
आज पढ़िए युवा लेखिका अणुशक्ति सिंह की कहानी। अणुशक्ति सिंह का उपन्यास ‘शर्मिष्ठा’ चर्चित रहा है। यह उनकी नई कहानी है-
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ओडोनिल की एकदम मद्धिम पड़ चुकी ख़ुशबू, टिपिर टिपिर चूता वाश बेसिन का नल, खिड़की की दूसरी तरफ़ रखा मोतिये के फूलों का गमला।
‘बाथरूम के बाहर वाली खिड़की पर गमला रखना मुनासिब नहीं। कैसे पानी डाला जाएगा, कौन देखभाल करेगा। यह खिड़की तो बंद रहा करेगी।’ माली ने फ़रमाइशी गमला बाथरूम के बाहर वाली खिड़की पर रख तो दिया पर हैरानी बरक़रार थी। दूर वाले हाइवे के सन्नाटे की ओर खुलती इस खिड़की को बंद रखना रौशनी को आने से रोकना था। खिड़की के बाहर थोड़ी भीत निकली हुई थी। मोतिये के गमले के लिए वह जगह मुफ़ीद थी। लोहे की जाली से छनकर रौशनी आती और सफ़ेद फूलों के खिलने के उजास दिनों में ख़ुशबू के झोंके भी।
उजास भरे फूलों की गंध इतनी तीखी थी कि सुगंधित साबुन और शैंपू भी फ़ीके पड़ जाते, रूम-फ़्रेशनर्स की बिसात क्या थी। ऐसे ही दिनों में, एक दिन नहाने के लिए कपड़े उतारते हुए फूलों की गंध एक ख़ास गंध से दब गयी।
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‘तुम्हें पता है हर इत्तर हर बदन पर ख़ास असर करता है’ पर्फ़्यूम के सैम्पल टेस्ट करते हुए वह उसकी कान में बुदबुदाया था।
‘ऐसा क्या?’
सुनकर उसकी खिंची-खिंची फालसई आँखें चमकी थीं। नथुनों में नशा भर गया था। वह बताते-बताते थोड़ा क़रीब आ गया था।
‘कोई तुम्हारी गंध बोतल में नहीं उतार सकता?’
वह मुस्कुराया था, आँखों की पलकों ने सबके सामने की गयी इस बेनियाज़ ग़ुस्ताख हरक़त पर झपक कर डाँटा भी था।
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‘तुम अपनी यह टीशर्ट रख क्यों नहीं देते।’
‘यहीं? फिर पहन कर क्या जाऊँगा?’
‘दूसरी पहन जाओ।’
‘पर तुम करोगी क्या इसका?’
‘कुछ भी… जो भी दिल करेगा।’
आँखों की पलकों ने फिर हरक़त की थी। ख़ूब फैल कर लड़की की उल्टी-सीधी बातों पर चौंकने की कोशिश की।
‘सुनो, पूरे दिन पसीने में तर-बतर होती रही टीशर्ट, धुलवा लेना उसे।’ लड़के ने ताक़ीद की।
लड़की के कानों ने सुनकर अनसुना कर दिया।
रोज़ नहाने के बाद वह टीशर्ट बाहर निकलती। उसे पहना जाता, फिर तह लगाकर रख दिया जाता।
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दोनों प्रेम में थे। प्रेम के कोमल पलों में एक-दूसरे के ऊपर पिघलते रहते। एक दूसरे के ऊपर पिघलना, एक दूसरे की गंध में सराबोर होना भी था।
गड्ड-मड्ड से होते दो रंग ज्यों फैल गये हों कैनवस पर। एक देह की महक उतरती दूसरी पर। भौतिकी की कक्षाओं में बताया गया था, मूल रंग तो तीन ही होते, लाल, हरा और नीला। बाक़ी सब रंग तो इन तीन रंगों से मिलकर बने हैं। गाहे-बगाहे उसे ख़याल आता, इन दो देहों की गंध को मिलाकर जो गंध तैयारी होगी, उसकी ताब कैसी होगी? और उसे रंग दिया गया तो वह रंग कैसा होगा?
प्रेम के गहन क्षणों के बाद, गिर आये बालों को हटाते हुए, काँधे और उरोजों के बीच की सख़्ती पर नम होंठ धरते हुए उसने कहा था, ‘तुम महकती रहती हो, मालूम है तुम्हें?’
कैसी महक?
ख़ुश्बू सी… ख़ुशबू उट्ठे… उसके होंठ अब कान की लौ को चूमने लगे थे।
वह ख़यालों में खो गयी थी। धूप और धुएँ से भरे ख़याल, जैसे किसी ने अभी-अभी गुग्गुल और कपूर को चंदन की छीलन पर धरकर सुलगा दिया हो।
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गीज़र के झरर्रर्र, नलके के टिप-टिप के बीच बाथरूम टूल पर बैठी हुई वह अलसायी जा रही थी। नहाने का मन नहीं हो रहा था। पानी से भरी बाल्टी में एक बूँद टप से गिरती, भँवर जैसा कुछ पैदा होता। बूँदों के गिरने, भँवर में खो जाने की यह प्रक्रिया सम्मोहक थी। एक नज़र मोतिये पर गयी। कुछ कविता की पंक्तियों सा उभरा मन में। ख़ुद से अलग सी गंध आयी। घड़ी भर पहले के वे सुकोमल पल याद आये। नहाने का मन ना हुआ। आत्म-गंध में लीन वह बाहर आ गयी। तैयार होने के क्रम में परफ़्यूम को छुट्टी दे दी गयी थी। ठिठकता हुआ सा ख़याल आया, जो किसी ने जिस्म से आती मर्दानी गंध का पता पूछ लिया तो। वह क्या कहेगी?
अहा! मिल तो गया जवाब… यह इश्क़ की ख़ुशबू है। दो गंधों का अनुपम मेल। छन-मन, छन-मन, छुन-छुन, किसी ने अंतस के किसी कोने में झाँझर बजायी थी।
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वे झाँझरों के बजने के दिन थे जब अचानक ही अंदाज़ा हुआ मोतिये के पौधे पर उजास भरे फूल कम हो रहे थे। हरे-भरे पत्तों के बीच की एकरूपता खो गयी थी। धूसर जाले, सफ़ेद अधखिल कलियों के मध्य हरा-पीला सा जीव रेंग रहा था। मन कसैला हो गया। आज बाथरूम में मोतिये की महक कुछ कम थी। ओडोनिल की तीखी ख़ुशबू कुछ अधिक ही महसूस हो रही थी। उसका मन कसमसाने लगा। बिन नहाये ही वह बाहर चली आयी… ठीक उसी दिन की तरह। ख़ुद को सूंघ कर देखा। इस गंध में वह अनोखापन नहीं था। वह टीशर्ट जो महीनों से नहीं धोयी गयी थी, एक बार फिर से पहनी गयी। उसने भी निराश किया। उस टीशर्ट की वह ख़ास गंध खो गयी थी। उसे अब नेफ्थलीन के बॉल्ज़ ने अपनी गदबदाती गंध से अतिक्रमित कर लिया था। झाँझरो ने बजना बंद कर दिया था। या फिर उसमें कुछ ख़राबी आ गयी थी। शीशे के छनक कर टूटने की आवाज़ कहाँ से आयी थी?
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‘क्या हम प्यार करते-करते ऊब जाएँगे?’
फालसई आँखों वाली ने किसी कातर क्षण में सवाल किया था।
‘तुम कहो ना मरून आइज़?’
उसने लाल-कत्थी आँखों वाली के बालों में उँगलियाँ फिराते हुए पलट कर पूछ लिया था।
‘मुझे इस प्रेम से बाहर नहीं होना।’
‘मुझे भी नहीं। यूँ भी बोरियत तो तब होती जब सब एकसार होता। हम तो रोज़ नये होते हैं।’ उँगलियाँ फिराते हुए लड़के ने जवाब दिया था।
लड़की ने उँगलियाँ बालों से निकाल कर चूम ली थी।
उन मर्दानी उँगलियों के आधे फुट से कम के इस सफ़र में उँगलियाँ एक ही बार गंध ग्राह्यता के छिद्रों के पास से गुज़री थीं। उसने सच कहा था। यह गंध अलग थी। रोज़ अलग गंध। क्या अनुपात ऊपर नीचे होने से भी तीसरी गंध बदल-बदल जाती है। जैसे कि रंग की मात्रा ऊँच-नीच होने पर बनने वाली तीसरी रंग की सूरत बदल जाती है?
ऊँह! कितना सारा विज्ञान। उसने इतना सोचने को जाने दिया था।
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अरसा बीत गया था। जो बीता वह मुश्क़िल वक़्त था। वह ख़ास टीशर्ट अनधुले कपड़े के बोझ के नीचे कहीं दब गयी थी। बाथरूम के बाहर की खिड़की पर रखा उजास फूलों वाला गमला अब बस नन्हा सा ठूँठ सम्भाले हुआ था।
कुछ बातें बिसरी हुई मान ली गयी थीं। हाइवे पर सन्नाटा था। सन्नाटे को हर तीसरे-चौथे मिनट पर मीठेपन की अधिकता लिए हुए एक तीखा शोर चीरता था। वह शोर ढलकती साँसों की गवाही देता। इश्क़ की मियाद भी पूरी हो रही थी। फालसई आँखों वाली शीशे में अक्स निहारना भूल-भूल जा रही थी। एक दिन चेहरा धोते हुए ग़लती से नज़र आँखों पर गयी थी। रंग कुछ कम गहरा था। उन्हीं दिनों मोतिये के सूखते पौधे पर भी नज़र गयी थी।
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मुश्क़िल वक़्त को क़िस्सों में आपदा कहकर दर्ज किया गया था। इश्क़ की कई कहानियाँ डूबती साँसों के बीच ख़त्म हो गयी थीं। दुकानों के शटर गिरे हुए थे। रोड पर लोग नहीं थे, फिर भी अफ़रा-तफ़री थी। यह सदियों में पहली बार हो रहा था। बिना भीड़ के सब अस्त-व्यस्त था। प्यार की क़ीमत खुल कर लगाई जा रही थी। हर साँस को फेफड़े की सलामती से आंका जाता था। इन्हीं बिगड़ते फेफड़े वाले दिनों में लड़की को लगा जैसे उसकी नाक बिगड़ रही है। अचानक ही उसने गंधों को महसूसना बंद कर दिया था। गंध जाना डर की निशानी थी। ख़राब फेफड़े वाले कई लोगों ने पहले गंध जाने की शिक़ायत की थी।
गंध का जाना कहीं ना कहीं संक्रमण का आना था।
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कई टेस्ट हुए। सलामती का प्रमाणपत्र मिला। लोगों ने बधाई देनी शुरू की। डूबती साँसों के दौर में, घोर संक्रमण के काल में, उसका संक्रमण स्तर मामूली से भी मामूली था। वह नेगेटिव थी। हालाँकि गंध अब भी नहीं मिल रही थी। उस मर्दाने गंध की याद बेचैनी भर रही थी। शब ओ रोज़ इस बेक़रारी में गुज़रने लगे कि बस कहीं से वह गंध वापस आ जाए। खोने का अहसास तमाम अहसासात में सबसे कठोर/क्रूर है। बचपन में एक गुड़िया गुमी थी, एक सत्रह रुपए की कलम भी। उम्र की रवानी पर कपड़े, पैसे, फ़ोन, ना जाने क्या-क्या खोये थे। इतना सब खोने का असर केवल एक दिन रहा था। लोप हुई गंध हर रोज़ ज़िंदगी छीन रही थी, साँसें मुकम्मल थीं जबकि…
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गंध की तलाश हर जगह जारी थी। रसोई की छनर-मनर में। अलमारी में रखे काग़ज़ों के पुलिंदे में। विदेशी पर्फ़्यूम वाले ताखे में। कूड़े के डब्बे में… हर कोशिश नाक़ाम रही थी। वह नेगेटिव थी बस गंध ढूँढ़ रही थी। एक दिन धोने के लिए कपड़ों का पुलिंदा उठाया गया। अचानक से एक सीली सी गंध आयी। कपड़ों के गट्ठर के नीचे वह टीशर्ट रखी थी जिसकी मर्दानी ख़ुशबू ने इश्क़ के दिनों को ज़िंदा रखा था। सीली गंध वाली टीशर्ट वहीं छोड़कर वह रिपोर्ट देखने भागी। उसकी आँखें प्रेम लफ़्ज़ ढूँढ़ना चाह रही थीं। वह नेगेटिव थी। मुहब्बत का सूचकांक भी अचानक से माइनस की ओर बढ़ गया था। नो स्मेल, येट नेगेटिव … इश्क़याई गंध! यह कोई पहेली तो नहीं।
टीशर्ट की सीली गंध नथुनों में भर रही थी, आँखे महीनों पहले लिखे गये प्रीत के आख़िरी संवाद को हज़ारवीं बार वापस देख रही थी। क्या किसी लहर की गुंजाइश है…
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