लेखिका अनीता भारती ने महुआ माजी और साहित्यिक चोरी विवाद के बहाने कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठाये हैं- जानकी पुल.
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वरिष्ठ लेखक श्रवण कुमार ने प्रसिद्ध लेखिका महुआ माजी पर जो आरोप लगाए हैं उनमें मुख्य रूप से ‘साहित्यिक चोरी’ से लेकर उपन्यास ‘मैं बोरिशाइल्ला’ छपने के बाद उनके प्रति महुआ के बदले अनअपेक्षित व्यवहार व उपेक्षा भी शामिल है। लगता है श्रवण कुमार जी महुआ माजी की प्रसिद्धि से बहुत आहत हो गए और आहत होकर उन्होंने महुआ पर कई व्यक्तिगत आरोप भी लगा दिए। यह सब तो दुखद है ही लेकिन इससे ज्यादा दुखद तो इस प्रकरण पर, बाद में आई टिप्पणियां हैं जिनमें महुआ माजी के चारित्रिक हनन के आरोप जिनमें उनके ‘बार-बार साड़ी बदलने’ से लेकर उनकी लेखकीय प्रतिभा पर जिस प्रकार से प्रश्न चिह्न उठाए गए उसे देखकर एकबारगी तो लगता है कि दरअसल मामला जितना दिखता है उससे कहीं ज्यादा गंभीर और गहरा है। श्रवणकुमार जी अपनी पीड़ा, क्षोभ को यदि ‘साहित्यिक चोरी’ के मुद्दे तक रखते तो शायद इस विषय पर बात सार्थक हो सकती थी और हम किसी निष्कर्ष पर पहुंच सकते थे परन्तु महुआ पर उनके व्यकितगत हमले के कारण साहित्यिक चोरी जैसे मुद्दे की अहमियत खत्म हो चुकी है। अब जबकि महुआ माजी अपने पक्ष में तमाम सबूत पेश कर चुकी हैं तब उनके महुआ पर लगाये गए साहित्यिक चोरी के आरोप की बात पर वैसे भी विराम लग जाना चाहिए।
साहित्यिक चोरी कोई नई बात नहीं है अक्सर हमारे साहित्यकार ऐसे आरोप प्रत्यारोप एक-दूसरे पर लगाते रहते है। ऐसे आरोपों पर कुछ दिनों गरमा-गरमी होती है, बहसें चलती हैं फिर थोड़े दिन बाद अपने आप खुद ब खुद बंद हो जाती है। अगर यह बहस या बात मर्द लेखकों के बीच हुई तो ऐसी बातें या आरोप आरोपी के ‘शारीरिक सौष्ठव’ तक कभी नही पहुँचती लेकिन इस तरह के विवाद में यदि कही कोई लेखिका हुई तो मान लीजिए कि उसके ‘औरत होने’ या फिर उसके ‘औरत होकर फायदे उठाने’ पर पूरी बहस केन्द्रित हो जाएगी। महुआ माजी के साथ भी ऐसा ही हुआ है। किसी लेखिका पर लेखन के बहाने हुआ चरित्र हनन का यह कोई पहला केस नही है। इससे पहले आज के समय की सुप्रसिद्ध संवेदनशील कवयित्री निर्मला पुतुल इसकी शिकार रही हैं। उन पर इसी तरह से आरोप लगाकर उनकी ‘काबलियत’ को बौना साबित करने की नाकाम कोशिश की गई। निर्मला पुतुल के बारें में बार-बार एक ही बात सुनने को मिलती थी कि उनकी कविताएं कोई और लिखता है। उन पर लगे आरोप कितने बेबुनियाद हैं। कितने खेद की बात है कि दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्रात्मक कहलाने वाले इस देश में दलित-आदिवासी, महिला और अल्पसंख्यकों को अपनी ‘योग्यता’ ‘ईमानदारी’ ‘वफादारी’ और ‘क्षमता’ का सबूत बार-बार देना पडता है।
जब जब ये अस्मिताएं अपनी अभिव्यक्ति करती हैं तब-तब उन पर तीखे प्रहार किए जाते हैं यह कोई नई बात नही है। कुछ समय पहले हिन्दी की सारी लेखिकाओं को ‘छिनाल’ की ‘सम्मानित’ उपाधि से ‘विभूषित’ किया जा चुका है। अभी हाल फिलहाल ’12 दिसम्बर के इंडिया टुडे’ में तथाकथित प्रख्यात स्त्री-विमर्शकार राजेन्द्र यादव ने एक महिला रानी के साथ अपने शारीरिक संबंधों की यौन क्रिया को किसी फिल्मी ‘ट्रेलर’ की तरह दिखाया है। पूरी पिक्चर अभी बाकी है।
इन सबके बाबजूद इधर महुआ माजी और श्रवणकुमार गोस्वामी प्रकरण में महुआ के पक्ष में जो माहौल बना वह वाकई काबिलेतारीफ है। यहाँ तक की कुछ लेखक- लेखिकओं ने इस अन्याय के खिलाफ इकट्ठा होकर साथ चलने व अपने हाथ में डंडा पकड़कर ऐसे चरित्रहनन करने वालों की ठुकाई-पिटाई तक की बातें कर डालीं। ऐसा ही विरोध ‘छिनाल प्रकरण’ के समय पूरे देशभर में हुआ था। वह विरोध अपने आप में अभूतपूर्व था। लड़ाई साहित्य से लेकर सड़क और संसद तक लड़ी गई थी। राष्ट्रपति महोदया तक शिकायत दर्ज कराई गई थी।
परन्तु अंत में क्या हुआ..? हम सब जानते हैं। जोर शोर से उठा बबूला कुछ सुविधापरस्त लोगों को लड़ाई में अपना नुकसान दिखने लगा। कोई विचार, तो कोई नौकरी, और कोई दोस्ती की खातिर लड़ाई से मुंह मोड़कर चला गया। हमारी लड़ाइयां सत्ता के गलियारों और मठाधीशों के करीब रहने व उनके प्रिय बने रहने के चक्कर में टुकड़ों में बँट ही नही गई अपितु खत्म भी कर दी गई।
हमारी लड़ाई अलग-अलग लोकेशन पर अलग-अलग रुख अख्तियार कर लेती है क्योंकि हमारी लड़ाई सलेक्टिव होती है। जो सत्ताहीन है, अकेला है, कमजोर है, निर्बल है, हम उसके खिलाफ पूरी ताकत से खड़े हो जाने की रोमांटिक बाते करने लगते हैं, लेकिन जो ताकतवर हैं, सत्ता का केन्द्र बन चुके हैं, मठाधीशों की पदवी पा चुके हैं उनके खिलाफ ना जाने क्यों एकदम चुप्पी साध जाते है। दुख की बात तो यह कि इनको मठाधीश बनाने में, विमर्शकार की उंची पदवी पर बैठाने में व सत्ता का केन्द्र बनाने में कहीं ना कही हमारा भी हाथ और सहयोग दोनों ही है।
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अनीता भारती |
कभी-कभी लोग अपने अंदर जरा क्रांतिकारी होने का भ्रम पाले, विद्रोही होने के लक्षणों को जिदा रखने के लिए हुए इन सत्ताशासकों के खिलाफ लड़ना तो चाहते हैं पर अपने तमाम जोड़-तोड़, हिसाब किताब बैठाते हुए ही, बिना किसी नुक्सान के। यही कारण है कि आज भी जब वर्धा का कुलपति सबको ‘छिनाल’ घोषित करने के बाद हममें से कुछ के घरों की शोभा बढ़ाता फिरता है और आज भी जब ‘बीमार मानसिकता’ के बहाने स्त्रियों को मात्र माँसल देह के रूप में देखते हुए केवल और केवल ‘देहविमर्श’ को ही ‘स्त्री विमर्श’ की कसौटी मानने पर मजबूर करने की हैसियत दिखा रहा हो तो ऐसे मैं हम अपनी कितनी लेखिका बहनों से उम्मीद कर सकते हैं कि वे इन सत्ताशीन-मठाधीश-प्रभावशाली लोगों के गलियारों में भटकना छोड़ ‘देह विमर्श’ के अलावा स्त्री-समाज के अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर बात करना शुरू करेंगी?
‘प्रभात वार्ता’ से साभार
‘प्रभात वार्ता’ से साभार