आज वंदना शर्मा की कविताएँ उनके वक्तव्य के साथ. वंदना शर्मा की कविताओं ने इधर कविता-प्रेमियों का ध्यान अपनी सादगी, बयान की तीव्रता और अनुभव की गहराई से आकर्षित किया है- जानकी पुल.
मैं बहुत सामान्य सी स्त्री हूँ, कुछ भी सिर्फ मेरा नही.. न अनुभूति न कविता, कविता मेरे लिए दुःख है, गुस्सा है, क्षोभ है, विद्रोह है और है उनकी आवाज जिनके लब आजाद नही हैं ! विवशता से, पराजय से, नाउम्मीदी से चिढ़ है मुझे ..मेरी पूरी कोशिश है कि कहीं कुछ बदलाव हो ! कभी तो कोई आवाज उन निर्मम यथास्तिथिवादियों के कानो को भेद पाए जरा तो हो सुने वे अपनी भी आत्मा की आवाज ….
1.
स्वनिर्मित सुद्रढ़ किलों में
कभी कोई नही लगाता सेंध कभी नही नष्ट करते तानाशाह
अपने ही शस्त्रागार …
कभी नही दहकाई जाती है वह आग
जो फूंक डाले अपने ही जंगल राज..
इस चेतावनी के साथ….
कैदियों भाग जाओ, नहीं तो मारे जाओगे आक्रान्ताओं की तलवारों का खून
कभी नहीं धुलता उनकी ही आँखों के पानियों से
वह होता है बस विजय के क्रूर दंभ का प्रतीक शिकारी कभी नहीं रोते….
अपने ही जाल में फंसे छटपटाते शिकार की निर्दोष मृत्यु पर इसलिए
हमारी पीड़ा के आख्यान,ठीक वैसे ही हैं
जैसे खून सने हाथ लिखते हों ..
शवयात्रा के वैभव का गुणगान …
या कोई चतुर स्वामी छाती पीटकर पीटकर
दास की मृत्यु पर करता हो उच्च स्वर विलाप
या एक टांग पर खड़े हुए बगुले..
मछलियों के विलोप पर करते हों सेमीनार भाषा के इन चमत्कारों में
कहीं नहीं मिलते ….
आर्तनादों से मुखर हमारे क्रोध…
शाप मुखर, मुखर तिरस्कार,विद्रोह हमारे ज्वालाओं से वे तुमने नही लिखे
घर की सीलन से, प्रतिद्वंदी के यश से
कि जिनके फैलते ही..
लग सकती थी …
तुम्हारे जंगलों में आग …
ढह सकती थीं वे ईमारत
जिनकी नीव में पिसते रहे, जीवन युगों तक किन्तु जंगली दूब से हम बढ़ चलें हैं
चिन्हित कर चुके हैं हथियारों के जंग
खोज ही लेंगे दबे विद्रोह के नक़्शे ..
स्मृतियों की वर्जनाएं तोड़ ही देंगे
भेद डालेंगे ..
सुरक्षा कैद की
बीत रही ,
रेत सी ,
वह स्वर्ण युग ?
लज्जा हमारी !!!
कभी कोई नही लगाता सेंध कभी नही नष्ट करते तानाशाह
अपने ही शस्त्रागार …
कभी नही दहकाई जाती है वह आग
जो फूंक डाले अपने ही जंगल राज..
इस चेतावनी के साथ….
कैदियों भाग जाओ, नहीं तो मारे जाओगे आक्रान्ताओं की तलवारों का खून
कभी नहीं धुलता उनकी ही आँखों के पानियों से
वह होता है बस विजय के क्रूर दंभ का प्रतीक शिकारी कभी नहीं रोते….
अपने ही जाल में फंसे छटपटाते शिकार की निर्दोष मृत्यु पर इसलिए
हमारी पीड़ा के आख्यान,ठीक वैसे ही हैं
जैसे खून सने हाथ लिखते हों ..
शवयात्रा के वैभव का गुणगान …
या कोई चतुर स्वामी छाती पीटकर पीटकर
दास की मृत्यु पर करता हो उच्च स्वर विलाप
या एक टांग पर खड़े हुए बगुले..
मछलियों के विलोप पर करते हों सेमीनार भाषा के इन चमत्कारों में
कहीं नहीं मिलते ….
आर्तनादों से मुखर हमारे क्रोध…
शाप मुखर, मुखर तिरस्कार,विद्रोह हमारे ज्वालाओं से वे तुमने नही लिखे
घर की सीलन से, प्रतिद्वंदी के यश से
कि जिनके फैलते ही..
लग सकती थी …
तुम्हारे जंगलों में आग …
ढह सकती थीं वे ईमारत
जिनकी नीव में पिसते रहे, जीवन युगों तक किन्तु जंगली दूब से हम बढ़ चलें हैं
चिन्हित कर चुके हैं हथियारों के जंग
खोज ही लेंगे दबे विद्रोह के नक़्शे ..
स्मृतियों की वर्जनाएं तोड़ ही देंगे
भेद डालेंगे ..
सुरक्षा कैद की
बीत रही ,
रेत सी ,
वह स्वर्ण युग ?
लज्जा हमारी !!!
2.
बातें हों सीढियां
हमे बात करनी है शब्दों की बातें
कागज़ पर तिलिस्म रचतीं अय्यारी बातें..
बातें जों बदलतीं रहें मायावी बादलों के चित्रों सी
फूले गुब्बारे सी आसमानी बातें …
हों पानी के बुलबुलों सी हवाबाज बातें
बातें जो मौन मुखर होती रहें
सहूलियत के दबाव से ..
ठेलों पर बिकतीं रंगीन टॉफियों सी बातें
जो घुल जाएँ अवसर के स्वाद में ..
बुढ़िया के बाल सी भारहीन बातें हों
तटस्थ रहें निर्णायक प्रतिवाद में ….
नृत्य करें मदारी के बन्दर और बंदरिया सी
कि जिनकी डोर फँसी रहे समझौतों के हाथ में
कलफ पुते कपड़ों जैसीं कड़क हों बातें
जो तुड़ मुड़ जाएँ ओढ़ते बिछाते ही
पेपर नेपकिन जैसी झक सफ़ेद बातें
जो यूजलेस हो जाएँ हाथ छुडाते ही
बातें , जो भ्रम दें बदलाव का और बदलती रहें
बदलाव की आसानियों के साथ ..
बातें हों सीढियां ..
जो पहुँचा सके आसमानों तक .
मठाधीशों के कानों ..
अकादमियों की दुकानों ..
और माल्स में रखे महंगे सामानों तक
बातों को दौड़ना होगा ..
इसलिए ज़रूरी है कि काट दिए जाएँ उनके सन्दर्भ
जंग लगे सारे भारी सामान ..
जवाबदेही और स्वाभिमान ..
छोड़ दिए जाएँ गाँव के पुराने बक्से में
गला दिए जाएँ बातों के मेरुदंड ….
ख़त्म कर दिए जाएँ अंतरात्मा से सम्बन्ध !
उदास एकाकी पिता ….
कपड़ों को चाहतों सी पीटती कस्बाई पत्नी ..
ड्राइवर का खाँसता बीमार बेटा ..
और अल्हड़ खूबसूरत नौकरानी ….
बहुत खलल डालते हैं इन सब ज़रूरी बातों में !
अनुदानों अभयदानों पुरस्कारों और सुर्ख़ियों से होगी अब
दूरगामी बातों की आखिरी बातचीत !!!
कागज़ पर तिलिस्म रचतीं अय्यारी बातें..
बातें जों बदलतीं रहें मायावी बादलों के चित्रों सी
फूले गुब्बारे सी आसमानी बातें …
हों पानी के बुलबुलों सी हवाबाज बातें
बातें जो मौन मुखर होती रहें
सहूलियत के दबाव से ..
ठेलों पर बिकतीं रंगीन टॉफियों सी बातें
जो घुल जाएँ अवसर के स्वाद में ..
बुढ़िया के बाल सी भारहीन बातें हों
तटस्थ रहें निर्णायक प्रतिवाद में ….
नृत्य करें मदारी के बन्दर और बंदरिया सी
कि जिनकी डोर फँसी रहे समझौतों के हाथ में
कलफ पुते कपड़ों जैसीं कड़क हों बातें
जो तुड़ मुड़ जाएँ ओढ़ते बिछाते ही
पेपर नेपकिन जैसी झक सफ़ेद बातें
जो यूजलेस हो जाएँ हाथ छुडाते ही
बातें , जो भ्रम दें बदलाव का और बदलती रहें
बदलाव की आसानियों के साथ ..
बातें हों सीढियां ..
जो पहुँचा सके आसमानों तक .
मठाधीशों के कानों ..
अकादमियों की दुकानों ..
और माल्स में रखे महंगे सामानों तक
बातों को दौड़ना होगा ..
इसलिए ज़रूरी है कि काट दिए जाएँ उनके सन्दर्भ
जंग लगे सारे भारी सामान ..
जवाबदेही और स्वाभिमान ..
छोड़ दिए जाएँ गाँव के पुराने बक्से में
गला दिए जाएँ बातों के मेरुदंड ….
ख़त्म कर दिए जाएँ अंतरात्मा से सम्बन्ध !
उदास एकाकी पिता ….
कपड़ों को चाहतों सी पीटती कस्बाई पत्नी ..
ड्राइवर का खाँसता बीमार बेटा ..
और अल्हड़ खूबसूरत नौकरानी ….
बहुत खलल डालते हैं इन सब ज़रूरी बातों में !
अनुदानों अभयदानों पुरस्कारों और सुर्ख़ियों से होगी अब
दूरगामी बातों की आखिरी बातचीत !!!
3.
”और अब हम विरोध के लिए सन्नद्ध हैं”
आज फिर बहुत बुरा हुआ है
बाँचने को मिल चुके हैं गरुड़ पुराण
और अब हम विरोध के लिए सन्नद्ध हैं
अपने अपने मोर्चों से बाहर..
हम हैं जगाये गए कुम्भकरण ! हमारी जेबों में रख दिए गए हैं नक़्शे चश्मे दूरबीन इंचटेप और पैमाने
हमारी आँखों पर बाँध दी गयी हैं मनमाफिक रंगों वालीं पट्टियां
हमारे जहन में लहराने लगे हैं गढ़े हुए झंडे
जिनके इर्द गिर्द लिपटी हैं….
मृगतृष्णाओं की बहुरंगी झालरें ! बहुत सख्त बंद कर दिए गए हैं हमारे कान
ढांप दिए गए हैं तमाम रोशनदान..
हमें नहीं, देखना भी नही है उन मरुथली रास्तों की ओर
जिनके अंत में हो कोई छोटा मोटा नखलिस्तान
या वह भी न हो ..
हों, केवल मीलों फैले रेत के भवँर टीले
और प्रतीक्षा में हो आखिरी छोर पर, बस जन्मांत बेचैन प्यास ! ठंडी गहरी अँधेरे भरी माँदों से बाहर आ गए हैं हम
हमारे हाथ भर दिए गये हैं पथरीले शब्दों से..
जिन्हें दागना है तयशुदा निशानों पर…
हमें जमाना है राजा की उखड़ती सांसों और अस्थिर पैरों को
धुंधलाई द्रष्टि भी नही डालनी दर्पणी असलियतों और टीसती जड़ों की ओर ! हमारे कन्धों पर कस दिए गए हैं तूणीर..
जिनमें लहुलुहान ठंसे हैं अम्बेडकर, गाँधी और भगत सिंह
यहाँ तक कि अल्लाह या श्री राम भी तुरुप के इक्के से
दबाएँ हैं कांख में ..
शह मात के आखिरी दौर के ब्रह्मास्त्र ! फैले हुए उस रक्त के बींचोंबीच
सज गये हैं युद्ध के मैदान
हम खींचते हैं पैने नुकीले तारों वाले बाड़े
बिछाते हैं नीतियों की चटाईयां कालीन ! हम में से कुछ की शक्ल किलों तक पहुँचने वाली सीढियों से
मिलतीं हैं कुछ की भाड़े के सिपाहियों और चौकीदारों से
कुछ की पायदानों और कन्धों से..
यहाँ तक कि रुमालों और तौलियों से भी ! ओढ़ लेते हैं काले सफ़ेद मातमी लिबास
मुहं से झरते हैं अविरल झाग ..
जोर जोर से पढ़ते हैं हाथों में थमाए गए मर्सिये
जिनके सुर मिलते हैं ..
जंगी नारों और सलीबों की चीखों पर हँसते ठहाकों से
वंदना शर्मा
बाँचने को मिल चुके हैं गरुड़ पुराण
और अब हम विरोध के लिए सन्नद्ध हैं
अपने अपने मोर्चों से बाहर..
हम हैं जगाये गए कुम्भकरण ! हमारी जेबों में रख दिए गए हैं नक़्शे चश्मे दूरबीन इंचटेप और पैमाने
हमारी आँखों पर बाँध दी गयी हैं मनमाफिक रंगों वालीं पट्टियां
हमारे जहन में लहराने लगे हैं गढ़े हुए झंडे
जिनके इर्द गिर्द लिपटी हैं….
मृगतृष्णाओं की बहुरंगी झालरें ! बहुत सख्त बंद कर दिए गए हैं हमारे कान
ढांप दिए गए हैं तमाम रोशनदान..
हमें नहीं, देखना भी नही है उन मरुथली रास्तों की ओर
जिनके अंत में हो कोई छोटा मोटा नखलिस्तान
या वह भी न हो ..
हों, केवल मीलों फैले रेत के भवँर टीले
और प्रतीक्षा में हो आखिरी छोर पर, बस जन्मांत बेचैन प्यास ! ठंडी गहरी अँधेरे भरी माँदों से बाहर आ गए हैं हम
हमारे हाथ भर दिए गये हैं पथरीले शब्दों से..
जिन्हें दागना है तयशुदा निशानों पर…
हमें जमाना है राजा की उखड़ती सांसों और अस्थिर पैरों को
धुंधलाई द्रष्टि भी नही डालनी दर्पणी असलियतों और टीसती जड़ों की ओर ! हमारे कन्धों पर कस दिए गए हैं तूणीर..
जिनमें लहुलुहान ठंसे हैं अम्बेडकर, गाँधी और भगत सिंह
यहाँ तक कि अल्लाह या श्री राम भी तुरुप के इक्के से
दबाएँ हैं कांख में ..
शह मात के आखिरी दौर के ब्रह्मास्त्र ! फैले हुए उस रक्त के बींचोंबीच
सज गये हैं युद्ध के मैदान
हम खींचते हैं पैने नुकीले तारों वाले बाड़े
बिछाते हैं नीतियों की चटाईयां कालीन ! हम में से कुछ की शक्ल किलों तक पहुँचने वाली सीढियों से
मिलतीं हैं कुछ की भाड़े के सिपाहियों और चौकीदारों से
कुछ की पायदानों और कन्धों से..
यहाँ तक कि रुमालों और तौलियों से भी ! ओढ़ लेते हैं काले सफ़ेद मातमी लिबास
मुहं से झरते हैं अविरल झाग ..
जोर जोर से पढ़ते हैं हाथों में थमाए गए मर्सिये
जिनके सुर मिलते हैं ..
जंगी नारों और सलीबों की चीखों पर हँसते ठहाकों से
वंदना शर्मा
19 Comments
अद्भुत ….और बहुत कुरकुरी ….किरचें लुटाती ….कल सुबह फिर पढूंगा सभी कवितायें ….सबूत तो यहीं रहेंगे …….बधाई ….असरदार तेवरों वाली हमारी मित्र वंदना शर्मा को ….और ये जानकी पुल बहुत आकर्षक लगा नाम …..आभार !!!
well versed lines.A promising poet.
जानकी पुल का हार्दिक आभार ..मित्रों का बहुत बहुत शुक्रिया ..सभी शेयर धारकों का धन्यवाद 🙂
Vandna ji Badhai! Bahut sundar kavitayen hain.
अंतिम कविता मुझे स्त्रियों द्वारा लिखी प्रेम कविताओं की भीड़ में सबसे अलग और सबसे चमकती हुई लगती है. बाक़ी पर तो पहले भी बहुत कुछ कह ही चुका हूँ. जानकी पुल का आभार…
हमारी पीड़ा के आख्यान,ठीक वैसे ही हैं
जैसे खून सने हाथ लिखते हों ..
शवयात्रा के वैभव का गुणगान …
या कोई चतुर स्वामी छाती पीटकर पीटकर
दास की मृत्यु पर करता हो उच्च स्वर विलाप
इतनी संवेदनशील काल्पन और सहज शब्दों में – बधाई
बे जोड़ संगम वंदना जी की कविताओं का …एक कसक के साथ दिल को थामे रखने की प्रेरणा देती है और समाज की कुरूतियों को जबरदस्त प्रहार करती शाब्दिक घोष के साथ … दोहरान के लिए जानकी पुल का तहे दिल से धन्यवाद nirmal paneri
बहुत देर ठिठका खड़ा रहा इन कविताओं के बीच. शर्म, भय और पलायन की मिलावटी भाव-मुद्राओं में. दु:स्वप्न की सिलवटों की तरह हमारे इतिहास को हमारे ही देह पर दर्ज़ करती हैं ये कविताएं.बधाइयाँ.
अनुभूति की गहराई, भाषा के प्रवाह, शब्दों की बाजीगरी, अनंतकाल से चले आ रहे भेद-भाव के प्रति स्वाभाविक गुस्सा….और अपने आस-पास की छोटी-मोटी घटनाओं की बारीक से बारीक क्षणों को समेटकर उसे शब्दों में ढालना और एक बेजोड़ कविता रच देना वंदनाजी की खासियत है….जितनी बार भी पढ़ें नया ही लगता है…
अंधड़ो से नाते…
आजकल रुला नही पाते
कितने वेश बदलने पड़ते..
तुमसे खुली किताब
भूलने और माफ़ भी करने लगी हूँ
तुम्हारे प्रेम में हूँ..
ये कुछ सबूत मुझको मिले हैं ……क्या कहू ,निशब्द हो गई हू ,लाजवाब ,बधाई
बड़ी देर ठिठका खड़ा रहा इन कविताओं के बीच. शर्म,भय और पलायन की मिलावटी भाव-दशाओं में. सिलवटों की तरह देह पर काढ़े जा रहे दु:स्वप्न जैसी हैं ये कविताएं. बधाइयाँ
बड़ी देर ठिठका खड़ा रहा इन कविताओं के बीच. शर्म,भय और पलायन की मिलावटी भाव-दशाओं में. सिलवटों की तरह देह पर काढे जा रहे दु:स्वप्नों की तरह हैं ये कविताएं. बधाइयाँ
वंदना शर्मा की इन कविताओं में ध्वनित हाहाकार बहुत उद्वेलित करता है ! ज़ख्मों की पपड़ियाँ खोलने वाली इन कविताओं के लिए उन्हें बधाई और प्रस्तोता का आभार !
पांचों कविताएं वंदना के संक्षिप्त आत्म-कथन का साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं. एक नई दृष्टि, और उसके अनुरूप मुहावरे का आविष्कार उनसे बहुत आशाएं जगाता है.
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