जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

    कुछ कृतियों की प्रासंगिकता लंबे समय तक बनी रहती है। ऐसी ही एक कृति मंज़ूर एहतेशाम  का उपन्यास ‘सूखा बरगद’ भी है। आज इस उपन्यास की समीक्षा कर रही हैं राखी कुमारी। राखी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी विषय में स्नातकोत्तर किया है, वर्तमान में बिहार के एक स्कूल में हिंदी पढ़ाती हैं- अनुरंजनी

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सूखा बरगद : धार्मिक कट्टरता के बीच उम्मीद की एक किरण 

        भारत के इतिहास के पन्नों में विभाजन विभीषिका एक बहुत ही अमानवीय घटना के रूप में दर्ज है| इस विभाजन की त्रासदी को इतिहास के साथ-साथ साहित्य में भी उतनी ही गहनता से दर्ज किया गया है| अनेक उपन्यासों और कहानियों के माध्यम से इसे अभिव्यक्त किया गया है, जैसे ‘तमस’, ‘झूठा सच’, ‘ज़िंदगीनामा’, ‘सूखा बरगद’ इत्यादि लेकिन प्रत्येक उपन्यास में विभाजन की त्रासदी की अभिव्यक्ति अलग-अलग रूपों में हुई है जैसे ‘तमस’ में भीष्म साहनी ने ‘स्व-अनुभूति’ को दर्ज किया जबकि सूखा बरगद में मंजूर एहतेशाम ने ‘परा-अनुभूति’ को अभिव्यक्त किया है।

       ‘सूखा बरगद’ उपन्यास एक सूखे बरगद के प्रतीक के रूप में, इस्लाम धर्म की कट्टरता और रूढ़िवादिता को अभिव्यक्त करता है साथ ही साथ यह उपन्यास प्रेम, राजनीति तथा विभाजन की त्रासदी को भी अभिव्यक्त करता है।हालाँकि इन सारी विसंगतियों के केंद्र में धर्म की कट्टरता प्रमुख है| 

       सूखा बरगद उपन्यास प्रेम, राजनीति और धर्म की कट्टरता के साथ-साथ आधुनिकता और प्राचीनता के द्वन्द को भी उजागर करता है। यह एक ऐसे मध्यवर्गीय परिवार की कहानी को दर्शाता है जो ना तो पूरी तरह से प्राचीनता को छोड़ पाया है और ना पूरी तरह से आधुनिकता को अपना पाया है। साथ ही साथ यह उपन्यास रूढ़िवादिता और प्रगतिशीलता के द्वन्द को भी उजागर करता है। मध्यवर्गीय परिवार में इस प्रकार के होने वाले द्वंद ही इस उपन्यास को कालजयी बनाते हैं।

           इस उपन्यास के प्रमुख पात्र रशीदा और सुहेल पूरी कहानी में द्वंद से जूझते  रहते हैं। उनके पिता वहीद ख़ाँ पूरी तरह से नास्तिक तथा प्रगतिशील विचार के थे जबकि उनकी माता उनके विपरीत आस्तिक और रूढ़िवादी विचार की महिला थी। दो विचारों की टकराहट के बीच पलने वाले इन बच्चों की जिंदगी पूरी तरह से द्वंदात्मक हो गई! यह ना तो अपने पापा के विचारों को पूरी तरह से अपना पाए और ना ही माँ के। इस उपन्यास के एक प्रमुख पात्र वहीद ख़ाँ अस्तित्ववाद से पूरी तरह प्रभावित दिखाई पड़ते हैं। जैसे उनके द्वारा इस्लाम की शास्त्रीय नियमों का पालन न करना, प्रतिदिन पाँच समय का नमाज अदा नहीं करना आदि उनके अस्तित्ववादी  विचार से प्रेरित लगता है।

     सूखा बरगद उपन्यास ‘फ्लैशबैक’ शैली में लिखा गया है। इसकी भाषा सरल तथा उर्दू मिश्रित हिंदी है! रशीदा के माध्यम से इस उपन्यास की पूरी कहानी कही जाती है। दोनों के माध्यम से लेखक ने इस्लाम धर्म की रूढ़िवादिता तथा अंधविश्वास को उजागर करने की कोशिश की है। कहीं-कहीं लेखक ने इन पात्रों के माध्यम से ऐसे विचारों का विरोध भी किया है। पूरे इस्लाम में रशीदा का घर एक ऐसा घर है जो किसी भी रूढ़िवादी विचार को नहीं अपनाता। इस्लाम धर्म में सिनेमा देखना, तस्वीर खिंचवाना आदि गुनाह माना जाता है जबकि रशीदा कहती है कि “उस जमाने में सारे खानदान में एक हमारा ही घर ऐसा था जहां तस्वीर खुलेआम रखी रहती थी और यह भी सिर्फ अब्बू की वजह से| अम्मी  और अब्बू की शादी की तस्वीर उनके दोस्त ने किस तरह जान जोखिम में डालकर खींची थी अब्बू हंसकर बताते थे – बेचारे ने बुर्का पहनकर कैमरा किसी तरह लोगों की नजरों से बचकर यह काम किया था! यह जानते हुए कि पकड़े जाने पर उसकी जान के लाले तक पढ़ सकते हैं।”

      मदरसा में जबरदस्ती बच्चों से बिस्मिल्लाह पढ़ाया जाता तथा सिर पर दुपट्टा रखने को कहा जाता था| रशीदा कहती है कि फफू के सामने ऐसा नहीं करने पर वह गालियां देती और बहुत डांटती, कहती कि “गवार कहीं का ! बिस्मिल्लाह पढ़ खाने से पहले, क्यों यह सर का दुपट्टा कहां है तेरा ,बेशर्म, शैतान नंगे सिर पर धप्प लगाता है |”

      इस उपन्यास का एक मुख्य बिंदु यह भी है कि लड़के और लड़कियों को उनके उम्र के अनुसार यौन शिक्षा नहीं देने का परिणाम क्या होता है? ‘सेक्स एजुकेशन’ की कमी बच्चों में घृणा का भाव पैदा कर देती है। शुरुआती दौर में रशीदा के साथ भी ऐसा ही होता है। सईदा आपा के घर में सेक्स की किताब देखकर उसके मन में तरह-तरह के ख्याल आने लगते हैं तथा हर एक के प्रति घृणा उत्पन्न होने लगती है। वह कहती है कि-“मेरा दिमाग लपक कर किताब के उन पन्नों में चला जाता है! छी कैसी बेहूदा किताब  थी वह! सब फोटो क्या और क्यों हो रहा था उन पन्नों पर? कहीं ऐसा भी कोई करता होगा! छी छी……!इसके आगे उस समय दिमाग ने सोचने से इनकार कर दिया लेकिन उस पल के बाद शरीर के कुछ हिस्से जो मेरे लिए तब तक ज्यादा अर्थ नहीं रखते थे एकदम रहस्यमय हो गए। उनका बेमौके इस तरह मेरे सामने आना मुझे एकदम चौका गया और शायद जीवन में पहली बार मेरे दिमाग में आया की अम्मी अब्बू भी तो अकेले रहते हैं? क्या कभी अम्मी और अब्बू ने भी वैसा किया होगा जो किताब में ___? छी! छी! हमारे अम्मी अब्बू अच्छे लोग हैं। वह कभी भी ऐसी गंदी हरकत नहीं कर सकते कभी नहीं| मैं अकेले घंटों बैठी सोचती रहती लेकिन अम्मी से कुछ कहने या पूछने की हिम्मत कभी नहीं जमा कर पाई |खासी उम्र तक मैं यही सोचती  रही कि बच्चे यूं ही पति-पत्नी के साथ रहने से पैदा होने लगते हैं उसके लिए उन्हें कोई गंदी हरकत हरगिज नहीं करनी पड़ती!”

         बच्चों के मन में इस तरह के ख़्याल उनकी लैंगिक शिक्षा की कमी के कारण ही पनपते हैं | आज भी हमारे समाज में अक्सर यह देखा जाता है कि सेक्स पर लोग बात नहीं करना चाहते, बच्चों को इससे संबंधित जानकारी नहीं देते। कभी-कभी यह घटना इतनी बढ़ जाती है कि उसको संभालना मुश्किल हो जाता हैं | अज्ञेय की ‘शेखर एक जीवनी’ का शेखर भी इसी तरह के यौन मनोविकृति से पीड़ित है। इस तरह यह उपन्यास भी यौन शिक्षा का समर्थन करता दिखाई पड़ता है|

         हिंदू मुस्लिम के बीच के दंगे को बहुत ही मार्मिकता से प्रश्नों के जरिए अभिव्यक्त किया गया है कि दो धर्मों के बीच दंगा होने के बाद वहाँ की जनता पर क्या बीतती होगी ? रशीदा कहती है कि “हमारे जैसे मोहल्ले में जहां 90% के लगभग मुसलमान रहते हैं 10% हिंदुओं के दिल पर क्या गुजर रही होगी? ऐसा क्यों है कि जिसके खाल पर होली का रंग लग जाएगा वह जहन्नुम में जलेगा ? शादियों में जो हम लोग उबटना खेलते हैं वह भी तो लगभग होली जैसा ही होता है और अगर कुछ लोग बुरा मानते हैं नहीं खेलना चाहते रंग तो लोग उन्हें क्यों नहीं छोड़ देते, हर एक पर रंग डालना क्या जरूरी है, यह हिंदू मुस्लिम दंगा है क्या और क्यों है ? हमें क्लास में जो एक सबक पढ़ाया गया उसमें शिवाजी की बहादुरी के कारनामे है और जब नन्हें चाचा बात करते हैं तो शिवाजी पहाड़ी चूहा हो जाते हैं!” इस तरह यह हिंदू-मुस्लिम के बीच मतभेद, धर्म के नाम पर मन-मुटाव, तकरार अक्सर देखी जाती है। इस पूरे उपन्यास में शुरू से लेकर अंत तक यह तकरार होते रही है, कभी हिंदुस्तान-पाकिस्तान बँटवारे के नाम पर तो कभी महात्मा गांधी, जिन्ना के नाम पर तो कभी पर्व और त्योहारों के नाम पर।

         रशीदा का परिवार ऐसे परिवार में आते हैं जिन्हें दंगा से काफी मतलब नहीं होता है, वह बतौर इंसान उसको समझने और विचार करने की कोशिश करते हैं, लेकिन इस उपन्यास के अंत तक यह विचार कायम नहीं रहता है। सुहेल मुसलमानों के पक्ष में बोलने लगता है तथा मुस्लिम लीडर बनने की कोशिश करने लगता है।

            इस उपन्यास में दो धर्मों के बीच पनपे हुए प्यार का वर्णन किया गया है| दो धर्म के बीच के प्यार की क्या स्थिति होती है उसको इस उपन्यास में देखा जा सकता है। सुहेल को भी एक हिंदू लड़की से प्यार होता है तथा रशीदा को भी अपने भाई के दोस्त विजय से प्यार हो जाता है, दोनों का प्यार लंबे वक़्त तक नहीं चल पाता है क्योंकि प्यार के बीच में धर्म आ जाता है। प्यार के मामले में अभी भी समाज में बहुत ज़्यादा बदलाव नहीं आया है। अभी के समाज में भी प्यार को आसानी से स्वीकृत नहीं किया जाता है। दो धर्म और दो अलग-अलग जाति के बीच उपजे हुए प्रेम का तो अक्सर दुखद अंत ही होता है। इंसान पूरी तरह से आधुनिक होकर भी इस मामले में अभी भी ज्यादातर रूढ़िवादी है |

             इस उपन्यास में एक महत्वपूर्ण विषय यह है कि बंटवारे में अलग तो हिंदू और मुस्लिम दोनों हुए तो फिर शक की नजर से सिर्फ मुसलमान को ही क्यों देखा जाता है! बंटवारे के समय कुछ मुस्लिम परिवार जो पाकिस्तान में पहले चले गए थे और कुछ हिंदुस्तान में रह गए थे वे एक-दूसरे की चिंता भी नहीं कर सकते थे। उस समय की स्थिति ऐसी थी कि पाकिस्तानी समाचार देखना भी गुनाह था, अगर कोई हिंदू पाकिस्तानी समाचार को देखता था तो वह वहाँ की स्थिति को जानने के लिए देखता था और वहीं अगर कोई मुसलमान देखता था तो उसे पाकिस्तानी जासूस कहा जाता था और उसे प्रताड़ित भी किया जाता था। यह कैसा भयावह दृश्य था जिसमें एक परिवार अपने लोगों की चिंता भी नहीं कर सकता था!

               सुहेल और उसके दोस्त विजय के बहस के जरिए मंजूर एहतेशाम ने एक ही मुल्क में रहने वाले हिंदू और मुसलमान के बीच के भेदभाव को बहुत ही गहनता से अभिव्यक्त किया है। सुहेल कहता है कि “हिंदू और मुसलमान में सबसे बड़ा फर्क तो यही है कि हिंदू को यह साबित नहीं करना पड़ता कि उसका मुल्क हिंदुस्तान है!” बार-बार अपनी नागरिकता और पहचान को साबित करना किसी भी धर्म के लोगों के लिए कितना दुर्भाग्यपूर्ण होता होगा, इसका पर्याप्त संकेत इस उपन्यास में मौजूद है।

              इस उपन्यास की समस्या धर्म के साथ कहीं ना कहीं अल्पसंख्यक समुदाय की समस्या भी है। जिस तरह की परेशानियों का सामना हिंदुस्तान के मुसलमान को करना पड़ रहा है इस तरह की परेशानियों का सामना पाकिस्तान के हिंदुओं को भी करना पड़ रहा है, उन्हें भी पाकिस्तान में हिंदुस्तानी जासूस कहा जा रहा है, वहाँ के मंदिरों को तोड़ा जाता था तथा हिंदू घरों को नुकसान पहुँचाया जाता था |

               इस उपन्यास में धर्म के नाम पर होने वाली राजनीति का कटाक्ष पूर्ण वर्णन किया गया है | अगर दो हिंदुओ में लड़ाई भी हो जाए तो लोग नजर अंदाज कर देंगे लेकिन अगर हिंदू और मुसलमान में थोड़ी बहस भी हो जाए तो वह सियासी मसला बन जाता है। कुछ हिंदू और कुछ मुस्लिम नेताओं की वजह से टकराहट बढ़ती जाती है, नेता हमेशा जाति और धर्म के नाम पर लड़वाकर अपना काम निकालना चाहते हैं| इस उपन्यास में एक मुस्लिम नेता ‘रजब अली’ के माध्यम से धर्म के नाम पर होने वाली होने वाली राजनीति को समझा जा सकता है।वह नवयुवक को अपने बहकावे में लाकर काम करवाता है और उन्हें धर्म और मुल्क के नाम पर भड़काता है। वही सुहेल जो उपन्यास के शुरुआत में कहता है कि रजब अली जैसे लोग ही मुल्क के मुसलमान को बदनाम करते हैं, उपन्यास के अंत तक आते-आते रजब अली का परम हितैषी बन जाता है तथा उसके साथ आंदोलन में हिस्सा लेने लगता है |

              इस उपन्यास में हिंदुस्तान और पाकिस्तान की राजनीति को देखने के साथ-साथ अमेरिका की राजनीति भी देखी जा सकती है। परवेज अली के माध्यम से तीनों देश की राजनीति तथा उसकी तुलना की गई है, अंत में हिंदुस्तान जैसा धर्मनिरपेक्ष देश ही अग्रणी होता है| परवेज का कहना है कि धर्मनिरपेक्ष देश में रहना धार्मिक देश में रहने का अपेक्षा ज्यादा अच्छा है। 

              पाकिस्तान और हिंदुस्तान की तुलना करते हुए कहते हैं कि पाकिस्तान में जिया का राज है वह मुसलमान को बहुत ज्यादा दबाव में रखता है जो मुसलमान इस्लाम धर्म की कट्टरपंथियों को नहीं मानता उसे या तो मार दिया जाता है या कैद कर लिया जाता है! इसका अंदाजा इस प्रसंग से लगाया जा सकता है –“पाकिस्तान में एक अखबार के यह लिख देने पर कि एक ऐसे मुल्क से जहाँ ख़ुदा के होने से इतने जुल्म और बुराइयां परवारिश पाएं, एक ऐसा मुल्क जिसमे बगैर ख़ुदा के अमनो अमान हो, कहीं बेहतर है! अंदर कर दिया अखबार के स्टॉफ और एडिटर को! जबकि उसने इस्लाम का तो कहीं नाम भी नहीं दिया था!”

             पाकिस्तान में रहना मुस्लिम के लिए भी बहुत मुश्किल हो रहा था | धार्मिक देश होते हुए भी वहाँ हिंदुओं के साथ-साथ मुसलमान को भी प्रतिदिन प्रताड़ित किया जा रहा था। इन सब प्रसंग से इस्लाम धर्म के अंदर कट्टरता का अंदाजा लगाया जा सकता है| नमाज पढ़ना या रोजा रखना इंसानों के मन पर होना चाहिए ना कि उनके साथ जबरदस्ती करना चाहिए।  आज भी हमारे समाज में कुछ लोग हैं जो धर्म के नाम पर दिखावा करते हैं, दिखावे में विश्वास रखते हैं| अगर भगवा पहनेगा तभी हिंदू कहलाएगा और नमाज पढ़ेगा, तभी मुस्लिम होगा |     

 इन्हीं लोगों पर कबीर दास कहते हैं कि

  “मन ना रंगाये रंगाए जोगी कपड़ा | 

 दाढ़ी बढ़ाए जोगी होइ गैले बकरा” ||

आप दिखावा करने से आस्तिक या पवित्र नहीं होंगे जब तक मन पवित्र नहीं होगा तब तक दिखावा का कोई मतलब नहीं है |

         बक़ौल ‘परवेज अली’  अपना भारत देश सबसे अच्छा है जहाँ किसी भी धर्म को मानने की पाबंदी नहीं है। वह कहते हैं कि –

“अगर मुकाबला किया जाए तो आप लोग तो विला सुबह जन्नत में हैं | आप अपने ढंग से सोच सकते हैं, अपनी मर्जी पर चल सकते हैं,___ नमाज पढ़ने या ना पढ़ने के लिए भी यहां कोई मजबूर करने वाला नहीं है आपको और देखिए, खैर आपसे क्या कह रहा हूं, देखने को तो खुद मुझे देखना है लेकिन जितना पढ़कर या लोगों से बात करके यह थोड़ा वक्त इंडिया में__ बाम्बे या यहां गुजारकर जो अंदाजा लगा पाया हूं वह यही है कि दोनों मुल्कों में कोई मुकाबला किया ही नहीं जा सकता | यहां भी तब्दीली आई है और वह पाकिस्तान में इंकलाब से कई गुना बड़ी तब्दीली है लेकिन क्या खून का एक कतरा भी बहा” |

           इस उपन्यास में इस्लाम धर्म के सारे आंतरिक पहलुओं पर चर्चा की गई है।  एक मुसलमान का नमाज ना पढ़ना, रोजा नहीं रखना, सुअर खाना, लोगों से दूर रहना, भारत – पाकिस्तान विभाजन की त्रासदी, एक लड़की का अंतरधार्मिक प्रेम, यौन शिक्षा का अभाव, बिना विवाह के हिंदू लड़का के साथ शारीरिक संबंध, हिंदुस्तान और पाकिस्तान की राजनीति, पौराणिकता और आधुनिकता का द्वंद आदि हर एक पहलू पर गहराई से विचार किया गया है | 

             आज का समय इस उपन्यास के समय से बहुत ज्यादा बदला नहीं है| आज भी धर्म विकास के आड़े आ रहा है, धर्म के नाम पर अक्सर  दंगे होते रहते हैं, हिंदू-मुस्लिम के नाम पर वोट बैंक तैयार किया जाता है, धर्म के नाम पर राजनीति हो रही है। लगभग प्रत्येक त्योहार पर दंगा हो जाता है।  एक इंसान को एक इंसान के नजरिए से देखने की बजाय लोग धर्म और जाति के नाम से देखते हैं | जहाँ धर्म और जाति अत्यधिक हावी हो चुका है। 

            इस उपन्यास की शुरुआत परवेज अली के भारत आकर बसने की खबर से होती है तथा अंत हिंदू मुस्लिम दंगे में जमशेदपुर में एक लेखक के मरने से होती है।  इस उपन्यास के अंत में लेखक यह संकेत करते हैं कि धर्म इंसान के अंदर इतनी गहराई से प्रवेश कर चुका है कि लाख कोशिश के बाद भी वह इंसान को ग्रसित कर रहा है। अंत में लिखते हैं कि –

“वह जो एक राइटर था ___हिंदू मुसलमान भाई-भाई की थीम पर उर्दू में जिंदगी भर कहानियां लिखता रहा उसे भी निपटा दिया गया” | 

                                            

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