रूसी कवि-लेखक बोरिस पास्तरनाक की मृत्यु के ५० साल हो गए. उनको नोबेल पुरस्कार मिला था. कविता के अलावा उन्होंने डॉक्टर जिवागो जैसा उपन्यास लिखा. उनकी दो कविताएँ यहाँ प्रस्तुत हैं. अनुवाद धर्मवीर भारती का है, जो विश्व कविता के उनके संचयन ‘देशांतर’ में संकलित है- जानकी पुल
1.
प्रातःकाल
तुम मेरी नियति थीं, सब कुछ
और फिर आया युद्ध, विध्वंस.
और कितने-कितने दिनों तक
न तुम्हारा अता-पता, न कोई खबर
इतने दिनों बाद
फिर तुम्हारी आवाज़ ने मुझे झकझोर दिया है
रात भर मैं तुम्हारा अभिलेख पढता रहा हूँ
महसूस हुआ जैसे कोई मूर्छा टूट रही हो
मैं चाहता हूँ लोगों से मिलना, भीड़ में,
भीड़ की प्रातःकालीन हलचल में-
मैं चाहता हूँ हर चीज़ की धज्जियाँ उड़ा देना
ताकि वे घुटने टेक दें
और मैं सीढ़ियों से नीचे दौड जाता हूँ
गोया उतर रहा हूँ पहली बार
उन बर्फानी सड़कों में
उनके सुनसान फुटपाथों पर
चारों ओर बत्तियों की रौशनी है,
घरेलूपन है, लोग जाग रहे हैं
चाय पी रहे हैं, ट्राम पकड़ने दौड रहे हैं
बस महज चंद मिनट और
कि शहर की शक्ल बदल जायेगी
बर्फीला अंधड एक जाल बुन रहा है
घनघोर गिरते बर्फ का जाल, फाटक के पार.
लोग वक्त पर पहुँचने की हड़बड़ी में
अधूरी थाल, अधूरी चाय छोड़ते हुए
मेरा मन उनमें से एक-एक की ओर से महसूस करता है
गोया मैं उनकी काया में जी रहा होऊं
पिघलते बर्फ के साथ पिघलता हूँ मैं
सुबह के साथ मैं तेज पड़ने लगता हूँ
मुझमें हैं लोग- अज्ञातनाम लोग-
बच्चे, अपने घर में तमाम उम्र गुज़ार देने वाले लोग, वृक्ष
मैं उन सबके द्वारा जीत लिया गया हूँ
यही मेरी एकमात्र जीत है.
2.
बसंत
मैं बाहर सड़क पर से आ रहा हूँ बसंत जहाँ
चिनार का वृक्ष अचरज में खड़ा है, जहाँ विस्तार हिम्मत हार बैठा है
और इमारत भयभीत खड़ी है कि कहीं गिर न पड़े
जहाँ हवा नीली है, मैले कपड़ों के बण्डल जैसी
अस्पताल छोड़ते हुए रोगी के हाथों में-
जहाँ शाम खाली सी है: एक तारा कोई कहानी कहना शुरू करता है
और बीच में कोई बोल देता है, उत्कंठित नेत्रों की पांतों पर पाँतें
घबरा जाती है, इंतज़ार करती हुई उस सत्य का जिसे
वे कभी न जान पाएंगी, उनकी अथाह दृष्टि खाली है.