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1.
क्यों देती हैं स्त्रियाँ गाली?
कल उस दबंग मुंहजोर औरत को
जिसका मर्द,कहीं भाग गया,
जिसका मर्द,कहीं भाग गया,
सौंप कर चार बच्चे
जो मेरी गली के बाहर
बस स्टैंड पर लगाती है
छोटी सी चाय की दुकान,
एक रिक्शेवाले के भद्दे मजाक
पर देते सुना एक उतनी ही भद्दी गली
एक अनचाहा सा ख्याल आया,
छेड़ने लगा मुझे जैसे मार्च में
छेडती है कभी धूलभरी अनामंत्रित आंधी
कभी कभी अनचाहे ही,
“क्यों देती हैं स्त्रियाँ गाली?”
कैसे हो जाया करती हैं निर्लज्ज और बेशरम
क्या नहीं जानती कि
सिर्फ संस्कार पिलायें जाते हैं
हमें घुट्टी में,
जो जुड़ जाते हैं हमसे जैसे उँगलियों के साथ नाखून
जिनसे अलग होना बड़ा दुखदायी होता है
एक औरत के लिए,
हम महान औरतें जो सुशोभित हैं
देवी के पद पर,
कैसे ला पाती हैं मिश्री जैसी जबान पर
इतने गंदे शब्द,
तब भी, जबकि लगभग हर घृणित गाली
शुरू होती है हम से
और ख़त्म हो जाती है हमारे ही दबे-ठके
अंगों पर,
नंगा कर जाती है हमें सरेबाजार,
चाहे कितना भी सहेजती रहें हम आंचल,
क्या भरी सभा में बालों से खींच कर लायी गयी
रजस्वला अबला को देनी चाहिए गाली,
या जिसे लूटकर फोड़ दी जाती हैं ऑंखें
एक उबल पड़ने को आतुर पौरुष द्वारा
क्या गाली आई होगी उसकी जबान पर,
या एक दुरात्मा द्वारा छली गयी
उस औरत को, जो अपहृत की गयी थी
पुष्पक विमान में, देनी चाहिए कोई गाली,
यूँ हर रोज़ आहत होती हैं कितनी ही
कितनी ही अस्मिताएं और तार-तार हुए
वजूद को समेटती हैं बिसूरते हुए
अपहृत, बलित्कृत, प्रताड़ित,
कभी दागी जाती हैं अहम् के सलाखों से,
तो कभी नोंची जाती हैं
जैसे हड्डी से मांस नोचते होंगे कसाई,
कदम कदम पर झेलती हैं जाने कैसे कैसे
दुराचार, अपनी देह और आत्मा पर,
उन्हें दफन हो जाना, मौन हो जाना,
कदम कदम पर घुटना अपने ही खोल में,
हर रोज़ मौत को आमंत्रित करना
तो खूब सुहाता है
किन्तु गाली……?
जो मेरी गली के बाहर
बस स्टैंड पर लगाती है
छोटी सी चाय की दुकान,
एक रिक्शेवाले के भद्दे मजाक
पर देते सुना एक उतनी ही भद्दी गली
एक अनचाहा सा ख्याल आया,
छेड़ने लगा मुझे जैसे मार्च में
छेडती है कभी धूलभरी अनामंत्रित आंधी
कभी कभी अनचाहे ही,
“क्यों देती हैं स्त्रियाँ गाली?”
कैसे हो जाया करती हैं निर्लज्ज और बेशरम
क्या नहीं जानती कि
सिर्फ संस्कार पिलायें जाते हैं
हमें घुट्टी में,
जो जुड़ जाते हैं हमसे जैसे उँगलियों के साथ नाखून
जिनसे अलग होना बड़ा दुखदायी होता है
एक औरत के लिए,
हम महान औरतें जो सुशोभित हैं
देवी के पद पर,
कैसे ला पाती हैं मिश्री जैसी जबान पर
इतने गंदे शब्द,
तब भी, जबकि लगभग हर घृणित गाली
शुरू होती है हम से
और ख़त्म हो जाती है हमारे ही दबे-ठके
अंगों पर,
नंगा कर जाती है हमें सरेबाजार,
चाहे कितना भी सहेजती रहें हम आंचल,
क्या भरी सभा में बालों से खींच कर लायी गयी
रजस्वला अबला को देनी चाहिए गाली,
या जिसे लूटकर फोड़ दी जाती हैं ऑंखें
एक उबल पड़ने को आतुर पौरुष द्वारा
क्या गाली आई होगी उसकी जबान पर,
या एक दुरात्मा द्वारा छली गयी
उस औरत को, जो अपहृत की गयी थी
पुष्पक विमान में, देनी चाहिए कोई गाली,
यूँ हर रोज़ आहत होती हैं कितनी ही
कितनी ही अस्मिताएं और तार-तार हुए
वजूद को समेटती हैं बिसूरते हुए
अपहृत, बलित्कृत, प्रताड़ित,
कभी दागी जाती हैं अहम् के सलाखों से,
तो कभी नोंची जाती हैं
जैसे हड्डी से मांस नोचते होंगे कसाई,
कदम कदम पर झेलती हैं जाने कैसे कैसे
दुराचार, अपनी देह और आत्मा पर,
उन्हें दफन हो जाना, मौन हो जाना,
कदम कदम पर घुटना अपने ही खोल में,
हर रोज़ मौत को आमंत्रित करना
तो खूब सुहाता है
किन्तु गाली……?
2.
गुनहगार
हाँ वह गुनहगार है
क्योंकि सूंघ सकती है उस मिटटी को
क्योंकि सूंघ सकती है उस मिटटी को
जिसमें बहुत गहराई से दफ़न है कई रातें
रातें जो दम तोड़ गयी रौशनी की एक चाह में
रातें जो दम तोड़ गयी रौशनी की एक चाह में
नाजायज़ है जो तुम्हारे मुताबिक,
कुफ्र है लांघना सली-गडी मान्यताओं की दहलीज़
क्योंकि धकेल दिया जाता है ऐसे दुस्साहसियों को
फतवों और निर्वासन के खौफनाक रास्तों पर,
वह गुनहगार है
क्योंकि नहीं गिरवी रख पाई अपनी आत्मा
जब बढ़ रहे थे फतवों के नरपिशाच उसकी ओर
जिनकी डोरी थी तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के हाथों में,
औरत जो होती है किसी की बेटी, बहन, प्रेयसी, पत्नी और माँ,
देखती हैं जब खुदको उनकी आँखों से ,
तो सारी शक्लें गडमड हो बदल जाती
हैं महज एक किताब में,
वह गुनहगार है
क्योंकि ठंडा नहीं होता उसका खून
उन तमाम सियाह रातों के बावजूद,
जब भटक रही थीं संवेदनाएं
शरण और ठोकरों की खुली पगडंडियों पर,
वो स्याही जम गयी है उसकी सुर्ख आखों में
जिसे सहेजती है वह जतन से
जानती है कि उसकी नापाक कलम से
निकले हर हर्फ़ को जरूरत है इसकी,
वह गुनहगार है
क्योंकि जानती है कि वे तमाम औरतें
जो ख़ामोशी से सौप देती हैं अपना जिस्म,
अपनी जबान और अपनी आत्मा तक
खतरा नहीं है किसी के लिए
दुकानों और कारखानों में पिसता वह मासूम
बचपन खतरा नहीं है किसी के लिए
हर वो गोली, बारूद और मशीनगन, जिसमें छिपी हैं
न जाने कितनी निर्दोष जानें
खतरा नहीं है किसी के लिए
वह गुनहगार है
क्योंकि तलाशती है
एक मजबूत दीवार जिसके साये में सुस्ता सके
उसके लगातार दौड़ते कदम और उसके रखवाले
जिनके लिए जरूरी है चाय की आखिरी घूँट तक
छोड़ दे ढोंग उसकी निगहबानी का,
वह जानती है कि
किसी दिन एक लिबलिबी दबेगी
और सुनाई देगी एक चीख, एक धमाका और खून की कुछ बूँदें गिरेंगी
जिनसे किया जायेगा तिलक इतिहास की पेशानी पर
दुनिया देखेगी कि वो तब भी सफ़ेद नहीं होगा,
उस रात सो जायेंगे चैन की नींद, इन्साफ के तमगे अपनी छाती
पर सजाये कुछ लोग
कि दुनिया अब सुरक्षित है
और सुरक्षित है धर्मग्रंथों के तमाम नुस्खे
3.
शायद यही एक जरिया है मेरे प्रतिकार का
फिल्म चलती है,
समेटती है जाने कितने ही दृश्यों को
एक डायलोग से शुरू हो ख़त्म हो जाती है
एक डायलोग पर,
मध्यांतर में भी उभरते हैं कितने ही दृश्य,
एक तानाशाह डालता है अपना जाल
और हर बार फंस जाते हैं तेल के कुछ कुँए,
वहीँ सर झुकाए खड़ा है कोई आखिरी गोली की तलाश में,
लिए हुए अपने नाम और कारनामों की तख्ती,
ये धमक, आवाज़ है गिरा दी गयीं
चंद आस्थाओं की
जो खड़ी थी सदियों से बामियान में,
जैसे रेत की तरह गिर जाता है एक मुजस्मा,
जो नहीं जानता खुद की पहचान और देखता है
खून भरी आँखों में अपने नए नए नाम,
एक शहंशाह बांटता है सहायता, क़र्ज़ और समर्थन के
रंगीन गुब्बारे,
बदले में भर लेता है अपनी जेबें स्वाभिमान, आज़ादी और
कटी हुई जबानों से,
कहीं एक मजबूत पहाड़ की गौरवान्वित चोटी
बदल जाती है छोटे कमजोर पत्थरों में,
जिनसे खेल रहे हैं कुछ नामालूम लुटेरे
और लिख रहे हैं जमीनों पर कभी न मिटने वाली इबारतें,
और बदल जाती हैं हजारों जिंदगियां जीरो ग्राऊंड में,
कुछ लोग तब पोपकोर्न खाते है, कुछ ऊंघते हैं,
कुछ दबाते हैं अपनी चीखों को,
तब मेरी गूंगी ज़बान और कांपते हाथ
ढूँढ़ते है कागज़,
शायद यही एक जरिया है मेरे प्रतिकार का…..
4.
अर्धांगिनी
तुमने हर कसम
को एक साथ खाया था,
पर क्यों उसकी कसम
पत्थर की लकीर है
और तुम्हारी ओस की बूंद,
विवाह के अग्नि कुंड में
आहुति दी थी उसने
सब रिश्तों की,
जब बांधा
तुम्हारे प्रेम का मंगलसूत्र,
पर तुम्हारे सब सरोकार भी
बंध गए थे संग उसके,
वह हर दिन बनती रही
तुम्हारी अर्धांगिनी, मित्र,
माँ और दासी,
और तुमने बनना पसंद किया
स्वामी और केवल स्वामी,
क्यों नहीं बुझ पायी उस
अग्नि कुंड की ज्वाला
और हर दिन मांगती रही
एक नयी आहुति,
रिश्ते-नाते, मित्र,
महत्वाकांक्षाएं,
रूचि-अभिरुचि
और उसके होंठों की
वो निश्छल हंसी,
बदले में रोज सौंपते रहे
तुम जिम्मेदारी और कर्तव्य के
नित नए उपहार,
कल पढ़ा उसने कहीं
अर्धांगिनी का अर्थ,
और उलट-पुलट कर
देखते हुए उस विचित्र
ग्रन्थ को,
सोचा उसने कई बार कि
इसमें अर्धांग का जिक्र क्यों नहीं……..
5.
डर
पुरुष ने देखा प्रेम से,
और कहा, कितनी सुंदर हो तुम,
शर्मा गयी स्त्री,
पुरुष ने देखा कौतुक से,
और कहा कुछ नहीं,
स्त्री ने पाया,
उसकी आँखों के लाल डोरों को,
अपने जिस्म पर रेंगते हुए
असंख्य साँपों में बदलते हुए,
इस बार डर गयी स्त्री…………….
6.
विलुप्त प्रजाति
ओ नादान स्त्री,
सुन रही हो खामोश, दबी आहट
उस प्रचंड चक्रवात की
बेमिसाल है जिसकी मारक क्षमता,
जो बढ़ रहा तुम्हारी ओर मिटाते हुए तुम्हारे नामोनिशान,
जानती हो गुम हो जाती हैं समूची सभ्यताएं
ओर कैलंडर पर बदलती है सिर्फ तारीख,
क्या बहाए थे आंसू किसी ने मेसोपोटामिया के लिए
या सिसका था कोई बेबिलोनिया के लिए
क्या फर्क पड़ेगा यदि एक दिन
दर्ज हो जाएगी एक ओर विलुप्त प्रजाति
इतिहास के पन्नो में,
तुम्हारे लहू से सिंची गयी इस दुनिया में
यूँ ही गहराता रहेगा लिंग-अनुपात
और इतिहास दर्ज करता रहेगा
दिन, महीने, साल और दशक
सुनो, तुम साफ कर दी जाती रहोगी
सफेदपोशों के कुर्तों पर पड़ी गन्दगी की तरह,
सुनो आधी दुनिया,
तुम्हारे सीने पर ठोकी जाती है सदा
तुम्हारे ही ताबूत की कीलें
और तुम गाती हो सोहर, रखती हो सतिये,
बजाती हो जोर से थाली,
मनाती हो जश्न अपने ही मातम का,
ओर भूल जाती हो कि एक दिन मंद पड़ जायेंगे
वे स्वर क्योंकि बच्चे माँ की कोख से जन्मते हैं,
नहीं बना पाएंगे वे ऐसे कारखाने जहाँ ख़त्म हो जाती है
जरूरत एक औरत की,
क्यों उन आवाज़ों में अनसुनी कर देती हो
दबा दी गयी वे अजन्मी चीखें,
जो कभी गाने वाली थीं
झूले पर तीज के गीत,
महसूस करो उस अजगर की साँसें
जो सुस्ताता है तुम्हारे ही बिस्तर पर
तुम्हारी ही शकल में
और लील लेता है तुम्हारा ही समूचा वजूद धीरे धीरे,
तुम्हारी हर करवट पर घटती है तुम्हारी ही गिनती,
क्यों बन जाती हो संहारक अपने ही लहू की,
दर्ज करो कि कभी भी विलुप्त नहीं होते
भेड़ों की खाल में छिपे भेड़िये ओर लकड़बग्घे
ओर भेड़ें यदि सीख लेंगी चाल का बदलाव
तो एक दिन गायब हो जायेगा उनके माथे से
सजदे का निशान,
तुम्हारी आत्मा में सेंध लगा,
तुममें समाती ओर तुम्हे मिटाने का ख्वाब पालती
हर आवाज़ बदलनी चाहिए उस उपजाऊ मिटटी में
जिसमें जन्मेंगी वे आवाजें जो गायेंगी हर साल
“अबके बरस भेज, भैया को बाबुल”………………….
7.
प्रेम को पाने, खोने, पाने और फिर खो देने
के इस खेल में,
हर बार खुदके टुकड़ों को समेटते हुए भूल
जाया करती हूँ मैं गिनती,
सोचती हूँ आज सूरज को भर लूं अपनी मुट्ठी में
और महसू
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