—————————-
किसी ठौर
सूर्य खोलता है इन्द्रधनुष का रंग
कसता ही जाता है रेत का घेरा
कौन बादल ले गया वो चन्द्रमा और हरीतिमा
जो बुना करती थी रेत की छाँह में ओस के रूमाल
फिर भी किसी ने तो बचा रखा होगा
कोई वजीख़ाना कोई धोबीघाट कोई प्रेतघट
२.
इस तरह से जीना
यहाँ तो मात्र प्यास-प्यास पानी, भूख-भूख अन्न
और साँस-साँस भविष्य
वह भी तो जैसे-तैसे धरती पर घिस-घिसकर देह
देवताओं, हथेलियों पर दो थोड़ी जगह
खुजलानी हैं लालसाओं की पाँखें
शेष रखो भले पाँव से दबा बुरे दिनों के लिए
घर को क्यों धांग रहे इच्छाओं के अन्धे प्रेत
हमारी सन्दूक में तो मात्र सुई की नोक भर जीवन
सुना है आसमान ने खोल दिए हैं दरवाज़े
पूरा ब्रह्मांड जब हमारे लिए है
चाहें तो सुलगा लें किसी तारे से अपनी बीडी
इतनी दूर पहुँच पाने का सत्तू नहीं इधर
हमें तो बस थोड़ी और हवा चाहिए कि हिले यह क्षण
थोड़ी और छाँह कि बांध सकें इस क्षण के छोर।
३.
शिलालेख
बिना पैसे के दिनों और
बिना नींद की रातों की स्वरलिपियां
खुदी हैं आत्मा पर।
बने हैं निशान
जैसे फोंफियाँ छोडकर जाती हैं
पपीते के पेड़ों के हवाले।
फोंफियों की बाँसुरियाँ
महकती हैं चंद सुरों तक
और फिर चटख जाती हैं।
दूर-दूर के बटोही
रोकते हैं क़दम
इन सुरों की छाँह में
पोंछते हैं भीगी कोर
और बढ़ जाते हैं नून-तेल-लकड़ी की तरफ़।
४.
प्रतीक्षा
देह छूकर कहा तूने
हम साथ पार करेंगे हर जंगल
मैं अब भी खडा हूँ वहीं पीपल के नीचे
जहाँ कोयल के कंठ में काँपता है पत्तों का पानी।
५.
सदृश
वे भाई की हत्या कर मंत्री बने थे
चमचे इसे भी कुर्बानियों में गिनते हैं।
विपन्नों की भाषा में जो लहू का लवण होता है
उसे काछकर छींटा पूरे जवार में
फसल अच्छी हुई।
कवि जी ने गरीब गोतिया के घर से उखाडा था खम्भा-बरेरा
बहुत सगुनिया हुई सीढी
कवि जी गए बहुत ऊपर और बच्चा गया अमरीका।
गद्गद् कवि जी गुदगुद सोफे पर बैठे थे
जम्हाई लेते मंत्री जी ने बयान दिया – वक़्त बहुत मुश्किल है
कविता सुनाओगे या दारू पिओगे।