जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

शाङ्कर वेदान्ती दार्शनिकों का मानना है कि सारा संसार ही मिथ्या है। साथ में वे यह भी कहते हैं कि इसी असत्य के सहारे ही सत्य तक पहुँचा जा सकता है। कुछ असत्य घटनाओं पर आधारित रिपोर्ट उसी सत्य की खोज में है जिसे बहुत जल्द दरकिनार कर दिया जाता है। इस रिपोर्ट का उद्देश्य किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की अपेक्षा विमर्श और आत्ममंथन है।

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एक सम्मानित वरिष्ठ आलोचक ने मेरे परिचित संघर्षशील कवि का हौसला बढ़ाते हुए कहा, “आप हिन्दी के बड़े कवि हैं।”

प्रशंसा मिलने के बाद संघर्षशील कवि पहले थोड़ा चहका, फिर थोड़ा ठहर कर उसने सोचा – ‘वरिष्ठ आलोचक ने ऐसा सार्वजनिक रूप से क्यों न कहा? आखिर किसी को भी प्रशंसा सार्वजनिक करनी चाहिए और निन्दा व्यक्तिगत करनी चाहिए।’

संघर्षशील ने यही बात अपने एक वरिष्ठ मार्गदर्शक को बतायी। वरिष्ठ मार्गदर्शक ने शंका का समाधान किया – “वे कभी सार्वजनिक रूप से ऐसा नहीं कह सकते। कारण यह है कि हिन्दी साहित्य समाज दरअसल कबीलाई समाज है। जैसे ही कोई किसी की प्रशंसा कर देगा तो बाकी लोग उसे पत्थर मार-मार कर जान से ही मार डालेंगे।”

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कुछ युवा आलोचकों द्वारा समकालीन अलहदा किस्म की अभिव्यक्तियों पर लम्बा चौड़ा विमर्श देख कर एक संघर्षशील कवि ने किसी वरिष्ठ से प्रश्न किया – “हर प्रकार के वादों को आलोचना में समाहित करने इतना प्रयास क्यों है?”

वरिष्ठ ने सहज उत्तर दिया, “इस तरह की सारी आलोचना एक पंक्ति में समा सकती है कि आलोचक कविता की परिभाषा से सहमत नहीं है। वह न कविता की परिभाषा रखना चाहता है और न किसी बात को मानना चाहता है। इसलिए बहुत कुछ कह कर भी वह कुछ ठोस नहीं कह पाता।”

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आलोचकों ने नवोदित कवयित्री की नयी पुस्तक की भूरि-भूरि प्रशंसा की। यह देख कर संघर्षशील कवि ने वरिष्ठ आलोचक को अपनी पुस्तक भेंट करनी चाही। वरिष्ठ आलोचक ने निजी व्यस्तता का हवाला देते हुए पुस्तक लेने से मना कर दिया। संघर्षशील कवि ने प्रतिवाद किया कि आप औसत कविताओं की प्रशंसा कर रहे हैं और मेरी कविता देखना भी नहीं चाहते। वरिष्ठ आलोचक ने कहा कि इसमें आपके नाम का दोष है। यदि आपका नाम आकारान्त, इकारान्त या ईकारान्त होता, तो मैं निश्चय ही इसे देखने का यत्न करता। वैसे भी जिस प्रशंसा से आपको पीड़ा हो रही है वह सब तो कहने-सुनने की बाते हैं। सच तो आप भी जानते हैं।

यह देख जगत का काव्य-सृजन
यह देख पुस्तकों का लोकार्पण
मूर्खों से पटी हुई भू है,
पहचान कहाँ इसमें तू है।

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वरिष्ठ आलोचक ने संघर्षशील कवि से कहा कि आपका शब्द भण्डार तो ठीक है, भाव भी अच्छे हैं किन्तु विषय विस्तार नहीं है।
संघर्षशील कवि ने कहा कि मैं अपने अनुभवों को व्यक्त करता हूँ और वह सीमित है। वरिष्ठ आलोचक ने कहा, “आपसे अधिक की अपेक्षा है।”
संघर्षशील कवि फट पड़ा। उसने कहा, “यह क्रूरता है। आप देवीप्रसाद जी के बारे में क्यों नहीं कहते कि वे जयशंकर प्रसाद नहीं हैं। आर चेतन क्रान्ति के बारे में यह क्यों नहीं कहते कि वे शमशेर नहीं है।”
वरिष्ठ आलोचक ने कहा, “आलोचक अपने समय की क्रूरता का प्रतिनिधि होता है।”

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संघर्षशील कवि की एक कविता सोशल मीडिया पर वायरल हो गयी। लाखों तक पोस्ट पहुँची। हजारों ने ‘लाइक’ किया। वरिष्ठ आलोचक ने संघर्षशील कवि को फोन कर के कहा, “अब आपमें वह बात आ गयी है।“ संघर्षशील कवि बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने बड़ी विनम्रता से कहा, “नहीं सर, अभी कहाँ? अभी हम त्रिलोचन, जयशंकर प्रसाद, निराला के स्तर से बहुत दूर हैं।“

वरिष्ठ आलोचक ने हँसते हुए कहा, “वहाँ तक पहुँचने की आपकी क्षमता तो है ही नहीं। बस इतना कहा जा रहा है कि आप आखिरकार उस स्तर पर पहुँच गए हैं जहाँ दो चप्पलों का वियोग अधूरापन माना जाता है। ‘पल्प’ का ज़माना है। ‘पल्प कविता’ लिख रहे हो। जल्दी ही पोस्टर बनेगा और बहुत कामयाब होगे।“

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संघर्षशील कवि ने तत्समनिष्ठ कविता लिखने का प्रयास किया। तत्समनिष्ठ लिखना मुश्किल काम है और समझना उससे भी मुश्किल। उसे गाली देना सबसे आसान। इसलिए तमाम पोर्टल और पत्रिकाओं से ‘खेद सहित’ वापस कर दी गयी।

संघर्षशील कवि ने अपनी परेशानी वरिष्ठ आलोचक को बतायी। वरिष्ठ आलोचक ने कहा, “आप क्या कविता-वविता लिखते हैं। यह सब थोड़ा कम कीजिए। इतना बड़ा हिन्दुस्तान है। उसे घूमिए। कविता का भार कुछ प्रतिभाशाली धुरंधरों पर छोड़ दीजिए।“

अपमानित संघर्षशील कवि ने वरिष्ठ आलोचक से पूछा, “वे प्रतिभाशाली धुरंधर कौन से हैं?” वरिष्ठ आलोचक ने कहा, “वही जो हमारी तरह कुपढ़ हैं। हमारी हाँ में हाँ मिलाते है।“ संघर्षशील कवि ने प्रतिवाद किया, “वही जो आपके इशारे पर आपके साथ दुम हिलाते हैं?”
वरिष्ठ आलोचक गुर्राए और कहे, “हमारे साहस का लोहा दुनिया मानती है।“ संघर्षशील कवि ने चिढ़ कर कहा, “आपके साहस का सच बस इतना है कि आप बेधड़क एक ही साँस में कितनी गाली दे सकते हैं!“

वरिष्ठ आलोचक ने मुस्कुरा कर कहा, “हम तुम्हारी बदतमीजी की दाद देते हैं। तुम भी हमारी तरह गाली देने वाले बन रहे हो। आने वाला समय ‘महाकवि पिंटा’ का है। तुम में भी महाकवि पिंटा बनने की सम्भावना दीख रही है।“

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प्रचण्ड प्रवीर

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1 Comment

  1. वास्तव में ज़माना अंधों, थोड़ा कम अंधों और बचे खुचे कानों का है। इस वस्तुस्थिति को बख़ूबी उभरती प्रचंड प्रवीर की कहानी।

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