पीयूष दईया समकालीन कविता में सबसे अलग आवाज रखते हैं. सफलता-असफलता के मुहावरों से दूर. उनकी कविताओं को पढना जीवन को कुछ और करीब से जानना होता है. उनकी तीन नई कविताएं आपके लिए- प्रभात रंजन
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कभी खेलो मत यही खेल है
1।। क़ातिल
स्त्रियों से छल करना सीखना चाहिए
—चाणक्य
एक रूपसी से रसकेलि करते हुए
मेरे हाथ प्यार के सिवाय कुछ न लगा
सो मैं पलट आया
मरदाने तरह से
वक़्त को अपनी जेबों में डाले
आज़ाद
मेरी कल्पना में क़ातिल कला है
ख़़ूबसूरती
2।। फूल
…और फूलों का कल नहीं होता।
—अन्तोनियो पोर्किया।। हिन्दी अनुवाद: अशोक वाजपेयी
अपनी तरह जीना
क्या फूल की तरह है?
फूल का घर नहीं होता
धड़कता हुआ
दिल है वह
अकेला और सुन्दर
स्वच्छन्द और निरपेक्ष
फूल की सुवास
भला किस मसरफ़ की होगी?
फूल को छोड़ सकता है कोई
कभी भी, अभी
(सं)सार में
एक सम्बन्ध से ख़ाली होना
खिलना और बुझना
3।। साँवरी साँबरी पढ़ते हुए
I belong to none…
…Every strong, beautiful, powerful
woman is a witch. —–इप्सिता रॉय चक्रवर्ती
आओ, श्याम
आओ, अंगसखा
कभी खेलो मत यही खेल है
वही, वाताली
वही, बीजरी
वही, शर्वरी
आमुख आदिम
आज़ाद
जानती है वह
इस शक्ति से
चुड़ैल। असौम्य। मानुषी
सुखी सुन्दरी। अदेखा जगाती।
एक असाधारण बांकुरी।
पीछे का घेरा छोड़ आगे बढ़ती।
जादुई योगिनी
ऐसी कि बखानी नहीं जाती।
पुतली बांधती
अलख अपने लोक से
—वह
अनन्या
वषांगना पहली
स्त्रीवादी:
—सुनो–
कभी चौपाल से
कभी घर से
आ रही चीखें किनकी हैं?
सदियों के आरपार
हर बार
जिसे नंगी जलाया गया ज़िंदा
वह तुम हो
अकेली जन्म से
दूसरों के लिए कठपुतली एक
जगाओ ज़हर बदला लो
नाश कर दो हंसो
अथाह
की प्राणी
ऋतु समान अपना
चोला बदल, अदाह्य।
उलट दो
और(त)
भी भीतर ही। सब कर डालो
तवारीख़ में वरना (अ)बला ही
रह जाओगी
अपनी गढ़ी जन्नत में, अनवरत जीने में
कभी न मरने के लिए
आओ, श्यामा
आओ, सखी
नज़र करता हूँ अपने को–