आज फादर कामिल बुल्के का जन्मदिन है. उनका नाम ध्यान आते ही अंग्रेजी-हिंदी कोश का ध्यान आ जाता है. प्रकाशन के करीब ४२ साल बाद भी इस अंग्रेजी-हिन्दी कोश की विश्वसनीयता में कोई कमी नहीं आई है. उन्होंने इसके पहले संस्करण की भूमिका में लिखा था कि उनका उद्देश्य एक ऐसा कोश तैयार करना था जो न सिर्फ विद्यार्थियों के मतलब की हो बल्कि उनके लिए भी उपयोगी हो जो हिन्दी से अंग्रेजी में अनुवाद का काम करते हों तथा जिनकी पहली भाषा हिन्दी हो. मैं खुद इतने साल से अनुवाद कर रहा हूँ लेकिन आज भी किसी शब्द के अर्थ को लेकर खटका होता है तो फादर बुल्के की शरण में जाता हूँ. मार-तमाम कोशों के बावजूद इसकी लोकप्रियता बरकरार है. क्या करूं और किसी कोश पर वैसा भरोसा नहीं जमता जितना इसके ऊपर है.
लेकिन वे केवल कोशकार नहीं थे. क्या करूं उनका ध्यान आते ही उस कोश का ध्यान आ गया, जो आज भी सबसे ज़्यादा बिकने वाले कोशों में शुमार किया जाता है. वे बेल्जियम से विज्ञान की पढाई पढकर मिशनरी बनकर भारत आए थे, लेकिन जल्दी ही हिंदी सेवा के मिशन में लग गए. कोश तैयार करना भी उनके इस मिशन का हिस्सा था. उन्होंने बाद में लिखा कि उनको भारत में यह देखकर गहरा धक्का लगा कि यहाँ का पढ़ा-लिखा तबका अपनी भाषा से कटता जा रहा है, एक विदेशी भाषा को अपनाने के लिए अपनी भाषा को पिछड़ा ठहराने में वह अपनी शान समझने लगा है. बस क्या था, उन्होंने अपने जीवन का ध्येय ही यह बना लिया कि हिन्दी को विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करवाया जाए, हिन्दी का शर्म की नहीं गर्व की भाषा बनाया जाए.
कोश बनाने के पीछे उनकी एक सोच यह भी थी कि अगर भारतीय समाज में अंग्रेजी का ही प्रभुत्व रहना है तो वह समाज के एक खास वर्ग तक ही महदूद क्यों रहे. इसीलिए बताते हैं कि अपने कोश में उन्होंने अंग्रेजी शब्दों के सटीक उच्चारण दिए ताकि हिंदी का सामान्य पाठक उस कोश के आधार पर सही-सही अंग्रेजी बोलना भी सीख जाए. जिससे उसके अंदर अंग्रेजी न जानने की हीन भावना न रह जाए. उनका स्पष्ट तौर पर मानना था कि अपनी भाषा पर गर्व वही कर सकता है जिसके अंदर भाषा को लेकर किसी तरह की हीन भावना नहीं रहती. भाषा को उन्होंने सामान्य जन की गरिमा से जोड़कर देखा.
रामकथा पर शोध करने वाले इस विद्वान को हिन्दी भाषा के अलावा रामकथा ने भी भारत में रमाया. ‘रामकथा: उत्पत्ति और विकास’ नामक उनकी पुस्तक को आज भी रामकथा के प्रामाणिक विश्लेषण के लिए याद किया जाता है. तुलसीदास के रामचरितमानस में तो उनको इसाई धर्म के मूल्यों के दर्शन भी होने लगे थे. मर्यादा के पाठ और तुलसीदास की कविताई दोनों से वे बहुत प्रभावित थे और जीवन भर उनके दोहे-चौपाइयों के नए-नए अर्थ ढूंढते रहे. रामकथा की परम्परा में उन्होंने तुलसीदास के योगदान पर एक पुस्तक भी लिखी. भारत सरकार ने उनकी हिंदी सेवा के लिए १९७३ में उनको पद्मभूषण से नवाज़ा. लेकिन पुरस्कारों-सम्मानों से अलग वे आज भी हिंदी के पाठकों के मन-मस्तिष्क पर राज कर रहे हैं. रामकथा पर उनके काम का मूल्यांकन तो उसके विद्वान करेंगे लेकिन आज तक कोई ऐसा कोश नहीं सामने आ पाया जो कामिल बुल्के के कोश की जगह ले पाए.
निज भाषा उन्नति का जो पाठ उन्होंने पढ़ाया आज उसे याद करने का अवसर है.
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