यह किसी भी रचना की महत्ता होती है कि वह पाठक को कितने समय तक और किस तरह से अपने से बाँधे रखती है।इसके साथ कई बार यह जुड़ाव किसी पात्र से भी हो सकता है। जुड़ाव ऐसा जिससे आप संवाद करना चाहें। इसमें अलग तरह की छटपटाहट महसूस होती है और संवाद की जगह एकालाप ले लेता है। गरिमा श्रीवास्तव का उपन्यास ‘आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा’ भी कइयों के मन में बेचैनी उत्पन्न करने वाली रचना है। इसे पढ़ते हुए नायिका प्रतीति सेन से डॉ. सुमिता एकालाप कर रही हैं। आप भी पढ़ सकते हैं – अनुरंजनी
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तुम्हारे मोह में आविष्ट हो गयी हूँ प्रतीति सेन
समय के भीषण अन्धकारमय और सबसे दर्दनाक सफ़्हे को अपनी नज़रें सौंप देने का अदम्य साहस रोंगटे खड़े कर देने वाला होता है। यह साहस किस अतल से शोध लाई तुम? तुम तो गुरु ठाकुर का पद गाती हुई प्यारी सी चुलबुली लड़की थी? “आमारो परानो जाहा चाय तुमि ताई गो”… कितना डूबकर गाती थी तुम कि यह पद ही तुम्हारा जीवन हो गया! और फिर हृदय-ध्वंस का गहनतम सन्नाटा! फिर तो भीषण से भीषण, सर्द से सर्द दर्द की आँच कुंदन बनाती जाती है। यह तथ्य जानती तो थी तुम फिर भी यह प्रयोग ख़ुद पर आजमाने को उद्धत हो गयी। इल्म को सबसे दर्दीले पैरहन देने का साहस बिरला ही कोई कर पाता है। हृदय के हाहाकार को अनसुना कर देने की जिद्द में ही थाम लिए गए तुम्हारे इस साहस को सलाम तो बनता ही है प्रतीति सेन।
दुनिया का कोई भी हिस्सा हो, मनुष्य पर मनुष्य की बर्बरताओं की कहानियाँ एक सी ही विध्वंसकारी हैं। युद्ध, धर्मान्धता, राष्ट्रों की बनती बिगड़ती सीमाएँ, किसी तानाशाही का क्रूर फ़ितूर… कितना तो सहा है मानवता ने, लेकिन कोई सबक सीख लेने की प्रवृत्ति ही नहीं है। इसकी डिफॉल्ट सेटिंग्स में यह सॉफ्टवेयर है ही नहीं। तिसपर औरतों की भुगती हुई यंत्रणाएँ… उफ़्फ़! वे कौन लगती हैं इस दुनिया की? जीवित समझी जाती हैं क्या? कभी भी कहीं भी उनपर घृणा की मिट्टी डाल दो… मिट्टी एक मन हो या नौ मन भला क्या फ़र्क़ पड़ना चाहिए मुर्दे को? कितना भी कहा-सुना जाए, पूरी तो कभी कही ही नहीं जा सकती। खोई हुई आत्माओं वाली पत्थर सी देह लिए मनुष्यों की संवेदनाएँ किन पातालिक निविड़ों में लापता हो जाती हैं प्रतीति सेन? क्या तुम्हें इनके पते का कुछ पता चला है प्रतीति सेन?
हाँ, तुम्हें ज़रूर पता चला है। जबकि तुम नहीं जानती कि तुम्हारा बाप कौन था या तुम्हारी माँ कौन-कहाँ-कैसी थी। तुम तो अपनी नानी रहमाना ख़ातून उर्फ़ द्रौपदी देवी के जीवन भर की साधना रही, जिन्होंने कितने जतन किए कि तुम्हारा नाम प्रतीति सेन पड़ा। पोलैण्डवासी सबीना से तुम्हारी मैत्री की वजह सिर्फ़ अकादमिक तो नहीं ही थी जिससे मिलने को तुम उसके देश चल पड़ी थी। तुम धरती के एक ठण्डे स्थान की ओर जा रही थी जबकि तुम्हारा दग्ध मन अंतरतम की विवश अंतर्यात्रा कर रहा था। ‘फैले तो ज़माना है’ को आत्मसात करती हुई तुम असाधारण आत्मीयताएँ गाँठ सकी। आत्मीयताओं के रंगों की कीमिया तुम निश्चित ही जानती हो, तभी तो अलग-अलग देशों और अलग-अलग कालों में निरन्तर यात्राएँ सम्भव करती हो। बाहर और भीतर की दुःसाध्य एकान्तिक यात्राएँ… मन पर पीड़ाओं के कितने रंगों की कितनी परतें चढ़ती जाती हैं न प्रतीति सेन!
ऐसी ही हो रही है मेरे मन की भी दशा, जितना ही तुम्हें पढ़ती जा रही हूँ…
सुना है अरबों साल पहले महाविस्फोट से ब्रह्माण्ड का जन्म हुआ था। अकल्पनीय ऊर्जा, गति (फैलाव) और ताप के साथ ही साथ पदार्थ (मैटर) और प्रतिपदार्थ (एन्टीमैटर) भी समान संख्या में कण रूप में पैदा हो रहे थे, जो एक दूसरे को नष्ट करते जा रहे थे। लेकिन बहुत धीरे-धीरे ब्रह्माण्ड का ताप कुछ कम होने लगा। ब्रह्माण्ड के ठण्डा होते जाने के साथ प्रतिपदार्थ कणों की तुलना में पदार्थ कणों की संख्या में सूक्ष्म वृद्धि होने लगी। इस अत्यंत छोटी सी बढ़त से ही धीरे-धीरे यह ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया जिसे आज हम पहचानते हैं और जिनसे ही आख़िरकार पृथ्वी पर जीवन सम्भव हुआ है।
सोचती हूँ मानवीय प्रवृत्तियाँ भी पदार्थ और प्रतिपदार्थ के तर्ज पर ही हैं । प्रेम (सकारात्मकता) और घृणा (नकारात्मकता) एक दूसरे को नष्ट करती चलती है। फिर भी यदि अभी तक जीवन निर्बाध रूप से आबाद है, तो नगण्य ही सही, प्रेम और सद्भाव की बढ़त की वजह से ही है।
सोचती हूँ आख़िर राष्ट्रवाद, धर्मवाद, नस्लवाद, शुद्ध रक्तवाद, के नाम पर तोपवाद, बुलडोजरवाद, बमवाद आदि के भीषण रक्तपात कभी कम क्यों नहीं होते? दुर्दान्त बर्बरता से मलिन हुए मनुष्यता के उजास के भीषण परिणामों को भुगतने के बावजूद मनुष्य चेतता क्यों नहीं? धरती, आकाश छोटे क्यों पड़ जाते हैं कि निर्णायक फ़तह औरतों की देह पर ही होती है? कुचल दी गयी आत्मा और स्वत्व से हीन कर दी गयी देहों के साथ जीने को विवश औरतों का कौन सा धर्म, कौन सी जात, कौन सा देश, कौन सी नागरिकता? कोई कुछ बताता क्यों नहीं?
प्रतीति सेन! तुम्हारी कथा पढ़ते हुए कुछ दिन पहले देखा और विस्मृत हो चुका यह दुःस्वप्न झम्म से याद आ गया है… सुनना चाहोगी?
किसी परिचित से मिलने उनके घर आए हैं हम। अब वापस लौटना है। मैं दरवाजे पर अपनी चप्पल पहन रही हूँ। पति जल्दी करने को कहते हैं कि एक जीप जो बस चल पड़ने को तैयार है जो हमें घर पहुँचा देने वाला है इसलिए मैं जल्दी करूँ। हम जीप में सवार होते हैं। मैं एक किनारे पर बैठी हूँ। मुझे पाँवों में असहजता महसूस होती है। शायद जल्दबाज़ी में मैंने ग़लत चप्पल पहन लिया है। मैं पाँवों की ओर झुकती हूँ कि अचानक जैसे कोई धमाका होता है। जब होश आता है तो ख़ुद को एक अजीबोग़रीब खुली छत पर लेटी हुई पाती हूँ। अब बेटी भी है साथ में। जल्दी से उठकर खड़ी होती हूँ। बिटिया का हाथ पकड़कर सीढ़ियाँ उतरने लगती हूँ। सबकुछ अजीब और अजनबी है। भयभीत करता हुआ। जैसे किसी ने अपहरण कर हमें यहाँ पहुँचा दिया हो। हम कई मंज़िल उतरते हैं। मंज़िलों पर कमरे भी हैं जिनके दरवाज़े खुले हैं। संगीत-नृत्य (कथक जैसा) की आवाज़ें आ रही हैं लेकिन कोई व्यक्ति नहीं दिखता। सीढ़ियों से नीचे झाँकती हूँ। अंतहीन सीढ़ियाँ हैं। हताश और पस्त हूँ। बेटी का हाथ पकड़े हुए फिर से छत की ओर जाती हूँ यह सोचती हुई कि शायद छत से बाहर की ओर कुछ दीख सके। सबसे ऊपरी सीढ़ी से छत की ओर निकलने के बीच एक दरवाज़ा और ढलाई किया हुआ छोटा सा छज्जा है। मैं बेटी को वहीं बैठने को कहती हूँ कि वहाँ लेटे हुए अर्द्धमूर्छित मरियल से एक अधेड़ पर नज़र पड़ती है। वह शायद नशे में अर्धबेहोश है। उससे कुछ पूछूँ या नहीं, भयभीत और सशंकित हूँ। तब देखती हूँ कि मेरे शरीर पर मेरे कपड़े नहीं हैं। एक छोटा सा सफ़ेद गमछा है जिससे ख़ुद को ढँकने की नाकाम कोशिश कर रही हूँ। मेरे कपड़े कहाँ हैं जैसा कुछ कहती हूँ कि अर्धमूर्छित अधेड़ कुछ बड़बड़ाता है जिससे यह समझ आता है कि हम एक ऐसी क़ैद में हैं जिससे अब छुटकारा सम्भव नहीं। मैं छत की बाउंड्री के पास आती हूँ। यह बहुत ऊँची है लेकिन इसपर ही जैसे-तैसे पाँव टिकाकर इसके ऊपरी सिरे से झाँकने की कोशिश करती हूँ। भय और निराशा से भौंचक हूँ। चारों ओर जहाँ तक देख सकती हूँ, एक दूसरे से पीठ टिकाए सफ़ेद दीवारों वाली एक जैसी आकार-प्रकार-स्थापत्य वाली छतें ही छतें हैं, इतनी गझिन और इतनी विस्तृत कि यह जान पाना असम्भव है कि ये छतें धरती से कितनी ऊँचाई पर हैं या कितनी दूरी तक फैली हैं। जाने कितने किलोमीटर के रेडियस में। छतों के विस्तार के ऊपर सिर्फ़ आकाश है। थोड़ा प्रयत्न करूँ तो पड़ोस वाली छत पर कूद सकती हूँ, लेकिन किस ओर जाऊँ कि छतों के असीम से बाहर निकल सकूँ? किसी फिल्म में देखे रेगिस्तान में तपते हुए कफ़न सरीखे सफ़ेद तम्बुओं का दृश्य कौंध उठता है, जिनके बीच से हवा तक गुज़रने की गुंजाइश नहीं है। हमें खोजते हुए मेरे पति भला किस तरह पहुँच सकेंगे यहाँ? इस क्षेत्र तक पहुँच भी आएँ तो हम किस छत वाले भवन में क़ैद हैं, यह जान सकना नामुमकिन है। मेरी आँखों में आँसू और पति का बदहवास मुख एक साथ तैर आएँ। मैं फिर से छतों को देखकर अनुमानने की कोशिश करती हूँ कि किस ओर छत से छत पर निकलकर ‘बाहर’ हुआ जा सकता है… किस ओर जाऊँ… कहीं और भीतर की ओर, केन्द्र की ओर तो नहीं चली जाऊँगी? बेटी की याद आती है। उसकी सुरक्षा की चिंता में और अधिक हताश हूँ। बदहवास हूँ। गला सूख रहा है। गला रुँध रहा है। पसीने से तर इसी बदहवासी में नींद से जाग पड़ती हूँ।
राहत मिलती है कि यह सच नहीं, स्वप्न था।
हम किस छत वाले भवन में क़ैद हैं, यह जान सकना नामुमकिन है… शायद इसे ही जान लेने की जी-तोड़ कोशिश में इन्सान मल्टीवर्स और मोक्ष की अवधारणा तक पहुँचा होगा।
इसी एक दुनिया में कैसी-कैसी दुनियाएँ मौजूद हैं। ये ग्रह, नक्षत्र, तारें, कृष्ण विवर और एक-एक प्राणी अपनी-अपनी एक दुनिया लिए डोल रहा है… इस छोर से अछोर तक जैसे तुम डोल रही हो बांग्ला देश से भारत और पोलैण्ड के बीच। सोचती हूँ कि एक बाहर और एक भीतर- दो यातनास्पद यात्राओं में होना कैसे सम्भव होता यदि यह प्रेमकथा न कहलाता। दर्दनाक कड़वी गोली के ऊपर शुगर की कोटिंग, वह भी जहाँ-तहाँ से दरकी हुई।
द्वितीय विश्व युद्ध में नाजियों द्वारा बनवाए यातना गृहों में सबसे दुर्दान्त था पोलैण्ड में स्थित आउशवित्ज़-बिर्कानेऊ यातना गृह। आउशवित्ज़-बिर्कानेऊ कैम्प की धरती को स्पर्श करते तुम्हारे पाँवों की शिराएँ इसकी धमनियों से जुड़ जड़ हो गए थे। निश्चल और अडोल। जैसे यहाँ कोई शक्तिशाली सोख्ता हो जिसने सोख लिया हो तुम्हारे अस्तित्व की समूची ऊर्जा को। इन यातना गृहों में स्त्री-पुरुषों पर कैसे-कैसे अमानुषिक अत्याचार किए गए, कितनी यातनाएँ देकर मार डाले गए … इसका हिसाब नहीं। तकलीफ़देह स्मृतियों से आँखें मिलाने को बहुत हिम्मत चाहिए प्रतीति सेन। निश्चय ही तुम बहुत हिम्मती हो। मनुष्य की बर्बरता के स्याह पन्नों के अँधियारे में ग़र्क होने को प्रस्तुत हो जाना कोई मामूली बात तो नहीं!
तुम्हारी यात्रा से गुज़रते हुए होलोकास्ट से सम्बन्धित देखी हुई कितनी ही फिल्मों की याद आई मुझे। कितनी ही फिल्मों के कितने ही दृश्य अबतक ताज़ा हैं ज़ेहन में। कभी विस्मृत ही नहीं होतीं। पोलैण्ड के ही तो थे फिल्मकार पीटर बाक्चो। दो दशक पहले बम्बई (तब यही नाम था) में अस्सी वर्षीय इस निर्देशक को देख पाना रोमांचक अनुभव था और उनकी होलोकास्ट सम्बन्धी पोलिटिकल सटायरिकल फिल्में… व्हाट इज टाइम मिस्टर क्लॉक, स्किन बनाना वाल्ट्ज सहित आठ फिल्में; रूस, जर्मनी आदि कई देशों के निर्देशकों द्वारा बनाई गई कितनी ही फिल्में… बॉय इन स्ट्रिप्ड पजामा, शिण्डलर्स लिस्ट, लाइफ इज ब्यूटीफुल, द पियानिस्ट… आह! सभी याद आते जा रहे हैं एक-एक कर। अब तो इंटरनेट पर ऐसी बहुतेरी फिल्में उपलब्ध हैं। लेकिन यह भी सच है कि भारत-पाकिस्तान या भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश बँटवारे के समय स्त्रियों की देहों पर जो ताण्डव मचा उससे सम्बन्धित दस्तावेज़ या फिल्में बहुत ही कम हैं, कुछ साहित्यिक कृतियों को छोड़कर, जिनसे उस कालखण्ड की यंत्रणाओं के बारे में बहुत कुछ पता चलता है। लेकिन वे ऐतिहासिक दस्तावेज़ तो नहीं ही कही जा सकती हैं, जबकि मेरी बंगाली दोस्त बताया करती है कि उस दौर में मुश्किल से ही कोई घर बचा होगा जहाँ किसी-न-किसी स्त्री से सम्बन्धित कोई अमानुषिक घटना न घटित हुई हो।
बीते हुए समय की दुर्दान्त घटनाओं की कब्रों पर फूल अर्पित करती-सी तुम्हारी यात्रा मुझे वर्त्तमान की भयावह हुई जाती परिस्थितियों की पूर्वपीठिका-सी आतंकित करती है प्रतीति सेन! ज़रा सा सिर घुमाकर देखती हूँ तो आज भी पोलैण्ड सहित कई यूरोपीय देशों में लगातार विस्थापित होते या मारे जाते यूक्रेनीजन दिख रहे हैं। रूसी राष्ट्रपति की गौरवध्वजा सम्भालते स-तर्क क्रूर तरेर के पक्ष और विपक्ष में सत्ता व शक्ति का सी-सॉ का खेल खेलते चीन, उत्तर कोरिया, अमेरिका और नाटो देशों के तने तेवर को देखो तो भला? बाहर की छोड़ो, हमारे देश में, हमारे आसपास भी तो यही सब घटित हो रहा है। राष्ट्रगौरव और देशद्रोह की अजीबोग़रीब नालिशें! किन अँधेरी सुरंगों की ओर मुड़ गई है हमारे समय की यात्रा? नाजुक बचपन और पैदा होने वाले बच्चों के लिए किस ज्वालामुखी के मुख पर खेल का मैदान बनाया जा रहा है? क्रिया-प्रतिक्रिया, आघात-प्रतिघात ने हवाओं में एक अदृश्य धारदार माँझा तान दिया है जिसकी जद में हर क्षण संवेदना के किसी-न-किसी तंतु का गला चाक हो रहा है। नसों बीच लहू की धार में, साँस के साथ भीतर जाती हवा में अदृश्य तनावों का गंधकबुझा ताप असहनीय होता जाना महसूस हो रहा है… मायूस चुप्पी का सन्नाटा बेहद बोझिल है प्रतीति सेन। दबाव इसलिए ही तो बढ़ाया जा रहा है न लगातार कि आपकी नसें ख़ुद-ब-ख़ुद तिड़ककर आपका काम तमाम कर दें और किसी पर इल्ज़ाम भी न जाए? मन, मान और सद्भावना के सुरीले गान बुल्डोजरों के भरकम शोर से छिन्न-भिन्न हो जाएँ? सरकारी या निजी अर्थ और तन्त्र के हाथों हत्याओं और आत्महत्याओं का आँकड़ा क्यों बढ़ता ही जा रहा है? स्त्रियाँ और अधिक वल्नरेबल हुई जा रहीं, कच्चे, किशोरों और रोजगारविहीन युवाओं का संत्रास बढ़ता ही जा रहा है तिसपर एक नयी कंडिशनिंग के नशे में झूम रहे कितने ही स्त्री-पुरुषों के जत्थे मेरी तरह तुम्हें भी तो सिहरा जाते होंगे न प्रतीति सेन? भाव के बदले मद में बदल गई भक्ति भीतर कहीं तुम्हें भी तो भयभीत करती होगी न प्रतीति सेन?
ओह, मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गई! यादें और बातें भी चेन रिएक्शन होती हैं। है न!
काल कभी-कभी उल्टी दिशा में भी चलता है और कभी ठहर जाता है। आउशवित्ज़-बिर्कानेऊ कैम्प में आकर तुमने भी यह महसूस किया। लेकिन फिर मुख्य द्वार पर लिखा ‘वर्क इज लिबर्टी’* के अमोघ ने फाँस ही लिया तुम्हारी चेतना को। डुबो लिया तुमने ख़ुद को ‘वर्क’ में। यह छूट गए प्रेम की तड़प से पार पाने का तुम्हारा ‘एस्केप मेकैनिज्म’ ही तो था प्रतीति सेन। इस तड़प से पार पाने के लिए इसके सिवा कोई करे भी तो क्या? छूट गया प्रेम एक निर्वात रचता है भीतर जिसे हमेशा रिक्त ही रहना होता है। प्राणों ने जिस एकमात्र का वरण कर लिया हो उसका कोई प्रतिस्थापन हो सकता है क्या? यह सम्भव नहीं। और वही प्रिय जब किसी और का हो जाए तब? तब एक अनन्त उदासी, एक अनन्त एकाकी भटकन…
तुमने सितार तो देखा है न! मन-प्राण को झंकृत करता इसका वादन भी सुना होगा। जानती हो न कि इसके वादन में परदे के उपर स्थित तारों को ही मुख्यतः छेड़ा जाता है लेकिन इन तारों के कम्पन से संक्रमित होकर परदे के नीचे स्थित तरब के तार भी स्वतः झंकृत होने लगते हैं। प्रेम मनुष्य को सुरमय सितार में बदल देता है। चेतना पर एक बार प्रेम का जो राग बज गया तो आत्मा के तरब पर वही धुन गुंजायमान रहती है हमेशा। प्रेम छूट सकता है, प्रेम-पात्र बिछड़ सकते हैं लेकिन आत्मा के तरब पर झंकार की धुन नहीं बदलती। यह ‘सा-प’ स्वरों सा अचल होता है जबकि पाँवों का शनि भटकाए ही रखना चाहता है।
ब्रह्माण्ड में सभी तत्वों के परमाणु भी तीव्र गति में तब तक भटकते रहते हैं जब तक किसी अन्य परमाणु के साथ मिलकर यौगिक बन स्थिर/अक्रिय न हो जाएँ। हम सब भी बेचैन भटकते हुए ऐसे ही परमाणु हैं। युग्मित/यौगिक होकर विस्तृत होते हुए सार्थकता महसूस करने वाले। लेकिन कुछ परमाणु तुम्हारी तरह विशेष होते हैं प्रतीति सेन। वे ख़ुद के साथ ख़ुद को ही जोड़ते हुए यौगिक निर्मित करते हैं, ऑक्सीजन की तरह। जीवनदायी शक्तियों से सम्पन्न। तुम्हें मेरा प्यार, मेरी दुआएँ पहुँचे प्रतीति सेन।
(*वर्क इज लिबर्टी: आउशवित्ज़-बिर्कानेऊ कैम्प के मुख्य द्वार पर लिखा स्लोगन)
संपर्क- डॉ. सुमीता, वाराणसी
ईमेल आईडी: sumeetauo1@gmail.com