मैं बाँझ नही हूँ
नहीं हूँ कुलटा
कबीर की कुलबोरनी नहीं हूँ । न केशव की कमला हूँ
न ब्रहमा की ब्रह्माणी
न मंदिर की मूरत हूँ। नहीं हूँ कमीनी, बदचलन छिनाल और रंडी
न पगली हूँ, न बावरी
न घर की छिपकली मरी हुई
फिर भी
मैं सुनती हूँ यह सब कुछ डरी हुई। नींद में सुनती हूँ गालियाँ दुत्कार
मुझे दुत्कारता यह
कौन है ….कौन है ……कौन है…..
जो देता है सुनाई
पर नहीं पड़ता दिखाई
हर तरफ छाया बस
मौन है मौन है मौन है।
मेरे बचपन की पहचान
जब तक रही मैं माँ के साथ
वह अक्सर दिखाती मुझे फोटो
कहती यह तुम हो और यह गुड्डू
तुम्हारा भाई जो नहीं रहा।
माँ अक्सर रोती इस फोटो देख कर
जबकि फोटो में हम भाई-बहन
हँसते थे बेहिसाब,
हालांकि भाई के साथ होने या हँसने की
मुझे कोई याद नही है। यह फोटो मैं ले आई मायके से ससुराल
छिपा कर सबसे,
विदा होने के पहले रखा मैंने इसे किसी-किसी तरह
अपने बक्से में,
जब घर के लोग मुझे लेकर भावुक होकर रो-रो पड़ते थे। बाद में माँ ने मुझसे पूछा कि
वह गुड्डूवाली फोटो है क्या तुम्हारे पास,
यहाँ मिल नहीं रही है।
मैं चुप रही
फिर बोली
नहीं है वह फोटो मेरे पास । माँ ढूँढती है
अब भी घर का एक एक संदूक और हर एक एलबम
पर यह फोटो नहीं मिलती उसे।
भाई हो
भाई तुम पानी नहीं भाई हो
बल्कि कह सकती हूँ साफ–साफ
कि पिता कि कोई जगह नहीं तुम्हारे आगे।
लेकिन भाई तुम ही बताओ
उस भाई का क्या करें
जो तुम्हारी ही तरह भाई है हमारा
जो खोटे सिक्के सा फिर रहा है
इस मुट्ठी से उस गल्ले तक
उस भाई ने
किया है छल कहीं ना कहीं खुद के साथ ही
तो क्या उसकी सजा कहें भाई को
या कि सिर्फ
भाई को। भाई जो मर्यादा है मुकुट है किसी का
उस भाई का क्या करें
उसे रहने दें यूँ ही
गुजरने दें । माँ बाप तो सिर्फ जन्म देते हैं
युद्ध में तो भाई ही भाई को हथियार देता है
सो युद्ध के संगी रहे भाई को हथियार दो
युद्ध के गुर सिखाओ भाई को । तुम तो जानते हो
कि उस भाई ने हमेशा मुंह की खाई है
सब कुछ जानते ही नहीं पहचानते भी हो कि
जब भी आएगी दुख की घड़ी
भाई ही तुम्हारा संगी होगा
जूझने के गुर सिखाओ उस भाई को । अब क्या –क्या कहूँ तुमसे
पर जी होता है
कि एक टिमकना लगाऊँ तुम्हारे माथे पर
ताकि दुनिया-जहान की नजर ना लगे तुम्हें
भाई तुम ईश्वर नहीं
भाई हो
भाई तुम पानी नहीं भाई हो
बल्कि कह सकती हूँ साफ-साफ
कि पिता कि कोई जगह नहीं रही
तुम्हारे आगे।
तुम्हारी कविता से जानती हूँ
तुम्हारे बारे में
तुम सोचते क्या हो,
कैसा बदलाव चाहते हो
किस बात से होते हो आहत
किस बात से खुश
तुम्हारा कोई बायोडाटा नहीं मेरे पास
फिर भी जानती हूँ मैं
तुम्हें तुम्हारी कविताओं से क्या यह बडी़ बात नही कि
नहीं जानती तुम्हारा देश ,
तुम्हारी भाषा तुम्हारे लोग
मैं कुछ भी नहीं जानती ,
फिर भी कितना कुछ जानती हूँ
तुम्हारे बारे में तुम्हारे घर के पास एक
जंगल है
उस में एक झाड़ी
है अजीब
जिस में लगता है
जिसके नीचे रोती है
विधवाएँ रात भर
दिन भर माँजती है
घरों के बर्तन
बुहारती हैं आकाश मार्ग
कि कब आएगा तारन हार
ऐसे ही चल रहा है
उस जंगल में बताती है तुम्हारी कविता
कि सपनों को जोड़ कर बुनते हो एक तारा
और उसे समुद्र में डुबो देते हो।
कितनी पुरानी है मेरी इच्छा
मैं तुम्हें काजल बनाना चाहती हूँ..
रोज–रोज थोड़ा आँज कर
थोड़ा कजरौटे में बचाए रखना चाहती हूँ….
तुम धूल की तरह धरती पर पड़े हो..
धूल …..
पैरों में ही अच्छी लगती है
आँखों में नहीं जानती हूँ…
फिर भी ..
मैं तुम्हे जलाकर
काजल बनाना चाहती हूँ…..
दीये की लौ से
कपूर की लपट सेकाजल बनाना बताया था माँ ने
सभी बना लेते हैं काजल..उस तरह …
मेरे मन पर छाए हो तुम …
मैं तुम्हें एक बार नहीं हर दिन हर रात
हर साँस हर पल अपनी पलकों में
रखना चाहती हूँ…
चाहती हूँ रोने के बाद भी तुम बहों नहीं…रहो..
एक काली पतली सी रेख…चमकती सी.. तुम रहो मेरी आँखो में
मेरी छोटी–छोटी असुंदर आँखों में…
मेरी धुँधली मटमैली आँखों में रहो…
ऐसी है मेरी पुरातन इच्छा.
अजर अमर इच्छा।
यहाँ नदी किनारे मेरा घर है
घर की परछाई बनती है नदी में ।
रोज जाती हूँ सुबह शाम नहाने गंगा में
गंगा से माँगती हूँ मनौती
एक बार देख पाऊँ तुम्हें फिर
एक बार छू पाऊँ तुम्हें फिर ।
कि कभी मेरी सुधि आती है
कब पूरी होगी मेरी कामना
ऐसी कुछ कठिन माँग तो नहीं है यह सब
कि किसी जनम हम तुम
एक ही खेत में दूब बन कर उगें
तुम्हारी भी कोई इच्छा हो अधूरी
तो मैं गंगा से माँग लूँ
मनौती,
चलो हम दीया बन जाते हैं
और तुम बाती …
हमें सात फेरों या कि कुबूल है से
क्या लेना–देना
हमें तो बनाए रखना है
अपने दिया बाती के
संबंध को……… मसलन रोशनी
हम थोड़ा–थोड़ा जलेंगे
हम खो जाएँगे हवा में
मिट जाएगी फिर रोशनी भी हमारी
पर हम थोड़ी चमक देकर ही जाएँगे
न ज्यादा सही कोई भूला भटका
खोज पाएगा कम से कम एक नेम प्लेट
या कोई पढ़ पाएगा खत हमारी चमक में ।
तो क्या हम दीया बन जाए
तुम मंजूर करते हो बाती बनना।
मंजूर करते हो मेरे साथ चलना कुछ देर के लिए
मेरे साथ जगर–मगर की यात्रा में चलना….कुछ पल।
11 Comments
सहज भावनाओं की सहज एवं बेलाग अभिव्यक्ति. घरेलू दिखती हुई भी इन कविताओं की भाव भूमि की व्याप्ति विस्तृत है. ये कविताएं बेचैन भी करती हैं, साथ ही आश्वस्त भी करती हैं, इस दृष्टि से कि घरेलू दिखने के बावजूद ये कविताएं दीन-दुनिया की खबर रखती हैं, और खबर लेती भी हैं.
जानकीपुल कायम रहे। आशुतोष, मिसिर जी और विपिन के साथ सबका आभार।
achhcaee kavitayen
सहज मन की भावनाएं व्यक्त हुई हैं इन कविताओं में ! अधिकतर एक स्त्री अपने घरेलू परिवेश से घिरी रहती है लेकिन आभा जी की कविताओं में घर,रिश्तों के साथ-साथ देश की भी चिंता शामिल है यह एक अच्छी बात है !
बेचैन करने वाली कवितायें .
Pingback: buy cvv
Pingback: health tests
Pingback: superkaya88 login
Pingback: Samui International muay thai stadium
Pingback: nagaway สล็อต