकि स्मिता में स्त्री तत्त्व की अधिकता थी।”

यतीश जी की सर्जनात्मक शैली में एक विशिष्टता है, रोचकता है, कौतूहलता है, जिज्ञासा है, जिसमें “न दैन्यं न पलायनं” का आदर्श दिखता है। अतीत की गहराई में उतरकर वर्तमान को सहेजकर भविष्य के निर्माण की यात्रा जीवन की सुखद अनुभूति है। अतीत प्रेरणा है, अतीत शक्ति है, रचनात्मकता की रीढ़ है। इसलिए कवि स्मृतियों के माटी की बोरसी में अतीत की चिंगारी को दबाकर रखे हुए हैं। उस बोरसी की आँच से स्मृतियों को प्रकाश मिलता रहेगा। स्मृतियों को मन मस्तिष्क की दीवारों पर पुनर्स्थापित कर, उसे शब्द पुष्पों से पूज्य बनाकर इन्होंने कितनी कलात्मकता, पारदर्शिता और दिव्यता प्रदान की है। यह जीवन के नवोन्मेष का आत्म साक्षात्कार है। कितनी ईमानदारी से तथ्यों के एक-एक ईंट को जोड़कर इन्होंने साहित्य देवी का मंदिर निर्मित किया है। चुनौतियों से भरी इनकी दास्तान है जैसे ढहते मंदिर की पुनर्स्थापना, पुनर्नवा का अकल्पनीय अभिनव शिल्पमयता और नवोन्मेष का ध्वज लहराता हो।

लेखक की बड़ी बेटी का जन्म उसी अव्यवस्थित अस्पताल में हुआ, जिसका ज़िक्र ‘अस्पताल की स्मृति’ में किया गया है। पूरे साल भर लखीसराय में दिदिया और माँ के साथ रहने का सुअवसर मिला। बड़ी बेटी जिसका नाम ‘गोबर चुन्नी’ है, मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब करती है। अपनी माटी की खुशबू में पले-बढ़े लेखक को उस माटी से माँ का ममत्व, स्नेह मिलता है। यतीश जी की छोटी बेटी ने ‘गोबर चुन्नी’ नाम से ही अपनी बड़ी बहन का नंबर मोबाइल में सेव किया है। यह होती है लघुता से विराटता तक की यात्रा। लखीसराय की माटी की खुशबू में सहृदयता है, आत्मीयता है, अपनत्व की मिठास है जो रोम-रोम में आज तक प्रवाहित है।

सैरबीन एक उर्दू शब्द है जिसका अर्थ है सूक्ष्मता से निरीक्षण करना। यह बायोस्कोप है, चित्रमयता का कलात्मक दृष्टिकोण है। इस दिव्य, भावपूर्ण संस्मरण के नैवेद्य पुष्प और उसके निर्माल्य पुष्प दोनों में युग पुरुषों, मनीषियों, चिंतकों की स्मृति एवं कृतज्ञता है, जो संस्मरण की गरिमा में सोमनाथ की सौम्यता का परिचायक है। स्मृतियों के तपन के शुभारंभ में इस पूजा की थाली में प्रथम पुष्प रवीन्द्रनाथ ठाकुर को अर्पित है। स्मृति मन मस्तिष्क को ऊर्जस्वित करती है- “स्मृस्मृतियाँ एक अदृष्ट कलाकार की मूल कृतियाँ हैं।”

वे निर्माल्य के रूप में आलोकधन्वा की कविता को शीश लगाते हैं-

“जिसने बचाया मेरी आत्मा को/ दो कौड़ी की मोमबती की रोशनी में।”  

स्मृतियों के समुद्र मंथन में चौदह रत्नों की प्राप्ति हुई। हर रत्न के शुभारंभ में “वन्दे वाणी विनायकौ” की भांति महापुरुषों के काव्य फूल का वंदन, अभिनंदन किया गया है।

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