जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

आज पढिए संजय लीला भंसाली की वेब सीरीज़ ‘हीरामंडी’ पर जाने माने पत्रकार-चित्रकार रवींद्र व्यास की सम्यक् टिप्पणी। रवींद्र जी ने देर से लिखा है लेकिन दुरुस्त लिखा है-

===========================

फ़ानूस और मशाल!

नमाज़ गूंजती है। शुरुआत होते ही अंधेरे में एक ख़ूबसूरत फ़ानूस चमकता है। काली-भूरी पहाड़ी पर जैसे शफ़्फ़ाफ़ आबशार। फ़ानूस की चार हिस्सों में नीचे झरती रौशनी में आलीशान महल या कोठी की दीवारें साँस रोके खड़ी हैं। हर बेक़रार करवट में गिरते आंसुओं और इश्क़ की आह और कराह की चुप गवाह। हर षड्यंत्र की बू को सहती-सोखती….आती-जाती और इश्क़ में फ़ना होती रूहों की उठती-गिरती सांसों को सुनती…अपलक निहारती…अपनी ही बनाई मज़ार पर मत्था टेकती, अपनी ही क़ब्र पर सफेद फूल चढ़ाती स्त्रियों के मन को बुझती …

स्क्रीन की बाँईं तरफ़ से एक स्त्री सधे और धीमे कदमों से चलते भीतर जा रही है। कैमरा ‘लो एंगल’ से इस स्त्री का घेरदार, गोटा-ज़री से सजा डिज़ाइनर लहंगा दिखाता है। पीछे-पीछे दो स्त्रियाँ साए की तरह काँच के बल खाए दिये लिए चल रही हैं। उनकी छायाएँ फ़र्श पर हौले से लहराती हैं…

वह स्त्री झुकती है और बिस्तर से उठाकर नवजात को कोमलता से सीने लगाती है।

कैमरा स्त्री के पीछे सरकता है। रहस्य और कुछ बुरा होने की बू पैदा करता। संवाद से पता चलता है, वह स्त्री नवजात को बेऔलाद नवाब कुतुबुद्दीन को बेच रही है। क़ीमत माँगती है।

इसकी क़ीमत?

आलता लगी गोरी हथेली पर डाल दिए गए महँगे हीरे-मोती से जड़े ज़ेवरात पर कैमरा ठहरता है।

सुर्ख़ पोशाक में सोयी एक स्त्री की नींद टूटती है। दाहिने हाथ से अपनी बग़ल में सोए नवजात को टटोलती है और पाती है, वहाँ से उसका बेटा गायब है। वह चिल्लाती है।

(वह बेटा उसके लाहौर के एक नवाब के साथ संबंध से पैदा हुआ है।)

महल में अंधेरा है! कहीं-कहीं दिये की रौशनी के क़तरे जगमगाते हैं। आने-जाने की हलचलें हैं।

वह सबको पुकारती है, सत्तो! फत्तो! इमाद कहाँ है? संवादों में बच्चे को बेच दिए जाने की बात कहते- कहते छुपा ली गई है…

घोड़ों की हिनहिनाहट, टापों की आवाज़ और महल के दरवाज़े के सामने से बग्घी का गुज़र जाना होता है…

अपनी रहस्यमयी आवाज़ के साथ एक भारी दरवाज़ा खुलता है। पीली-सुनहरी रौशनी में पहले फ़ानूस दिखता है और नीचे हीरे-जवाहरात से भरा कमरा जगमगाता है।

बीच में कहीं संगीत का कोई टुकड़ा रहस्य गहराता चलता है।

रेहाना कहती हैं – देखो मल्लिका तुम्हारी महफ़िल में नवाबों ने कितना कुछ लुटाया है। हमें तो लग रहा कि हम पूरा लाहौर ख़रीद सकते हैं।
यहाँ रेहाना आपा और मल्लिका के बीच संवादों से पता चलता है कि रेहाना आपा ने मल्लिका के बेटे इमाद (जो किसी नवाब की औलाद है) को बेच दिया है।

बेटे को बेच दिए जाने से मल्लिका दु:खी है। गुस्सा होकर वह रेहाना से कहती है-कुछ तो ख़ुदा का खौफ़ कीजिए आपा!

रेहाना एक तीखे तेवर के साथ कहती है- हुज़ूर! आपा नहीं, हुज़ूर कहो। ये शाही महल है और यहाँ के ख़ुदा हम हैं।

मल्लिका दु:खी होकर रेहाना से कहती है- आपने हमसे हमारी औलाद छीन ली है हुज़ूर, एक दिन मल्लिका आपसे आपका सबकुछ छीन लेगी! सब कुछ छीन लेगी!! सब कुछ छीन लेगी!!! सब कुछ।

अब अंधेरा है।

यह शुरुआती सीक्वेंस संजय लीला भंसाली की वेबसीरीज़ ‘हीरामंडी’ की है। यदि थोड़ा भी ग़ौर से देखें तो इसमें उन तमाम मूल तत्वों का देखा जा सकता है जो इस वेबसीरीज़ की ख़ूबियाँ (और कमजोरियाँ भी)हैं। ख़ूबसूरती, वेशभूषा, भव्यता, ऐश्वर्य, राग-द्वेष-ईर्ष्या, प्रतिद्वंद्विता, त्याग, इश्क-ओ-मोहब्बत, ख़्वाब और ख़्वाहिश, धोखा, षड्यंत्र और वर्चस्व की लड़ाई।

लेकिन कहानी तमाम नाज़ुक मोड़ों से बलखाती-उमड़ती-घुमड़ती-बरसती इस तरह खुलती-खिलती है कि वर्चस्व और प्रतिशोध की यह लड़ाई अंतत: अंग्रेजों के खिलाफ़ प्रतिरोध की लड़ाई में बदल जाती है।

इस दौरान कई क़िरदार अपने तमाम रंग-ओ-बू के साथ, तमाम कमजोरियों, ख़ूबियों, ख़्वाहिशों, ख़्वाबों, ख़्वाबों की कब्रगाह के साथ अँधेरे-उजाले का एक रोता-बिलखता, हँसता-खिलखिलाता, हँसी-ठिठोली करता, नाचता-गाता जादुई संसार रचते हैं और बलखाती-उमड़ती-घुमड़ती-बरसती और हर तरफ़ खुलती-खिलती ‘हीरामंडी’ की इस कहानी का हर क़िरदार अपने महिन और महान, टुच्चे और बड़े मक़सद में मुब्तिला है। कभी मग़रूर, कभी मजबूर, कभी मज़बूत और कभी बेमुरव्वत। इनकी अनेक रंगतें हैं, उजली, भूरी, काली, नीली-हरी। करवटें हैं बेक़रार, इनकी हर करवट पर वक़्त भी करवटे बदलता है। और सलवटें-सिलवटें हैं, रेशमी, अनगिन, वक़्त के नक़्श बनाती हुई। बेल-बूटों सहित जहाँ देह के साथ आत्मा पर भी नाख़ूनों के नीले पड़ते निशां हैं। जोश-ओ-जुनून है। ख़लिश, ख़राश और ख़रोंच हैं। जख़्म और उस पर नमक है। जलते जख़्म पर ठंडा फाहा रखती नाज़ुक नज़र है। ख़्वाब की परवाज़, परवाज़ को आसमान देती कोई कुटिल निगाह भी….पीठ पर खंज़र घोंपते और सीने पर गोली मारते और सीने पर गोली खाते किरदार… क़िरदारों की तमाम त्रासदियाँ किसी ख़ूबसूरत चांदी के थाल में रात के तारों की तरह झिममिलाती हैं। जैसे कोई ख़ूबसूरत, अनमोल नज़राना।

फ़ानूस दिखाने से शुरू हुई ‘हीरामंडी’ अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ तवायफों की उठाई गई मशालों पर ख़त्म होती है। इसमें में बार-बार नुमाया होते नाज़ुक फ़ानूस को संजय लीला भंसाली की ‘फ़िल्म-कारीगरी’ के रूप में देखा जा सकता है और मशालों को फ़िल्म का कथ्य। ये दोनों एकदूसरे की गलबहियाँ डाले साथ-साथ आगे बढ़ते हैं, कभी एक तरफ़ आहिस्ता से झुकते तो कभी दूसरी तरफ़ एक झटके से झुकते। इनकी गति और बदलती लय एक साथ कई दिशाओं में मुड़ती-ठहरती-इठलाती चलती हैं। इसमें मुशायरा और महफ़िलें हैं। शायर और शायरा हैं। शायरा बनने का ख़्वाब भी। इश्क़ है इंक़लाब भी। फ़न भी है और फ़ना हो जाने का दिलक़श जुनून भी। इसलिए इश्क़ और इंक़लाब में कोई फ़र्क भी नहीं। शेर हैं धड़कते हुए, और बतौर आलमज़ेब शेर धडकते नहीं, दहाड़ते हैं। इश्क़ के नाजुक बल हैं, और बलखाती अदाएँ भी। हसीं मुखड़े ही नहीं, उनके जानलेवा तेवर भी हैं।       इसमें खुसरो का रंग-वसंत है, मीर के इश्क़ का इक भारी पत्थर है, ग़ालिब की हज़ारों ऐसी ख़्वाहिशें हैं कि हर ख़्वाहिश पर दम निकल जाए साथ ही आग का दरिया है। फैज़ के आज़ाद लब के बोल हैं और वह हिम्मत भी कि जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ, रूई की तरह उड़ जाएँगे। इश्क़ है, इश्क़ की रूह और रूहदारी भी है। लेकिन…लेकिन मशाल से ज़्यादा फिल्म के फ़ानूस याद रहते हैं। वे कुछ ज़्यादा ही मोहक और मारू हैं। बार-बार नुमाया होते हैं, बार-बार नज़र में आते हैं। नज़र में लाए जाते हैं। लगभग हर दृश्य में, हर मौक़ों पर।

कहने दीजिए, मशालों तक पहुँचने के लिए संजय लीला भंसाली पहले फ़ानूसों पर फ़िदा हैं। और उनका यह फ़िदा होना अंत तक जारी रहता है। अपने फ़न में फ़ना हो जाने की एक फ़ितरत होती है। लेकिन यह फ़ितरत कभी-कभी सिर चढ़कर कुछ ऐसी बोलती है कि कारीगरी करने का इसका औज़ार और हुनर कभी-कभी खुद के हाथों को लहूलुहान कर देता है। क्या कह सकता हूँ कि फ़ानूस की कारीगरी करने में संजय लीला भंसाली के हाथ लहुलूहान हो गए हैं…

जिस तरह से ‘हीरामंडी’ में दिल लगाकर गढ़े गए, उनके बेल-बूटे काढ़े गए कुछ क़िरदारों की गोरी हथेलियाँ आलता से सुर्ख़ और ख़ूबसूरत दिखाई देती हैं, लगता है संजय लीला भंसाली के हाथ अपनी ही महीन फ़िल्मी-कारीगरी से लहूलुहान होते दिखाई देते हैं। उनकी इस कारीगरी के लाखों दीवानें हैं। यह कारीगरी कमाल है। इसी के ज़रिए वे एक निहायत ही नाज़ुक और दिलफ़रेब सिने-भाषा हासिल करते हैं। लेकिन उनकी कारीगरी की यह चमक, महलों, महलों के कमरों, उनकी सजावट, ग़ुलदान, आईने, बिस्तर, लैम्प और फ़ानूस, क़िरदारों की चमकदार वेशभूषा और जवाहरात के साथ शृंगार, हार, नथ, बोर से इतनी चमकदार हो जाती है कि वह ऐसी चकाचौंध पैदा करती है कि स्त्रियों का दु:ख कुछ धुंधला पड़ता दिखाई देता है।

अपनी डायरी ‘थलचर’ में कवि कुमार अंबुज एक मार्के की बात लिखते हैं। वे लिखते हैं – “शिल्प  पर मोहित होना जारी है। शिल्प इस तरह अर्जित किया जा रहा है जैसे आदमी मकान बनवाकर सोचता है कि हो गया इन्तज़ाम। अब हमारा एक स्थायी पता है, हम यहीं मिलेंगे। हमारी उपस्थिति अन्य जगह और किसी दूसरी तरह से यदि हो तो हम झूठे, बेईमान या असफल ठहरा दि जाएँ। कोई उज्र नहीं। यह शिल्प ही हमारी साधना थी। कला का चरम सत्य हमारे इस शिल्प में आ गया। जैसे वह यथार्थ और कथ्य का विकल्प हो गया।”  क्या यह कहा जा सकता है कि संजय लीला भंसाली के ख़्वाबग़ाह में फ़ानूस ज्यादा चमकते हैं, इस चमक में स्त्री के दु:ख-संताप-संघर्ष और देह-मन पर पड़ी समय की धूल, धुंध और झुर्रियाँ कुछ धुँधलाती पड़ती हैं। वे अपनी फिल्म-कारीगरी की जो मशाल उठाते हैं, उसमें फ़ानूस चमकते हैं, स्त्री-क़िरदारों के मन की टूटन कुछ कम दिखाई देती है। संजय लीला भंसाली ने ‘हीरामंडी’ की शोकांतिका को फ़ानूस में ढाल दिया है। वह ख़ूबसूरत है, चमकदार है, आलीशान है लेकिन लगता है कि सजावटी ज्यादा है।

उनकी स्त्रियाँ बला की ख़ूबसूरत हैं, उनके ज़ेवरात की बनावट-बुनावट कमाल है, उनकी आँखें कजरारी हैं और आईने ख़ूबसूरत शिल्प में ढले हैं। लहँगे, चुन्नियाँ, चोली, झुमके, टीका, नथ और नथ उतराई हैं। वे इन्हीं में रमते दिखाई देते हैं, उनकी दिलचस्पी ‘नथ उतराई’ में ज्यादा दिखाई देती है लेकिन वे स्त्री मन की साँवली गहराईयों में उतरने में कुछ झिझकते दिखाई देते हैं। लगता है, उनके रास्ते में फ़ानूस आ जाते हैं, और वे रास्ता भटककर फिर फ़ानूस पर मुग्ध हो जाते हैं। आखिर क्या कारण है जो सिनेकार महल की मेहराबों, कंगूरों, दीवारों के रंग और उनकी रंगतों, कमरों में सजावट की हर वस्तुओं की बनावट-बुनावट पर इतनी बारीक नज़र डालता है, वह स्त्री-मन के अंधेरे में जाने से क्यो झिझकता है!

‘हीरामंडी’ में कुछ प्रसंग हैं, जिनमें वे यह कोशिश करते दिखाई देते हैं कि वे टूटती-बनती, कमज़ोर पड़ती और फिर से अपनी ताक़त जुटाती, आँसू बहाती और आँसू पोंछकर फिर आगे बढ़ती स्त्री के मन की साँवली गहराइयों में झाँकते हैं, उनके मन के क्षत-विक्षत मन का नक़्श उकेरने की कोशिश करते हैं। ऐसे प्रसंग हैं जहाँ संजय लीला भंसाली अपनी साँस रोककर उस स्त्री की उख़ड़ती साँसों और बेक़रार करवटों को महसूस करते हैं जो नवाबों, अंग्रेजों, अपनों से ही छली गई हैं और प्रेम के ख्वाबगाह के लिए तरसती हैं। मिसाल के लिए लज्जो का क़िरदार। यहाँ स्त्री की उन साँवली गहराइयों की बस एक झलक ही मिल पाती है। बिब्बो जान के प्रेम की टूटन, आलमज़ेब का ख्वाब और उसके ख़्वाबों की कब्रगाह, मल्लिकाजान जान का अपनी बेटी को छुड़वाने के लिए थाने में नाचना और फिर बलात्कार, इसकी खबर पाकर फ़रीदन का दु:खी होना, ताजदार के इतकाल के बाद आलमज़ेब का प्रतिशोध। ‘हीरामंडी’ में ऐसे प्रसंग कम हैं।

उनकी मशाल की रोशनी इस पर ज़्यादा नहीं ठहरती और वे अपनी कारीगरी की मशाल उठाकर उस तरफ चल पड़ते हैं जहां फ़ानूस किसी शफ्फ़ाफ़ आबशार की तरह नुमाया हैं।

यहाँ हम फिर से कुमार अंबुज की बात याद कर सकते हैं जिसमें वे लिखते हैं कि –“ शिल्प की सवारी शेर की सवारी है। यह उपलब्धि है कि आपने शेर की सवारी की। लेकिन अब आप शिल्प के आसन से उतर नहीं सकते। शेर आपको खाने के लिए तैयार है। आप शेर पर बैठे, यह तस्वीर आपकी पहचान है ले किन अब आप हमेशा ही शेर पर सवार रहने के लिए विवश हैं। आप उसके शिकार हो चुके हैं। आप भूल गए कि जैसे शिल्प को पाना एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है उसी तरह शिल्प को पार करना भी। शिल्प के चक्रव्यूह में प्रवेश करनेवाले अभिमन्युओं को चक्रव्यूह से बाहर आने की कला भी आनी चाहिए।”

‘हीरामंडी’ पर बात करते हुए इस बात का बहुत ज्यादा अर्थ नहीं रहता कि फिल्म में तत्कालीन समय की हलचलें, भव्यता और वैभवता है, कि ख़ूबसूरत वेशभूषा और आलादर्ज़े की अदाकारी है (कुछ का अभिनय दिल छू जाता है), कि क्या संगीत और नृत्य हैं कि जानलेवा संवाद हैं और बला की ख़ूबसूरत और समर्थ नायिकाएँ (अभिनेत्रियाँ) हैं। फिल्मों को इस तरह से टुकड़ों में बाँटकर नहीं देखा जा सकता क्योंकि अच्छी फिल्म एक ‘टोटल रिलेशनशिप’ में होती है। उसमें कहानी, संवाद, अभिनय, रंग, ध्वनि, संगीत और सिनमैटोग्राफी इस तरह से घुलेमिले होते हैं। और ये एक ऐसा फ़िल्मी रसायन बनाते हैं जिसमें कोई अलग-अलग स्वाद नहीं होता, बल्कि इस माध्यम के वैशिष्ट्य का एक अनूठा स्वाद होता है। वह सिर्फ़ कारीगरी से नहीं बनता और ना केवल कथ्य से। अच्छी फिल्म में इन दोनों का एक लोप होता है। जैसा कि ‘थलचर’ में कुमार अंबुज लिखते हैं –‘ शिल्प साधन होता है, साध्य नहीं। शिल्प यथार्थ से बड़ा नहीं होता। यथार्थ रोज़ बदलता है इसलिए शिल्प स्थिर नहीं रह सकता। वह किसी आदमी की युवा या अधेड़ अवस्था में खींची गई तस्वीर की तरह नहीं हो सकता। वह जड़ित फोटो नहीं है। जो शिल्प को ग़ुलाम बनाना चाहते हैं, ज़रा ध्यान दें कि किसने किसको ग़ुलाम बना लिया है। …यथार्थ की चेतना प्रत्येक लेखक से माँग करती है कि शिल्प की दासता से बाहर आया जाए। रचनाकार के लिए यह एक चुनौती है और उसे इसके प्रति स्वीकार भाव रखना चाहिए।

शिल्प एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है लेकिन यह याद रखना होगा कि शिल्प एक क़ैदख़ाना भी होता है। शिल्प के उम्रक़ैदियों को देखना दुखद है। जैसे उन्हें शाप दिया गया हो कि जाओ, अब तुम इस ‘शिल्प-लोक’ में जाकर रहो!”

‘हीरामंडी’ में फ़ानूस संजय लीला भंसाली का एक शिल्प-लोक यानी फ़िल्मी-कारीगरी है। इसमें एक दृश्य है। फ़रीदन अपनी कोठी में फोटोग्राफर से अलग-अलग अदाओं में अपनी तस्वीरें खींचवा रही हैं। उनकी अदाएँ मोहक हैं, ख़ूबसूरत शृंगार है, जरी की महंगी साड़ी पहनी हैं, नाज़ुक ज़ेवरात हैं, आलिशान सोफ़ा है, वैभव है। दर्प है, दर्पण हैं। इसी दौरान मल्लिकाजान आती हैं। थोड़े से संवाद हैं। फ़रीदन के साथ मल्लिकाजान भी तस्वीरें खींचवाती हैं और कैमरे की तरफ इशारा करते हुए एक बात कहती हैं : यह काला बक्सा तस्वीर नहीं, रूह खींच लेता है!

काश ! संजय लीला भंसाली की यह ‘तस्वीर’ रूह भी खींच लेती। लेकिन फिल्म-कारीगरी का क़ैदी हो जाने की वज़ह से ‘हीरामंडी’ सिर्फ़ ‘तस्वीर’ बनकर रह गई!

Share.
Leave A Reply

Exit mobile version