ऋतु कुमार ‘ऋतु’। आप लोगों में से बहुत कम इस नाम से वाकिफ होंगे,उससे भी कम उसकी रची कविताओं से। उसके जीवन से तो सबसे कम। उसका परिचय और इतिहास इतना ही है कि वह उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव में 29 मार्च 1970को जन्मा और 15 अगस्त 2009 को जिस्म की बंदिश से आजाद हो गया… कि वह मात्र दसवीं पास था… कि वह दुकानों में पानी पिलाने का काम करता था… कि वह खाता कम, पढ़ता ज्यादा था… कि उसने एकतरफा प्रेम किया… प्रेमिका के नाम पर अपना नाम रामलखन यादव से बदलकर ‘ऋतु’ कुमार ‘ऋतु’ रख लिया… कि उसने साहित्य के शीर्षधारियों की मनाही के बावजूद एक पीडि़त स्त्री को पत्नी का दर्जा दिया… और विवाह के ग्यारह महीने के भीतर ही एक असाध्य बीमारी ने उसकी जान ले ली…। कि उसका जीवन के अंतिम ग्यारह महीनों में उस साहित्य से मोहभंग होने लगा था जो उसके फेफड़ों का आक्सीजन था… कि जो अपनी किताबें कबाडि़यों को बेचने लगा… कि उसके घर में साहित्य-विचार की जगह ‘सामानों’ ने लेनी शुरू कर दी… वह पागल हो चला था या समय ने ही अपनी संवेदना खो दी थी… प्रेम भारद्वाज
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इस नाउम्मीदी की कायनात में
जब धूप आग की तरह की बरस रही थी
मैं निर्वस्त्र बदन ठंड में ठिठुर रहा था
और आने वाली सर्वथा किसी
अपरिचित आपदा से आशंकाग्रस्त था
चारों ओर था सब कुछ अनजान
और भंवर की तरह घूम रहा था
मेरा मस्तिष्क पत्थरों में दबा पड़ा था कहीं
और भुलभुलाती हुई धूल में से
मेरे विचार कहीं भागे जा रहे थे
मेरा शरीर राख होने के लिए व्यग्र था
लेकिन ठंड से बेनिजात था
मेरी आत्मा पर बर्फ गिर रही थी चुपचाप लगातार
मेरी अस्मिता ढूंढ़ रही थी
थोड़े से सुकून और गर्माहट के साथ किंचित बची आशा
और वह समुद्र जिसमें डूबकर
मिल सके उसे बच पाने की उम्मीद
इस नाउम्मीदी की कायनात में…
( 1999 )
और कुछ नहीं तो प्रश्न
हमसे हमारा घर पूछकर
उन्होंने हमारा अपमान किया
सद्भावनाओं का कोई अर्थ नहीं रहा
मेरे खयाल से बस इतना ही काफी है
कि मेरा घर पूरी दुनिया है
खत्म हो रही दुनिया के लिए वक्त कितना कम है
कि हम कुछ करें उसे बचाने के लिए
जहां जीवन पलता है
आखिर वे कौन हैं
अदृश्य सीमाएं लांघकर चले आते हैं जो
नष्ट करने हमारी नसों का लोहा
भला ऐसी कौन सी होगी युक्ति
कि जिससे बचा रहे जीवन थोड़े से थोड़ा
और चलती रहे सांसें…
(1991)
कुछ लोगों के पास घर
कुछ लोगों के पास घर होते हैं
मगर वे घर में नहीं रहते
कुछ लोगों के पास घर नहीं होते वे घर ढूंढ़ते हैं
कुछ लोग घर बनाते-बनाते मर जाते हैं
और घर कभी बन नहीं पाता
कुछ लोग बेघर पैदा होते हैं और बेघर ही मर जाते हैं…
(1992)
अगर
अगर समा पाता ब्रह्माण्ड मेरी बाहों में
तो चला जाता मैं लिए वहीं कहीं जहां
जीवन मृत्यु की जरूरत न होती कतई
इस अंधेरे से बेहतर अगर समझ पाता मैं
कि मुझे निगल न सकेगा कोई खौफ
कोई खतरनाक बीमारी जकड़ न सकेगी मुझे
किसी अंधियारे बियाबान में
भटका न सकेगी कोई मौत
तो मैं लिए आता जन्मजात सूर्य की कतारें
और कहीं भी जल जाता
आदिम-गंध के अनजान प्रदेश में
अगर मैं कह देता खुद से कि तुम मात्र एक भ्रम हो
और इस धरती के जीव-जंतुओं से कि ढूंढ़ों
ईश्वर या उसके विपर्यय के भार का कोई शब्द
तो तुम्हारी स्वतंत्रता सुनिश्चित है
अगर मैं चाहता तमाम भीषण नरसंहार के बदले
लबलबाती हुई करुणा तो कम पड़ गए होते तुम्हारे आंसू
और मेरे शब्दों का अर्थ चुक गया होता
अगर मैं बता पाता कि कैसे गरुआ रही है धरा मेरे सिर पर
और कैसी मार से छिन गया मेरा विश्वास घर लौटने की खातिर
और कह पाता कि किन अनिच्छाओं की अंधेरी बस्तियों में
गुजार दीं मैंने ताजा सुबहें
अब वे न मिल सकेंगी मुझको न मैं लौट सकूंगा
अगर मैं रह पाता बगैर प्यार के
बिना किसी की चाह के
बिना मेहनत की गंधाती तड़प के
और कह पाता हर किसी से सीधी सच्ची बात
कि यह अपने लिए नहीं यह सबके लिए है
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