जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

 

आज दशहरा है। आप सभी इसकी शुभकामनाएँ। आज पढ़िए राम-रावण युद्ध पर संजय गौतम का यह व्यंग्य लेख। संजय गौतम दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं और मूलतः व्यंग्यकार हैं। आप उनका यह लेख पढ़िए- मॉडरेटर

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दशहरा आते ही मेरी आध्यात्मिक प्रवृत्ति जागृत होने लगती है। उसका कारण बस यह है कि पाप-पुण्य के सवाल पर माथा चकराने लगता है। लगता है जो पाप हम किए जाते हैं उनकी तुलना में पुण्य, पता नहीं, आसपास भी ठहरेंगे या नहीं। पता नहीं, विधाता क्या फैसला करेंगे। उससे ज्यादा अहम सवाल यह उठता है कि रावण जैसा परमज्ञानी, शास्त्रज्ञ, शिवभक्त भी इस सबका कोई तोड़ नहीं निकाल पाया और आज तक नश्वर संसार में, हर साल, जलाया जाता है। और ऊपर तो विधना ने जो उसके साथ किया होगा सो अलग। फिर भला मेरे जैसे मात्र Ph.D धारक और NET- JRF निकालक पापात्मा की क्या बिसात है। रावण के समय में तो सामाजिक नियम और लोक व्यवहार लोकाचार भी भिन्न थे। आज तो, कम से कम भारतीय संविधान का रास्ता ही पकड़ लें तो इससे भी बहुत से पापों से दूरी तो बन ही सकती है। ये भी सीधा-सरल मार्ग ही लगता है। आज कितनी सुविधा हो गई है, मगर दुविधा है कि अभी भी बनी है।

          ख़ैर मुद्दे पर वापसी की जाए। सोचता हूँ कि रावण परम् शक्तिशाली और अनेक प्रकार की मायावी शक्तियों से लैस था। जिसमें कुछ उसने स्वयं हासिल की थी और कुछ, जैसा अक्सर होता है, देवताओं की कृपा से हासिल हुई थी। वह कम से कम अपनी माया से ही कुछ रास्ता निकाल लेता। कुछ न कुछ तो ऐसा करता कि जनता उसे हर साल यूं न जलाती। यह भी हो सकता था कि इससे उसकी मृत्य पश्चात ऊपर किए विधाता के फ़ैसले पर भी कुछ फ़र्क पड़ता।

           इन सब प्रश्नों पर विचार कर ही था कि अचानक मुझे हरिशंकर परसाई की याद आ आ गई। फिर मुझे लगा रावण आधुनिक माया-प्रपंच से परिचित नहीं था या उसने माया को साधा तो मगर उसकी सच्चाई को समझा नहीं। परसाई जी को भी पढ़ लेता तो रास्ता निकल जाना था। उन्होंने आधुनिक मायाजाल पर काफ़ी-कुछ लिखा है। इससे युद्ध भी टलता और रावण भी न मरता। न ही हर साल यूँ जलाया जाता, न बदनाम होता। उल्टे राम जी की चक्करघिन्नी बंध जानी थी। अब रावण तो नहीं है मगर जैसा कहा गया है, हर युग में रावण और राम आते रहेंगे। सो, मेरे लिखे को कभी भविष्य में उसने पढ़ लिया तो आगे बचाव हो सकता है। तो मेरी सलाह यह है कि रावण को राम के समुद्र पार करते ही युद्ध में उतरने करने की बजाय, शिव की तपस्या करनी चाहिए थी। शिवजी के प्रकट होते ही उनसे वरदान माँगना चाहिए था जिसके मुख्य बिंदु मेरे मतानुसार निम्न होते –

1- जितनी भी घटनाएँ अब तक हुई हैं उन सब की निष्पक्ष जांच करवाई जाए। जाँच का फैसला सबको मान्य हो।

2- अब राम क्योंकि स्वयं विष्णु भगवान हैं इसलिए जांच त्रिमूर्ति में से कोई या कोई देव ही, एक अकेला प्राणी नहीं करेगा।

3- जाँच निष्पक्ष रहे इसलिए इसके लिए एक 11 सदस्यों की कमेटी बनाई जाए।

4- साथ ही यह भी अर्ज़ कर दिया जाता कि शिवजी महाराज आपका देवों के प्रति प्रेम तो सागर-मंथन के समय ही दिखाई दे गया था और विष्णु के मोहनी रूप में स्वरभानु नामक राक्षस का वध कर दिया। जिससे राहु-केतु दोनों बने। सो आप लोग कमेटी के कन्वेनर नहीं होंगे। वरदान दीजिए कि कन्वेनर मुझे बनाया जाए।

5- बाकी दस सदस्यों में आप पाँच देवता और उतने ही राक्षस रख लीजिए। हाँ, इनके नाम पर मेरी मुहर की आवश्यकता होगी। मामला निष्पक्षता जो ठहरा। यहाँ, परशुराम का नाम भी एक सदस्य के रूप में डलवाने की जाती। उन पर तो देवगण भी विश्वास करते। बाकी सब जानते ही हैं कि सीता-स्वयंवर के समय से लक्ष्मण ने उन्हें कितना खिजाया था।

        वरदान स्वरूप उपरोक्त पांच बिंदुओं पर शिवजी की हामी तो आ ही जाती। रावण की विद्वता, तप और भक्ति का इतना प्रभाव तो होता ही।  सच कहूँ तो इतना होते-होते, आधी लड़ाई जीत ली गई होती।

   अब आगे यह करना था कि जांच का दायरा बहुत बड़ा रखना था। इसमें राम के द्वारा लिए गए कुछ फैसलों पर भी कमेटी को जाँच करनी होती। क्योंकि सारा पंगा तो वहीं से शुरू हुआ। कमेटी की जांच के कुछ बिंदु ये रखे जा सकते थे।

जैसे- राम द्वारा शिव-धनुष को तोड़ना (इस मुद्दे पर तो स्वयं शिवजी ही रावण के पक्ष में आ जाते), पिता की आज्ञा का पालन करने के बहाने पत्नी और लक्ष्मण समेत अयोध्या छोड़ कर जंगल घूमने निकल पड़ना। शूर्पणखा की नाक कान कटवाना। सोने के मृग को पत्नी-प्रेमवश मारना। बाली को छुपकर मारना। राम द्वारा विभीषण को फुसलाना। लंका में आग लगवाना। शास्त्रवर्जित कर्म समुद्र- लांघना। आदि आदि।

इस बहाने होता यह कि लक्ष्मण और हनुमान जैसे राम के अनेक रक्षक और भक्त भी कमेटी की जांच के लपेटे में आ जाते। निस्संदेह, कुछ हरकतें तो रावण की भी आती मगर इतना तो चलता ही। अब अपने साथियों पर जांच बैठने के बाद राम से तो यह कहते न बनता कि कमेटी की रिपोर्ट को एक निश्चित समय में ही जमा कर देना  है। इधर रावण को भी कौन सी जल्दी होती। कुछ दिनों बाद तो राम को वापिस अयोध्या लौटने की भी जल्दबाज़ी होने लगती। चौदह वर्ष पूर्ण होने में कुछ ही समय बच गया होता। वे स्वयं इस मामले को रफ़ा-दफ़ा करने की कहते और सीता को लेकर लौट आते।

यदि फिर भी मामला फंसता तो रावण जाँच जारी रख ही सकता था। वह भी जब तक चाहे तब तक। इस बीच में दो, चार,  दस बार युगों का परिवर्तन हो जाना था। प्रलय भी कई बार आकर गुज़र गई होती। अब तलक तो दो चार बार और काल-चक्र में राम-रावण अपनी पुनः पुनः लीला कर चुके होते। मगर रिपोर्ट न आई होती। अगर किसी बाहरी दबाव या वानर सेना के धरना-प्रदर्शन के दबाव में रिपोर्ट देनी भी पड़ जाती तो फैसला अपने हक़ में ही आता। छः-सात मेम्बर अपने थे ही। ज्यादा से ज्यादा दिखाने के लिए दो-चार लोगों पर एक्शन लेना भी पड़ जाता तो रिपोर्ट देने का समय सुविधानुसार चुना जा सकता था। मेरी सलाह तो यही रहती रिपोर्ट प्रलय के समय पर—जब दुनिया की छुट्टी होती है, हिम और जल के अतिरिक्त कुछ लक्षित नहीं होता, न कोई दी गई सज़ा को देखनेवाला प्राणी जीवित रहता– दोनों तरफ़ के कुछ अदने से प्यादों पर “कड़ी कानूनी कार्यवाही” करते। इस सबसे इतना फर्क तो होता रावण कि यह मायावी कमेटी या कमेटी की माया, तुम्हें हर साल जलने बचा लेती। कोई तुम्हें सामाजिक तौर पर पापी न कह पाता। जाँच शिवजी सहमति से ही निष्पक्ष हुई रहती। महाराज मेरी मामूली सी ये सलाह आगे लिए ध्यान रखना।

अब मैंने भी यही सोचा है कि अपने कर्मों के निपटारे के लिए ऊपरवाले से पहले कर्मों की जाँच-कमेटी बनवाने की प्रार्थना करना ही समझदारी होगी। नहीं तो पलक झपकते ही फैसला हो जाएगा। जो मुझ जैसी पापात्मा के लिए कतई अच्छा नहीं होगा।

इसी आध्यात्मिक चेतना के साथ आप मित्रों को दशहरे की बहुत शुभकामनाएं!

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