किशोर चौधरी की कहानियों ने पाठकों में खास पहचान बनाई है। हिन्दी युग्म से उनका नया कहानी संग्रह आ रहा है ‘धूप के आईने में’। उसी संग्रह से यह कहानी। किताब की प्री बुकिंग भी चल रही है। आप कहानी पढ़िये अच्छी लगे तो संग्रह की प्री बुकिंग के लिए नीचे दी गई साइट्स की लिंक चटकाइए, नहीं अच्छे पाठक की तरह कहानी का आनंद लीजिये। फिलहाल कहानी- जानकी पुल।
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इन दिनों उसे जो भी मिलता, प्रेम के बारे में बड़े गंभीर प्रश्न करता। जबकि वह कहीं दूर भाग जाने की अविश्वसनीय कार्ययोजना के बारे में सोच रहा होता। उसकी कल्पना की धुंध में गुलदानों से सजी खिड़कियाँ, समंदर के नम किनारे, कहवा की गंध से भरी दोपहरें और पश्चिम के तंग लिबास में बलखाती हुई खवातीनें नहीं होती। उसके ख़यालों में एकांत का कोना होता। जिसमें कच्ची फेनी की गंध पसरी रहती। उस जगह न तो बिछाने के लिए देह गंध की केंचुलियाँ होती ना ही ख़्वाबों की उतरनें। ना वह साहिब होता, ना गुलाम। ना वह किसी से मुहब्बत करता और ना ही नफ़रत हालाँकि अब भी एक लड़की के बदन से उठते मादक वर्तुल उसे लुभाते रहते थे। समय के सींखचों के पीछे आती हुई रोशनी में गुज़रते हुये दिन देखता था। इन दिनों में अपने हाल के बारे में सोचते हुए उसे यकीन होने लगता कि वह कभी प्रेम में था ही नहीं। इन बीते तमाम सालों में जब कभी दुःख से घिरता तो गुलाम फरीद को पढता। जब इच्छाएं सताने लगती तो बुल्लेशाह के बागीचे की छाँव में जाता। जब मन उपहास चाहता तो अमीर खुसरो को खोजने लगता। इस तरह कुछ बुनियादी बातें उसके आस पास अटक जाती कि प्रेम सरल होता है। उसमें गांठें नहीं होती। प्रेम एक वन–वे सीढ़ी की तरह है। उसे कुंडलियों को खोलते हुये केंद्र की ओर बढ़ते जाना है। सच्चे प्रेम का खयाल जब अपने मकसद तक पहुँचता तब पाता कि वह वहीं पर अटका हुआ है। उसी एक लड़की को छू लेने के निम्नतम विचार पर अटका हुआ। उसके घर की बालकनी के बाहर एक निर्जीव क़स्बा था। वह आने वाले किसी धूल भरे बवंडर से घबराया हुआ दड़बे जैसे घरों में दुबका रहता। दिन के सबसे गए–गुज़रे वक़्त यानि भरी दोपहर में बेचैनी जागा करती। रास्ते तन्हाइयों से लिपटे हुए और दुकानदार ज़िन्दगी से हारे हुए से पड़े रहते। कोई ठोर–ठिकाना सूझता ही नहीं। केसेट प्लेयर के आले के सामने लगे हुए आईने में गुसलखाने का खुला हुआ दरवाज़ा दिखता। उसमे लगी खिड़की के पार, दूर एक लाल और सफ़ेद रंग का टावर दिखता तो ख़याल आता कि रात इस जगह वह अपने जूड़े की पिन को मिट्टी में रोप कर भूल गई है। रेत में खड़ी हुई जूड़े की पिन के साथ चली आई उन दिनों की स्मृतियां बुझने लगती तो वह और अधिक उकताने लगता। ख़ुद से सवाल करता। ऐसा तो नहीं होना चाहिए कि एक लड़की से जुड़ी बातें जब तक साथ दे, तब तक ही मैं सुकून में रहूँ। ऐसा हमारे बीच था ही क्या? दीवारों पर बैठे रहे और पीठ की तरफ छाँव बुझती गई। हाथ थाम कर उठे और अँगुलियों में अंगुलियाँ डाले सो गए। घुटने निकली जींस की जगह उसने क्रीम कलर की साड़ी बाँधी और कॉलेज चली गई। मैं वैसी ही जींस और सफ़ेद शर्ट पहने हुए बस में चढ़ गया। आस्तीनों के बटन खोले और उनको ऊपर की ओर मोड़ता गया। जैसे देर तक हथेली को चूमते रहने के बाद आस्तीन के कफ़ सांस लेने के लिए जा रहे हों। वह खिड़की के पास की मेज पर पांव रखे हुए बैठा था। तीसरी बार ग्लास को ठीक से रखने की कोशिश में बची हुई शराब कागज़ पर फैल गई। उसने गीले कागज़ को बल खायी तलवार की तरह हाथ में उठाया और कहा– प्रेम–व्रेम कुछ नहीं होता। उसने कागज़ से उतर रही बूंदों के नीचे अपना मुंह किसी चातक की तरह खोल दिया। वे नाकाफी बूँदें होठों तक नहीं पहुंची नाक और गालों पर ही दम तोड़ गई। हल्का अंधेरा था। बाहर निर्जीव कौम की बसाई हुई दुनिया थी। या दुनिया में एक मरी हुई कौम आकर बस गयी थी। उसने अपनी भोहों पर अंगूठा घुमाते हुए फिर कहना शुरू किया– धुंध में डूबे हुए शहरों की चौड़ी सड़कों पर हाथ थाम कर चलते हुए लोग प्रेम में नहीं होते। वे अतीत की भूलों को दूर छोड़ आने के लिए अक्सर एक दूजे का हाथ पकड़े हुए निकला करते हैं। दोपहरों में गरम देशों के लोग बंद दरवाज़ों के पीछे आँगन पर पड़े हुए शाम का इंतज़ार करते हैं। ताकि रोटियां बेलते हुए बचपन में पीछे छूट गए पड़ौस के लड़के की और शराब पीते समय सर्द दिनों में धूप सेकती गुलाबी लड़कियों की जुगाली कर सकें। सीले और चिपचिपे मौसम वाले महानगरों में रहने वाले लोग टायलेट पेपर के इस्तेमाल के बावजूद प्रेम के लिए समय नहीं निकाल पाते हैं। उनके पर्स में टिकटें साबुत पड़ी रह जाती है। अपनी थकान को कूल्हों से थोड़ा नीचे सरका कर सोने का ख़्वाब लिए शोर्ट पहने हुए मर जाते हैं। धुंध के पार कुछ ही गरम होठ होते हैं, जिन पर मौसम की नमी नहीं होती। प्रेम मगर फिर भी कहीं नहीं होता। अपने आप से कही इस बात के बाद वह उदास हो गया। ये उदासी बहुत पुरानी थी। इसलिए कि ज़िन्दगी की संकरी गलियाँ नमक के देश वाले प्रेम भरे बिछोड़ों जैसी थीं। उनका आगाज़ होता था मगर कोई अंजाम नहीं दिखाई देता था। वे धूप में ओढ़नी के सितारों सी झिलमिलाती हुई कभी दिखाई देती और कभी खो जाती। ऐसे ही एक शाम रेस्तरां जैसे होटल की बालकनी में बैठे हुए उसने कहा था– एक दिन तुम खो जाओगी। उसके इतना कहते ही लड़की ने हल्के असमंजस से देखा। मुंह फेरने से पहले चेहरे पर ऐसा भाव बनाया जिसका आशय था कि तुमसे यही अपेक्षा थी। उसने फिर अपनी नज़र आसमान की ओर कर ली जैसे वहां से कोई इशारा होगा और वह अपनी बात आगे शुरू करेगा। शाम बुझ रही थी। पानी में घुल रहे पुराने नमक से बनने वाले गंदले रंग में ढलती हुई शाम। उसने कहा– मैंने जब तुमको पहली बार देखा तब मैं सिर्फ तुम्हारे चेहरे को देख रहा था। तुम्हारा छोटा सा गोल चेहरा दुनिया के सबसे पवित्र चेहरों में एक चेहरा था। वैसे मैंने पहले भी कई लड़कियों के चेहरे इतने ही गौर से देखे थे किन्तु वे लम्बोतर चेहरे मुझे अधिकार जताते हुए लगते थे। वे हर बात को पत्थर की लकीर बनाने की ज़िद से भरे होते थे। मैंने उनमें से किसी चेहरे को छुआ नहीं। वे मुझे अपनी ओर आकर्षित करते थे लेकिन जाने क्यों वे कभी मेरे पास आये ही नहीं। उसने बात कहते हुए लड़की की ओर नहीं देखा। लड़की क्या सोच या कर रही थी, उसने इसकी परवाह भी नहीं की। उस होटल की बालकनी के नीचे थोड़ी दूरी पर सिलसिले से लगे हुये लेंपपोस्ट रोशनी के गोल टुकड़े बुन रहे थे। उन लेंपपोस्टों के आस पास पतंगों की आमद शुरू हो गयी थी। कुदरत का कोई चित्रकार बालकनी के हर कोने में स्याही उड़ेल रहा था। आँगन पर कुछ एक गोल चकते बचे रह गए थे। वे छन कर आती हुई रोशनी की बिंदियाँ थीं। वह थोड़े अंतराल के बाद कहने लगा– तुम्हें मालूम है कि हमें कुछ भी मिलता और खोता नहीं है। वह हम खुद रचते हैं। तुम जब मेरे पास नहीं होती ना तब हर शाम मैं छत पर बैठ कर तुम्हारे पास होने के ख़्वाब देखता हूँ। मैं बेहद उदास हो जाता हूँ। मैं तुम्हें छू लेने के लिए तड़पने लगता हूँ। मुझे एक ही डर बार–बार सताता है कि कोई तुम्हें छू न ले। ये ख़याल आते ही मैं पागल होने लगता हूँ। मेरा रक्त तेज़ी से दिमाग के आस पास दौड़ने लगता है। उसी समय तुम्हारे सब परिचित मेरे दुश्मन हो जाते हैं। मैं देखता हूँ तुम उनसे बोल रही हो। तुम्हारा बोलना या मुस्कुराना,मुझे और अधिक डराता है फिर मैं रोने लगता हूँ“ सांझ बहुत तेजी से जा चुकी थी। उतनी ही तेजी से लड़की निरपेक्ष हो गयी थी। वह अपनी कुर्सी पर लगभग स्थिर हो चुकी थी। उसने लड़की का हाथ प्यार से थामा। वह नदी के पत्थर सा चिकना था। किन्तु फूल जैसा हल्का न था। शायद लड़की का हाथ टूट कर उसके हाथ में रह गया था। उस रात लड़की ने शिकायत की– कई बार तुम मेरे पास नहीं होते हो ना, तब मेरी सांसें उखड़ने लगती है। मुझे समझ नहीं आता कि क्या करूं? मैं बदहवास सी अपने कमरे से बाहर भीतर होती रहती हूँ। दौड़ती सी सड़क तक जाती हूँ। दुकानों की रोशनियों से ख़ुद को बहलाना चाहती हूँ। वहां कुछ नहीं होता। तुम नहीं होते तो सब खाली हो जाता है। फिर रात को सोचती हूँ कि तुम्हें हमेशा के लिए छोड़ दूं ताकि ये दुख बार–बार लौट कर न आये। लड़की की आँखों से आंसू बहने लगे। उस रात के बाद वे जब भी मिलते लड़की रात को अपने संदूक में छिपा कर मुंह फेर लेती। चार महीनों में लड़की ने उस संदूक को भी गायब कर दिया। उसके पास अगर रात होती तो लड़की नहीं होती। लड़की होती तो रात नहीं होती। उसने रात को काटने के लिए नए औज़ार अपना लिए। अब उन्हीं औज़ारों के साथ जी रहा था। लड़की ने उससे कहा था– ज़िंदगी में एक ही लम्हा था। जब तुम्हारे सहारे की ज़रूरत थी। उसके भविष्य पर रखे हुये इस ज़िंदा भूतकाल को याद करते ही उसके गाल पर एक पसीने की लकीर खिंच गई। उसने गुसलखाने की खिड़की से देखा कि वह लाल सफ़ेद रंग की पिन किसी ने उखाड़ कर अपने जूड़े में लगा ली है। बवंडरों के डर से बंद पड़े रहने वाले घर केंचुओं की तरह धूल में खो गए हैं। दूर तक ज़मीन समतल हो गई है। दुकानें, सरकारी दफ्तर, मुसाफ़िरखाने, पुरानी हवेली की टूटी हुई मेहराबें और सब कुछ गायब हो गया है। उसने दीवार के सहारे को हाथ बढ़ाया तो वहां दीवार नहीं थी। नीचे देखा तो गुसलखाना भी नहीं था। उसने धरती को टटोलने के लिए पैर के अंगूठे की नोक से कुछ छूना चाहा। किन्तु अंगूठा सिर्फ़ हवा में लहरा कर रह गया। उसने ख़ुद के सीने पर हाथ रखना चाहा ताकि देख सके कि वह धड़क रहा है या नहीं?लेकिन वहां कुछ नहीं था। उसने अपने पसीने की ओर हाथ बढाया तो सिर भी गायब था। वह लगभग गश खाकर गिरने को ही था। उस वक़्त उसके हाथ में कलम थी। इस तरह गश खाकर गिरने से पहले उसने कलम की नोक को बचा लिया ताकि दोबारा ये लिख सके कि वास्तव में प्रेम कुछ नहीं होता। सबसे अच्छा होता है तुम्हारे पास सट कर बैठना।
(यह कहानी आउटलुक के नवम्बर 2013 अंक में प्रकाशित है और हिंद युग्म से शीघ्र ही प्रकाश्य किताब ‘धूप के आईने में‘ में संकलित है। किशोर ने पिछले 3-4 सालों में अपने ब्लॉग हथकढ़ के माध्यम से पाठकों के बीच एक ख़ास पहचान बनाई है। पिछले साल प्रकाशित किशोर चौधरी का कहानी-संग्रह ‘चौराहे पर सीढ़ियाँ‘ ऑनलाइन माध्यमों से हिंदी की सर्वाधिक बिकने वाली किताबों में शुभार है। इस किताब का दूसरा संस्करण मात्र 2 महीने के अंतराल में छपा)
इन दिनों किशोर चौधरी के कहानी-संग्रह ‘धूप के आईने में‘ की ऑनलाइन प्रीबुकिंग चल रही है। इसकी प्रतियाँ इनमें से किसी भी वेबसाइट से बुक कराई जा सकती हैं-
@Infibeam: http://www.infibeam.com/Books/dhoop-ke-aayine-mein-hindi-kishore-chaudhary/9789381394762.html (मात्र रु 76 में, कैश ऑन डिलीवरी सुविधा के साथ)
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