शारदा सिन्हा को याद करते हुए यह परिचयात्मक लेख लिखा है पीयूष प्रिय ने – अनुरंजनी
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‘कोयल बिन बगिया ना सोहे राजा’
एक आवाज जो आप चाहे साल भर में ना सुने मगर दो महीने, चैत और कार्तिक में जरूर सुनेंगे। इन महीनों का तीन-चार दिन कुछ ऐसे गुजरता है जिसमें आप पॉप, रेट्रो, आदि सबसे दूर हो जाएंगे और वह दूर कर देने वाली आवाज है लोक गायिका ‘शारदा सिन्हा’ की बल्कि यों कहूँ कार्तिक महीना तो बिना शारदा सिन्हा के किसी बिहारी के घर में प्रवेश नहीं करता।
बिहार के जो भी लोग बिहार से बाहर रहते हैं, छठ पर्व के समय यह कहते हैं कि “छठी मैया बुला रही है” या जो बैचलर पढ़ने के लिए बाहर रहते हैं, नौकरी कर रहे होते हैं, वह भी कहते हैं कि “मम्मी छठ कर रही है इसलिए बुला रही है और जाना ही पड़ेगा”। इन सब के बीच एक और आवाज जो सभी बिहार के लोगों को बिहार की ओर खींचती है वह आवाज है शारदा सिन्हा की। शारदा सिन्हा की आवाज न सिर्फ बिहारिओं को बिहार की ओर खींचती है बल्कि पूरी दुनिया को बिहार के लोकगीतों से परिचित करवाती है। अभी 2 दिन पहले मेरे एक मित्र ने शारदा सिन्हा के एक छठ गीत का वीडियो भेजा और कहा कि “भाई! मैं इससे पहले मैं नहीं जानता था कि भोजपुरी में ऐसे अच्छे गाने और गीत भी बनते हैं।” यह स्पष्ट संकेत करता है कि बिहार से बाहर हमारे अच्छे गीतों को या गानों को लोग शारदा सिन्हा के माध्यम से ही जानते हैं।
शारदा सिन्हा के गीत बिहार में सांस्कृतिक उत्सवों, खासकर छठ पूजा का पर्याय बन गए हैं। हर साल, त्यौहारों पर उनकी आवाज़ गूंजती है और उनके प्रदर्शन परिवारों और समुदायों को परंपरा के उत्सव में एक साथ लाते हैं। “डोमिनी बेटी सुप लेले थार छे,” “अंगना में पोखरी खानैब”, मोरा भैया गेल मुंगेर”, “सोना सट कुनिया, हो दीनानाथ हे घूमइछा संसार, हे घूमइछा संसार” जैसे क्लासिक गानों के साथ उन्होंने ग्रामीण बिहार के सार को पकड़ा और इसे देश भर के श्रोताओं के दिलों तक पहुँचाया। ये गीत अविश्वसनीय रूप से लोकप्रिय हैं और पीढ़ियों द्वारा संजोए गए हैं जो उनके संगीत को सांस्कृतिक गौरव और सामुदायिक उत्सवों की यादों से जोड़ते हैं।
उन्हें लोक संगीत या लोकगीत की शास्त्रीय अभिव्यक्ति को गरिमा प्रदान करने का श्रेय दिया जाता है, जिसे कभी-कभी मुख्यधारा के शोर में अनदेखा कर दिया जाता है और खो दिया जाता है। इसके अलावा उन्होंने आम जनता के साथ-साथ वर्गों के बीच इसकी लोकप्रियता को बढ़ावा दिया है।
उनके गीतों में उनसे पहले की कई पीढ़ियों के लोक गायकों की आवाज़ गूंजती है, उनकी आवाज़ ज़मीनी है और घर की यादों से ओतप्रोत है। शारदा सिन्हा, जिन्हें ‘मिथिला की बेगम अख्तर’ भी कहा जाता है।
बॉलीवुड में उनकी सफलता फिल्म ‘मैंने प्यार किया’ (1989) के “काहे तो से सजना” से मिली। एक प्रमुख बॉलीवुड फिल्म में दिखाए गए इस भोजपुरी लोकगीत ने व्यापक दर्शकों को उनकी प्रतिभा और क्षेत्रीय लोक संगीत से परिचित कराया। हालांकि, हर कोई इस तथ्य से वाकिफ नहीं है कि मैंने प्यार किया के निर्देशक सूरज बड़जात्या ने महान लोक गायिका शारदा सिन्हा को ‘कहे तो से सजना’ गाने के लिए केवल 76 रुपये का भुगतान किया था। फिल्म के मुख्य अभिनेता सलमान खान से उनकी फीस की तुलना करें तो उन्हें अपनी पहली फिल्म में मुख्य भूमिका निभाने के लिए 30,000 रुपये की अच्छी रकम दी गई थी। इतने दशकों के बाद शारदा सिन्हा ने सभी का ध्यान तब खींचा जब मशहूर वेब सीरीज महारानी के उनके गाने ‘निर्मोहिया’ को सोशल मीडिया पर खूब पसंद किया गया।वासेपुर सीरीज की कंपोजर स्नेहा खानवलकर ने सिन्हा की आवाज को “सुधामय” बताया और याद किया कि उनकी पहली मुलाकात कैसे हुई थी। खानवलकर ने फिल्म के संगीत के निर्माण के बारे में एक वीडियो में बताया, “अनुराग (कश्यप) ने सुझाव दिया, ‘क्या आप शारदा जी को आजमाना चाहते हैं?’ इसलिए मैं उनके घर गई और मैंने उन्हें कुछ पंक्तियां सुनाई। वह अपना हारमोनियम लेकर आईं और वे पंक्तियां गाईं, तो मुझे लगा कि यह सबसे अच्छा है…।”
बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश की संस्कृति के समृद्ध ताने-बाने में बुने लोकगीतों का पर्याय बन चुकी गायिका का मंगलवार रात को मल्टीपल मायलोमा से लंबी लड़ाई के बाद निधन हो गया। यह 5 नवंबर को हुआ जब छठ पूजा का पहला दिन था, एक ऐसा त्योहार जिससे वह हमेशा जुड़ी रही हैं, यह जीवन और भाग्य के अजीब मोड़ों में से एक है। जिस पर्व के गीत गाने को उन्होंने जिम्मा लिया उसी पर्व ने उनको विदा करने का भी जिम्मा लिया।लाखों लोगों के लिए, चाहे वे घर पर हों या हज़ारों मील दूर, उनकी आवाज़ दिल को छूती थी और छठ का आह्वान करती थी, जो सूर्य देवता को समर्पित एक त्योहार है और पूर्वांचल तथा बिहार के सांस्कृतिक कैलेंडर में सबसे बड़ा त्योहार है। वह हमेशा छठ के दौरान एक गाना रिलीज़ करती थीं और इस साल भी उन्होंने अपनी खराब सेहत के बावजूद ऐसा किया। शारदा सिन्हा ने भोजपुरी और मैथिली के आधुनिकता को पूरी दुनिया से परिचित करवाया। लोकगीत पर अडिग रहना यह हमें शारदा सिन्हा सिखाती है। कितनों ने वैश्वीकरण और आधुनिकता को देखकर इस मार्ग को छोड़ दिया और भटक गए मगर शारदा सिन्हा इसी में लीन रहीं और बाकियों से कहीं ज्यादा मुकाम हासिल की। लोकगीतों को आज के आधुनिक दौर में जनमानस के बीच में जिंदा रखना अपने आप में एक बहुत बड़ी बात है मगर शारदा सिन्हा के अलावा बिहार के लोकगीतों को जनमानस तक पहुंचाने के लिए क्या प्रयास किया जाएगा?उनके जाने के बाद इसमें थोड़ा संदेह है।अगर लोगगीत और गायकी एक बगिया है तो इस बगिया की कोयल ने हमसे विदा ले लिया। हम जानते हैं कि जब तक बिहार में सांस्कृतिक कार्यक्रम, समारोह, पर्व मनाया जाएंगे तब तक इनकी आवाज गूंजती रहेगी।वैसे उनका हीं यह गीत है ना कि “कोयल बिन बगिया ना सोहे राजा…”।