जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.


आज पढ़िए अर्चना के शंकर की कहानी ‘गुलाबी साड़ी और दाल’। अर्चना स्वतंत्र लेखन के साथ-साथ अनेक डिजिटल मंच के लिये लिखती हैं।उनकी यह कहानी बिल्कुल ही अलग तरह से बुनी हुई, लीक से हटकर है जो देखने में ऐसे तो सामान्य दिनचर्या वाली लगे लेकिन ध्यान से पढ़ने पर मालूम होता है कि कितना कुछ संकेत करती है यह जिसमें  निम्नवर्गीय जीवन में जी रहे लोगों के मनोविज्ञान की ओर ध्यान ले जाना एक बड़ी विशेषता है-

======================

कच्ची मिट्टी की दीवार और कच्ची मिट्टी का फर्श.. दीवार पर लगी लकड़ी की खूँटी! लकड़ी की मोटी सी खूँटी, जिसका रंग स्याह हो गया है वर्षों तक जाने कितनों के हाथों का मैल लगते लगते.. वो खूँटी! जिसने कितनी पीढ़ियों के दुःख और सुख को अपने ऊपर टाँगा। 

खूँटी पर पर चूनट कर रखी दो साड़ियाँ, एक सुर्ख़ लाल और एक शांत सकून सा आसमानी। 

फर्श पर लगभग निढाल सी बैठी राधा.. निहार रही थी खूँटी पर टंगी साड़ियों को…

उसकी आँखें गोल-गोल सी हो गई लेकिन माथे पर चिंता की अनगिनत लकीरें, वो लकीरें जिन्हें कई बार आइने मे ख़ुद को निहारते हुए अपने उँगली के पोरों से मिटाने की अथक कोशिश करती..और मिटाते-मिटाते जाने कितनी और लकीरें खिंच आती उसके उज्ज्वल से माथे पर जिनपर लगी बिंदी को पति रोज़ चूम लेता था जब 15 साल पहले ब्याह कर आई थी वो इस घर में।

चेहरे पर बेचैनी के साथ उत्सुकता भी.. बेचैनी से दोनों साड़ियाँ को पलट ऐसे निहार रही थी मानो साड़ी का अम्बार लगा हो उसके सामने। 

“कौन वाली पहने हम मंटु के तिलक के लिए? लाल वाली तो पहन लिए थे मीरा के बियाह में, एका तो सब लोग देखे हैं…और नहीं तो मीरा के बियाह के फोटो मे हम यही साड़ी पहने दिखते भी हैं! हाय राम जी! उस दिन को कैसे भूले जब ई साड़ी पहन के निकले तो बाराती सब हमहीं को देखे जा रहे थे! और मिठाई वाले कोठरियां की कहानी…पीछे से हमको ई दबोच लिए, मारे शर्म के हम तो गड़ ही गए जमीन में। नैहर मे पति ऐसे अपने बांह में पकड़ ले तो दिल कैसे धक्क कर बैठ जाता है.. और तब तक आई अम्मा। अम्मा की आवाज़ सुन बैठ गए कुर्सी पर कि क्या ही कहें! 

लाल साड़ी का सुर्ख स़ोख वृतांत याद कर कैसी मधुर सी मुस्कान की रेखा खिंच आई उसके होंठो पर.. और कपोलों पर ऐसी रक्ताभ आभा दौड़ी की उसके गाल गर्म हो धधक से उठे। 

अचानक साड़ी के चयन का विषय याद आया तो मानो स्निग्ध मखमली धरा से जैसे किसी ने उसे खिंच कर पटक दिया हो.. सख्त शुष्क दरारों से भरी ज़मीन पर! 

नजर आसमानी साड़ी की तरफ़ गई.. 

“आसमानी वाला कोई नहीं देखा लेकिन एकरे आँचल में अगरबत्ती से जला दूई छेद है.. मूई औरतन भी ना! मंदिर में अगरबत्ती काहे जला देती है, हम तो एक लोटा जल डाल आते हैं शिव जी को।”

“ए.. शिव! जी हम एक लोटा जल डाल आते हैं ना दूध ना फूल ना अगरबत्ती…कहीं इसी से तो हमार गरीबी से हमको मुक्ति नहीं मिल रही? ए लेकिन शिव जी दूध कैसे डाले मुन्ना के लिए किसी तरह एक पाव लेते हैं उसमें आपको भी!!. अच्छा-अच्छा एक दिन मुन्ना नहीं पियेगा तो क्या हो जाएगा।”

सच ही है देखो ना रामदिन काका की बहू जब से आई कितना कुछ सुधर गवा उनके घर में, ऊ रोज-रोज तो मंदिर जात रहे.. दोनों बेटा कमाएं लगे, चाची भी तो परचून की दुकान डाल अपने ही घर मा। 

सोचते-सोचते विषय अब साड़ी से शिव जी पर है। फ़िर हाथ जोड़ धीरे धीरे बुदबुदाने लगी.. 

“ए शिव जी रोज़ नहीं लेकिन कभी हम भी दूध फूल चढ़ा देंगे और अगरबत्ती भी सुलगा देंगे.. अब तक की गलती को माफ़ करो भाई!” 

शिव जी से प्रार्थना और माफ़ी की अर्जी लगा, ध्यान फिर साड़ी पर… 

“शिवरात्रि के दिन ई साड़ी पहन के गए और दूई गो छेद हो गया अगरबत्ती से! नैहर में इसे पहन के गए तो किससे- किससे कहते फिरेगें कि ई नई साड़ी है….दो छेद देख सब का कहिएं!!!”

सोच कर मन हलकान सा हो रहा.. विषय गंभीर! साड़ी  से शिव और फिर साड़ी! समंदर सा जिसमें गोते खा ही रही थी कि एक आवाज़ के साथ तन्द्रा टूटी। 

“भाभी ओ भाभी! .. एक कटोरी कच्ची दाल दे दो मेहमान आ रहे हैं घर हमारे, सब अचानक से आ धमकेंगे कौन जानता था… कैसे तरकारी भात खिला दें! ननद के ससुराल से हैं सब, एक उसका देवर एक जेठ और दो उनके दोस्त। बड़की वाली कटोरी से दे दो अब उनको पानी वाला दाल भी कैसे खिलाएं… गौरा के बियाह के बाद पहली बार उसके ससुराल से कोई आ रहा है। कल तुम्हें वापस कर देंगे जब दाल मंगा लेंगे।”

दरवाज़े को लाँघते घर मे पहुँचते-पहुँचते सारी बात एक साँस में कह गई मुनिया! कौन मुनिया? वही पडो़स की मुनिया! जो राधा की सखी, सहेली, पटीदार, और कुछ घण्टों के लिए कभी दुश्मन भी बन जाती… पड़ोसी आपके सबसे करीब होते हैं, आपके अपनों से भी ज्यादा क़रीब, जो आपके दुःख–सुख, खाने-पीने का साझेदार होते हैं, वही पड़ोसी जिनके बच्चों के साथ खेलते हुए आपके बच्चों की लड़ाई हो जाए तो कुछ घण्टों के लिए जम के दुश्मनी निकाली जाती है लेकिन उन्हीं पड़ोसी का बच्चा जब बीमार हो जाता है तो सबसे पहले आप भागते हैं या वो आपके लिए। बस वही रिश्ता ये दोनों निभा रही थीं खाने-पीने, ओढ़ने-पहनने, जाने-अनजाने बातों का, खिलखिलाने और कभी-कभी गुस्से में मुँह फूलाने का। 

अपनी बात कह के मुनिया ने साँस लिया तो, निढाल सी राधा को सुनी आँखों साड़ी निहारते हुए पूछ बैठी.. 

“का भाभी कौन सी चिंता है, जो तुम्हें इतना परेशान कर रखा है?” 

सारा हाल जानकर भागती गई अपने घर की तरफ एक पल ना रुकी, आँधी की तरह गई और तूफ़ान की तरह लौटी, हाथ में गुलाबी रंग की साड़ी, चटख गुलाबी रंग.. सितारों का काम, गोटे लगे किनारे.. हाय ऐसे जैसी दुकान से अभी खरीद लाई हो। 

“भाभी ई लो साड़ी, मेरे भाई की शादी में अम्मा ने खरीदी थी हमारे लिए.. पूरे सत्रह सौ की है.. बस देखना.. सही सलामत लौटा देना  हाँ!  जानती ही हौ.. गौरा के देवर की शादी पड़ी है तो सोच रहे हैं यही साड़ी पहनकर जाएंगे उसके ससुराल.. ननद की इज़्ज़त भी बढ़ जाएगी और साथ में हमार भी। 

कहते हुए साड़ी को बड़े मोह से निहारते हुए हाथ से सहला कर सौंप दिया राधा को। 

दाल और साड़ी का अदल बदल हुआ बड़े हर्ष और उदार हृदय के साथ। इज़्ज़त दोनों की बची थी अपने-अपने रिश्तेदारों के सामने।

बस क्या राधा चल पडी साड़ी पहनकर आज उससे ज्यादा अमीर कोई था क्या… गुलाबी साड़ी भर मांग सिंदूर, चटक गुलाबी रंग मे डूबा होंठ, गुलाबी चूड़ी, सैंडल और ऊपर से रिजर्व आटो रिक्शा! आजतक जब भी मायके गई तो बस से.. ऊँची हील वाली सैंडल पहनकर ऊबड़ खाबड़ गालियों से गुजरती तो पैर कितनी बार मुड़ जाता.. कई बार सैंडल हाथ मे लेकर भागती जब पति चिल्लाता कि बस छूट जाएगी। 

ऑटो की फटफट से बस्ती के घरों से लोग निकल आए राधा खुश थीं, इतना बनाव-शृंगार सब लोग देख लिए! कई लोगों को तो बिना पूछे बता दिया कि भाई के तिलक के लिए जा रही है रात तक लौट आएगी।

ऑटोरिक्शा बस्ती की कच्ची गली से धूल उड़ाता जो गया मानो राधा के मन की बरसो की मुराद पूरी हुई हो, इसबार उसके मर्द के दोस्त ने फ्री में दे दी थी ये तीन पहिया, बस तेल का पैसा और शान की सवारी। 

नैहर पहुँच रौशनी की सतरंगी लटकती लड़ियों के जलते बुझती रौशनी में वो साड़ी और जगमगाने लगी, और जगमग सी हो उठी राधा की आँखे, सच था या उसका भ्रम उसे ऐसा लग रहा था जैसे मानो सब उसे ही निहार रहे हों! 

अपने ही ठाठ पर इतरा उसने तिलक के समय जमीन पर बैठने से इंकार कर दिया.. भतीजी से कह कुर्सी मंगा ली, वो कुर्सी जो सिर्फ़ तिलक चढ़ाने आए लड़की वालों के लिए था या घर के कुछ मर्दों के लिए  औरतों के लिए तो बिछा दिया जाता है ज़मीन पर सिर्फ़ गंधला सा एक जाजिम जिसपर गुड़मुड़ कर बैठती हैं औरतें। लेकिन आज हिम्मत कर एक कुर्सी मंगा ली उसने, शायद ये बगावत ही हो अपने पिता चाचा और भाइयों के सामने… लेकिन भाई आज किसी तरह का समझौता नहीं, आज बनाव-शृंगार से लेकर नैहर तक पहुंचने में एक ठसक के साथ आई थी राधा, तो समझौते का सवाल ही नहीं था, आज मेमों वाली अदा सी आ गई थी उसमें। पैर पर पैर चढ़ा लिया, आँचल खिंचकर अपने पैर के ऊपर डाल लिया, आँचल में लगे गोटे और किनारे पर झूल रहे गोल गोल सुनहले लट्टु उसकी साड़ी की शोभा और बढ़ा रहे थे। 

उधर मुनिया ने भी दाल पका लिया साथ मे छौंक लगा दी प्याज़ और टमाटर से, घी के बंडली से बर्तन में चिपका सारा घी उँगली से पोंछ पोंछ निकाल छौंक लगा था तो पूरा घर महक उठा था, साथ में दो सब्जी और भात.. मूली प्याज और नींबू-हरी मिर्च…दाल में कतर कर हरा धनिया डाल दिया सीधे कटोरे में जैसे टी.वी. में डालते हैं सब…. ओह! कैसे थाली भर सी गई मेहमान के सामने खाना परस इतराती सी बैठ गई मुनिया… 

तीनों बच्चे उमड़-घुमड़ कर मेहमानों के चारों तरफ़ यूँ मचल रहे थे कि छीन कर ले जायेंगे ये थाली…आँखों से घुड़की दें उन्हें मेहमानों से दूर रखने की भरसक प्रयास चढ़ी हुई त्योरियां मेहमान ना देख ले तो बीच बीच मे खिलखिला पड़ती, अपनी ननद का हालचाल पूछते-पूछते बड़े जतन से सभी मनुहार कर खिला रही थी, कोई शंका नहीं आज बर्तन मे भरपूर खाना था मेहमानों के साथ आज पूरा परिवार छक के खाएगा ये विश्वास था उसे। 

मेहमान तृप्त होकर घर से गए तो गृहस्थन के लिए इससे बड़ी खुशी और संतुष्टि क्या होगी, ननद के ससुराल मे कम से कम सब ये तो जानेंगे कि ढंग से खाने पहनने वाले लोग हैं। 

सोचते भूख कैसे ख़त्म सी हो गई बच्चों और पति को खाना परोस खुद के लिए खाना निकालने लगी तो हैरान सी हो गई “मरी! ये भूख जब बर्तन मे खाना कम होता है तो भूख ज्यादा लगती है और आज सब कुछ है तो भूख कम!” 

मुस्कराती हुई खाना निकाल बैठ गई.. मेहमानों की तृप्ति से भूख मर गई कि इन बच्चों की तृप्ति देख..उँगलियों पर लगी दाल को चाटते छुटकी बोली अम्मा दाल आज बड़े स्वाद की बनी है! ऐसा ही रोज काहे नहीं बनाती! 

कहते हुए छुटकी की आँखें गोल-गोल सी हो चमक उठी उन आँखों को देख मुनिया खिलखिला उठी ।

वो रात बीती दूसरे दिन चिंता दोनों को हुई।

राधा को चिंता थी कि नैहर के खाना खाते समय साड़ी पर तरकारी कटोरा उलट गया पोंछ के साफ़ कर दिया, भौजाई से कहकर तुरंत धुलवा कर डारे पर डलवा दिया अम्मा की साड़ी लपेट बैठ गई वही अरगनी के पास डेरा डाल कहीं कोई गाँव की मेहरारू खिंच ना ले जाए साड़ी… पूड़ी के पत्तल के बीच रख कर जाने क्या क्या इस पार से उस पार कर दे ई मेहरारू सोचते हुए बैठी रही वही बैशाख की रूखी हवा बह रही थी सो सूख गई साड़ी जल्दी ही लेकिन तेल का दाग रह गया, गुलाबी रंग की साड़ी में पीला सा धब्बा वो भी एकदम साड़ी के सामने।

उधर मुनिया को भी चिंता थी एक ही कमासुत है घर में उसका पति, वो रात से ही बुखार में बिस्तर पर था, जो कुछ बचाखुचा पैसा था वो भी मेहमानों के आवभगत मे ख़तम हो गया। ‘रोज की रोजी और रोज़ की रोटी दाल’ पर चलने वाला परिवार! अब घर मे दाल आए तब तो राधा को वापस करे, अब तो कुछ दिन नून रोटी का जुगाड़ मुश्किल है। और तो और कल राधा ने जितना दाल था सब उड़ेल दिया था कटोरे में, उसका छोटा बेटा तो बिना दाल के एक ग़स्सा भी नहीं निगलता खाने का कहीं माँगने ना आ जाए सोंचते घबराई.. उसे क्या पता था कि राधा तो आज उससे मिलने से रही दाल माँगना दूर की बात। 

आज के दिन दोनों बंद थी अपने अपने घर में एक दूसरे से मिलने और बतियाने की सारी योजना ठप। 

कल तक साड़ी एकबार परचून की दुकान पर मिलने वाले महंगे सर्फ से धूल कर साफ हो जाएगी और अगर तब भी दाग नहीं गया तो नुक्कड पर ड्राइ क्लीनिंग वाले के यहाँ ले जाएगी, वो तो छुड़ा ही देखा सौ दो सौ लेगा तो लेगा जान फंसी है वो छूटे पहले। 

सोचते हुए बेटे को पैसा दे बढ़िया वाला सर्फ खरीदने भेज दिया राधा ने, परेशानी तो आई है लेकिन उसका हल सोच मन को समझा बुझा काम पर लग गई। 

मालिश ख़त्म कर तुलसी पत्र का काढ़ा बना दिया, तुलसी पत्र तोड़ते बड़ी निहाल सी हुए जा रही थीं उनपर मन मे ही बोलती रही..  “यही तुलसी मैया ही हैं जो फ्री मे अपना पत्ता दे देती हैं इससे आराम तो जरूर होगा थोड़ा काली मिर्च पड़ा है ऊ डाल देंगे और गुड़ भी, इसको पीकर छुटकी के पापा फिट हो जाएंगे एकदम।”

उस ‘फिट’ शब्द मे आशा की वो किरण थी जिसके भरोसे परिवार का भरण पोषण चलता है। 

शाम होते-होते दोनों खुश थी उनके घर की इज़्ज़त रह गई.. कल के सब ठीक होगा और कल के दिन का सोच दोनों काम निपटाते निपटाते मुस्करा रही थी। 

इस बस्ती में जीवन ऐसे ही चलता है उधार से, लेन- देन से, थोड़ा थोड़ा करके, टुकड़े-टुकड़े कर, कुछ घण्टों में, सुबह की सुबह में, शाम की शाम में, कल की कल में, और आज की आज में। 

जीवन उससे जुड़ी परेशानियां, और उनके साथ जीवन को जीने का ज़ज्बा, सब साथ चलते हैं  जैसे बस्ती की संकरी रेंगती ऊबड़-खाबड़ सी गालियों के साथ पतली पतली कई धार में बहती रुकती बजबजाती नालियां और उसके साथ सूरज की चमचमाती किरणों के बिम्ब जो इधर उधर के दरीचों से निकल सीधे इस बस्ती के दरवाज़े और खिड़कियों पर पड़ते हैं ये बताने को कि ये जीवन है जहां बजबजाती नालियों से उठते भभक्के हैं तो किरणों के बिम्ब और पूर्वा हवा के मधुर झोंके भी। 

यही तो है गुलाबी साड़ी और दाल का लेन देन।






Share.
Leave A Reply

Exit mobile version