आज पढ़िए पल्लवी विनोद की कहानी। यह कहानी समकालीन जीवन स्थितियों में रिश्तों के उतार चढ़ाव को लेकर एक रोचक कहानी है- मॉडरेटर
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प्रेम में कितना धँसे हो तुम?
सीने तक?
नहीं!
तो अभी और धँसो। इतना कि साँस घुटने लगे।
मृत्यु से ठीक एक क्षण पहले बाहर निकलना। इस प्रक्रिया में बस एक साँस भर का फ़ासला है। साम्य बैठा लिया तो बच जाओगे, कहलाओगे प्रेमी..(कहलाने का क्या है वो तो अपने खून से चिट्ठियाँ लिखने वाले भी कहला जाते हैं) फिर तुम प्रेमी बन जाओगे। पता तो है ना! प्रेम करने की यात्रा बड़ी जटिल है। जैसे पथिक के पैरों में पड़ी गाँठ बताती है कि उसकी यात्रा कितनी दुष्कर थी ठीक उसी तरह हृदय में पड़ी गाँठ बताएगी कि प्रेम के दरिया में कितना डूबे थे तुम।
“आग का दरिया है और डूब के जाना है” समझे या नहीं? चलिए आपको एक कहानी सुनाती हूँ। शायद यही कुछ समझा दे..
ट्रेन पटरियों पर सरपट भाग रही थी। उसमें खिड़की से लगी एक सीट पर बैठे लड़के को लगा इस ट्रेन के साथ भागता हुआ वो प्रेम को समझ चुका है। इश्क़ के दरिया में डुबकी लगाते समय उसने लड़की का हाथ पकड़ लिया था। फ़िल्मों में जिस दृश्य को बार-बार घटते हुए देखा था। उसे दोहराने के रोमांच में पीछे छूटता शहर भी मुड़कर नहीं देखा … लड़की की काँपती हथेलियों को तेज़ी से पकड़ कर बोला,
“अब से हम दोनों ही एक दूसरे के सब कुछ हैं” ये कहते हुए भी उसे लगा, इस पंक्ति में कितना दोहराव और उबाऊपन है। पर उसने कह दिया।
काँपती हथेली वाली लड़की इस एक वाक्य से सिकुड़ गई थी। उसके जीवन में यह वाक्य पहली बार घटा था। उसने मान लिया वो लड़का वास्तव में सब कुछ है।
समझने वाली बात ये थी कि इस सब कुछ में कितना सब है? और कितना कुछ? वो लड़की अपने सबकुछ के कंधे पर सिर टिकाए ट्रेन की खिड़की से छूटते हुए शहर को देख रही थी। चाँद उसके ठीक सामने था। जैसे लड़की के साथ चलने के लिए उसने भी शहर छोड़ दिया हो। लड़की ने चलते समय माँ की एक अंगूठी ले ली थी। सुबह जब माँ की नींद खुलेगी तब उसे पता लगेगा कि लड़की कहीं दूर जा चुकी है। वो चिल्लाएगी, रोएगी उसे ढूँढेगी।
यह सब सोच लड़की के गले में कुछ अटक रहा था। प्रेम में धँसने की शुरुआत हो चुकी थी।
“इधर आओ” की ध्वनि से उसकी नींद खुली। उसने ट्रेन की खिड़की की तरफ़ देखा…वृक्षों की क़तार, सुंदर शहर सब पीछे छूट गए। साथ में चला चाँद भी आकाश की धवलता में छिप गया था। बाहर प्लेटफ़ॉर्म का कोलाहल था। इधर आओ की ध्वनि की तरफ़ लड़के की हथेलियाँ थीं। भीड़ में एकमात्र चेहरा जिसे वो पहचानती थी। उसके पीछे नए शहर में ढूँढे गए घरौंदे की तरफ़ चल पड़ी।
प्रेम जीवन में एक रंग की तरह दाखिल होता है। जितनी डुबकी लगाओ चढ़ता जाता है। लड़के पर भी ये रंग ठीक उसी तरह चढ़ा… घर वालों ने धोना चाहा तो उसने शहर छोड़ दिया।
लड़की चाहती थी एक चुटकी सिंदूर और लाल साड़ी के साथ वो नए शहर के नए घर में चावल भरे कलश को गिरा कर परिवार बसाए। लड़के ने कहा, “ये सब इतना जल्दीबाज़ी में? का जरुरत है? आज नहीं तो कल सब इस रिश्ते के लिए माने जाएँगे। तब करेंगे शादी। धूमधाम से”
लड़की की सकुचाहट को समझ लड़के ने उसके चेहरे को अपनी हथेलियों में भर लिया… “सुनो ना! तुमको क्या लगता है? हमारे प्यार को ये सब शादी वादी का ज़रूरत है। अरे हम तुम्हें अपनी पत्नी मान चुके हैं।”
लड़के का फिर वही सिनेमाई अलंकरण से सजा वाक्य दोहराना और लड़की का भाव विह्वल होकर लड़के के सीने से लग जाना…आपको लग रहा होगा ..ऐसा कुछ भी तो अप्रत्याशित नहीं है जो इस कहानी पर रुका जाए लेकिन मुझे सामान्य कहानियों में ही विशिष्टता ढूँढने की आदत है। प्रेम हर कहानी का सबसे ज़रूरी हिस्सा होता है और विशिष्ट भी। ख़ैर…वो नए शहर के सबसे सुंदर मौसम में एक दूसरे का हाथ पकड़े बैठे हुए थे। लड़की की घबराहट को लड़के की बातें कम कर रही थीं। मौसम की ठंडक उन्हें पास ला रही थी। झिझक के पर्दे के बावजूद दोनों एक दूसरे को अपनी आँखों में भर रहे थे। साँसों से छू रहे थे। धड़कनों में सुन रहे थे।
प्रेम की यात्रा देह की पटरियों से होकर गुजरती है लेकिन देह मात्र यात्रा का सहायक है। प्रेम को यात्रा के बाद भी बचना होता है। दुर्गम स्थितियों की ज़मीन पर एक दूसरे का हाथ थामे एक ठिकाना बनाना पड़ता है।
फ़िलवक्त इस कहानी में लड़का जाने क्या समझ रहा था। लग रहा है, वो यात्रा के सुख में था लेकिन लड़की को रह-रह कर पीछे छूटा घर याद आता। वो लड़के से पूछती, “आख़िर कब तक हम ऐसे बिना शादी के रहेंगे?”
लड़का कुछ और समय माँग लेता।
“धोखा मत देना वरना हम सब कुछ ख़त्म कर देंगे। बता दे रहे हैं।”
लड़का हंसते हुए उसके होंठों को चूम लेता। लड़की की आवाज़ बंद हो जाती। समय अपने सबसे सुंदरतम रूप पर इस ठहर जाता था कि सुबह का उजाला भी रात के अंधेरों के स्वप्न तोड़ नहीं पाता था।
पर सपनों सरीखी रातों की सुबह एक ना एक दिन होनी ही थी और हो भी गई। मौसम का पत्ता पीला पड़ने लगा था। फूलों के रंग बदलने लगे थे। हवा में उठते अंधड़ सड़क की धूल घर में भर रहे थे। घर अपने भीतर चली आई गंदगी से हकलान हो वहाँ रहने वालों की तरफ़ बेचारगी से देखता पर अभी उन्हें घर की तरफ़ देखने की फ़ुरसत नहीं थी।
लड़के के पास बहन का फ़ोन आया, “पापा की तबियत ठीक नहीं है जल्दी आ जाओ”
“जाना पड़ेगा यार… पापा अस्पताल में हैं। ना हो तो तुम भी अपनी माँ के पास चली जाओ।”
“क्या कहेंगे जाकर? जिसके के साथ भागे थे उसका हमसे मन भर गया”
“अरे! कैसी बात करती हो तुम? पापा बीमार हैं हमारा जाना बहुत जरूरी है। और क्या पता अब तक उन लोगों का मन बदल गया हो।”
“जो ना बदला हो…तो?”
“हम लौटकर शादी कर लेंगे।तुम जानती हो ना! हम तुम्हें बहुत प्यार करते हैं। भरोसा नहीं है हमपे?” बोलो?
लड़की कुछ नहीं बोल पाई। पिछले चार महीने में लड़के के प्यार का एहसास तो बहुत बार हुआ था पर भरोसा नहीं कर सकी। क्यों का जवाब तो उसके पास भी नहीं था।
“हमको दुनिया से क्या मतलब। दुनिया हमारा दाल-रोटी का इंतजाम करने नहीं आ रहा है। हम दोनों एक दूसरे के साथ खुश हैं वही सबसे जरुरी बात है। शादी ब्याह तो एक दिन हो ही जाएगा।”
इन्हीं पंक्तियों द्वारा हर बार लड़की की इच्छाओं को प्रतीक्षारत करवाता लड़का वापस जा चुका था। नए शहर में अकेली लड़की के पास प्रतीक्षा करने के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं था।
दिन बीते, हफ़्ते बीते…. लड़के का फ़ोन पर बात करना कुछ कम हो गया था। लड़की ख़ुद को समझाती… पिता की बीमारी के चलते परेशान है…..लोगों के सामने फ़ोन नहीं कर पाता होगा….पर संदेह के बुलबुले मन के तहख़ाने में कुलबुलाने लगे थे। एक डरावनी रात जब किसी ने दरवाज़ा खटखटाया उसकी बहादुरी के सारे क़िले ध्वस्त हो गए। उसने सहारा माँगने के लिए बार-बार लड़के को कॉल किया…संदेश भेजे पर उधर से कोई भी जवाब नहीं आया।
“सब्र का इम्तिहान लेना” हिन्दी भाषा का एक घिसा पिटा वाक्य है लेकिन उस दिन लड़की के साथ ठीक यही घटा। पूरी रात वो उस कमरे की हर एक झिर्री बंद कर बैठी रही। खटखटाने वाला जा चुका था लेकिन दरवाज़े पर पड़ती थाप को आवाज़ अभी तक लड़की के कानों में गूंज रही थी।
अगले दिन लड़की उसी रेल में थी जिसमें बैठ वो नए शहर आई थी।
ट्रेन में अग़ल-बग़ल और सामने बैठे लोगों की घूरती आँखों के बीच बैठी लड़की काँप रही थी। असल में वही लड़की कहानी की नायिका थी। जैसे कुछ फ़िल्मों में होता है ना! सिनेमा शुरू होने के थोड़ी देर बाद इंट्रोडक्शन आता है तो अब इस कहानी के नायक नायिका का परिचय आप सबसे करवा ही देती हूँ। उस लड़की का नाम स्मिता था। स्मिता जिस लड़के की हथेलियाँ पकड़ नए शहर गई थी, उसका नाम अविनाश था। कहानी स्मिता और अविनाश के बीच पनपे रिश्ते की है जो फ़िलहाल घायल हो गया था।
अपनी माँ के घर के सामने खड़ी वो लड़की वहाँ से जाने वाली लड़की से बिल्कुल अलग थी। ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने चिड़िया के पंख नोच दिये हों। वो उड़ ना पा रही हो लेकिन ख़ुद को बाज से बचाने के लिए रेंगते हुए किसी सुरक्षित स्थान पर आ गई हो।
“अब का लेवे आ गईलू ? अब तहरा खातिर एहिजा कुछो नयखे।”
कैसी हो गई थी माँ? इतनी कमजोर और रूखी तो कभी नहीं थी…लड़की अपनी माँ के ग़ुस्से को जानती थी। उसे उनकी बातों से ज़्यादा तकलीफ़ उसका ये रूप देख कर हो रही थी।
“लाज ना आइल…हाँ..”
माँ ग़ुस्से में हाँफ रही थी।
“ लाज कइसे आई ..उ त तू ओही लईका के आगे उतार देले होखबू”
लड़की आज माँ की हर बात सुनने को मजबूर थी…वो समझ रही थी विश्वास टूटने की पीड़ा, उस दर्द ने उसको भी तोड़ा था।
टूटा हुआ मन ख़ुद को संभाल नहीं पा रहा था। उसे लड़खड़ाता देख बहन आगे बढ़ गई।
“कुछ खाए पिए खातिर होखे त दे द इनका के और कह द जहाँ से आइल बाड़ी ओहीजे चल जास।”
“माँ सुन ना! माफ कर दे। गलती हो गई हमसे। अविनाश के पापा की तबियत खराब हो गई थी तो वो उनके पास गया है। हम नए शहर में अकेले कैसे रहते?”
माँ पीछे पलट कर चिल्लाते हुए बोली, “तुमको का लगता है? ऊ तुमको लेने आएगा। बियाह करेगा तुमसे! अरे मूरख ई ठाकुर बाभन अपना मेहरारू के तो सगे होते नहीं तुम्हारा साथ का निभाएँगे। आईल रहे तोहार चाचा के फोन…क़हत रहन, “चाहें कुछो हो जाए उ लोग इस्मिता को बहू नहीं बनाएँगे।”
माँ पहले भी ऐसी जाति सूचक बातें कहती रहती थी..तब स्मिता पलट कर उन्हें आईना दिखा देती लेकिन आज उसका अपना आईना ही टूट चुका था।
“उ लइका के बाप अस्पताल में भरती बा और ओकर महतारी पूरा समाज में तोहरा के, हमरा के हमार पूरा खानदान के गाली बकतिया। खूब उजियार कईलू ए बुचिया। एही दिन खातिर हमार कोख से जनमल रहलू।”
स्मिता के पास माँ की किसी भी बात का जवाब नहीं था। उसके अंदर धधकती आग ने शरीर का ताप भी बढ़ा दिया था। अचानक उसे चक्कर आया और वो गिर गई।
अविनाश को पता चल गया था कि स्मिता अपने घर आ गई है। अपने पिता की इस हालत का ज़िम्मेदार वो ख़ुद को मान रहा था। उसकी गलती की वजह में स्मिता का नाम लिखा था। उसकी माँ कहतीं, “पता ना उ खटकिन कौन मंतर फुँकलस? हमार बाबू त ऐसन ना रहन।”
दुनिया भर की माँओं को कब समझ आएगी ये बात कि तुम्हारे लड़के ऐसे भोले नहीं कि कोई एक फूँक मारे और ये उनके पीछे चल देंगे। असल में ऐसी औरतों के लिए पुरुष के हर दोष की वज़ह कोई ना कोई औरत ही होती है। अविनाश की माँ ने भी स्मिता को अपनी हर परेशानी की एकमात्र वज़ह बना दिया।
“आखिर कौना शरीफ़ घर के लईकी बिना बियाह मरद संगे रहेले।” अविनाश चुप रह जाता, नहीं बोलता कि वो भी तो बिना शादी उसके ही संग रह रहा था। शादी ना करने का फ़ैसला भी तो उसका ही था। जाने प्रेम की ज़मीन इतनी भुरभुरी कैसे गई थी कि अविनाश के पैर वहाँ टिक ही नहीं पा रहे थे!
अविनाश के पिता घर आ चुके थे। कमजोर दिल का हवाला देकर अविनाश को स्मिता से ना मिलने की क़सम दी जा चुकी थी। उसके घर वालों को लगा अब सब ठीक हो जाएगा कि एक दिन पुलिस उनके दरवाज़े पर खड़ी थी। माँ-पापा के सामने वो अविनाश को पकड़कर ले जाने लगे। दोनों बहनें गिड़गिड़ाती रहीं। मुहल्ले वालों का मज़मा लगा हुआ था। जाते-जाते एक सिपाही ने उसकी माँ से बोला, “स्मिता नाम की लड़की ने आपके बेटे पर किडनैपिंग और बलात्कार का इल्ज़ाम लगाया है।”
ये कैसा आरोप था? दोनों आपसी सहमति से गए थे। जो उनके बीच हुआ वो भी दोनों की मर्ज़ी से हुआ था। फिर बलात्कार? लड़की कोई बच्ची तो नहीं थी। उसकी उमर अठ्ठारह से ऊपर थी। तमाम दलीलों के बीच स्मिता अपने फ़ैसले पर अडिग थी। चार महीने में उसकी ज़िंदगी से भरोसा और प्रेम शब्द विलुप्त हो चुके थे। एक अंधेरे कमरे में बहुत देर तक आँखें बंद रहें तो थोड़ी सी भी रोशनी उन्हें असहज कर देती हैं उसके सामने तो आग ही लग गई थी।
स्मिता के चाचा जो अविनाश के पड़ोसी भी थे उनकी अविनाश के परिवार से पुरानी खुन्नस थी। एक ही मोहल्ला होने कारण एकदम कट कर तो नहीं रह सकते थे इसलिए बैंडेज लगा कर सब ठीक होने का दिखावा करते थे। स्मिता और अविनाश के जाने के बाद अविनाश के परिवार ने उन्हें बहुत जलील किया। जातिसूचक अपमान के साथ ही घर की बहू बेटियों को भी गाली दी गई। उन्हें बदला लेने का अच्छा मौक़ा मिल गया था। वकील उनके जान-पहचान का था। अविनाश को फँसाने के लिए जितने इंतज़ाम किए जा सकते थे सब किए गए। अपने-अपने हिस्से के सच और झूठ को साबित करने के लिए तारीख़ें बढ़ती जा रही थीं। तक़रीबन महीने भर बाद अविनाश की ज़मानत हो गई। घर आए कुछ दिन ही हुए थे कि अविनाश के पापा की मृत्यु हो गई।
पिता की लाश के सामने बैठा अविनाश ख़ुद को कोस रहा था। काश! वो उसे मिली ही ना होती! काश वो यहाँ से भाग कर गया ही नहीं होता! इस उथल-पुथल के बीच किसी दोस्त ने उसे फ़ोन लाकर दिया। इशारे में उसे समझाया “स्मिता”
यह समझते ही अविनाश ग़ुस्से से पागल हो गया।
“अरे साली,मेरा तमाशा बनाकर तुमको चैन नहीं आया? मेरे बाप को खा गई अब और किसको खाएगी?”
फ़ोन कट चुका था। उसी के साथ वेंटिलेटर पर चल रहे रिश्ते में जीवन की सारी संभावनाएँ भी ख़त्म हो गईं। अब दोनों तरफ़ नफ़रत का नया रिश्ता था। जो दिन प्रति दिन बढ़ रहा था।
अविनाश के दोस्तों की गवाही और दिल्ली में रह रहे पड़ोसियों की वज़ह से बलात्कार का आरोप धीमा पड़ गया था। लग रहा था कि एक-दो महीने में केस का फ़ैसला आ जाएगा।
हर बार यही होता है। प्रेम से जुड़ी लगभग हर कहानी में सिवा प्रेम के सब कुछ रह जाता है। प्रेम में डूबना सबके बस की बात नहीं। दम घुटने की शुरुआत में लोग प्रेम को नीचे कर ख़ुद ऊपर आ जाते हैं। नहीं समझ पाते कि ध्वज उत्थापन के लिए रस्सी स्वयं का तिरोधान करती है। बिना खोए आपको राह की समझ नहीं होती। फल के बिना फूटे बीज नहीं निकलता। स्व को ख़त्म किए बग़ैर प्रेम का आभास हो ही नहीं सकता।
अविनाश इस सच से बेख़बर नफ़रत के दरिया में डूब रहा था।
“उसने मुझसे ख़ुद कहा था, हमको यहाँ से दूर ले चलो। हमें तुम्हारे साथ रहना है” अब कहती है हम उसको किडनैप किए थे। हमारे साथ मजा लेती रही और कह रही है हम रेप किए हैं उसका।”
“लेकिन तुम भी तो उसे बीच …
“हम भी क्या? ऐं हम भी क्या? हमने किडनैप किया था उसका! क्यों गई हमारे साथ? ना जाती!”
दोस्त कहना चाहता था वो भरोसा की थी तुम पर। लेकिन अविनाश का ग़ुस्सा देख कर नहीं कह पाया।
भरोसा कितना छोटा सा शब्द है लेकिन मायने कितने बड़े हैं। बच्चा माँ पर भरोसा कर उसकी उँगली थामे कहीं भी जा सकता है। माँ पति पर भरोसा कर बच्चे को उसकी गोद में देकर निश्चिंत हो जाती है। लड़कियाँ पति पर भरोसा कर एक नई जगह अनजान लोगों के साथ जीवन बिताने चली आती हैं। स्मिता भी उसी भरोसे की उँगलियाँ थामे अविनाश के साथ गई थी। भरोसा टूटने की आवाज़ किसी को सुनाई नहीं देती लेकिन वो होती है। इतनी तेज कि समूचा व्यक्तित्व क्षत विक्षत हो जाता है।
दोस्त को चुप देख अविनाश को हिम्मत मिली, “वो तो अच्छा हुआ हम शादी नहीं किए। मनहूस हमारे पापा को खा गई। हमको जेल भिजवाई..हम छोड़ेंगे नहीं उसको! बता दे रहे हैं।”
बेस्वाद हो जाने पर स्वाद वर्धक मिला कर खाने को ठीक किया जा सकता है पर अगर स्वाद बिगड़ जाए तो उसको ठीक करने का कोई उपाय नहीं होता। जिस दोस्त ने उन दोनों को मिलवाने में मदद की थी वो सब कुछ ख़त्म होते देख रहा था। उसे डर था दोनों ही पक्ष द्वेष में किसी ऐसी राह पर ना चले जाएँ जहाँ से वापसी संभव ही ना हो पाए।
एक दिन ख़बर आई …स्मिता बुरी तरह जल गई है।
पुलिस और स्मिता के घर वालों के अनुसार इस अग्निकांड का ज़िम्मेवार अविनाश था। अविनाश और उसके परिवार वाले लगातार इस आरोप को ग़लत बता रहे थे। जितने मुँह उतनी बातें बन रही थीं। सवालों के जवाब तो मिल रहे थे लेकिन सच नहीं नहीं मिल रहा था। फिर सच कोई तेल की बूँद तो थी नहीं कि पानी मिलाते ही छितर जाए वो तो आग में पड़े कोयले में छिपा हुआ था। सारे कोयले एक से, सच को निकालने के लिए हर एक को उठाना पड़ेगा। यह भी हो सकता था कि सच को बाहर निकालने में उँगलियाँ इस कदर झुलस जाएँ कि उस एक कोयले तक पहुँच ही ना पाएँ।
अविनाश के पड़ोसियों और फ़ोन रिकॉर्ड के अनुसार वो पिछली शाम से घर में ही था। पर इससे वो निर्दोष सिद्ध नहीं हो सकता था। फिर उसने काम को ख़ुद ही अंजाम दिया हो ये ज़रूरी तो नहीं! किसी सालिस की मदद भी ली जा सकती थी। इसी आधार पर उसके दोस्तों को भी उठाया गया। उनसे भी पूछताछ की गई।
पूरे शहर में इस अग्निकांड की चर्चा थी। समाचार चैनलों में इस खबर को दिखाया जा रहा था। स्मिता की माँ और बहनों का रोता हुआ वीडियो सबके सामने था। हॉस्पिटल के बेड पर तड़पती स्मिता रह-रह कर होश में आती फिर बेसुध हो जाती। बेहोशी की हालत में वो अविनाश के साथ थी। अविनाश उसे चूम रहा था। स्मिता को लग रहा था दुनिया में उससे खुशनसीब कोई नहीं है। अविनाश की बाहों में लिपटी स्मिता उसके बालों में अपनी उँगलियाँ घुमा रही थी। कुछ पलों बाद स्मिता भीगी आँखों से बोली, “मुझे हमेशा इतना प्यार करोगे ना?”
अविनाश उसकी आँखों में देख रहा था इस बात के जवाब में उसने स्मिता को फिर से चूम लिया। स्मिता कहने लगी, “कभी धोखा मत देना अविनाश! हम तुम्हारे बिना जी नहीं पाएँगे।”
वो स्मिता के गालों को अपनी हथेलियों से थपथपाते हुए कहता, “ऐसी बातें क्यों करती हो? हम पर भरोसा नहीं है!”
“भरोसा है तभी तो तुम्हारे साथ इतनी दूर चले आए।”
“तब क्यों सोच रही हो इतना।” ये कह अविनाश उसे फिर से चूमने लगता है।
स्मिता उसके गालों को अपनी उँगलियों के पृष्ठ भाग से सहलाते हुए कहती है, “सोच नहीं रही हूँ। बस दिमाग़ में आ ही जाता है कि कहीं तुम बदल ना जाओ।”
“पागल हो तुम”
“हाँ पागल तो हैं ही। तभी तो सब जानते-बूझते इस आग में कूद पड़े हैं।”
स्मिता को सपने में भी आग की तपिश महसूस होने लगती है। उसका शरीर जलने लगा। ऐंठता हुआ बदन पानी में कूदना चाहता है। तभी उसे एक नदी दिखाई देती है वो उसमें जैसे ही कूदने जाती है कोई उसका हाथ पकड़ लेता है। पलट कर देखती है तो वो अविनाश था। ग़ुस्से में चीखती हुई वो अविनाश को थप्पड़ मारती है। फिर भी अविनाश उसका हाथ नहीं छोड़ता। वो और तेज चीखने लगती है।
डॉक्टर्स और नर्सेज़ की भीड़ उसके आस-पास जमा हो गई है। कोई इंजेक्शन लगा रहा है तो कोई उसके रिसते ज़ख्मों पर मलहम लगा रहा है। अटेंडेंट की सीट पर बैठी माँ से उसकी यह हालत देखी नहीं जा रही है।
उनको वो दिन याद आ रहा है जब स्मिता के चाचा वकील को लेकर घर आए थे। अविनाश और उसके पूरे परिवार को बरबाद करने की बातें चल रही थीं। चाचा कह रहे थे,
“उन लोगों ने हमारी बेटी के साथ छल किया है हम उनके परिवार को समाज में मुँह दिखाने लायक़ नहीं छोड़ेंगे।” उनकी बातों से सहमति जताते हुए वकील कहता है,
“अरे! चाचा जी ये हमारी बिरादरी की इज़्ज़त का सवाल है। अगर आज इन लोगों का जवाब नहीं दिया गया तो कल को ये लोग हमारी दूसरी लड़कियों के साथ भी यही सब करेंगे।”
वकील और चाचा की बातों के बीच माँ ने वकील से हाथ जोड़ते हुए कहा था, “उ अबीनास अपना बात में फँसा कर हमार लईकी के जिनगी बरबाद कर देहलस। आप ओकरा के जेल से छूटे मत देब।
“अरे! चाची आप एकदम चिंता मत करिए। ऐसा केस बनाएँगे कि निकलने का रास्ता ही नहीं बचेगा। लेकिन स्मिता जी को हमारा साथ देना होगा।”
आज माँ स्मिता की इस हालत को देख उस दिन को कोस रही थी जब ये सब प्लानिंग हो रही थी। अविनाश पर केस करके क्या फ़ायदा हुआ? उनकी बेटी की तो ज़िंदगी ही ख़त्म हो गई। ऐसी हालत में वो बच भी गई तो ऐसे शरीर के साथ ज़िंदगी कैसे कटेगी?
नींद तो अविनाश की माँ की आँखों में भी नहीं थी। अविनाश के पापा के जाने के बाद उन्होंने दुनिया की हक़ीक़त देख ली थी। लोगों की बदलती नज़रों की धूप इतनी तेज थी कि सारे चटख कपड़े बदरंग हो गए। वह रह-रह कर स्मिता को बददुआ देती। अविनाश की बहन ये सब देख कर परेशान हो रही थी।
“अरे माँ! क्यों इतनी बद्दुआ क्यों भख रही है? उसको कुछ हो गया तो भैया का बचना मुश्किल हो जाएगा।”
“काहें? हमार लईका के का गलती ह। उ लईकी हमरा बाबू के फँसा देहलस …
माँ की बात बीच में काट कर वो बोली, “काहें गलती नहीं है? जब जानते थे कि पापा नहीं मानेंगे तो काहें भागे उसके साथ? जब भागे ही थे तो निभाते। भैया तो धोखा दिए ही हैं उसको। उनके चलते हमारी सहेलियाँ हमसे बात करना छोड़ दी हैं और तू उस लड़की के मरने का भख रही है। उसे कुछ हो गया तो भैया ही नहीं हम सब को भी सजा मिलेगी।”
“अरे जलइलन त नैखन?”
“का जाने? कोई तो आग लगाया ही है ना! अपने से तो जली नहीं होगी।”
बेटी की बात से माँ पर कुछ तो असर हुआ था। वो शांत होकर अपनी तुलसी माला फेरने लगीं।
प्रार्थनाओं को ईश्वर तक पहुँचने में बहुत समय लगता है। स्मिता के पास इतना समय नहीं था। उसकी गवाही इस केस के लिए बहुत ज़रूरी थी। पुलिस ने डॉक्टर्स से कुछ समय माँगा।
“स्मिता हमारा ये जानना बहुत ज़रूरी है कि आग किसने लगाई थी? तुम इशारे से अपनी बात समझा सकती हो।”
स्मिता की आँखें खुलतीं फिर बंद हो जातीं। ये वही आँखें थीं जिन्हें अविनाश बादलों से झांकता चाँद कहता था।
स्मिता के लिए बात करना आसान नहीं था। डॉक्टर्स ने पुलिस को जाने के लिए कहा। तभी स्मिता ने अपनी उँगलियों को हिला कर लिखने का इशारा किया। उसे तुरंत कलम दी गई। जाँच अधिकारी ने अपना नोट पैड उसके हाथ के नीचे रख दिया। स्मिता की काँपती उँगलियाँ हिलने लगीं।
“अविनाश”
कागज़ में आड़े तिरछे रेखाओं द्वारा लिखा ये नाम एकदम स्पष्ट था। जाँच अधिकारी ने पूछा,
“क्या अविनाश ख़ुद वहाँ मौजूद था? उसके साथ कोई और भी था?”
स्मिता बेहोश हो चुकी थी। डॉक्टर्स ने पुलिस वालों को वहाँ से जाने का इशारा कर दिया।
अविनाश चीख रहा था कि उसने कुछ नहीं किया। लेकिन पुलिस को उस पर विश्वास नहीं था। स्मिता की गवाही के बाद शक की कोई गुंजाइश नहीं रह गई थी।
भादो का महीना बीतने को था। पर बारिश थी कि कहीं रूठ कर छिप गई थी। उमस और बेचैनी से भरी सुबह अविनाश की बेचैनी को दिन की ऊब और रात के सन्नाटे से भी ज़्यादा ख़राब लग रही थी। वो इस समय को धकेलने की कोशिश कर रहा था कि स्मिता की मृत्यु की ख़बर ने उसके पैर को रोक दिया।
एक बार फिर से वो सारे दृश्य अविनाश की आँखों के सामने बैठ गए जिन क्षणों में दोनों ने एक दूसरे को प्यार किया था। कैसे सब कुछ बदल गया। पिता की बीमारी ने उसे कमजोर बना दिया या वो पहले से ही कमजोर था। अचानक से अविनाश हंसने लगा। फिर ख़ुद को थप्पड़ मारने लगा। उन्माद की अवस्था में इंसान या तो विकृत हो जाता है या उसे ख़ुद से नफ़रत होने लगती है। अविनाश उन दोनों ही अवस्थाओं के बीच अटक गया था।
अविनाश को फाँसी होगी या उम्रक़ैद इसका फ़ैसला मीडिया के रिपोर्टर्स अपने चैनलों पर करा रहे थे। “प्यार की एक कहानी सुनो” नामक नाट्य रूपांतरण देख कर लोग प्यार को ही कोस रहे थे।
स्मिता की माँ अपनी बेटी की लाश के सामने बैठे वकील और उसके चाचा के चेहरे को ध्यान से पढ़ने की कोशिश कर रही थी। कोई अफ़सोस था वहाँ? कुछ भी ..जो उनकी आत्मा को कचोट रहा हो! आख़िर उन्होंने ही तो योजना बनाई थी..
“तुम्हें बस अपने दुपट्टे में आग लगानी है फिर पुलिस स्टेशन जाकर अविनाश के ऊपर जला कर मारने का आरोप लगाना है। कर लोगी ना? बोलो?”
“स्मिता?”
“हाँ”
माँ के चीखने की आवाज़ आई, हाँ काहें बोली ए बुचिया…
आर्तनाद के इस स्वर में सबकी आँखें भीग रही थीं। भादो आख़िरी बार बरसा था उस दिन…इतना बरसा कि सब कुछ बहने लगा। इस कहानी का सच भी झूठ भी…और प्रेम! वो तो न्यूज़ चैनल्स और अख़बारों से निकल उस शहर की नालियों में बह रहा था।