कल साहित्य आजतक में यतीन्द्र मिश्र के कविता संग्रह ‘बिना कलिंग विजय के’ का लोकार्पण हुआ। वाणी प्रकाशन से प्रकाशित इस संग्रह की एक कविता ‘भामती’ पर यह लेख लिखा है कुमारी रोहिणी ने। रोहिणी कोरियन भाषा पढ़ाती हैं तथा हिन्दी में लिखती हैं- मॉडरेटर
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आज तक हम कलिंग विजय की गाथा गाते आ रहे हैं। कलिंग अब केवल इतिहास नहीं बल्कि हमारी भाषा और संस्कृति के लिए उपमा की तरह है। ऐसे समय में जब हासिल का अर्थ केवल और केवल जीत होकर रह गया है, हमारे सामने ‘बिना कलिंग विजय के’ नाम से किताब आ जाती है। कलिंग को लेकर एक और भाव जो मेरे मन में आता है वह है पौरुष, पुरुषत्व का भाव। कलिंग और कलिंग का विजय पुरुषत्व का पर्यायवाची ना भी हो तो मेरे लिए उससे कम भी नहीं है। फिर ऐसे में ‘बिना कलिंग विजय के’ में संग्रहित कविताएँ अपने माध्यम से किन उपलब्धियों को दर्ज करने का काम कर रही हैं जो बिना किसी विजय के हासिल कर ली गई हैं(?) जब शीर्षक पर आपका ध्यान जाता है तो ऐसे ही कई सवाल उठते हैं जिनका उत्तर किताब से ही मिल सकने की संभावना होती है। ऐसे ही प्रश्नों के उत्तर की तलाश में मैंने इस किताब को उलटना-पलटना शुरू किया और कुछेक कविताएँ पढ़ीं जिनमें से एक के बहाने अपने से ही किए प्रश्नों के उत्तर ढूँढने का प्रयास भी किया।
कविता संग्रह में ‘भामती’ शीर्षक से एक कविता है।
इतिहास बताता है कि 980 AD में वाचस्पति नामक एक ऋषि हुए। जैसा कि हम सबके मन में ऋषियों को लेकर एक अवधारणा है, वे पूजा-पाठ, मंत्र-जाप में लीन रहने वाले प्राणी होते हैं। लेकिन इनके अलावा एक अन्य काम जो ऋषियों के हिस्से आया वह है अध्ययन-अध्यापन। ऋषि वाचस्पति भी इसी अवधारणा में फिट बैठने वाले रहे। ऋषि वाचस्पति ने वेदांत दर्शन पर काम करना शुरू किया। विद्वानों का मानना है कि वेदांत दर्शन अध्यात्म विद्या का सबसे सरल और सबसे दुरूह दोनों ही विषयों की श्रेणी में आता है।
कहते हैं कि जिन दिनों वाचस्पति के मन में वेदांत दर्शन पर काम करने की इच्छा जागृत हुई, लगभग उन्हीं दिनों में उनका विवाह भामती नामक एक स्त्री से हुआ। विवाह संस्कार के बाद इधर भामती ने उनकी पत्नी के रूप में गृहप्रवेश किया, उधर वाचस्पति वेदांत दर्शन का भाष्य लिखने बैठ गये। कहा ये भी जाता है कि वाचस्पति को इस भाष्य को पूरा करने में दो दशक यानी कि बीस बरस लगे थे। और हुआ ये कि इस पूरी अवधि में वे अपने काम में इतने लीन-तल्लीन रहे कि उन्हें भामती का होश ही नहीं रहा। दरअसल वे भूल चुके थे कि उनका विवाह हो चुका था और एक स्त्री दिन रात अपना पत्नीधर्म निभाते हुए उनकी सेवा में बेशिकायत लीन रहीं। बीस बरस बाद जब वाचस्पति का भाष्य पूरा हुआ तब उनकी नज़र अपने घर के बीच खड़ी उस स्त्री पर पड़ी जो अपने काम में लगी थी। अनायास ही उन्हें यह ख़्याल आया कि यह स्त्री कौन है और मेरे घर में क्या कर रही है। कहते हैं पूरे बीस बरस तक पूरी लगन से अपने पति की सेवा करने वाली भामती ने उस समय वाचस्पति को उन दोनों के विवाह और संबंध के बारे में बताया। हालाँकि इस घटना के कई संस्करण पढ़ने को मिलते हैं। किसी संस्करण में यह भी डीआरजे है कि भामती ने वाचस्पति से शिकायत के लहजे में यह बात कही, वहीं दूसरे संस्करण यह बताते हैं कि भामती ने पूरी श्रद्धा और प्रेम भाव से यह बात कही कि वह अपने पति के काम में विघ्न नहीं डालना चाहती थी इसलिए उसने इस पूरी अवधि में एक बार भी वाचस्पति को कुछ नहीं कहा। इस घटना और भामती के समर्पण भाव को कविता की निम्नलिखित पंक्तियों में महसूस किया जा सकता है:
‘हर दिन बटलोई में परोस देती पारस
और साधन में लीन पति
पूर्ण के उपरांत सरका देते जूठी थाली’
कविता की इन पंक्तियों को पढ़ते हुए अनायास ही एहसास होता है ‘अस्तित्व’ के महत्त्व का। उपेक्षा की पीड़ा असहनीय होती है। स्त्रियों के जीवन में यह पीड़ा एक शाप की तरह रही, लेकिन उस पीड़ा का क्या जो उपेक्षा से नहीं बल्कि अनुपस्थिति के भाव से आया है। वह असहनीय और अकल्पनीय दर्द जो भामती के हिस्से आया और उसका जीवनबन गया। रोज़ तीनों पहर बिना किसी उम्मीद के अपने कर्तव्यों का निबाह करना, पति के काम में ख़लल ना पड़े इसके लिए हर संभव कोशिश करना, यही तो किया भामती ने, ऐसा ही तो करती आ रही हैं तमाम स्त्रियाँ हज़ारों साल से। लेकिन भामती का जीवन नहीं होना था साधारण। उसके हिस्से आये थे वाचस्पति। वाचस्पति जिनके मन में थी अपनी उस पत्नी और सालों तक मिली उसकी सेवा के प्रति कृतज्ञता। वाचस्पति, जिनके मन में घर कर गया एक अपराधबोध, अपना पति धर्म ना निभा पाने का एहसास। वाचस्पति, जिन्होंने इसी अपराध बोध को कम करने के लिए और पत्नी के प्रति अपनी कृतज्ञता जताने के लिए अपने सबसे दुरूह काम को कर दिया समर्पित अपनी उसी पत्नी को जिसके बारे में वे बिसूर चुके थे। वाचस्पति, जिसने अपने उस भाष्य को नाम दिया ‘भामती टीका’।
यतींद्र मिश्र की ‘भामती’ कविता को पढ़ते हुए मुझे ‘ए ग्रेट स्टोरी टेलर लॉसेज हिज मेमोरी’ लेख की याद आई। ‘दी पेरिस रिव्यू’ में छपे अपने इस लेख में ‘रोड्रिगो गार्सिया’ ने अपने पिता ‘गेब्रेल गार्सिया मार्केज’ के जीवन अंतिम कुछ वर्षों के बारे में लिखा है जब डिमेन्शिया के कारण मार्केज की मेमरी चली गई थी और वे अपनी पत्नी मेरसेडेस से अगाध प्रेम में तो थे लेकिन उन्हें पहचानने से इंकार कर देते थे। उन्हें लगता था कि उनकी पत्नी जो वास्तव में उनकी ही पत्नी थी का रूप धर कर कोई बहरूपिया औरत उनके घर पर अपना राज चला रही है। पढ़ने-सुनने में एक बारगी को यह घटना हंसने वाली लग सकती है लेकिन इस हंसी के पीछे हम मेरसेडेस के उस दर्द उसकी पीड़ा को भूल जाते हैं जिसका एहसास उस उन दिनों होता रहा होगा जब उससे बेइंतहाँ प्रेम करने वाला उसका पति-प्रेमी उसकी उपस्थिति को ही स्वीकार नहीं कर रहा था। उपेक्षा, अस्तित्व और पहचानने जाने का संकट मेरसेडेस और भामती दोनों के ही जीवन का हिस्सा रहा। यतीन्द्र मिश्र के शब्दों में ही कहा जाए तो दोनों ही स्त्रियों ने उस पीड़ा को झेलते हुए बिना कलिंग विजय के ही धीरज और प्रतीक्षा की हमजोली बनकर इतिहास के पहले पृष्ठ पर अपनी जगह बना ली, जबकि भले भामती हो या मेरसेडेस, दोनों में से शायद किसी में नहीं थी ख़ुद को प्रकाशित करने की लेश मात्र आकांक्षा।
अपनी भामती कविता के माध्यम से यतींद्र मिश्र बताते हैं हमें स्त्रियों के मौन योगदान के बारे में, और यह भी याद दिलाते जाते हैं कि होना चाहिए हर पुरुष को कमोबेश वाचस्पति की तरह जो भले एक बारगी को भूल भी जाए अपनी पत्नी के त्याग, योगदान और सब्र को लेकिन एहसास होने पर दे इतिहास में उसे वही जगह जिसकी वह हक़दार है। ऐतिहासिक पात्रों के माध्यम से जब कोई समकालीन पुरुष कवि-लेखक स्त्री के मौन योगदानों की गाथा रचता है और उसे दुनिया के सामने लाने का प्रयास करता है तो स्त्रीवाद और उससे जुड़े सभी प्रयासों तथा उन प्रयासों की सफलता पर विश्वास करने की प्रबल इच्छा जागृत होती है। इस कविता को पढ़ते हुए हम जैसों को यह भी एहसास होता है कि कितने अच्छा हो अगर सभी पुरुषों में बसते हों थोड़े-बहुत वाचस्पति, जो दे अपनी-अपनी भामती को उसका हिस्सा, उसके हिस्से की ज़मीन और आसमान। इतना ही तो चाहिए होता है स्त्रियों को!
उम्मीद है यतींद्र मिश्र की ये कविताएँ बढ़ाएँगी पुरुषों के भीतर मौजूद उनके वाचस्पति गुण को।
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यह टिप्पणी मैंने यतींद्र मिश्र के अभी-अभी प्रकाशित कविता संग्रह ‘बिना कलिंग विजय के’ की कविता ‘भामती’ को पढ़ने के बाद लिखी है।