आज पढ़िए जानी-मानी लेखिका विनीता परमार की कहानी। यह नदियों से मनुष्य के आदिम रिश्ते की स्मृति कथा हो जैसे। आप भी पढ़िए- मॉडरेटर
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नदी कितना भटकती है; कभी सीधा तो कभी आड़े—टेढ़ा रास्ता लेती है,कभी—कभी सागर से दूर चली जाती है, फिर पास आ जाती है। लेकिन भटक—भटक कर भी सागर तक पहुंच ही जाती है। सागर तक पहुँचने में नदी को भी यह याद नहीं होता कि पत्थरों से गुजरती वो जाने कब पानी को चोट मारती है कि पत्थर की चोट नदी को लगती है। नदी ख़ुद से ही बहती है उसको ना धकियाने की जरूरत है ना बाँधने की। बिन नक्शे ही तो नदी पा लेती है मंजिल।
अक्सर नदियों के बारे में ऐसी ही बात करता वो कहता –“तुम भी तो नदी हो।” कभी मेरी चाल तो कभी काम पूरा करने की जिद तो मेरे गुस्से की भी तुलना नदी से ही करता।
उस दिन…. उसके साथ भी सड़क छोड़ नदी की गोद में उतर जैसे ही पानी की धार देखी, वो मचलने ही लगा। मैं उसके सड़क पर पड़ते कदम और नदी के किनारे रेत पर पड़ते कदम के अन्तर को देखने लगी। वही सड़क पर तराशे हुए कदम रेत पर कैसे बेपरवाह, जैसे हवा में उड़ रहे हैं। नदी की धार देखते ही उसने अपने जूते वहीं किनारे फ़ेंक, नदी में उसके साथ चल पड़ा।
‘जानती हो मेरे बचपन की नदी सरीखी तो है यह नदी, तब मैं उस रेतीली नदी में इस पार से उस पार ऐसे ही भाग जाया करता था।’
“नदियों का तो काम है बहना, हमने कितनी कोशिश की वो लौटी फिर-फिर उसी जगह अपनी धार और तेजी के साथ।”
इस नदी के साथ तो रेत से अधिक कंकड़ हैं। पैरों में कंकड़ों का गड़ना, ‘देखना नदी पार करते ही तुम सड़क पर तरतीबी से चले तुम्हारे पैरों की थकान यह पतली सी धार ख़ुद में खींच लेगी’
जिंदा नदी का यही तो काम है ख़ुद सिर्फ़ बहना। “और ये कंकड़, भी तो”
‘तुम्हें पता है नदियों की शीतलता में हमें याद ही नहीं होती, इन किनारे के चट्टानों का पत्थर बनना, फिर कंकड़ बनना और फिर रेत।’ उसके इस नदी प्रेम में मैं खो जाती, उसकी बातों में नदी और नदी के किनारे विकसित सभ्यता होती। फिर कल और आज की बात में कलकल धार।
उसे यह पता है कि अपनी स्मृतियों के ताने- बाने में वह उसे बुन सकता है। अक्सर उसके इस अद्भुत कला की वह गवाह बनती रही है। ताने-बाने बुनने के लिए ना कोई बड़ी बात ना कोई मानचित्र। एक धुंधली सी रेख से खड़ी की एक पूरी तस्वीर। जिसमें शामिल होते हमारा शहर, वो स्कूल, वह स्टेशन, वो बाजार, मेला और ख़ुद वो। वो डूबता है सराबोर होता है अतीत के इन खाँचों के साथ। फिर मुस्काता है, शरमाता है खड़ा करता है एक वर्तमान। जीती जागती उसकी छवि। जिसमें भरता है मनचाहा रंग, स्पर्श, ताप और मुस्कुराहट। वो स्मृतियों के समानांतर चलता वर्तमान की लकीरों से काटता है और संजोता है नई कल्पनायें। हमेशा यही कहता है कितना सुखद है न अतीत को ख़ुद के ताने – बाने में बुनकर भविष्य को संजोना। कितना सुखद है न जैसा मन कहे जैसा अंतस् कहे वैसा बना लेना। अब वो अक्सर ही प्रचलित फ्रेम से बाहर ही तस्वीरें गढ़ता है, जो अक्सर ही सीमा के बाहर की तस्वीर होती है। इस सीमा को पार करने का कोई भय नहीं है वो ख़ुद ही बनाता है। मजा आता है फरमे से बाहर निकल जीने में।
इसी फ़रमे से निकलकर बाहर आने में जाने कब हमदोनों अपने शहरों की बात करने के लिए भी नहीं रहे। नदी सरीखी मैं अपने रास्ते से अलग और दूर चली आई। उसने सरकारी सिविल इंजीनियर बनना चुना और मुझे नियति ने एक शिक्षक बना डाला।
मुझे परिवारवालों ने बांधना चाहा लेकिन बाँध नहीं सके। मेरे यहाँ आने में एक वास्तविक नदी जो बाँध देने के बाद अपनी खूबसूरती बिखेर रही है। मेरे लिए बाँधना शब्द हमेशा ही एक टीस छोड़ता है। पशु, पक्षी, मनुष्य किसी को बंधे हुए देखना अच्छा नहीं लगता। लेकिन मनुष्य अपनी जरूरतों के मुताबिक हवा,पानी, पहाड़, मिट्टी को बांधते रहा। बांधने में एक मजा है और एक स्वामित्व के अनुभव के साथ जीता मनुष्य भूल जाता है इस क्रिया की प्रतिक्रिया। इस बांधने में नदियों का बांधना थोड़ी देर आँखों को रोक देती है। लेकिन सामने होते हैं विस्थापित मनुष्यों की तस्वीरें और उनसे गायब होती है विस्थापित खेतों, वृक्षों और मनुष्यों की छवियाँ। जहां हमने नदी की धार रोकी और बांध बनाया। नदी का सरोवर बन जाना नर्क है। एक ऐसा नरक जिसको हम खुली आँखों से देखना नहीं चाहते बस इंतज़ार करते हैं एक लंबे समय का जो नदी की रूलाई के साथ कभी बाढ़, सुखाड़ या मनुष्यों की खुद की लड़ाई के रूप में दीखती है।
पतरातू बाँध ने कृत्रिम निर्माण के बाद एक जगह बनाई है और लोग पर्यटन के लिए भीड़ जुटाते हैं। आँखों से महरूम दृश्य छोटे-बड़े कैमरों में कैद होते रहते हैं। छोटी जगहों में स्थानीय लोगों को ही गाइड बनना पड़ता है। और मैं स्थानीय मेहमानों की लोकल गाइड। गाइड के रूप में मैं नदी के साथ हुए हादसे को सकारात्मक बनाकर बढ़ा-चढ़ाकर कहती हूँ। मसलन इस डैम का नक्शा एम. विश्वेश्वरैया जैसे प्रख्यात इंजीनियर ने बनाई। नदी के साथ हादसा कितना अजीब लगता है न; मरांगबुरु (सर्वोच्च देवता का पहाड़) शिखर से निकली नदी जिसकी घाटी अदृश्य सी एकांत और भयावनी है। नइकरी नदी अपने कुटिल और चुन्नट वाले प्रवाह के बावजूद मनुष्यों के हत्थे चढ़ गई। नदियों को बांधने वाले, पहाड़ों को कटवा देने वाले आर्किटेक्ट और इंजीनियर सबसे भाग्यशाली लोगों में से एक हैं। जो सार्वजनिक सहमति, सार्वजनिक अनुमोदन और अक्सर सार्वजनिक धन से अपने भी स्मारकों का निर्माण करते हैं।
वैसे इस दुनिया में कुछ टिकाऊ नहीं है लेकिन हाल के वर्षों में हमने सबसे ज्यादा टिकाऊ शब्द को प्रयुक्त किया है। टिकाऊ विकास की कीमत तलाशती मैं बस इसी उधेड़बुन में रहती हूँ कि यह सब किसके लिए?
मेरे द्वारा भी हर नाते-रिश्तेदार को यहाँ घुमाते वक्त इसी शब्द का इस्तेमाल रहता है। मैं इस निर्माण को सही ठहराने में इसके पीछे के विध्वंस को जिंदा निगल जाती हूँ। पिछले दो सालों से डैम का ठहरा पानी कुछ और ठहर गया है। कोरोना बंदी में कृत्रिम निर्माण के साथ प्रकृति को भी देखना – ताकना मना था। घिरी हुई जल-राशि के किनारे लगाये गए देशी-विदेशी पौधे बेतरतीब ही बढ़ रहे थे।
जब सारी चीजों से पाबंदी हट रही थी तब फिर डैम घूमने की भी पाबंदी हटा दी गई। सबसे पहले मुझसे मिलने वो आया फिर डैम घूमने का प्लान बनना ही था। एक बहाव को रोकने की साजिश अब लोगों के लिए खूबसूरत अहसास है। उस दिन मैं और वो दोनों एक थोपी गई खूबसूरती को देखने में मशगूल हो गए।
अगस्त 2022
मैंने उसकी आवाज़ को पिछले साल के बाद सुना तो ऐसा लगा एक खनखनाहट मेरे इर्द-गिर्द ही जज्ब हो गई है। मैंने उसी दिन अगस्त में अक्तूबर महीने में खिलने वाले फूल को देखा। झरते पारिजात को देख थोड़ी देर के लिए ठिठक गई। मैंने उससे धीरे से कहा- “बचपन में तो हमने इसे ठंढ के मौसम में खिलते देखा था।”
“तुम्हें इसका अहसास ही नहीं कि जाने कब मौसम ने ऐसी करवट ली कि वह बदल-बदलकर जलवायु होने वाली है।”
देखो न हमारी आँखें जीवंत हैं कितनी आसानी से प्रवेश करती हैं तुममें फिर हममें। मैं देखती थी लेकिन सिर्फ़ देखती थी आँखों की वो छवि जाने कब मिट जाती थी पता ही नहीं चलता। तुमने ही तो फिर रेशे – रेशे को देखना सिखाया। फूलों के पोर – पोर को जब तुम खोलते हो लगता है सूक्ष्मता से विस्तार को पाने जैसा ही तो है। तुम्हारा देखना 24 कैरेट सिर्फ़ देखना होता है। तुम जब देखते हो तो सिर्फ़ देखते हो और फिर दृष्टि हटते ही छपी रहती है तुम्हारे जेहन में। कितना सुंदर है न तुम देखने के समय सिर्फ़ देखते हो। देखने और सोचने को पानी और तेल की तरह अलग – अलग रखने की यह अद्भुत क्षमता से ही तुम विशिष्ट हो।
वो झेंप गया; “हाँ, मैंने तुम्हारे घर इसके फूलों का डलिया पहुँचाया था। समय के साथ चीजें बदल जाती हैं। और रोज़ बदल ही तो रही हैं। पहले भी तो क्षण भर में मौसम बदल जाते थे। अब इनके खिलने का मौसम बदल गया। नमी और ताप की जरूरत बदल गई। बादल, बारिश, गर्मी, ठंढ सबने अपनी तासीर बदल डाली है।”
बाहर बदलते मौसम के साथ आजकल मेरे भीतर भी मौसम क्षण-क्षण में बदलते रहते हैं। तो यदि मौसम अनुकूल हो भीतर सुखद होने की हवाएं चल रही हों,बादल घिर रहे हों तो इस मौसम के साथ स्वयं को बहने देना भी संभव नहीं हो पाता।
मुझे लगा खूबसूरती की उम्र कम ही होती है। तुम्हें देखने का सुख क्षण भर का ही होगा और फिर छूटने के भय और दुख में बहुत लंबा गैप होगा। मैंने तुमसे मिलना चुना, मुझे पता है उस दुख में से फिर मिलने की आकांक्षा ही पैदा होगी। लेकिन मिलना फिर क्षण भर का होगा और फिर छूटना लंबे दुख का कारण बन जायेगा। सब जानकर मैंने भी तो हरसिंगार हो जाना चुना। हाँ,खिलकर बिखर माटी हो जाना। जिसकी हम आकांक्षा करते हैं, उससे ही हम वंचित रह जाते हैं। चीजों को स्वीकारते ही तो मुक्त हो जाते हैं। वो अभी थोड़ी देर बाद चला जाएगा।
फिर मुझे उस आवाज़ की याद आई, दृश्य तो रेटिना के समाप्त होते ही चले जायेंगे लेकिन उसकी आवाज़ की तरंगे युगों तक रहेगी। हरसिंगार के फूलों की उम्र बहुत छोटी होती है लेकिन उसकी ख़ुशबू बस जाती है। इतने हौले से इस दृश्य ने हिलाया कि इस शिउली की भीनी गंध अगले महीने भी महसूस करते रहूंगी।
तभी मुझे फूलों की क्यारी में लाल-हरे रंग का छुपा हुआ फूल दिखा। जंगल में खिलनेवाला फ्लैम फ्लावर ओट में दबा हुआ है। मैंने उसे बाहर निकाल ग्लैडूला के साथ जोड़ दिया, नारंगी रंगों के साथ लाल हरे रंगों ने एक अजूबा रच दिया। जीवन भी तो अप्रत्याशित घटनाओं का संगम है। कल वो चला जायेगा उसका जाना अप्रत्याशित नहीं है। अपनी सुविधानुसार चीजों को ढाल देना ही मनुष्यों का स्वभाव है। छूटने में वापिस नहीं देखने की सुविधा उसने बना ली थी,वो मुझसे सम्मोहित नहीं होना चाहता है। क्योंकि उसे पता है वो मुझे जितना देखेगा मैं उसके भीतर उतना ही प्रविष्ट होती जाऊँगी। उसने एक दिन मुझसे स्पष्ट शब्दों में कहा था –“स्त्री और प्रकृति को भीतर तक समझने पर खतरा है, नजरें अगर नज़ारों पर बंध गई फिर आगे बढ़ना मुश्किल है।”
उसकी इतनी स्पष्टवादिता के बावजूद भी मेरा उसके प्रति आकर्षण डैम में आए प्रवासी पक्षियों की तरह था।
सितंबर 2022
फिर एक महीने के भीतर ही उसका यहाँ आना अप्रत्याशित घटनाओं की एक कड़ी थी। जैसे नइकरी नदी जिसे लोगों ने बोलचाल में नक्कारी बना दिया था। जो इस अचानक हो रही लगातार बारिश के बाद बेहिस ही बह रही थी। नदी ने अपने लीक को छोड़ दिया था। अगस्त में जब वो आया था तब नइकरी के एक सोते की पतली लाईन दिखाई दे रही थी। इस वजह से ही बाहर वाले पतरातू डैम होने का क्रेडिट दामोदर को देते हैं और वो एक गौण सी नदी बन बहते रहती है।
नदियों का क्या? वो अपने छोड़े गये स्थान पर अवश्य आती हैं फिर उनका दोष जिन्होंने नदी के छाड़न में अपना घर बना लिया है। नइकरी नदी उफनती हुई बड़ी ही खूबसूरत दिख रही है। लेकिन उस धवल धार में जाने कितने लोगों के दु:ख और सुख दोनों बह रहे। वो विस्मित है! पतली सिसकती नदी का यह रूप निश्चय ही थोड़ी देर के लिए रोक देती है।
वो बता रहा था कि पिछले महीने सिर्फ़ उसके शहर में बारिश हुई थी। अजीब बात ये थी कि बस तीस किलोमीटर दूर का शहर सूखा पड़ा था, जैसे बादलों ने किसी अदृश्य दीवार पर दस्तक दी हो और लौट गए हों। ऐसा लग रहा था जैसे बादलों का कोई निजी ठिकाना बन गया हो उसका शहर—जैसे किसी ने यहीं के लिए खासतौर पर बादल बनाए हों। उसने अपने जीवन में ऐसी बारिश पहले कभी नहीं देखी थी—लगातार, भारी, और थमने का नाम न लेने वाली। आसमान मानो फट पड़ा हो और उसके टुकड़े बूंदों में तब्दील होकर शहर पर बरसने लगे हों।
शहर की नालियाँ, जो कभी सड़कों के किनारे चुपचाप बहा करती थीं, अब अपनी सीमाएँ तोड़ चुकी थीं। वे उफनती हुई नालियाँ नहीं रहीं, वे अब सड़कों पर बेतरतीब बहती नदियों जैसी लगने लगी थीं। घरों के भीतर तक पानी घुस आया था। गलियाँ, बाजार, स्कूल, बस स्टॉप—सब पानी में डूबे हुए थे। जैसे शहर का हर कोना एक ही रंग ओढ़ चुका हो—गंदले, बहते हुए पानी का रंग।
नालों में पनियों और प्लास्टिकों का जमावड़ा था, जो कई महीनों की उपेक्षा और लापरवाही का नतीजा था। कचरा अब रास्ता रोकने लगा था। पानी को रुकावटें मिल गई थीं, और नतीजा यह हुआ कि नालियाँ अपनी मर्यादा भूल गईं। कूड़े की वजह से जो पानी बहना था, वह जमने लगा, फिर उफना, और शहर के हर हिस्से को लीलने लगा। अब तो हालात ऐसे बन चुके हैं कि बारिश होते ही सड़कों और नालों के बीच कोई फर्क नहीं रह जाता। दोनों एक-दूसरे में मिल जाते हैं। जैसे सड़क भी अब पानी का हिस्सा बन चुकी हो।
ये बारिश अब सिर्फ मौसम नहीं रही, ये एक अनुभव बन चुकी है—डर और विवशता का, जिसे हर शहरी चेहरे पर पढ़ा जा सकता है। शायद अगली बारिश से पहले, सब कुछ फिर से साफ-सुथरा कर दिया जाए, लेकिन भीतर कहीं एक आशंका ज़रूर पलती है—कि क्या अगली बार और ज़्यादा पानी बहेगा? या शायद अगली बार सिर्फ उनका शहर ही नहीं, कुछ और भी डूबेगा?
एक और अप्रत्याशित घटना बिना किसी पूर्व सूचना के पतरातु डैम के गेट को आज सुबह-सुबह खोल दिया गया था। डैम के फाटक को खोलने की वजह से चार लोगों के बह जाने की ख़बर आ रही थी। बहनेवाले चारों स्थानीय ही हैं।
इतनी बारिश में मछली पकड़ने गये थे। सभी की जबान पर यही बात थी ऐसी मूसलाधार बारिश में डैम में उतरने का क्या मतलब बनता है?
झीलों,पोखरों की विदाई करने वाली यह पीढ़ी अपनी अगली पीढ़ी के साथ कृत्रिम वाटर पार्कों में आनंदित होती नज़र आती है। उन्हें पेट की लहरों का अंदाजा ही नहीं था। उन्हें नहीं पता कि डैम बना, मिट्टी छूट गई, खेत छूटा फिर किसी-किसी का घर भी। सब छूटने के बाद भी जीवन नहीं छूटा। परिवार, बच्चे और भूख अपनी जगह पर ही थे।
विस्थापन का घाव इतना गहरा है कि अब उनके नाम और गाँव के साथ विस्थापितों का नाम जुड़ गया। उन्होंने अपनी तरह के लोगों को जोड़ने के लिए संघ बनाई तो लोग उन्हें ऐसे देखते हैं जैसे कहीं के लुटेरे इकट्ठे हो गये हैं। एक बार मुआवजे की मिली रकम से मानो जिनगी भर जीने का लाईसेंस मिल गया। एकमुश्त कितना भी पैसा रहे उसको खत्म होने में समय नहीं लगता। उस विस्थापन ने एकबारगी सड़क पर ला दिया। कभी बैनर लगाकर पावर प्लांट के गेट पर नौकरी की माँग करते तो कभी सड़क जाम। अब उनकी भीड़ को पुलिसिया डंडे खाने की आदत सी हो गई है। अक्सर लोग यही कहते हैं इनके पास सड़क जाम, नारे लगाने, तोड़-फोड़ के सिवा कोई काम ही नहीं बचा है। सरकार ने नाव चलाने का अधिकार इन्हें ही दिया है, लेकिन नाविक संघ के आये दिन लफड़े….
उस दिन दो पैसे कमाने के लिए ही डैम में मछली पकड़ने गये थे। फिर बिना किसी सूचना के डैम का गेट खोलने का क्या मतलब? कौन पूछेगा? चार ही तो बहे हैं, बाढ़ आ जाती तो सबकुछ डूब जाता।
मैं उसे लोगों के बीच में देख आश्चर्य में थी। खुद में डूबे रहनेवाले ने कैसे दूसरे के दुख को अपना समझा।
डूबती – उतराती इन घटनाओं के बीच चिड़चिड़ा सा वो एक टीस लेकर चला गया। और मैं उस जख्म के साथ एक सन्नाटे में चली गई।
अक्टूबर 22
जख्म तो वक्त के साथ भर ही जाते हैं लेकिन यह जख्म पंद्रह दिनों के भीतर ही भर गया। मैं भी तो सच्चाई से भागना चाहती हूँ जैसा सब भागते हैं। मैंने अपने इर्द-गिर्द एक आभासी दुनिया बना ली है। हम क्षणिक प्रतिक्रियावादी युग में जी रहे हैं। उन चारों के बहने की खबर मिली लेकिन लाशों के मिलने की खबर गायब थी। उनके परिवार को मुआवजा मिल चुका था। सब कुछ शांत था और मैं आज अकेली ही डैम किनारे घूमने आ गई थी। सहसा देखा; पतरातू डैम के किनारे बने पार्क में गिल्ली डंडा खेलते बच्चों की सफ़ेद मूर्तियों को देखकर,
एक बच्चा यह पूछ रहा था “पापा ये क्या कर रहा है?”
“अरे कुछ नहीं! हमारे जमाने में एक खेल होता था।”
“अच्छा कैसा खेल”
“एक बच्चा डंडे से छोटी लकड़ी को मारता और बाकी लोग उस गिल्ली को पकड़ते थे।”
“फिर पापा इसके लिए तो आपको बाहर निकलकर खेलना होता होगा। अच्छा लगता होगा न हम बारहवीं मंजिल से नीचे उतर ही नहीं पाते।”
मैं तो रुक गई, मैं उनकी बातें सुनने लगी क्योंकि मेरी आंखों के नीचे इन गिल्लियों के दिए निशान थे।
मेरी उस समय की चोट हरी हो गई साथ ही साथ वो सारे लोग जिनके सामने जिनके साथ हमने गिल्ली – डंडा खेला था मुझे अपनी यादों में भिंगाते रहे।
गेट के बगल में ही आठ-दस साल का एक बच्चा मूंगफली के कुछ पॉकेट के साथ बैठा था।
“दीदी एक पाकेट दस का है ले लो न”
“अपनी आँखों को नीचे झुकाते हुए चुराई गई नज़रों से उसने कहा – दस का एक पॉकेट”
“तुमको कोई बेचने से मना नहीं करता”
“कौन मना करेगा?”
“पापा यहीं नाव चला रहे,माई चना बेच रही और हम बादाम मूंगफली”
“तब तो खूब कमाई होती होगी”
“तीनों के कमाई से खाना खर्ची हो पाता है बस”
“तुम नहीं पढ़ते हो?”
“स्कूल गये लेकिन मन नहीं लगा आउर पढ़के कौन सा सरकारी नौकरी मिल जायेगा? जब इहे करना है तो शुरु से सीख ले रहे”
हाथों में मूँगफली का पॉकेट लिए मैं उससे कहने लगी कितना फ़र्क है न हमारे देश की अर्थव्यवस्था में, खूब पैसे हैं नहीं तो बिल्कुल ही नहीं। वो मेरी बात को अनसुना कर आगे बढ़ता चला गया। मैं कुछ कहना चाहती थी लेकिन कह नहीं पाई।
हर बार उसका आना और हमदोनों का सिर्फ़ स्मृतियों और दृश्यों के इर्द-गिर्द बंधे होना पर इस बार मुझे अकेले घूमने आना सालता रहता। अब यह लगता है कि मैं खुशी और दर्द दोनों को अकेले ही पी रही हूँ। तभी घिरते अंधेरे ने मुझे आगाह किया,मुझे यहाँ से घर चले जाना चाहिए। वैसे अंधेरे का कोई दोष नहीं है वो तो सुकून है अभी थोड़ी देर के लिए मूंगफली बेचनेवाला लड़का, डैम किनारे के सभी लोग बराबर हैं। रेटिना को कोई तकलीफ़ नहीं, उसदिन वो अपनी अन्नामलाई टाइगर रिजर्व यात्रा की बात बता रहा था कि रात होते ही पेड़ों पर लाखों जुगनू चमकने लगते हैं। जुगनू अपनी जोत में अंधेरे को राह दिखाता है। अपने टिमटिमाते प्रकाश में अपने साथी की तलाश करता पूरे जंगल में एक शानदार दृश्य बना देता है। तभी सड़क के किनारे के स्ट्रीट लाईट ने मेरी आँखों पर चोट मारा थोड़ी देर मेरी आँखें घायल रहीं। मैंने आसमान की तरफ सर उठाया तारे गायब थे। सड़क किनारे की रोशनी ने पहाड़ को ढाँप दिया है। अबकी वो आयेगा तब मैं तारों को पहचानूँगी।
अक्टूबर 22
छोटी सी जगह और हमारे मिलने की इकलौती जगह जिसे मेरा अकेला घूमना पसंद नहीं। जगह के आकर्षण ने या मेरे आकर्षण ने उसे एक महीने के भीतर यहाँ खींच लिया।
मुझे पेड़ों के नाम पता हैं और उसे पंछियों के। परदेशी पक्षी भी अब धीरे-धीरे आने लगे हैं मैं उसे डैम के किनारे उन पेड़ों के बारे में बताकर उन पेड़ों के बारे में बताकर खुद को जोड़ना चाह रही थी। हालाँकि फूलों ने खिलना शुरु नहीं किया था ऊँचाई पर लगे लतरों में खिले राखी फूलों (पैशन फ्रूट) को दिखाकर मैं खुश हो रही थी कि पास खड़े गार्ड ने सतर्क किया झाड़ियों से दूर रहें, यह सांपों का बसेरा। अब हरकदम पर वो मुझे सतर्क करता जा रहा था। लोगों की भीड़ को देख वो संतुष्ट था हाँ अब इधर के लोग भी जीना सीख जायेंगे। गाँव के तालाब को छोड़नेवाले कहीं न कहीं सुकून ढूँढेंगे। मजे की बात देश-दुनिया घूम चुका वो बंधे हुए इस पानी में नाव से घूमने के खिलाफ़ था। वैसे आज वहाँ दो ही नाव थे वो भी सरकारी। पता चला कल नाववालों की आपस में लड़ाई हो गई थी। नाववाले तो रैयत वाले विस्थापित ही हैं फिर लड़ाई। दुख तो लोगों को जोड़ता है न फिर लड़नेवाले नाववालों के दुख भी साझे ही हैं।
“क्या बताएँ साहब लड़ाई इतनी बढ़ गई कि गोली चल गई। बात हिंदू-मुस्लमान वाली हो गई। थाना-पुलिस आने के बाद मामला इतने पर रुक गया।”
उसने बस एक मिनट उसकी बात सुनी और मुझसे कहा –
“मोटर बोट या चप्पू वाली नाव से”
“किसी से चलो”
“मैंने कहा – हाथ में चोट है मोटर बोट की गति नहीं पकड़ पाऊँगी”
मैंने चोट पर जोर दिया लेकिन उसपर कोई असर नहीं हुआ। हम चप्पू वाले नाव में चले गये। लेकिन समानांतर चलती मोटर बोट पानी पर अठखेलियाँ करने लगी।
हाएं – हाएं चलती मोटर बोट और सुकून से चलती चप्पू वाली नाव।
इस हाएं – हाएं की आवाज़ ने दृश्यों को बिगाड़ दिया है। शोर में दबे सुकून को मेरे हाथों से ज्यादा चोट लग रही थी। और मैं चुपचाप धुएं को पानी से मिलते देख रही थी।
धुएं का क्या यह तो इस पूरे शहर में है। नाव में बैठे-बैठे हम आकाश को देखने लगे। शाम होने ही वाली है, सूरज क्षितिज पर अपना स्वर्णिम स्पर्श देने लगा है। इस डूबती आभा के बीच, दूर क्षितिज पर बिजली उत्पादन संयंत्र की ऊँची-ऊँची चिमनियाँ आकाश की ओर सिर उठाए खड़ी हैं — मानो किसी निरंतर जंग का ऐलान कर रही हों। इन चिमनियों से उठता धुआँ गाढ़ा, काला और कुछ-कुछ भूरे रंग का है। वह धीरे-धीरे ऊपर उठता है और फिर हवा के साथ बहने लगता है। धुएं की लहरें बादलों-सी छितरती जाती हैं, पर उनका रंग आसमान की नीली पृष्ठभूमि से अलग साफ़ तौर पर नज़र आता है — एक तरह का विरोध, एक टकराव। देखो यह दृश्य एक ओर मानव सभ्यता की ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति का प्रतीक है, तो दूसरी ओर प्रकृति की कराह का भी गवाह। धुएं की इस अनसूंघे गंध के साथ लौटने की जिद में था और मैंने आज उसे सारी शर्तों के इतर रुकने का जिद्द करने लगी। उससे अपनी ऊर्जा जरूरतों का इसरार करने लगी। नहीं माना वो, अगले महीने फिर आने की बात कर वो लौट गया।
जनवरी 23
इतने वर्षों में पहली बार हम मिलना चाहते थे। बस इतना-सा सपना था—एक शाम, कुछ बातें, और एकांत का थोड़ा-सा हिस्सा। शहर से दूर डैम के किनारे ही मिलने का वादा था। अभी मेरी हिम्मत इतनी जवान नहीं हुई थी कि उसे अपने कमरे पर ले जाऊँ नाहि वह इस बात के लिए राजी होता। वो आया, मैं आई—समय पर, मिलने की उम्मीद के साथ।
शाम ढलने लगी थी। पानी की सतह पर नीला रंग घुल रहा था, जैसे हमारे भीतर की बेचैनी को कोई आकार दे रहा हो। पहाड़ियों की गोद में बसा वो डैम अब नींद में जाने को तैयार था, लेकिन हम जाग रहे थे—अपनी इच्छाओं के साथ।
“रात कहाँ बिताएँगे?”
मैंने हल्के स्वर में पूछा।
वो मुस्कुराया नहीं। बस चुपचाप आगे बढ़ने लगा। हम दोनों शहर की रोशनी से दूर जाना चाहते थे—कहीं ऐसी जगह, जहाँ कोई न देखे, जहाँ सिर्फ़ हम हों और हमारी साँसों की धड़कनें।
लेकिन जब हम चौराहे पर पहुँचे, मास्ट लाइटें जल चुकी थीं। सफेद, भेदती, निर्वस्त्र करती रोशनी। हम वहीं ठिठक गए। गेस्ट हाउस में इस चुँधियाती रोशनी में वो लोगों का सामना नहीं कर सकता था।
“यहाँ नहीं,” उसने कहा। और बिना कुछ कहे मेरा हाथ थामकर दौड़ पड़ा।
हम उत्तर दिशा में एक गाँव की तरफ भागे, उम्मीद थी वहाँ अंधेरा होगा, राहत होगी। लेकिन हर दीवार से सफेद रोशनी की पतली रेखाएँ निकलकर हमारा पीछा कर रही थीं। चौक पर दूधिया प्रकाश जीभ दिखा रहा था। सारे पक्षी अभी भी चहचहा रहे थे। रात्रि की नीरवता कहीं गुम थी।
फिर पहाड़ी की ओर बढ़े—पर वहाँ भी उजाला था। जैसे किसी ने पहाड़ियों पर चूड़ियाँ पहना दी हों—सफेद चूड़ियाँ, ठंडी, चमकती, और अजनबी।
“हर जगह कोई न कोई देख क्यों रहा है? और ये तारे कहाँ गये?”
मैंने थकी हुई आवाज़ में पूछा।
वो गुस्से में था।
“क्या सिर्फ मिलना भी अब मुमकिन नहीं?”
हम चुप हो गए। ना गाँव हमारा हुआ, ना पहाड़ी। हर जगह उजाला था—दूर तक फैला सफेद प्रकाश, जो हमारे बीच दीवार बन रहा था।
उस रात हम साथ थे, लेकिन फिर भी अलग। हमारे बीच चूड़ियों-सी सफेद रोशनी मंडरा रही थी—बोलती, रोकती, परछाइयों को मिटाती।
और वह चला गया—उसी रोशनी की तरफ, जहाँ से हम भागे थे। बीज को अंधेरा चाहिए इतनी रोशनी में वो सड़ जाएगा।
मार्च 23
बड़ी मुश्किल से दो महीने बाद वो आया था। हम दोनों अलग-अलग नाव में थे। इतने अनमने शायद पहले कभी नहीं मिले थे। पिछली बार जो चाहतें अधूरी छूट गई थीं, वही आज की चुप्पियों की वजह बन गई थीं। इस बरसात के मौसम में, डैम के गहरे पानी में उतरना मानो कुछ खोए हुए प्रवासियों से मिलने जैसा था — शायद कुछ यादें, कुछ सवाल।
हमारी नावें एक-दूसरे के समानांतर बढ़ रही थीं। माझी अपनी लय में पानी को चीरते हुए हमें आगे लिए जा रहे थे। तभी उसने अपने हाथों से सफेद दाने पानी में बिखेर दिए। चारों ओर से पक्षियों का झुंड उसकी नाव के आसपास चहचहाने लगा, जैसे वो उसकी पुकार पहचानते हों। मैं मंत्रमुग्ध-सी होकर उन पक्षियों को निहारती रही।
फिर अचानक उसने कुछ दाने मेरी नाव की ओर भी उछाल दिए। अब वे ही पक्षी मेरी नाव की ओर आए और कुछ अनकहे शब्दों की तरह मेरे आस-पास उड़ने लगे। मैं उनकी उपस्थिति में अपनी पुरानी चोटें पिघलते हुए महसूस करने लगी और हौले से मुस्कुरा दी।
उसी क्षण मल्लाह की आवाज़ आई — “बस एक महीने और, फिर ये पक्षी अपने देश लौट जाएंगे।”
मेरी मुस्कुराहट वहीं थम गई। वो पल जैसे ठहर गया, और भीतर कहीं एक उदासी उतर आई।