आज विद्वान कवि विष्णु खरे को याद करने का दिन है। उनको अपनी ही शैली में गल्पमिश्रित स्मरण लेख में याद कर रहे हैं युवा लेखक प्रचण्ड प्रवीर। याद रहे कि विष्णु खरे ने प्रचण्ड प्रवीर की किताबों ‘अभिनव सिनेमा’ तथा ‘जाना न दिल से दूर’ का लोकार्पण किया था। आप यह टीप पढ़िए-
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करीब दस साल होने को आए। संघर्षशील लेखक भूतनाथ ने एक किताब लिखी। उसने सोचा कि यह किताब उसकी अन्य परियोजनाओँ की तरह तो है नहीँ कि तू देखे या न देखे तू जाने या ना जाने, पूरा करेँगे हम तो वादा तेरी गली मेँ। इसलिए उसने सोचा कि क्योँ नहीँ इसको औरोँ तक पहुँचाया जाए। चुनाँचे किसी बड़े-बूढ़े ने बताया कि किताबोँ के आशिक अजब होते हैँ रकीब उससे अजीब। लिखे कोई भूमिका और किताब पीटती है साथ-साथ। तफ्सील से समझो तो ऐसा है कि अगर किसी बड़े आदमी ने भूमिका लिख दी तो किताब चर्चा मेँ आ जाएगी। लेकिन उसके आशिक और रकीब दोनोँ अलग-अलग रुख अख्तियार करेँगे। आशिक कहेँगे कि बड़े आदमी ने लिख दी है, पढ़ कर क्या करना है। रकीब सोचेँगे कि भूमिका लिखने वाला मेरे खेमे का नहीँ है, तो क्योँ किताब देखेँगे। इस तरह तेरी किताब और तू पिटता है साथ-साथ, ऐसी बरसातेँ कि बादल भीगता है साथ-साथ।
भूतनाथ ने सोचा कि थोड़ा जोखिम उठाया जाए। उसने पता किया कि हिन्दी मेँ भूमिका लिखने लायक कौन है। थोड़ा और पता किया कि पता चला कि अधिकतर लोग काने हैँ। बहुत से लोग बहरे हैँ। बाकी लोग आईने मेँ अपने बालोँ मेँ खिजाब लगा कर, आँखोँ मेँ सूरमा लगा कर अपनी सूरत देखने मेँ व्यस्त हैँ। बहुत विचार करने के बाद भूतनाथ ने यह निष्कर्ष निकाला कि ‘विष्णु खरे’ से बेहतर कोई भूमिका लिखने वाला है नहीँ। पर मालूम हुआ कि वे तो दुर्वासा हैँ। उन तक पहुँचना मुश्किल है। फिर भी हिम्मत कर के भूतनाथ ने दुर्वासा मुनि का दरवाजा खटखटाया। और जैसी कि उम्मीद थी, लताड़ पाया।
किन्तु भूतनाथ इससे डिगा नहीँ। दुर्वासा मुनि की कुटिया के आगे धूनी रमाता रहा। तंग आ कर मुनिवर ने भूतनाथ की कच्ची पक्की पाण्डुलिपि की भूमिका लिख दी। भूतनाथ ‘विष्णु खरे का सर्टिफिकेट’ पा कर बहुत प्रसन्न रहा। खैर किताब का जो होना था, वही हुआ। भूतनाथ और उसकी किताब पिट गए साथ-साथ।
कुछ दिनोँ बाद भूतनाथ और लोग से मिला। पता चला कि जिस सर्टिफिकेट को वह दुर्लभ समझता था वह कुछ और लोग के पास भी है। लिहाजा भूतनाथ विष्णु खरे से दुबारा मिला और पूछा, “आपने जो यह मुझे सर्टिफिकेट दिया है, वह किसी काम का नहीँ है। इससे मैँ और मेरी किताब पिट गयी साथ-साथ।“
विष्णु खरे मुस्कुराए। वे बोले, “बालक, हमने तुम्हेँ पहले समझाने की कोशिश की तब तुम माने नहीँ।“ भूतनाथ ने रोष मेँ पूछा, “आखिर ऐसा क्या है कि सब लोग आपके सर्टिफिकेट के लिए लालायित रहते हैँ और आप उसकी ज़रा भी परवाह नहीँ करते। क्या आप झूठ बोलते हैँ।“
इसपर गम्भीर हो कर विष्णु खरे बोले, “नहीँ, मैँ झूठ नहीँ बोलता। ना ही मैँने किसी को झूठा सर्टिफिकेट दिया है। लेकिन तुम्हारा असमंजस वाजिब है। मैँ तुम्हेँ सीधे-सीधे कहूँगा तो बात तुम्हारी समझ नहीँ आएगी। कुछ चिन्तन-मनन करो। एक साल बाद मुझसे मिलने आना।“
भूतनाथ सोच मेँ पड़ गया। उसने सोचा कि समाज मेँ प्रतिष्ठा का स्वरूप किसी से छिपा नहीँ रहता। बहुत से लोग जिन वृक्षोँ की उपासना करते हैँ, वह छायादार नहीँ होते यह सभी जानते हैँ। बहुतोँ की प्रतिष्ठा उनके जीवन के समाप्त होते ही समाप्त हो जाती है जो कि उनके सांसारिक शक्ति की देन होती है। बहुत से लोग तिकड़मोँ से और प्रायोजनोँ से पूछे जाते हैँ। जो सच मेँ ज्ञानी होता है उसकी बात और होती है।
भूतनाथ एक साल के अध्ययन, चिन्तन-मनन के उपरान्त विष्णु खरे से मिला। उसने पूछा, “महोदय, आप बताइए। इस संसार मेँ इतने लोग साहित्यकार, कलाकार, कवि बनते फिरते हैँ। ईमानदारी की बात तो यह है कि मैँ भी इसी कामना मेँ आपका सर्टिफिकेट लेने आया था। लेकिन मुझे लगता है आपके विचार, आपकी आलोचना, आपकी सत्यनिष्ठता आपके सर्टिफिकेट से कहीँ अधिक मूल्यवान है। मैँ क्षमा चाहता हूँ कि मैँने आपके सर्टिफिकेट के लिए याचना की। इसका आभार भी प्रकट करता हूँ कि आपने अपना अहेतुक स्नेह मुझे दिया। आप बताइए, आपने जो देखा है इस संसार के बारे मेँ। आदमी को कैसे पहचाना जाए।“
विष्णु खरे ने कहा, “संसार मेँ आदमी को पहचानने का साधारण तरीका है कि देखो उसका पैसा कहाँ से आ रहा है। तुम्हेँ यदि संसार देखना है तो एक काम करो। आज शाम को एक कविता पाठ का आयोजन है। वहाँ तुम आओ।“
भूतनाथ को बाद मेँ पता चला कि सिद्धान्तोँ पर समझौता न करने के कारण विष्णु खरे को समाचार पत्र की नौकरी छोड़नी पड़ी। परन्तु विद्वान काल से पराजित नहीँ होता। वह भी पराजित नहीँ हुए और अपनी मेधा के दम पर बने रहे।
कुछ विस्मय से भूतनाथ उस कविता पाठ समारोह मेँ गया। वहाँ बड़े-बड़े नामी कवि थे। सबकी कविताएँ सुनने के बाद विष्णु खरे ने अपनी कविताएँ सुनायी। बहुत वाहवाही हुयी। समारोह के बाद, अकेले मेँ भूतनाथ ने उनसे पूछा, “आप इतना अच्छा लिखते हैँ। इसके बारे मेँ कुछ पूछना भी धृष्टता होगी। लेकिन जो मैँ नहीँ पूछ पा रहा हूँ वह बताइए।“
विष्णु खरे ने कहा, “देखो, मैँने कभी किसी से सर्टिफिकेट नहीँ माँगा।“ यह सुनकर भूतनाथ स्तब्ध रह गया। उसने दूसरा सवाल किया, “मेरी धृष्टता क्षमा करेँ। किन्तु इस सभा मेँ एक भी ऐसा कवि नहीँ है जो आपके समकक्ष या किसी पैमाने मेँ आपसे दो-तीन पायदान भी नीचे हो। आप किन लोग के साथ उठते-बैठते हैँ?”
विष्णु खरे ने भूतनाथ से उल्टा सवाल किया, “कहाँ जाऊँ मैँ?”
भूतनाथ ने कहा, “मैँ आपके जितना योग्य नहीँ। मैँ आपको श्रेष्ठ मानता हूँ। मैँ जानता हूँ कि श्रेष्ठता बोध को अहङ्कार नहीँ समझना चाहिए जैसा अधिकांश लोग करते हैँ।” विष्णु खरे ने इसका कोई उत्तर नहीँ दिया और आगे बढ़ गए।
भूतनाथ का मानना है कि यदि विष्णु खरे मेँ अहङ्कार होता तो वे स्तरहीन सभाओँ मेँ, मूर्खोँ के साथ बहस मेँ, सतही वाद-विवाद मेँ गरिमापूर्ण रूप से सम्मिलित क्योँ होते? उस जैसे मूर्खोँ को ‘प्रोत्साहन’ के लिए ‘सर्टिफिकेट’ क्योँ देते? ज्ञान को शक्ति के अर्थ मेँ लेने से ज्ञानी के लक्षण ‘ज्ञानशक्ति’, ‘अपोहनशक्ति’ और ‘स्मरणशक्ति’ के रूप मेँ प्रकट होती है।
जिन लोग ने उनका सान्निथ्य पाया हो, वे ही जान सकते हैँ कि वह तत्क्षण किस तरह भी चीज को जान और समझ लेते थे। संपादक या आलोचक के तौर पर उनकी अपोहन शक्ति (contradistinction) अद्भुत थी। भूतनाथ ने बहुत ही कम ऐसे लोग को देखा है जिनकी स्मरण शक्ति विष्णु खरे जैसी तीक्ष्ण हो।
ज्ञानी का एक महत्त्वपूर्ण कार्य होता है ज्ञान को साझा करना। जो साझा न किया जा सके वो कभी ज्ञान नहीँ होता। यह बात और है कि साझाकरण का माध्यम और स्वरूप संदर्भ से बदलता रहता है, उसके अधिकारी बदलते रहते हैँ। विष्णु खरे का हस्तक्षेप और ज्ञान परम्परा के लिए प्रोत्साहन उनके काव्य और आलोचना जितना ही महत्त्वपूर्ण है। अफसोस यह है कि यह समय के साथ भुला दिया जाएगा।
लेकिन जिनको विष्णु खरे का सर्टिफिकेट मिला हो, वे उन्हेँ कभी नहीँ भूलेँगे। जैसे हम अपने प्रिय शिक्षक, गुरु और पितरोँ को आजीवन नहीँ भूल सकते।